For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

July 2013 Blog Posts (255)

सावन है अति पावन | वीर छंद |

जब घिर बदरा  रिम झिम बरसे  , तब दादुर नाचे बन  मोर |
पवन बहे जब झूम झूम के , तब घासें झूमें झकझोर  |
चाँद छुप छुपआये गगन में , जनु   चाँदनी छुपे हर ओर | 
आया है मन भावन सावन , सब कजरी गावें चहुओर | 
डाली झूम जनु  गुनगुनायें , कोयल भी गाये दिल…
Continue

Added by Shyam Narain Verma on July 27, 2013 at 5:30pm — 5 Comments

मन तक आना शेष रहा - (रवि प्रकाश)

मैंने बस धीरज माँगा था,तुमने ही अधिकार दिया;

कितने पत्थर रोज़ तराशे,फिर मुझको आकार दिया।

बादल,बरखा,बिजली,बूँदें,क्या कुछ मुझमें पाया था;

पथ-भूले को इक दिन तुमने,दिग्दर्शक बतलाया था।

लेकिन मेरे पथ पर चलना,श्रद्धा लाना शेष रहा।

धड़कन के दरबान बने तुम,मन तक आना शेष रहा॥

आशा को थकन नहीं होती,इच्छा को विश्राम कहाँ;

जब तक साँसों में उष्मा है,जीवन को आराम कहाँ।

कण-कण जमते हिमनद में भी,बाक़ी रहता ताप कहीं;

मनभावन आलिंगन में भी,छू जाता संताप…

Continue

Added by Ravi Prakash on July 27, 2013 at 5:30pm — 7 Comments

जिंदगी दूर तक !

सम्मानीय सादर नमन !!

 मेरी पहली पोस्ट आप सब के हवाले
 ************************************
जिंदगी दूर तक !
तीरगी दूर तक !!
 
दिखती अब नहीं ,
रौशनी दूर तक !!
 
आँखों में ख्वाब थे ,
है नमी दूर तक !!
 
ले के आयी हमें ,
तिश्नगी दूर तक !!
 
मैं गलत ही सही ,
तू सही दूर तक !!
 
लुत्फ़ देने लगी…
Continue

Added by arvind ambar on July 27, 2013 at 8:30am — 9 Comments

दो शब्द (राम शिरोमणि पाठक)

१-सहनशीलता

उत्पीडन की क्रीडा से उत्पन्न श्रान्ति से

पिंग बने टहल रहे

अकारण ही रंज रुपी हरिका खे रहे

मोषक को पोषक कहते

वाह!सहनशीलता की पराकाष्ठा

शायद!

खुद को काकोदर के मुख में फसा

मंडूक मान बैठे है

२-लिखता रहा

हृदयतल के तड़ाग से

अनकहे शब्द

अकुलाहट के साथ

बुलबुले बन

निकलते रहे निकलते रहे

पीड़ा है क्या ? नहीं तो

प्रेम है

विरह है

पता नहीं

फिर भी मै …

Continue

Added by ram shiromani pathak on July 26, 2013 at 8:30pm — 20 Comments

नवगीत//उत्तर यहीं अड़ा है//'कल्पना रामानी'

 

पावस का इस बार भूमि पर

प्यार बहुत उमड़ा है।

लेकिन क्या सुख संचय होगा?

संशय नाग

खड़ा है।

 

मक्कारी, गद्दारी, लालच,

शासन के कलपुर्ज़े। 

बूँद-बूँद को चट कर देंगे,

घन बरसे या गरजे।

 

भरे सकल जल-स्रोत लबालब,

सागर ज्वार चढ़ा है।  

मगर उसे नल नहलाएगा?

चिंतित मलिन

घड़ा है।

 

बन मशीन मानव ने भू के,

रोम-रोम को वेधा।

क्यों कुदरत फिर क्षुब्ध न होगी,

रुष्ट न…

Continue

Added by कल्पना रामानी on July 26, 2013 at 7:27pm — 17 Comments

जल उठा मन का दिया // गीत

जल उठा मन का दिया 

प्रियतम! मिले हो जब से !

भोर हुयी है जीवन में

तमस रात थी कब से ! 

सांसो में तेरी ही खुशबु 

तुझको पाया जब से !

फूल खिले मन-उपवन में 

बीता पतझड़ जब से !

रक्त वाहिनी मद्धम मद्धम 

छुआ है तुमने जब से !

                     जितेन्द्र 'गीत

मौलिक/अप्रकाशित  

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2013 at 5:30pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
चौमासा

पोखर छल छल जल भरे ,धुले धुले मैदान|

काई ने पहना दिए , हरित नवल परिधान||

धरती अंतर में छुपा,दादुर जीव विचित्र|  

नव चौमासे ने कहा ,बाहर आजा मित्र|| 

मुक्तक फूटें  मेघ से ,टपर टपर टपकाय |    

प्यासा चातक चुन रहा,चरुवा भरता जाय|| 

 …

Continue

Added by rajesh kumari on July 26, 2013 at 4:30pm — 13 Comments

काश !

