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October 2021 Blog Posts (33)

ग़ज़ल - मिश्कात अपने दिल को बनाने चली हूँ मैं

वज़्न -221 2121 1221 212

हस्ती में उसकी ख़ुद को मिलाने चली हूँ मैं

यानी कि अपने आप को पाने चली हूँ मैं

दरिया सिफ़त हूँ आब है मुझ में उसी का और

जानिब उसी की प्यास बुझाने चली हूँ मैं

रौशन चराग़ सा वो रहे मुझ में इसलिए

मिश्कात* अपने दिल को बनाने चली हूँ मैं

जिस ख़ाक से बनी हूँ फ़ना उस में ख़ुद को कर

मिट्टी वजूद अपना बचाने चली हूँ मैं

जब वो है मेरे गिर्द हवा-सा तो किस लिए

अपने क़रीब उस को बुलाने चली हूँ मैं

रहकर बदन की क़ैद में…

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Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 10, 2021 at 5:42pm — 10 Comments

ग़ज़ल: किसी कँवल का हंसीं ख़ाब देखने के लिये

1212 1122 1212 112

यूँ उम्र भर रहे बेताब देखने के लिये

किसी कँवल का हंसीं ख़ाब देखने के लिये

कहाँ थे देखो सनम हम कहाँ चले आये

वो गुलबदन के वो महताब देखने के लिये

न जाने कब से हक़ीक़त की थी तलब हमको

न जाने कब से थे बेताब देखने के लिये

छुआ तो जाना हर इक ख़्वाब था धुआँ यारो

बचा न कुछ भी याँ नायाब देखने के लिये

क़रीब जा के हर एक चीज खोयी है हमने

लुटे हैं ज़िंदगी शादाब देखने के…

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Added by Aazi Tamaam on October 10, 2021 at 12:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल: संगदिल गर ज़िन्दगी है उस से टकराना भी क्या ...!

संगदिल गर ज़िन्दगी  है उससे टकराना भी क्या ।

फोड़कर सर अपना यारो रोना चिल्लाना भी क्या ।।

ज़िन्दगी गर है चुनौती मुँह छिपाकर जीना क्या ।

हाथ  दो - दो होने  दो फिर सच को झुठलाना भी क्या 

कीमती आँसू हैं तेरे वो निशाँ जुल्म ओ सितम, 

बंद दरवाजों के आगे  सर वो फुड़वाना भी  क्या ।

कर खुदा की  बन्दगी  और एहतराम उसका  कर ले, 

लोग  ही क़मज़र्फ हैं गर उनको जतलाना भी  क्या ।

नोंचनी  लाशें हैं उनको कौम को है…

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Added by Chetan Prakash on October 10, 2021 at 7:25am — No Comments

मुक्तक (आधार छंद - रोला )

मुक्तक

आधार छंद - रोला

10-10-21

छूट गए सब संग ,देह से साँसें छूटी ।

झूठी देकर आस, जगत ने खुशियाँ लूटी ।

रिश्तों के सब रंग ,बदलते हर पल जग में -

कैसे कह दें श्वास ,देह से कैसे टूटी ।

---------------------------------------------------

बहके-बहके नैन, करें अक्सर मनमानी ।

जीने के दिन चार, न बीते कहीं जवानी ।

अक्सर होती भूल, प्यार की रुत जब आती -

भर देती है शूल, जवानी मैं नादानी  ।

सुशील सरना…

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Added by Sushil Sarna on October 9, 2021 at 4:38pm — 5 Comments

ग़ज़ल

22, 22, 22, 22,

1)कितनी बातें करते हो तुम

ख़ाली बातें करते हो तुम

2)तुमको कोई मरज़ है क्या बस

अपनी बातें करते हो तुम

3) सीधा बंदा हूँ क्यों मुझसे

उल्टी बातें करते हो तुम

4)छुप कर मिलने क्यों आऊँ मैं

ख़ाली बातें करते हो तुम

5)होने लगता है कुछ दिल में

जब भी बातें करते हो तुम

6) चाँद सितारों से क्या अब भी

मेरी बातें करते हो…

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Added by Md. Anis arman on October 7, 2021 at 8:42pm — 6 Comments

हे राम (लघुकथा)-

मोहन दास जब यमराज के सामने पहुंचे,"मोहन जी, जब आपको गोलियाँ लग गयीं और आप लगभग मरणासन्न हो गये तो उस वक्त राम को पुकारने का क्या तात्पर्य था?”

