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June 2020 Blog Posts (87)

पितृ दिवस पर चंद दोहे :

पितृ दिवस पर चंद दोहे :

छाया बन कर धूप में,आता जिसका हाथ।

कठिन समय में वो पिता,सदा निभाता साथ।।1

बरगद है तो छाँव है, वरना तपती धूप।

पिताहीन जीवन लगे, जैसे गहरा कूप ।।2

घोड़ा बन कर पुत्र का, खेलें उसके साथ।

मेरे पापा ईश से, बढ़कर मेरे नाथ।।3

प्राणों से प्यारी लगे, पापा को संतान।

जीवन के हर मर्म का, दे वो सच्चा ज्ञान।।4

पिता सारथी पुत्र के, बनते सदा सहाय।

हर मुश्किल का वो करें , तुरंत उचित…

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Added by Sushil Sarna on June 21, 2020 at 10:31pm — 3 Comments

अहसास की ग़ज़ल :मनोज अहसास

22  22  22  22  22  22

ज्यादा चिंता से भी आखिर क्या होता है

जो सोचा,अक्सर उसका उल्टा होता है

कह देने से दर्द कहाँ हल्का होता है

कमजोरी का लोगों में चर्चा होता है

शाम ढले तो सब चीज़े धुंधली लगती हैं

सूरज फिर भी अगले दिन उजला होता है

जीवन का चक्कर चलता रहता है यों ही

हरियाली के बाद खेत सूखा होता है

कोई कहता रहता है मन की सब बातें

और किसी का दर्द सदा गूंगा होता है

पीड़ा के लम्हों में…

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Added by मनोज अहसास on June 21, 2020 at 3:36pm — 5 Comments

अहसास की ग़ज़ल :मनोज अहसास

22  22  22  22

रोज नए ढंग की उलझन है

सुलझाने का पूरा मन है

सबपे भारी बीसवाँ सन है

बच जाने का रोज जतन है

मेरे गीतों में ग़ज़लों में

तेरी यादों की कतरन है

मानव की ताकत की हक़ीक़त

गलियों का ये सूनापन है

सालों पहली कुछ बातों से

अब तक सीने में तड़पन है

मुझको जो उनसे कहना है

उनकी नज़र में पागलपन है

असली चेहरा ढक रक्खा है

सब चीजों पे रंग रोगन है

इन मिसरों के…

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Added by मनोज अहसास on June 21, 2020 at 3:33pm — 2 Comments

रानी अवंतीबाई लोधी

भारत वर्ष की भूमि महापुरुषों की ही नहीं बल्कि देवी रूप में देश के लिए बलिदान, त्याग और अपनी जान को न्यौछावर करने वाली नारियों से भी भरी पड़ी है| जिन्होने अपनी हर हद से उठ कर अपने देश की रक्षा के लिए मान मर्यादा को ध्यान में रखते हुए सब कुछ कर गुजरने के साहस की मिशाल पेश की | कुछ इतिहासकारों के अनुसार रानी अवंतीबाई लोधी भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिला के रूप में जाना है। जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रामगढ़ के रेवांचल प्रदेश में हुए मुक्ति आंदोलन की मुख्य सूत्रधार और…

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Added by PHOOL SINGH on June 21, 2020 at 3:30pm — 2 Comments

मेरे पिता (लेख)

मेरे पिता

पिता शब्द स्वयं अपने आप में बजनदार होता हैं। हाथ की दसों उंगलियों की तरह हर पिता का व्यक्तित्व अलग होता हैं। पिता को परिभाषित किया जा सकता हैं, उपमानों से अलंकारित किया जा सकता हैं पर रेखांकित नही किया जा सकता।बस,उम्मीद की जा सकती हैं कि हमारे पिता बहुत अच्छे हैं, बस थोड़े-से ऐसे और होते। सभी बच्चों के पिता उनके हीरो होते हैं। ऐसे ही मेरे पिता मेरे किसी सुपरमेन से कम नहीं हैं, हरफनमौला हैं। बचपन से मैंने उनका सख्त चेहरा,कठोर अनुशासनबद्ध,जुझारूपन देखा हैं। मितभाषी हम सब के…

