DR. HIRDESH CHAUDHARY's Posts - Open Books Online2024-03-28T15:08:24ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARYhttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991315504?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=3mqguma6kw338&xn_auth=noबृज क्षेत्र का सावन और उसका सौंदर्यtag:openbooks.ning.com,2019-07-22:5170231:BlogPost:9888252019-07-22T16:30:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p>मदमस्त चलती हवाएं और कार में एफएम पर मल्हार सुनकर, पास बैठी मेरी सखी साथ में गाना गाने लगती है "सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापस आया" गाते गाते उसका स्वर धीमा होता गया और फिर अचानक वो खामोश हो गयी, उसको खामोश देखकर मुझसे पूंछे बिना नही रहा गया। फिर वो पुरानी यादों में खोई हुई सी मुझसे कहती है कि कहाँ गुम हो गए सावन में पड़ने वाले झूले, एक समय था जब सावन माह के आरम्भ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और किशोरिया गाने लगती थी..<br></br> कच्ची नीम की निबौरी, सावन…</p>
<p>मदमस्त चलती हवाएं और कार में एफएम पर मल्हार सुनकर, पास बैठी मेरी सखी साथ में गाना गाने लगती है "सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापस आया" गाते गाते उसका स्वर धीमा होता गया और फिर अचानक वो खामोश हो गयी, उसको खामोश देखकर मुझसे पूंछे बिना नही रहा गया। फिर वो पुरानी यादों में खोई हुई सी मुझसे कहती है कि कहाँ गुम हो गए सावन में पड़ने वाले झूले, एक समय था जब सावन माह के आरम्भ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और किशोरिया गाने लगती थी..<br/> कच्ची नीम की निबौरी, सावन जल्दी आइयों रे।<br/> अम्मा दूर मत दीजो रे, दादा नही बुलावेगे।<br/> भाभी दूर मत दीजो रे, भइया नही बुलावेगे।</p>
<p>सावन के झूले की ये झोट बृजक्षेत्र के हर गांव, हर कस्बे में और हर नगर में जगह जगह नजर आती थी, पास पड़ौस की सभी महिलाएं अपनी अपनी सहेलियों के साथ झुंड बनाकर घरों में झूले डालती थी, रंग बिरंगी वेशभूषा में उसका दमकता सौंदर्य प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में और भी मनमोहक लगता था। किशोरियों और बालाओं में सावन के गीतों की प्रतिस्पर्धा सी होने लग जाती थी। झूलों के झोटों के साथ गीतों के आनन्द की पींगे बढ़ने लगती थी। हर विवाहिता के मन में पहले सावन की हुक उठने लगती थी वो अपने मायके में जाकर अपनी सखी सहेलियों से ठिठोली करने की सोचने लगती थी। अपने प्रियतम को सावन की पाती लिखने के लिए उसका दिल मचलने लगता था, साथ ही झूलों से आकाश चूमने की चाहत जवान होने लगती थी। बरखा बहार उसके तन मन को भिगोने लगती थी और उसका मन मयूर नृत्य करने लगता था। आखिर कुछ तो बात है इस महीने में जो सावन की इस आहट का पता अपने आप ही लगने लगता है और मन में कल्पनाएं आकार लेने लगती हैं।<br/> फिजाओं में जब सौंधी खुशबू आने लगे, मदमस्त हवाएं बहने लगें, प्रकृति प्रेयसी के गीत गुनगुनाने लगे, भीगी भीगी ऋतु में हम तुम, तुम हम कहने लगे दिल की हर धड़कन, तो समझ लीजिए कि सावन का खुमार अपने पूरे यौवन पर है, जी हां सावन होता ही ऐसा है। क्या घर, क्या आंगन, क्या जंगल, क्या नदिया और क्या बादल सावन में तो ऐसा लगता है जैसे कि पूरी कायनात भीग रही है और जब रेशा रेशा, पत्ता पत्ता, बूटा बूटा, जर्रा जर्रा जिस वक्त भीगता है तब मिट्टी की सौंधी खुश्बू, हवाओं में घुल जाती है। अलबेली प्रकृति में नवयोवनायें झूम के गाने लगती है।<br/> रिम झिम के गीत सावन गाये, हाय<br/> भीगी भीगी रातों में।<br/> होठो पे बात दिल की आय हाय<br/> भीगी भीगी रातों</p>
<p>डॉ हृदेश चौधरी...<br/> लेखिका</p>
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<p><strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong></p>मन नहीं करताtag:openbooks.ning.com,2019-07-03:5170231:BlogPost:9869532019-07-03T02:44:44.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