"महोदय, आप मेरे "हे राम" उच्चारण का अर्थ शायद समझ नहीं सके।

"क्या इसमें भी कोई गूढ़ रहस्य है? मेरे विचार से तो यह एक मरते हुए व्यक्ति द्वारा अपने इष्ट देव से अपनी रक्षा हेतु मात्र एक याचना…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 7, 2021 at 11:30am — 8 Comments

ग़ज़ल-रो पड़ेगा....बृजेश कुमार 'ब्रज'

1222     1222      122   

मिलेगा और  मिल  कर रो पड़ेगा

मुझे  देखेगा  तो  घर  रो  पड़ेगा



न जाने क्यों कहाँ खोया रहा हूँ

मेरी  आहट पे ही दर   रो पड़ेगा



मुझे  वो  भूल  जाने  के  लिये ही

करेगा  याद  अक़्सर  रो  पड़ेगा



हँसी मुस्कान होंठों  पे  सजाकर

कोई  इंसान  अंदर  रो  पड़ेगा



भले  ही  मौत  दे  देगा  मुझे पर

वो क़ातिल और खंज़र रो पड़ेगा



तुम्हारी आँख  से आँसू बहे गर

यहाँ  'ब्रज' में समंदर रो…
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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 5, 2021 at 3:00pm — 10 Comments

श्रध्दांजलि

बेमौसम पतझड़ आया हो जैसे

पेड़ से झड़ते पत्तों-सी थर्राती

परिक्लांत पक्षी की पुकार

बींधती कराह-सी

सारी हवा में घुल गई

शोक समाचार को सुनते ही

आज अचानक

हवा जहाँ कहीं भी थी

वहीं की वहीं रूक गई

कि जैसे वह दिवंगत आत्मा

मेरे मित्र

केवल तुम्हारी माँ ही नहीं, वह तो

सारी सृष्टि की माँ रही

पेड़, पत्ते, पक्षी, मुझको, तुमको

एक संग सभी को

आज अनाथ कर गई

 

पुनर्जन्म सच है यदि तो कैसे कह…

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Added by vijay nikore on October 3, 2021 at 3:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल नूर की - जिस दिन से इकतरफ़ा रिश्ता टूट गया

जिस दिन से इकतरफ़ा रिश्ता टूट गया 

सुनते हैं वो पागल लड़का टूट गया.

.

थामा ही था हाथ तुम्हारा मैंने बस

और अचानक मेरा सपना टूट गया.

.

अब ये आँखें कोई ख्वाब नहीं बुनतीं

पिछली नींद में मेरा करघा टूट गया.

.

अपने लालच को तुम काबू में रक्खो

वो देखो इक और सितारा टूट गया.

.

एक ज़रा सी बात से बातें यूँ बिगडीं

फिर तो जैसे हर समझौता टूट गया.

.

आप अदू से दूर हुए ये नेमत है

बिल्ली की क़िस्मत से छींका टूट गया.

.

कह…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 3, 2021 at 9:30am — 16 Comments

कैसे कैसे लोग यहाँ -(गजल)-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



छीन के उनका पूरा बचपन कैसे कैसे लोग यहाँ

काट रहे हैं  अपना  जीवन  कैसे कैसे लोग यहाँ।२।

*

पाने को यूँ नित्य शिखर को साथी देखो दौड़े जो

कर बैठे औरों  को  साधन  कैसे  कैसे लोग यहाँ।२।

*

स्वार्थ सधे तो अपनों से भी झूठ छिपाने साथी यूँ

कीचड़ को कह  देते  चन्दन कैसे कैसे लोग यहाँ।३।

*

साध न पाये यार सियासत उस खुन्नस में देखो तो

बाँट रहे हैं मन का …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 3, 2021 at 6:30am — 12 Comments

शास्त्री जी

अगर राष्ट्रपिता के नाम से महात्मा गांधी को याद किया जाता है वही उजास की लकीर बिखेरने। वाले नैतिक मूल्यों को स्थापित करने में शास्त्री जी को याद किया जाता है। संपूर्ण भारतीयता का उदाहरण शास्त्री जी के विषय में राम मनोहर लोहिया जी ने कहा था कि भारतीयता को जो तीन कसौटियाँ भाषा भूसा और भवन बांधी थी, शास्त्री जी उसका स्पष्ट प्रतिबिंब हैं। सादगी प्रिय शास्त्री जी करूणामयी अग्रगामी सोच वाले ऐसे दार्शनिक प्रधानमंत्री थे जिनके संस्कार व नैतिकता व्यक्तिवाद और परिवारवाद से परे थी। अपने पद व प्रतिष्ठा…

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Added by babitagupta on October 2, 2021 at 3:28pm — 3 Comments

ग़ज़ल-घर बसाना था

2122 / 1212 / 22





1

दिल का रिश्ता यूँ भी निभाना था

फिर से रूठा ख़ुदा मनाना था

2

चार ईंटें टिका के निस्बत की

आदमीयत का घर बसाना था…

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Added by Rachna Bhatia on October 2, 2021 at 12:23pm — 6 Comments

दर्द से यारी

हर संगदिल को दिल का पता बता दिया

जितने बेवफा मिले सबको घर दिखला दिया

सभी ने छोड़ दिया जिस ग़म को खुशी के खातिर

हमे जहाँ भी दिखा,उसे हंसके गले लगा लिया

साथ हो दर्द तभी जीने का मज़ा आता है

ग़म जुदाई का हो तो पीने का मज़ा आता है

छुपा के रख सके जो दर्द को जहन मे अपने

ज़ख्मों को सीने का मज़ा बस उसी को आता है

खुशी है बुलबुला एक दिन फूट जाएगा

हंसाया इसने जितना, उतना ही रुलाएगा

हमसफर है सच्चा ग़म ही अपना यारों

जो…

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Added by AMAN SINHA on October 1, 2021 at 11:30am — 1 Comment

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