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August 2015 Blog Posts (185)

हम भी दबंग हैं, दमदार किसम के

221 122 221 122



एक नए किस्म की- नए प्रयोग वाली ग़ज़ल

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मुस्कान दिखा के, बे-हाल बना के।

होंठों की लकीरों, का जाल बिछा के।।



यूँ आँख मिला के, जो तीर चलाया।

आया हूँ मैं जाना, दरख्वास्त लिखा के।।



जाओ न ज़रा तुम, जाओगे कहाँ अब।

दीवाने दरोगा, की नींद उड़ा के।।



संगीन दफ़ा है, चालान करेंगे।

करना है हवाले, तुमको वफ़ा के।।



तुम्हें प्रेम पाश में, गिरफ्तार करेंगे।

हम भी दबंग हैं, दमदार… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 23, 2015 at 11:30am — 13 Comments

होश खोने की तलब है और मयखाना वहाँ

होश खोने की तलब है और मयखाना वहाँ।

है असम्भव आदतों को छोड़ दे पाना यहाँ।।



किस तरह तन्हा गुज़ारें ज़िंदगी का ये सफ़र।

नींद आँखों में नहीं कैसे हो सो जाना यहाँ।।



राह सुनी ही रही अब तक निगाहें हैं खुली।

आज भी हासिल रहा उनका नहीं आना यहाँ।।



चैन का आलम न पूछें नब्ज़ में तूफ़ान है।

है कठिन बरसात के मौसम को रुकवाना यहाँ।।



हसरतों की नाव सागर के हवाले छोड़ना।

एक मांझी की ख़ता मुश्किल है बतलाना यहाँ।।



कोई उनको बोलिये नैनों के सागर के… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 23, 2015 at 11:30am — 13 Comments

दर्द (लघुकथा)

"दामादजी को छोड़ना चाहवे है, अरे! पति बिना भी कोई जगह होवे है औरत की।" पति को छोड़ मायके आयी बेटी को माँ समझाना चाह रही थी।

"माँ! मैं कोई भी काम कर अपनी बच्ची पाल लूँगीं लेकिन अब वापिस नही जाऊँगी।"

"ये क्या कह रही है तु छोरी, ऐसा आखिर क्या हो गया?"

बस माँ। मैं 'उस नशेबाज' को और बर्दाश्त नही कर सकती, सारा दिन बस पीना, हंगामा करना और.......।"

"तो क्या हुआ छोरी, तेरा बापू न पिये, मैंने तो न छोड़ दिया उसे।" माँ ने कुछ तमक कर बेटी की बात काट…

Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 23, 2015 at 11:00am — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

221—2121—1221—212

 

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो

बेचैन हो गया है बशर  फिर नकाब दो

 

इस तिश्नगी से हम न कभी मुतमईन थे…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 9:30am — 20 Comments

ग़ज़ल : उनकी आँखों में झील सा कुछ है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

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उनकी आँखों में झील सा कुछ है

बाकी आँखों में चील सा कुछ है

 

सुन्न पड़ता है अंग अंग मेरा

उनके हाथों में ईल सा कुछ है

 

फैसले ख़ुद-ब-ख़ुद बदलते हैं

उनका चेहरा अपील सा कुछ है

 

हार जाते हैं लोग दिल अकसर

हुस्न उनका दलील सा कुछ है

 

ज्यूँ अँधेरा हुआ, हुईं रोशन

उनकी यादों में रील सा कुछ है

--------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 23, 2015 at 12:00am — 16 Comments

हम "पत्थर" भी पूजे जाते

आ जाते इक बार अगर जो

तुम हमको भी चूमे जाते।

कई शिलाएं देव हुई हैं

हम "पत्थर" भी पूजे जाते।।



राहों में बेजान पड़े हैं

अपनी गति को ढूंढ रहे हैं।

कभी इधर तो कभी उधर को

राहों में बस घूम रहे हैं।।



अपने सुर्ख गुलाबी वाले

मुझमें रंग जो भरके जाते।

कई शिलाएं देव हुई हैं

हम "पत्थर" भी पूजे जाते।।1।।



ये तन है पर प्राण नहीं है

सांस का कुछ भी पता नहीं है।

दिल तो है पर शांत बहुत है

जीवित हूँ यह एक भ्रान्ति… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 21, 2015 at 10:06pm — 15 Comments

बहुत ज़रूरी है

तेरी आँखों की पलकों का, उठना बहुत ज़रूरी है।

इस चेहरे पर प्रेम पत्र है, पढना बहुत ज़रूरी है।।



कितनें सपनें इन आँखों नें, बुन रक्खे हैं तेरे लिए।

इन आँखों का हर इक पन्ना, खुलना बहुत ज़रूरी है।।



इस सीनें में जो इक दिल है, सरगम कोई सुनाता है।

धड़कन की इस मधुर राग को, सुनना बहुत ज़रूरी है।।



मेरे अधरों पर सदियों की, प्यास नें रेखाएं खींची हैं।

मधु सिंचन कर रेखाओं का, मिटना बहुत ज़रूरी है।।



इस बस्ती का घना अँधेरा, अपने चाँद को ढूंढ रहा… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 21, 2015 at 7:27pm — 11 Comments