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<p>हर पन्ने पे होंगीं बलात्कार की खबरें,<br></br>इसलिए अखबार पढ़ने का मन नही करता।</p>
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<p>परिवार की जड़ें उखड़ कर वृद्धाश्रम में आ गईं,<br></br>अब बच्चों को संस्कारी कहने का मन नही करता।</p>
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<p>नंगी सड़क पे बचाओ बचाओ पूरे दिन चिल्लाता रहा,<br></br>फिर भी उसपे विश्वास करने का मन नही करता।</p>
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<p>शरीर के इंच इंच पे, मैं राष्ट्रभक्त हूँ गुदवा रखा था,<br></br>फिर भी उसकी राष्ट्रभक्ति पढ़ने का मन नही करता।</p>
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<p>कोई मोब्लिंचिंग तो कोई चमकी में मरा होगा इसलिए,<br></br>अब सुबह जल्दी…</p>
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<p>हर पन्ने पे होंगीं बलात्कार की खबरें,<br/>इसलिए अखबार पढ़ने का मन नही करता।</p>
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<p>परिवार की जड़ें उखड़ कर वृद्धाश्रम में आ गईं,<br/>अब बच्चों को संस्कारी कहने का मन नही करता।</p>
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<p>नंगी सड़क पे बचाओ बचाओ पूरे दिन चिल्लाता रहा,<br/>फिर भी उसपे विश्वास करने का मन नही करता।</p>
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<p>शरीर के इंच इंच पे, मैं राष्ट्रभक्त हूँ गुदवा रखा था,<br/>फिर भी उसकी राष्ट्रभक्ति पढ़ने का मन नही करता।</p>
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<p>कोई मोब्लिंचिंग तो कोई चमकी में मरा होगा इसलिए,<br/>अब सुबह जल्दी उठकर सूरज देखने का मन नही करता।</p>
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<p>सीमाओं से आते हैं हर रोज शहीदों के ताबूत,<br/>परिजनों का ये दर्द अब और सहने का मन नही करता।</p>
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<p>डॉ हृदेश चौधरी</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>गणतंत्र की आस में तरसता घुमंतू समाजtag:openbooks.ning.com,2016-01-25:5170231:BlogPost:7343532016-01-25T07:00:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p align="right" style="text-align: left;">सड़क किनारे पसरी घोर निराशा और उस निराशा में डूबी हुयी जिंदगियां, चिथड़ों में लिपटे हुए बच्चे, टूटी फूटी झोपड़ियों में सुलगते चूल्हे और उसी सड़क पर सरकार के नुमाइंदों की सरपट दौड़ती चमकती कारों में चर्चा गरम हो रही होती है डिजिटल इंडिया की, पर उन नेताओं को सड़क की जिंदगी बसर करती इस कौम की बदहाल तस्वीर नज़र नहीं आती. जो कि इनके छदम दावों को धूल धूसरित करती है माना कि जीवन अनवरत संघर्ष का नाम है, जिसका कर्म है सदैव चलते रहना, आगे बढ़ते रहना. किन्तु…</p>
<p align="right" style="text-align: left;">सड़क किनारे पसरी घोर निराशा और उस निराशा में डूबी हुयी जिंदगियां, चिथड़ों में लिपटे हुए बच्चे, टूटी फूटी झोपड़ियों में सुलगते चूल्हे और उसी सड़क पर सरकार के नुमाइंदों की सरपट दौड़ती चमकती कारों में चर्चा गरम हो रही होती है डिजिटल इंडिया की, पर उन नेताओं को सड़क की जिंदगी बसर करती इस कौम की बदहाल तस्वीर नज़र नहीं आती. जो कि इनके छदम दावों को धूल धूसरित करती है माना कि जीवन अनवरत संघर्ष का नाम है, जिसका कर्म है सदैव चलते रहना, आगे बढ़ते रहना. किन्तु इस आशातीत में एक ऐसा समाज है जो संघर्ष के बावजूद भी खानाबदोश जीवन जीने को मजबूर है. संघर्ष के मार्ग में जीत की चोटियाँ उसे कभी नज़र नहीं आयीं, आज भी उनका जीवन अज्ञान एवं अन्धकार में लिपटा हुआ है, आखिर अभी और कितनी सदियाँ लग जायेंगी सड़क से उठकर एक अदद मकान तक आने में. गणतंत्र की खुशहाली में कब खुशहाल होगा इनका घर आँगन.</p>