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Added by babitagupta on June 21, 2020 at 3:03pm — 1 Comment

पिछलग्गू परिंदे

जासूसी उपन्यास पढ़ चुके एक मित्र से दूसरे मित्र ने उसकी कहानी का आशय पूछा।पहले ने जवाब में कहा,'

भरोसा, चोट......।'

' मतलब?' दूसरी तरफ से सवाल हुआ।

' परी कथा समझते हो न?'

' बिलकुल।'

' बस वैसा ही समझ लो।खेतों से पेट पालनेवाले चिड़ों के इलाके में एक सफेद चिड़ी उतरी। धूप में झुलसे उन बाशिंदों में वह गोरी थी, परी समझ ली गई।सुनहरी होने के चलते उसे सोनी नाम मिला। परिंदों का सरदार चिड़ा उसपर फिदा हुआ।दोनों का चोंच - बंधन हो गया। एक दिन ऊंची उड़ान भरते वक्त चिड़ा काल कवलित हो…

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Added by Manan Kumar singh on June 21, 2020 at 12:52pm — 2 Comments

सैनिकों का शौर्य बल

तोड़ कर अनुबन्ध अरि ने

देश पर डाली नज़र

उठा कर अब शस्त्र अपने

भून दो उसका जिगर

छल ,फरेब, असत्य ,धोखे का

करे अभिमान , खल

वह भी अब देखे हमारे

सैनिकों का शौर्य बल

शान्ति,सहआस्तित्व हो, स्थिर

बढ़े जग में अमन

वास्ते इस , धैर्य को समझा

कि हम कायर वतन

जो परायी सम्पदा को

हड़पने , रहता विकल

रौंद दो अहमन्यता 

षड़यन्त्र हो उसका विफल

शत्रु को है दण्ड देने…

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Added by Usha Awasthi on June 21, 2020 at 7:00am — 4 Comments

ऊँचाई ....

ऊँचाई ....
 
कितना
बौना हो जाता है
इंसान
अपने ही में…
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Added by Sushil Sarna on June 20, 2020 at 9:00pm — 2 Comments

मीर तक काश कभी दर्द का मंज़र पहुँचे (११२ )

ग़ज़ल (2122 1122 1122 22 /112 )

.

मीर तक काश कभी दर्द का मंज़र पहुँचे

और मज़मून-ए-शिकायत की झलक भर पहुँचे

**

आज किस हाल में है देख रिआया रहती

ग़म ज़रा उसका किसी दिल के तो अंदर पहुँचे

**

सिर्फ़ बातें ही किया करते गुहर लाने हैं

क्या कभी आप तह-ए-आब-ए-समंदर पहुँचे

**

जो घरों में हैं दुआ है कि सभी शाद रहें

और बिछड़ा है जो भटका है जो वो घर…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 20, 2020 at 12:30am — 4 Comments

दिवस(लघुकथा)

तरह तरह के दिवस मनाए जाते। कोई दिन पर्यावरण का होता,तो कोई बाल दिवस आदि आदि।शोर होते,जश्न भी। और दिवस चाहे जैसे भी लगे हों,पर बाल दिवस की चर्चा सुन कुछ शब्द कसमसाए।मुखर होने लगे।ध्वनि फूटी -

' हम कहने के माध्यम हैं।'

' हम तुम्हारे माध्यम हैं।' दूसरी आवाजें आने लगीं।

शब्द जैसे चरमराने लगे। टूटन का अहसास हुआ।वे कराह ते हुए बोले -

' तुम लोग कौन हो?'