मेरी चिंता मत न कर तू दिल की चिंता जारी रख

2222 2222 2222 222



मेरी चिंता मत न कर तू दिल की चिंता जारी रख,

कितने बलवे झेले तूने, यारों से अब यारी रख ।



उसके ज़ुल्मों से तंग आकर मर्यादा न भूलो तुम,

कर्मों का सब लेखा है ये अपना मन न भारी रख ।



जब देखो वो सरहद पर, बारूदी खेलों में मशगूल,

ताँका-झांकी बंद न होगी अपनी भी तैयारी रख ।



कब तक बिजली गर्जन कर तू बादल पर मंडरायेगी,

पापी तुझको भूलें हैं सब, अपनी भागीदारी रख ।



मैखाने में गिर कर उठना पीने वालों का दस्तूर,

गिर न… Continue

Added by Harash Mahajan on August 21, 2015 at 5:28pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ऑक्सीजन - (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

“अब परेशान होने से क्या होगा? मैंने पहले ही कहा था कि इतनी उधारी मत करो.”

“गज़ब बात करती हो सुधा. अगर उधार नहीं लेते तो अनु की पढ़ाई का क्या होता?”

“क्या अनु यहीं नहीं पढ़ सकती थी? कितना कहा, पर आपको तो.... जवान बेटी को विदेश भेज दिया ... बरमंगम में पढ़ाएंगे”

“बरमंगम नहीं यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्मिंघम इन ग्रेट ब्रिटेन”

“जिस जगह का नाम तक याद नहीं रहता, वहां भेज दिया बेटी को और अब परेशान हो रहे है.”

“अरे मैं परेशान इसलिए हूँ कि संपत भाई इसी हप्ते चार लाख वापस मांग रहे…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on August 21, 2015 at 3:41am — 20 Comments

पराश्रित तो नहीं (लघुकथा )

"मम्मी स्कूल की नौकरी , बिट्टू को पढ़ाने के बाद रात का खाना बनाना मेरे बस की बात नहीं हैं।"
"लेकिन बहू घर का अन्य काम तो इस उम्र में भी मैं ही करती हूँ तो क्या तुम एक समय का खाना भी नहीं बना सकती ?"
"नहीं बना सकती क्योकि मैं नौकरी करती हूँ , आपकी तरह घर में नहीं बैठी रहती "
ससुरजी हस्तक्षेप करते हुए -
"बस बहुत हो गया बहू , आज से तुम अपनी गृहस्थी देखो और हम अपनी जिम्मेदारी खुद उठा लेंगे और फिर हम पराश्रित भी तो नहीं हैं ।"

मौलिक और अप्रकाशित

Added by Archana Tripathi on August 21, 2015 at 12:00am — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कौन कहता है कि मैं गिर के धुआँ हो जाऊँगा

2122 2122 2122 212

कौन कहता है कि मैं गिर के धुआँ हो जाऊँगा

मैं गिरा तो जानिये आबे रवाँ हो जाऊँगा



जब तलक ज़िंदा हूँ तेरी खैर है ऐ नामुराद

जी न पायेगा अगर मैं जाविदाँ हो जाऊँगा



इस ज़मीं के ख़ुल्द हो जाने की चर्चा आम है

ये न समझे कोई मैं भी हमज़बाँ हो जाऊँगा



ये क़लम मजबूरियों ने बाँधकर तो रख दिया

खुश न हो ये सोचकर मैं नातवाँ हो जाऊँगा



फ़ाइदा क्या रोकने से यूँ मेरी आवाज़ को

ख़ामुशी खुद बोल उठेगी चुप जहाँ हो… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on August 20, 2015 at 9:41pm — 8 Comments

गुलाबी जिल्द वाली डायरी [कविता ]

वो थी एक डायरी

गुलाबी जिल्द वाली

अन्दर के चिकने पन्ने

खुशनुमा छुअन लिए

मुकम्मल थी एकदम

कुछ खूबसूरत सा

लिखने के लिए I

 

सिल्क की साड़ियों की

तहों के बीच,

अल्मारी में सहेजा था उसे   

उन मेहंदी लगे हाथों ने,  

सेंट की खुशबू

और ज़री की चुभन

 को   करती रही थी वो  जज़्ब,

हर दिन रहता था      

बाहर आने का  इंतज़ार 

अपने चिकने  पन्नों पर

प्यारा सा कुछ

लिखे जाने का इंतज़ार…

Continue

Added by pratibha pande on August 20, 2015 at 5:00pm — 17 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या ( गिरिराज भंडारी )

2122 1212    112 /22

डर के यूँ ज़िन्दगी बची तो क्या

और अगर बच नहीं सकी तो क्या

 

देख क्या आदमी ही जीता है ?