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<p style="text-align: left;">जी हाँ हम बात कर रहे हैं उस घुमंतू समाज की, जिनकी इस देश में 8 से 10 करोड़ की तादाद है करीब 500 से अधिक जातियों वाले इस समाज के ठौर ठिकाने की तो छोड़िये ये अपने ही देश की नागरिकता तक हासिल नहीं कर पाए. 67वें गणतंत्र के आयोजन के साथ ही ये चर्चा अखबारों की सुर्ख़ियों और टीवी चैनल्स की हेडलाइंस में है कि मेक इन इंडिया एवं स्टार्ट अप इंडिया से देश मजबूत होगा वही 10 करोड़ की आबादी का आधार अधर में जिन्दगी गुजार रहा है. राशन कार्ड एवं आधार कार्ड की तो छोडिये पहचान पत्र तक नहीं बनवा पायी सरकारें . इतने गणतंत्र गुजर गए पर सभी सरकारों ने घुमन्तुओं पर सिर्फ विचार ही किया है कोई दर्ज़ा नहीं दे सकी. विकास किया है तो सिर्फ इतना कि ‘रेनके’ आयोग के गठन से ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. रिपोर्ट भी तैयार हुयी जो ठण्डे बस्ते में आज तक ठंडा रही है.</p>
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<p style="text-align: left;">गणतन्त्र दिवस वो दिन है जो संविधान के रूप में देश का शासन देशवासियों के हाथों में ये सौगात लेकर आया कि इसमें सभी की रक्षा का वचन निहित है. गणतन्त्र के इस लम्बे अंतराल में हमारे देश की सरकारें विश्व की महाशक्ति बनने की होड़ में तो लगी रही किन्तु यह भूल गयी कि उनकी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी उस समाज के प्रति भी है जो सदियों से दर –दर भटक कर जीवन यापन कर रहा है, अपनी परम्पराओं से जुड़कर भी उस जमीन से महरूम है, जो उनको साया दे सके. इक्कीसवीं सदी के इस युग में भी इनको एहसास नहीं है कि देश आज़ाद हो चुका है. देश की बहुत बड़ी आबादी जहाँ डिजिटल इंडिया का ख्वाब देख रही है वही ये घुमन्तु समाज सड़क किनारे भोजन पकाना, सड़क किनारे ही स्नान करना एवं रूखा सूखा जैसा मिले उसे खा लेना इनकी दिनचर्या में शुमार है. ना इनका सुविधाओं से वास्ता और ना ही शिक्षा से कोई मतलब, जानकारी है तो बस इतनी कि ये राणा प्रताप की सेना के वीर पहरुये हैं. इस घुमंतू समाज को इस खानाबदोश जिन्दगी से निकालकर समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का काम सरकारों का ही था पर इन सरकारों की अनदेखी के परिणाम स्वरूप इक्कीसवीं सदी में पहुँचते हुए भी ये मानसिक गुलामी की 16वीं सदी में जीने को मजबूर हो रहे हैं. </p>
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<p style="text-align: left;"> इस उपेक्षित समाज की व्यथा को इनकी तक़दीर समझा जाय या उदासीनता जिनके अधिकारों की आवाज़ कोई नहीं उठाता.देश और प्रदेश में से किसी भी सरकार ने इन जातियों के उत्थान के लिए सोचा ही नहीं, इससे ज्यादा इस समाज के साथ नाइंसाफी और क्या होगी. सरकार ने भी इनको अपने नसीब के साथ मरने के लिए शायद इसलिए छोड़ रखा है क्योकि वो इनके वोट बैंक का हिस्सा नहीं बन पाए. एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित होते ये गाडिया लुहार जाति के लोग वक़्त के हाथों इतने मजबूर हो चुके हैं कि पहिये पर रहने वाली इस जिंदगी को इतना ठहराव मिल चुका है कि इनके जीवन की गाड़ी अवरुद्ध हुयी पड़ी है. काश सरकारे सिर्फ इतना ही कर लेती कि इनके बच्चों को पढ़ा लिखा देती तो इनके हाथों में आज औजार के बजाय कलम होती. स्लेट पेन्सिल से इनके बच्चे अपने तकदीर को बदलने की इबारत तो लिख रहे होते. पर अफ़सोस ऐसा कुछ भी नही हो सका. इसी बीच आशा की एक किरन फूटी और उसने इस समाज की ‘आराधना’ का जिम्मा अपने हाथों में लिया किन्तु लाख प्रयासों के बावजूद सरकार एक ऐसी जगह तक मुहैया नहीं करा सकी जहाँ इनके बच्चे वही रहकर शिक्षा ग्रहण कर सके वो तो भला हो उन चंद हाथों का जो कि इनकी शिक्षा की मशाल को बुझने नहीं दे रहा. हजारों एकड़ बंजर पड़ी इन सरकारी जमीनों को उन धनकुबेरों को सौंपते हुए तो ये सरकारे बड़ी उदार हो जाती हैं पर समूची कौम का भला सोचने वाली एक संस्था जो इनके लिए प्राण प्रण से जुटी है उसको नियमों का हवाला देकर उसकी आराधना निष्फल की जा रही है . इन हुनरमंद हाथों के लिए सरकारी प्रतिबद्दता आखिर क्यों नदारद है, चटक गहरे परिधानों में सजी इस समाज की सुन्दरता को उस समय कलंक का टीका लग जाता है जब उनकी कला के प्रति सम्मान और बेहतर जिन्दगी के लिए किए गए सरकारी प्रयास महज एक आयोग का गठन करके पूरे हो जाते हैं.</p>