काश! 

आरजू मै करु मिलने की, और वो रुबरु हो जाये ।

काश ! मेरी मोहब्बत की, ऐसी तासीर हो जाये ।।

न शिकवा ना शिकायत हो कोई भी खुदा से ।

काश!  ऐसा हर कोई खुश नसीब हो जाये…

Continue

Added by बसंत नेमा on July 26, 2013 at 2:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल : हुई है सभ्यता गायब

बहर : हज़ज़ मुरब्बा सालिम

......... १२२२, १२२२ .........

अलग बेशक हुए मजहब,

सभी का एक लेकिन रब,

नज़र में एक से उसके,

भिखारी हो भले साहब,

जिसे जितनी जरुरत है,

दिया उसको उसे वो सब,

सभी को एक सी शिक्षा,

खुदा का बाँटता मकतब,

(मकतब : विद्यालय)

मुसीबत में पुकारे जो,

चले आयें बने नायब,

(नायब : सहायक)

अजब ये दौर आया की,

हुई है सभ्यता…

Continue

Added by अरुन 'अनन्त' on July 25, 2013 at 9:23pm — 13 Comments

हल्द्वानी में आयोजित ओ बी ओ 'विचार गोष्ठी' में प्रदत्त शीर्षक पर सदस्यों के विचार : अंक १

आदरणीय साहित्यप्रेमी सुधीजनों,

सादर वंदे !

 

ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति…

Continue

Added by Admin on July 25, 2013 at 8:00pm — 26 Comments

पिता

मेरे दादाजी को श्रद्धांजली स्वरूप कुछ पंक्तियाँ  

पिता! 

तुम छत थे

ढह गये

तीव्र उम्र तूफान से

दरक गयीं दीवारें

लगाव ख़त्म

आपसदारी 'थी'

'है' नही

न कोई बचाव

धूप से

या बारिश से

शीत से

या गैरों से

न रहा घर

रह गया ढेर

ईंटों का

तुम थे 'एक छत'

हम 'चार दीवारें'

मिटा दिया हमने

अहसास

तुम्हारे होने का

तुम गये, शेष

एक प्रश्न

अवशेष …

Continue

Added by वेदिका on July 25, 2013 at 8:00pm — 19 Comments

जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई [गजल]

बहर में लिखने का प्रथम प्रयास 

2 1 2  2 1 2  2 1 2  2 1 2

.

जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई

प्यास मेरी अधूरी यही रह गई

आशियाने बहे ना डगर ही मिली

सूचना आसमानी धरी रह गई



घोर तांडव हुआ खैर पा ना सके

फूल तोडा गया बस कली रह गई

ये कयामत चली लेखनी की तरह

ख़्वाब टूटे मगर चोट भी रह गई

ये ख़ुशी नागवारी खुदा को हुई

तो अकड़ आदमी की धरी रह गई

पेड़ काटे अगर तो सही त्रासदी

पेड़ रोपे…

Continue

Added by Sarita Bhatia on July 25, 2013 at 7:30pm — 15 Comments

जब तुम साथ न थे

जब तुम साथ न थे

प्रेम सुप्त पड़ा था

दिल मे दर्द बड़ा था

मरहम था तेरे पास 

जब तुम साथ न थे ...............

 

हर रोज एक आशा

कब होगे मेरे पास,

मेरा दिल तेरे पास

तेरा दिल मेरे पास

जब तुम साथ न थे ..............

 

राह तकती थी अँखियाँ

सूनी सी थी पगडंडियाँ

न महकती थी फुलवारियाँ

बढ़ती जाती थी दुश्वारियाँ 

जब तुम साथ न थे ....................

 

 

तेरा मुझको…

Continue

Added by annapurna bajpai on July 25, 2013 at 5:00pm — 9 Comments

तुझे इकरार हो तो चली आना।

कभी न आएँगे तेरे दर पे

कि तेरे बिना

जीना मंजूर है हमें

कभी न ताकेंगे तेरे राह

कि तेरे बिना

जीना मंजूर है हमें।



एक आशियाना मिला था,

एक फूल खिला था,

जो मुरझा गया समय से पहले

उस फूल को लेकर

अब मैं कहाँ जाऊँ।



जिसमे सजानी थी

बचपन की यादें,

समेटनी थी कुछ खुशियाँ

तेरे साथ उन खुशियों को

ढूंढने अब मैं कहाँ जाऊँ।



एक शाम बितानी थी तेरे संग

दुनिया को भूलकर

आसमान छूना था,

उन सपनों को लेकर

अब मैं कहाँ…

Continue

Added by Lata tejeswar on July 25, 2013 at 4:00pm — 12 Comments

उस पार

सोचता हूँ

क्या होगा

इस नीले आकाश के पार

 

कुछ होगा भी

या होगा शून्य

 

शून्य

मन सा खाली

जीवन सा खोखला

आँखों सा सूना

या

रात सा स्याह

 

कैसा होगा सबकुछ

होगी गौरैया वहां?