' खूब,बहुत खूब!अपने निर्माताओं को ही बिसरा बैठे तुमलोग।' ताना भरी आवाजें गूंजने लगीं।

' निर्माता?हमारे ?' शब्द चौंके।

'…

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Added by Manan Kumar singh on June 19, 2020 at 9:37pm — 3 Comments

"स्मृतियाँ "

दुःखते हुए पांव हैं बाकी,
रिसते हुए घाव हैं बाकी,
आशाएँ जो छोड़ गईं,
उजड़े हुए गाँव हैं बाकी।
गीत अधर पर ठहरे-ठहरे
अश्रु पर पलकों के पहरे,
सहमे- सहमे सच पर हावी,
झूठ के निम॔म दांव हैं बाकी ।
सतरंगी सपनों के ड़र से,
लहरों से समझौते करते,
ठीक किनारे उलट गई जो,
स्मृतियों की नाव है बाकी...।

अन्विता ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Anvita on June 18, 2020 at 9:49pm — 6 Comments

प्रेम पर कुछ क्षणिकाएँ :

प्रेम पर कुछ क्षणिकाएँ :

प्रेम

ह्रदय में इस तरह

ज्यूँ नीर में

नीर तरंग

................

प्रेम

अवचेतन मन की

पराकाष्ठा

......................

प्रेम

अर्पण

समर्पण

..................

प्रेम

अबोले भावों का

मूक प्रदर्शन

...................

प्रेम

एक पावन

प्रतिकर्ष

मिलन का

.........................

प्रेम

एक…

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Added by Sushil Sarna on June 18, 2020 at 9:21pm — 4 Comments

दीप बन मैं ही जला....(गजल)

2122 2122 212

दीप बन मैं ही जला हूँ रात-दिन

रोशनी खातिर लड़ा हूँ रात-दिन।1

जब कभी मन का अचल पिघला जरा

नेह बन मैं ही झरा हूँ रात-दिन।2

जब समद निज आग से उबला कभी

मेह बन मैं ही पड़ा हूँ रात-दिन।3

कामनाएँ जब कुपित होने लगीं

देह बन मैं ही ढहा हूँ रात-दिन।4

व्योम तक विस्तार का पाले सपन

यत्न मैं करता रहा हूँ रात-दिन।5

आखिरी दम का सफर जब सालता

गीत बन मैं ही बजा हूं रात - दिन।6

"मौलिक व…

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Added by Manan Kumar singh on June 18, 2020 at 5:11pm — 4 Comments

ग़ज़ल-महफ़िल में वो बाहर जब आकर चली गई

हासिल ग़ज़ल

221 2121 1221 212

बेचैनियों का दौर बढा कर चली गयी ।

महफ़िल में वो बहार जब आ कर चली गयी ।।

उसकी मुहब्बतों का ये अंदाज़ था नया ।

अल्फ़ाज़ दर्दो ग़म के छुपाकर चली गयी।।

उसको कहो न बेवफ़ा जो मुश्क़िलात में ।

कुछ दूर मेरा साथ निभाकर चली गयी ।।

साक़ी भुला सका न उसे चाहकर भी मैं ।

जो मैक़दे में जाम पिलाकर चली गयी ।।

हैरां थी मुझ में देख के चाहत का ये शबाब…

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Added by Naveen Mani Tripathi on June 18, 2020 at 1:37pm — No Comments

ग़ज़ल ( ज़िंदगी में तेरी हम शामिल नहीं.....)

( 2122 2122 212 )

ज़िंदगी में तेरी हम शामिल नहीं

तूने समझा हमको इस क़ाबिल नहीं

जान मेरी कैसे ले सकता है वो

दोस्त है मेरा कोई क़ातिल नहीं

सारी तैयारी तो मैंने की मगर

जश्न में ख़ुद मैं ही अब शामिल नहींं

हमको जिस पर था किनारे का गुमाँ

वो भंवर था दोस्तो साहिल नहीं

सोच कर हैरत ज़दा हूँ दोस्तो

साँप तो दिखते हैं लेकिन बिल नहीं

देखने में है तो मेरे यार - सा

उसके होटों के किनारे तिल…

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Added by सालिक गणवीर on June 17, 2020 at 11:00pm — 6 Comments

चिकनी बातों....(गजल)

22  22  22  22  22  22

चिकनी बातों में आ जाना अच्छा है क्या?