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<p style="text-align: left;">संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के इस हनन के लिए जिम्मेदारी किसकी है? लाल किले की प्राचीर से लेकर राष्ट्रपति भवन तक गणतन्त्र की यह गूँज हर बार सुनाई देती है किन्तु इस कौम के लिए गणतन्त्र के मायने क्या हैं ये भाग्यहीन इतना भी नहीं जानते हैं. सवालों में फंसी इनकी ये करुण पुकार किसी का भी ह्रदय द्रवित करने के लिए काफी है पर सरकारी अमले की निर्दयता इस समाज की जिजीविषा को निरंतर चुनौती दे रही है |</p>
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<p style="text-align: left;">डॉ हृदेश चौधरी</p>
<p style="text-align: left;">मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p style="text-align: left;"></p>ये कैसा कन्या पूजनtag:openbooks.ning.com,2015-10-15:5170231:BlogPost:7063962015-10-15T16:30:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p>एक हाथ से कन्या पूजन दूजे हाथ से कन्या हनन<br></br> माँ को खुश करने का कैसा है ये आयोजन<br></br> धन वैभव की चाहत में सुख संपत्ति के आगत में<br></br> मनाते सभी त्यौहार लक्ष्मी जी के स्वागत में<br></br> पर ये कैसा अनर्थ जो गृहलक्ष्मी पर भारी<br></br> घर अस्पताल में चलती इस लक्ष्मी पर आरी<br></br> माँ की ममता बेबस और निष्ठुर पिता का साया<br></br> उस घर में बेटी का जन्म क्यूँ न किसी को भाया<br></br> कैसी स्वार्थी कैसी निर्दयी ये दुनिया की मंडी<br></br> जहाँ बेबस है शक्ति स्वरूपा दुर्गा काली और चंडी<br></br> जिन हाथों से डाली जाती है…</p>
<p>एक हाथ से कन्या पूजन दूजे हाथ से कन्या हनन<br/> माँ को खुश करने का कैसा है ये आयोजन<br/> धन वैभव की चाहत में सुख संपत्ति के आगत में<br/> मनाते सभी त्यौहार लक्ष्मी जी के स्वागत में<br/> पर ये कैसा अनर्थ जो गृहलक्ष्मी पर भारी<br/> घर अस्पताल में चलती इस लक्ष्मी पर आरी<br/> माँ की ममता बेबस और निष्ठुर पिता का साया<br/> उस घर में बेटी का जन्म क्यूँ न किसी को भाया<br/> कैसी स्वार्थी कैसी निर्दयी ये दुनिया की मंडी<br/> जहाँ बेबस है शक्ति स्वरूपा दुर्गा काली और चंडी<br/> जिन हाथों से डाली जाती है यज्ञ में आहुतियाँ<br/> उन हाथों में रक्त पिपासु है कैसी आकृतियाँ<br/> बेटी हूँ मैं कोई पाप नहीं सकल सृष्टि की वाहक हूँ<br/> रिश्तों को महकाती हूँ और संस्कृति की संवाहक हूँ.<br/> <br/> - डॉ हृदेश चौधरी<br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>नवरात्रि के जश्न में कुछ सुलगते प्रश्नtag:openbooks.ning.com,2014-10-02:5170231:BlogPost:5790572014-10-02T08:00:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p align="right" style="text-align: left;"> नवरात्रि के जश्न में कुछ सुलगते प्रश्न - डॉ हृदेश चौधरी </p>
<p align="right" style="text-align: left;"></p>
<p>हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार कुंवारी कन्याएँ माता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती है साक्षात देवी माँ का स्वरूप मानी जाती है इसलिए “ या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता” भाव के साथ अष्टमी और नवमी के दिन कन्या (कंजिका) पूजन किया जाता है। वेदिक काल के पूर्व से ही कन्या पूजन का विधान रहा है और धर्मशास्त्रों में भी इस बात की स्वीकारोक्ति…</p>