देह पर रेंगेंगी

चीटियाँ?

 

या होगा सब

इस पेड़ की तरह

निर्जन और उदास;

सागर की बूँद जितना

अकल्पनीय

 

बिना जाए

जाना कैसे जाए

और जाने को…

Continue

Added by बृजेश नीरज on July 25, 2013 at 10:30am — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
औक़ात

(1)

औक़ात

भोर की दहलीज पर बैठा मैं,

ललचायी इच्छाएँ लेकर,

पर्वत निहार रहा था –

उनके शरीर से लुढ़क कर

वादियों में फैलती,

प्रभात की पहली किरण ने,

मुझे,

मेरी औक़ात बता दी.

 

(2)

दिन के झरोखे में बैठे

एक लम्बी सांस खींचे,

मैंने सूरज बनने की ठानी –

तैरते हुए बादल के

एक छोटे से टुकड़े की

छोटी सी छाँव ने,

मुझे,

मेरी औक़ात सिखा दी.

 

(3)

गोधूलि के धुँधलके में छिपकर

मैंने,…

Continue

Added by sharadindu mukerji on July 25, 2013 at 1:00am — 12 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

-एक दुधमुँहा प्रयास-

बहर -ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ

.

पाँव कीचड़ से सने हैं और मंज़िल दूर है।

शाम के साए घने हैं और मंज़िल दूर है॥



तुम मिलोगे फिर कहीं इस बात के इम्कान पे,

फास्ले सब रौंदने हैं और मंज़िल दूर है॥

कौन हो मुश्किलकुशा अब कौन चारागर बने,

घाव ख़ुद ही ढाँपने हैं और मंज़िल दूर है॥

कल बिछौना रात का सौगात भारी दे गया,

अब उजाले सामने हैं और मंज़िल दूर है॥

धड़कनें भी मापनी हैं थामनी कंदील भी,

रास्ते…

Continue

Added by Ravi Prakash on July 24, 2013 at 10:30pm — 14 Comments

फिर कोई आग बुन

फिर कोई आग बुन

क्यों बुझा- बुझा सा है,फिर कोई आग बुन

छेड़ कर सुरों के तार ,फिर कोई राग चुन ।

 

गहन अँधेरी रात में.भोर कीआवाज़  सुन

नींद से जाग जरा,फिर कोई ख्वाब बुन ।

 

मन की हार, हार है,हार में भी जीत ढ़ूँढ़

हौंसला बुलंद कर ,फिर कोई आकाश चुन ।

 

वक्त रुकता नहीं कभी,वक्त की पुकार सुन

भूल जा कल की बात ,फिर कोई आज बुन ।

********

महेश्वरी कनेरी /मौलिक व अप्रकाशित रचना

Added by Maheshwari Kaneri on July 24, 2013 at 9:00pm — 11 Comments

बचपन, पंछी और किसान

बचपन, पंछी और किसान

बचपन

अकेला बचपन,

न कोई संगी न साथी.

मुँह अंधेरे माता पिता घर से निकल जाते,

कर जाते मुझे आया के हवाले;

शाम को वे घर आते थके मांदे,

मैं रूठती अभिमान करती

तब पिता बड़े प्यार से कहते-

‘’बेटे! हम काम करते हैं तुम्हारे ही

उज्ज्वल भविष्य के वास्ते.’’

पंछी

सूनी आँखें ताक रही थीं

सूना आकाश,

बंद मुट्ठी में भुरभुरी हो कर,

बिखर रहे थे ज़मीन पर,…

Continue

Added by coontee mukerji on July 24, 2013 at 1:32pm — 6 Comments

खिड़कियाँ घर की तुम खुली रखना

खिड़कियाँ घर की तुम खुली रखना 

नजरें दर पे ही तुम टिकी रखना 

फिर से परवाना न मिटे कोई 

बज्म में शम्मा मत  जली रखना 

दिल मेरा रहता बेक़रार बड़ा  

तुम जरा सी तो बेकली रखना 

कैद मुझको तू कर ले दोस्त मेरे 

जुल्फ की ही पर हथकड़ी रखना 

है हवाओं में अब जहर बिखरा 

तू मगर आदत हर भली रखना 

आरजू दिल में बस मेरे इतनी 

अपने दिल में ही अजनबी रखना 

आशु वो देगा सौं न पीने…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on July 24, 2013 at 1:00pm — 10 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .

दोहा पंचक  . . . .( अपवाद के चलते उर्दू शब्दों में नुक्ते नहीं लगाये गये  )टूटे प्यालों में नहीं,…See More
5 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service