आदमी में है आदमी तो क्या

 

जब कहे को नही समझते हैं 

रह गई बात अनकही तो क्या

 

भूख आदाब कब  समझती है

बे अदब थोड़ी हो गयी तो क्या  

 

जारी फिर चाँद ने किया फतवा

बे असर चाँदनी रही तो क्या

 

फूल पत्तों में आज खुशियाँ हैं

जड़ अँधेरों से है घिरी तो क्या

 

दुन्दुभी…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 20, 2015 at 9:56am — 20 Comments

अति का अंत ( लघुकथा )

अति का अंत



परलोक में सृष्टि के रचयिता, मनुष्यों के कृत्यों से काफ़ी परेशान थे |



रचयिता ने पहले ही भू-लोक में महान हस्तियों के रूप में अवतरित होकर मनुष्यों को सही राह पर चलने की शिक्षा दे चुके थे, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी |



उन्होंने अपने शिल्पकार को बुला कर कहा, " मनुष्यों ने अब बहुत अति कर ली है, जल्द ही इनके अति का अंत करना होगा | "

"पर मनुष्य तो आपको सबसे प्रिय है ना, फिर उनको..? " शिल्पकार ने कहा |

"प्रिय तो मुझे वो जीव भी थे जिन्हें मनुष्य… Continue

Added by Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' on August 19, 2015 at 3:53pm — 10 Comments

कविता "परेशानी"

सोच रही हूँ आज कौन सा गीत लिखूँ जी

आडी -तिरछी रेखाओं में भाव भरूँ जी।



मन उड़ भागा लेकर भाव के सारे पन्ने।

दिक करते हैं बोल पडौस में गव रहे बन्ने।



कभी किसी कोयलिया ने कुहु टेर लगाई ।

खुशबू पहले बौर की मुझ तक दौड़ी आई।



डाल पे झूले बैठीं सखियाँ झूल रही हैं।

मन की चिड़िया शब्द भी सारे भूल रही है।



काला कौवा बैठ मुंडेरी चीख रहा है।

आता दूर पथिक भी कोई दीख रहा है।



रात चाँदनी साज लिए लो बैंठ गई है ।

नई बहुरिया सास से…

Continue

Added by Mamta on August 19, 2015 at 3:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल : जहां था अंधेरा घना जिंदगी का

122 122 122 122

जहॉं था अंधेरा घना जि़दगी का

वहीं से मिला रास्‍ता रोशनी का

 

सलीबें न बदली न बदले मसीहा

वही हाल है आज तक हर सदी का

 

सितारे फलक से न आये उतर कर

हुआ कब ख़सारा किसी आशिकी का

 

न तुम रो सके औ हमारी अना को

सहारा मिला आरज़ी ही खुशी का

समन्‍दर सुख़न के तलाशे बहुत से

ख़जा़ना मिला है तभी शाइरी का

 

पिया है वही जाम जो दे ख़ुदाई

न अहसां उठाया न बदला…

Continue

Added by Ravi Shukla on August 19, 2015 at 3:00pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इस फ़िजूली से बेहतर यही, कुछ न कुछ आप करते रहें--- (ग़ज़ल)--- मिथिलेश वामनकर

212—212—212----212—212—212

 

वो बदलते नहीं है अगर,  तो फ़क़त इतना चल जाएगा

आप खुद ही बदल जाइए, ये ज़माना बदल जाएगा

 

बात इतनी सी है ये मगर, नासमझ बन के बैठे…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on August 19, 2015 at 9:30am — 15 Comments

नई पीढ़ी ( लघुकथा )

बेटे के पास विलायत गए दीवान जी को पोते पोतियों की चाल ढाल अच्छी नही लग रही थी | उनका रातों को देर से आना, बेढंगे कपड़े पहनना, घर पर ही दोस्तों के साथ मदिरा का सेवन आदि उनको बिलकुल भी बर्दास्त नही हो रहा था |

एक दिन घर पर पार्टी चल रही थी | डीजे के तीव्र संगीत के साथ जम के मदिरापान करते लड़के-लड़कियों का हुल्लड़ करना उनको रास ना आया और उन्होंने बेटे से कह डाला कि, " ये सब क्या है विमल ? "

"बाबू जी नई पीढ़ी है | "

"नई पीढ़ी है तो क्या इस तरह..... ? "

"ये अपनी तरह से जीना चाहते…

Continue

Added by Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' on August 19, 2015 at 1:00am — 7 Comments

गजल ...चाँद तारो से कभी पूंछा नही

बहर -2122/2122/2122/212



आज हम यह सोचते है के बिछड़ कर क्या मिला

हाँ ये सच है जो मिला उसका अलग रस्ता मिला



सोचता हूँ चाँद तारों से ज़रा मै पूछ लूँ

क्या तुम्हे भी राह में जो भी मिला तन्हा मिला



आज आँगन में कही तारा नहीं यादों भरा

छिप के कोने में पड़ा घर का हँसी प्याला मिला



मौसमो की ही तरह है इश्क की आबो हवा

जब चली तो घर मेरा दरका कही टूटा मिला



देख कर अंजाम अपना मैं बहुत हैरान हूँ

चल पड़ा जिस रास्ते पर वो ग़मों से जा…

Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on August 18, 2015 at 11:00pm — 15 Comments

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