<p style="text-align: left;" align="right"> नवरात्रि के जश्न में कुछ सुलगते प्रश्न - डॉ हृदेश चौधरी </p>
<p style="text-align: left;" align="right"></p>
<p>हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार कुंवारी कन्याएँ माता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती है साक्षात देवी माँ का स्वरूप मानी जाती है इसलिए “ या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता” भाव के साथ अष्टमी और नवमी के दिन कन्या (कंजिका) पूजन किया जाता है। वेदिक काल के पूर्व से ही कन्या पूजन का विधान रहा है और धर्मशास्त्रों में भी इस बात की स्वीकारोक्ति है कि कन्या पूजन से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। हमारा पूरा समाज शास्त्रों में कही गयी बातों का अक्षरशः पालन करता है फिर क्यों हम कन्या पूजन के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैंठते हैं। देवी के नौ रूपों की पूजा अर्चना पूर्ण श्रद्धा-भाव के साथ करते हें, उनमे अधिकाशतः महिलाएं ही होती हैं जो कभी सास बनकर अपनी बहू से कन्या भ्रूण हत्या जैसा अपराध करने को विवश कर देती हैं। कहाँ विलुप्त हो जाता है उस समय कन्या पूजन का भाव? कैसी आस्था और कैसा विश्वास कि एक हाथ से कन्या पूजन का ढोंग वहीं दूसरे हाथ से कन्या भ्रूण हत्या। नारी के विविध रूपों कन्या, युवती,पुत्रवधू, पत्नी, माता, बहन आदि के बिना हम परिवार की कल्पना नहीं कर सकते हैं, और जब कन्या भ्रूण हत्या का ये सिलसिला अनवरत चलता रहेगा तो कहाँ से आएंगी कन्याएँ कैसे होगा आने वाले समाज का सृजन।</p>
<p></p>
<p>आज जब हमारा समाज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है और अंधविश्वास को छोड़ आधुनिकता की ओर बढ्ने का हम दावा कर रहे हें फिर उसी आधुनिक परिवार में कन्या जन्म की बात सुनकर हमारे चेहरे फक क्यू हो जाते हें। और अगर उस कन्या का जन्म नहीं हुआ तो मारने कि प्लानिंग भी उसी आधुनिक परिवार में की जाती हैं। यहाँ यह कहना मुनासिब होगा कि बड़े घरों में कन्या भ्रूण हत्याएँ ज्यादा होती हैं। वास्तविकता यह है कि हम असल ज़िंदगी में आधुनिक नहीं हुये।</p>
<p></p>
<p>भारतीय संस्कृति भी समाज को यही सिखाती है कि क्या कन्या पूजन से बड़ी कोई पूजा नहीं, शादी में कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं, माँ के चरणों के सिवा कहीं जन्नत नहीं और पत्नी को चारों धाम कहा गया साथ ही हम अर्धनारीश्वर कि पूजा करते हें। इन सब मे विश्वास करने वाले समाज से कैसे चूक हो जाती है, कैसे गलती कर बैठता। और आश्चर्य होता है कि कन्या भ्रूण हत्या, छेड़छाड़, एसिड हमले, यौन शोषण, दुष्कर्म, दहेज उत्पीड़न, ऑनर किलिंग, घरेलू हिंसा जैसे मामले रोज हमे अखबार में कभी पड़ौस में देखने और सुनने को मिल रहे हें फिर क्यू करते हें कन्या पूजन का दिखावा? जिस पूजन का सम्मान भी न कर सके? उसका जश्न बेमानी है। वास्तविकता की तराजू में जब हम खुद तुलते हैं तो श्रद्धा पर अंधविश्वास हावी हो जाता है। जिसके फलस्वरूप कभी कन्या भ्रूण हत्या तो कभी दहेज हत्या के गुनहगार बनकर सामने आकर खड़े हो जाते हैं।</p>
<p></p>
<p>आज़ादी के बाद से शायद यह पहला सुखद अवसर था कि स्वतन्त्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बेटियों पर चिंता जताई है बातों ही बातों में प्रधानमंत्री ने यह संदेश दे दिया कि बेटियाँ समाज के लिए बेशकीमती हैं। अतएव कानून के साथ-साथ समाज का भी दायित्व है कि इस दिशा में भी प्रयास करें। जिस समाज की सोच इतनी असंवेदनशील है कि बेटियाँ को जन्म ही न लेने दे वहाँ उन्हें शिक्षित, शसक्त और सुरक्षित रखने के दावे, दावे भर ही रह जाते हें। दुखद ही है कि हमारे समाज में बेटियों का पूजन और वंदन है तो मानमर्दन भी है, जब बेटियों के सम्मान ही नहीं तो उनका सशक्तिकरण कैसे होगा? बड़े बड़े मंचों में सशक्तिकरण की दुहाई देने वाले ये बड़े लोग ही कन्या भ्रूण हत्या के सबसे ज्यादा पक्षधर होते हैं।</p>