बेमतलब खुद को बहलाना अच्छा है क्या??1

मूंछों पर दे ताव चले हर वक्त महाशय,

टेढ़ी पूंछों को सहलाना अच्छा है क्या?2

गाओ अपना गीत,करो धूसर वैरी को

कटती गर्दन तब मुसुकाना अच्छा है क्या?3

देखा है दुनिया ने अपना पौरुष पहले

नासमझों के गर लग जाना अच्छा है क्या?4

बाजार बनी जिसके चलते धरती अपनी

उस कातिल से हाथ मिलाना अच्छा है क्या?5

तुम बंद…

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Added by Manan Kumar singh on June 17, 2020 at 6:47pm — 2 Comments

अगर है जीना तो फ़िक्रों के कारवाँ से निकल(१११ )

ग़ज़ल(1212 1122 1212 22 /112 )

अगर है जीना तो फ़िक्रों के कारवाँ से निकल

हिसार का जो बनाया उस आसमाँ से निकल

कहा ख़ुशी ने कि हूँ इंतज़ार में कब से

है मेरी बारी अरे ग़म तू इस मकाँ से निकल

अमीर है तो क़ज़ा क्या न आएगी तुझको

फ़ना न होगा तू ऐसे बशर गुमाँ से निकल

ख़ुदा ग़रीब की ख़ातिर तू अश्क बन जा मेरे

दुआ का रूप ले मेरी सदा ज़बाँ से निकल

बिना पसीना बहाये नसीब बनता नहीं

नुज़ूमी और लकीरों के साएबाँ से निकल

हयात लेती है जो भी वो…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 17, 2020 at 4:00pm — 2 Comments

बूँद

कहते हैं मानसून अब

देगा बहुत सुकून

कैसे सहेजेगी भला

यह बारिश की बूँद?

ताल-तलैया , झील , नद

चढ़ें , अतिक्रमण भेंट

दोहन होता प्रकृति का

अनुचित हस्तक्षेप

करें बात जो न्याय की 

वही कर रहे घात

करनी कथनी से अलग 

ज्यों हाथी के दाँत

मौलिक एवंअप्रकाशित 

Added by Usha Awasthi on June 17, 2020 at 12:43pm — 2 Comments

यथार्थ  दोहे :

यथार्थ  दोहे :

देह जली शमशान में, सारे रिश्ते तोड़।

राहें तकती रह गईं,अंत चला सब छोड़।।1

अंत मिला बेअंत में, हुई जीव की भोर।

भौतिक तृष्णा मिट गई,मिटे व्यर्थ के शोर।।2

व्यर्थ देह से नेह है, व्यर्थ देह अभिमान।

तोड़ देह प्राचीर को,उड़ जाएंगे प्रान।।3

थोड़ी- थोड़ी रैन है, थोड़ी-थोड़ी भोर।

थोड़ी सी है ज़िंदगी, थोड़ा सा है शोर ।।4

कितना टाला आ गई, देखो आखिर मौत।

ज़ालिम होती है बड़ी, साँसों की ये सौत…

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Added by Sushil Sarna on June 16, 2020 at 9:30pm — 4 Comments

ग़ज़ल (वही मंज़र है और मैं) - शाहिद फ़िरोज़पुरी

बहरे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़

221  / 2121  / 1221 /  212

बद-हालियों का फिर वही मंज़र है और मैं

इक आज़माइशों का समंदर है और मैं [1]

अरमान दिल के दिल में घुटे जा रहे हैं सब

महरूमियों का एक बवंडर है और मैं…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on June 16, 2020 at 11:54am — 17 Comments

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