<p></p>
<p>विचारणीय यह भी है कि भ्रूण हत्या और लिंगभेद के खिलाफ तमाम सरकारी जागरुक अभियान, कन्या सुरक्षा, और शिक्षा के नाम पर मीडिया और टीवी चैनलों पर प्रचार प्रसार का होना, राज्य सरकार द्वारा हेल्पलाइन चालू करना, इसके पश्चात भी देश की राजधानी जैसे बलात्कार सरेआम हो रहे हें आखिर क्या कमी रह जाती है कि तमाम प्रचार प्रसार और बड़ी बड़ी बातों के बावजूद भ्रूण हत्या और बलात्कार रुकने का नाम ही नहीं लेते। इन घटनाओं को देखने से तो नहीं लगता कि हम एक सभ्य समाज का निर्माण करने की सोच रहे हें और हमारा देश विकसित से विकासशील होने जा रहे हैं, विकास और सुशासन का हर वो वादा बेमानी है जबतक समाज को कलंकित होने वाली घटनाएँ होती रहेंगी। तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ता हुआ हमारा समाज भौतिकता और भोगविलास के दलदल में धँसता जा रहा है। अगर मंथन किया जाय तो प्रमुख वजह यही दिखाई देती है कि पाश्चात्यीकरण के साथ ही हम सभी भारतीय संस्कार और मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। बुढ़ापे की लाठी हमको बस बेटा ही दिखाई देता है चाहे वो वृद्धाश्रम की दहलीज़ पर ले जाकर क्यू न खड़ा कर दे । बेटी हमेशा हमारे लिए पराया धन ही होती हैं जबकि जरूरत के वक़्त वो ही माँ बाप के काम आती हैं। एक तरफ किराये की कोख का बढ़ता चलन और दूसरी तरफ कन्या भ्रूण हत्या से उसी कोख का अपमान । किस मोड पर आकर खड़े हो गए हैं हम ।</p>
<p></p>
<p>मंगल फतेह करने का गौरव भी हम अपने नाम कर चुके है और तकनीकी क्षेत्र में भी बहुत आगे निकल चुके हैं बावजूद इसके हमारी सोच और मानसिकता आज भी स्थिर है और जो चीज़ स्थिर हो उसमें नकारात्मक भावना आ जाती है । इसी स्थिर सोच और नकारात्मक नजरिए को बदलने में हम कामयाब नहीं हो पा रहे हैं ये कैसा विरोधाभास है एक तरफ कन्याओं की पूजा होती है और दूसरी तरफ कन्या भ्रूण हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएँ। कुछ समय पहले तक गाँव मोहल्ले में किसी की बेटी को पूरे गाँव मोहल्ले की बेटी कहा जाता था और उसकी रक्षा पूरा गाँव करता था आज इक्कीसवी सदी तक आते आते स्थितियाँ ठीक इसके विपरीत हो गयी हैं आज पड़ौसी भी किसी की बेटी को अपनी बेटी के तुल्य नहीं समझता है रक्षा करना तो दूर की बात।</p>
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<p>महिसासुरी मानसिकता के लोग बिना भय के समाज में रहते हें जिससे लगता कि आसुरी शक्तियाँ अपनी चरम पर हैं। कन्याओं का तिरस्कार और शोषण यूं ही बढ़ता रहा तो शायद फिर कोई कन्या काली का रूप धारण करेगी और सभी महिसासुरों का अंत करेगी तब जाकर सही मायनों में नवरात्रि का पर्व पूर्ण होगा। क्या हम सब नवरात्रि के इस पावन पर्व पर अपने आपसे यह वादा कर सकते कि हम सब कन्याओं के प्रति सकारात्मक सोच रखेंगे और उसकी सुरक्षा करेंगे और उनको समुचित मान सम्मान भी कन्या पूजन की तरह ही देंगे।</p>
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<p style="text-align: left;" align="right">(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>प्राथमिक शिक्षा के डगमगाते कदमtag:openbooks.ning.com,2014-10-01:5170231:BlogPost:5788372014-10-01T06:10:37.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p>विश्व गुरु कहलाने वाले भारत की बुनियादी शिक्षा सरकार के हाथों की कठपुतली बनकर रह गयी है। कहते हें बुनियाद जितनी मजबूत होगी, इमारत उतनी ही बुलंद होगी I इसी तरह प्राथमिक शिक्षा का स्तर जितना बेहतर होगा, देश के नौनिहालों का भविष्य उतना ही उज्जवल होगा । आज एक तरफ हम विकास की तमाम राहें क्यू न तय कर रहे हों और देश की तरक्की के लिए विदेशों के साथ दोस्ती का ख्वाब बेशक सज़ा रहे हो, लेकिन दूसरी तरफ इन सबके साथ एक बहुत बड़ा कड़वा सच जो हम अपनी आंखो से देख रहे है वो है प्राथमिक शिक्षा का डगमगाता स्वरूप,…</p>
<p>विश्व गुरु कहलाने वाले भारत की बुनियादी शिक्षा सरकार के हाथों की कठपुतली बनकर रह गयी है। कहते हें बुनियाद जितनी मजबूत होगी, इमारत उतनी ही बुलंद होगी I इसी तरह प्राथमिक शिक्षा का स्तर जितना बेहतर होगा, देश के नौनिहालों का भविष्य उतना ही उज्जवल होगा । आज एक तरफ हम विकास की तमाम राहें क्यू न तय कर रहे हों और देश की तरक्की के लिए विदेशों के साथ दोस्ती का ख्वाब बेशक सज़ा रहे हो, लेकिन दूसरी तरफ इन सबके साथ एक बहुत बड़ा कड़वा सच जो हम अपनी आंखो से देख रहे है वो है प्राथमिक शिक्षा का डगमगाता स्वरूप, जिसका असर देश के आने वाले कल पर पड़ना स्वाभाविक है। हम सब गाँव में बसने वाले करोड़ों बच्चों को निरक्षर होते देख रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा की नींव दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है, तरक्की के पायदान तय करना तो दूर हम जहाँ थे वहाँ ठहर भी न सके यह कशमकश मन में इसलिए भी रहती है कि अनेक महत्वकांक्षी योजनाओं के बावजूद देश के प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों कि संख्या में लाखों की कमी आती जा रही है। तमाम सरकारी योजनाओं और जागरूकता अभियानों के बाद भी बहुत बड़ी तादात में बच्चों का प्राथमिक स्कूल से लगातार कम होना पूरी शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है।</p>
<p></p>
<p>वैदिक काल से लेकर अब तक भारतवासियों के लिए शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा जीवन के हर पहलू को रोशन कर तरक्की के मार्ग प्रशस्त करती है जिसकी शुरुआत प्राथमिक शिक्षा से होती है। अरबों रुपये खर्च होने के फलस्वरूप विकास की पहली कड़ी प्राथमिक शिक्षा अपने सफल अंजाम तक नहीं पहुँच पा रही है। इस बात को कहने में कतई गुरेज नहीं है कि शासन, प्रशासन और शिक्षा विभाग को कुम्भ्कर्णी नींद से जागना होगा, सिर्फ योजनाएँ बनाकर करोड़ो-अरबों रुपये बहाने से शिक्षा की गुणबत्ता को सुधारा नहीं जा सकता है। ज़रूरत है द्रढ़ इच्छाशक्ति की, जो कि एक ऐसी औषधि है जो पूरे तंत्र को ऊर्जावान बना सकती है, क्योंकि असंभव कुछ भी नहीं है। एक तरफ जब हम चुनिन्दा सरकारी विश्वविद्यालयों, अभियांत्रिकी, प्रबंधनीय एवं चिकित्सीय संस्थानों को उच्चस्तरीय और विश्वस्तरीय बना सकते हैं, जहां पर चंद सीटों में प्रवेश के लिए लाखों छात्र बैठते हों, वहीं दूसरी ओर सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति इतनी खराब क्यों है कि तमाम बजट बढ्ने के बावजूद इन विद्यालयों में शिक्षा लेना तो दूर कोई जरा भी आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति अपने बच्चों को इनमें प्रवेश नहीं दिलाना चाहता है और जो प्रवेश दिलवाते हैं उनकी आर्थिक मजबूरियाँ होती हैं, ऐसे बच्चों का भविष्य प्राथमिक शिक्षा को पूरा करने से पहले ही अपना दम तोड़ देता है ? इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि हमारे देश में किसी भी व्यक्ति के लिए उच्च शिक्षा एवं विकास का रास्ता उसकी खुद की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। देश का हर नागरिक भली-भाँति इस तथ्य से परिचित है कि किसी भी देश का कल उसकी आने वाली पीढ़ी ही निर्धारित करती है और अगर उसी शिक्षा को बहुत हल्के में लिया जाएगा तो क्या यह देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं होगा? अपने देश के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा को देखकर तो बस यही लगता है। प्राथमिक शिक्षा की तस्वीर का एक उदाहरण देखिये – कक्षा पाँच के विद्यार्थी न तो गणित का साधारण सा जोड़ और घटाना कर सकते हैं और न ही मातृभाषा में लिख-पढ़ सकते हैं। क्या इन बच्चों के कंधे पर अपने देश का भविष्य सौंप कर जाएंगे हम सब? देश की सियासत और उसको चलाने वाली नौकरशाही पता नहीं किस मद में हैं कि उसे अपने देश के इस भविष्य की परवाह तक नहीं है। कभी केंद्र सरकार और कभी राज्य सरकार एक दूसरे के कंधे पर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ डालकर अपने दायित्वों से मुक्त होना चाहती हैं पर ज़रूरत है कि राज्य सरकारों को द्रढ़ इच्छाशक्ति से इस ओर कदम बढ़ाने की, क्यूँकि बजट कुबेर के खजाने जैसा और काम ढाक के तीन पात। जब केन्द्र सरकार ने प्राथमिक शिक्षा का अपना आवंटन लगभग दस गुना बढ़ा दिया तो इसके परिणाम भी आशातीत मिलने चाहिए, लेकिन हुआ इसका उल्टा। इस डगमगाते कदम के लिए जिम्मेदार कौन? प्राथमिक शिक्षा की बेहतरी के लिए साल दर साल बजट आवंटन करने वाला मानव संसाधन विकास मंत्रालय या शिक्षा के अधिकार कानून को मूर्तरूप देने वाले शिक्षाविद? वैसे प्राथमिक शिक्षा की कमान संभालने वाली प्रदेश सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो केंद्र सरकार से मिलने वाले बजट का सदुपयोग करने में एक अच्छा माध्यम बन सके । जबकि प्रदेश सरकारें केंद्र से इस मद का हिस्सा तो पूरा ले लेती हैं। लेकिन स्थिति जस की तस रहती है। स्थिति इतनी बदतर हो चुकी है कि अधिकांशत: विद्यालय में एक अध्यापक और एक शिक्षामित्र रहता है। या फिर पढ़ाने का काम अतिथि शिक्षकों के भरोसे डाल दिया जाता है। कुछ स्कूलों मे तो स्थिति यह है कि आधिकारिक तौर पर शिक्षक तैनात तो हैं लेकिन स्कूलों में पढ़ाने के लिए सरकारी शिक्षकों ने स्कूल के पास के गाँव से अपनी जगह किसी और कम पढे लिखे युवक को मासिक तौर पर यह ज़िम्मेदारी दे रखी हैं जिससे न वे समुचित शिक्षा दे पाते हैं, और न ही मिड–डे–मील जैसे प्रोजेक्ट को पूर्ण कर पाते हैं। सरकार नियम कानून बनाने में तो पूर्ण दायित्व का निर्वहन करती है तत्पश्चात अपना पल्ला झाड़ लेती है। शायद यही वजह है कि आज प्राथमिक विद्यालय की बदहाल स्थिति सबके सामने है। शासन से लेकर प्रशासन तक अपनी गतिविधियों की खानापूर्ति सिर्फ फाइलों में समेटकर रखते हैं। शिक्षा का स्तर कैसा होगा और कैसा होना चाहिए इसकी चिंता न तो राजनेता करते हें और न ही अधिकारी। व्यावहारिक रूप से अगर हम सोचें कि ऐसे कौन से कारण हें जिस कारण सरकारी प्राथमिक शिक्षा कि स्थिति हास्यास्पद बनी हुयी है, प्रत्यक्ष रूप से मुख्य कारण जो मुझे महसूस होता है वह यह है कि शिक्षा विभाग के अधिकारी निरीक्षण करने से बचते हें और खास तौर से गाँव में जाने से पूर्ण परहेज करते हैं। सारा काम कुर्सी पर बैंठकर फाइलों में लिखित रूप से पूर्ण कर लिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षक वर्ग पूरी तरह से स्व्छंद और मनमानी करने में लगे हैं। स्थितियां बद से बदतर होते होते इस लंबे अंतराल में यह पाया गया कि जिस बुनियाद को मजबूत करने के सपने हम देख रहे थे उसकी एक-एक ईंट अंदर ही अंदर हिलने लगी है और आज पूरी सरकारी शिक्षा व्यवस्था पंगु बनकर रह गयी है। </p>
<p></p>
<p>देश में आधारभूत शिक्षा की गुणवत्ता काफी चिंता का विषय बनी हुई है और अक्सर आये दिन इस विषय पर विचार विमर्श होते रहते हें और लंबी चौड़ी बहसें भी होती हैं सभी का एक ही कहना होता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं, परंतु ये बात तो हम सभी जानते हैं लेकिन जरूरत है सही दिशा निर्देशन की, द्रढ़ इच्छा शक्ति की। फिर हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारे बच्चे आने वाले कल में पूरी दुनिया में अपने देश का नाम रोशन करने का जज्बा रख सकेगें और एक बेहतर इंसान के रूप अपने समाज कि ज़िम्मेदारी का निर्वहन कर सकेंगे। गौरतलब है कि देश की संसद को प्राथमिक शिक्षा में आशातीत सुधार लाने एवं सभी बच्चों को साक्षर बनाने का स्वप्न आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा लक्ष्य था जो आज तक एक स्वप्न ही बना हुआ है, सोचा तो बहुत कुछ था हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने कि बुनियादी शिक्षा अपने राष्ट्र की जड़ों से जुडते हुये अपने स्वदेशी मूल्यों, संस्कृति, संस्कारों व परम्पराओं का पोषण करेगी। उस समय इस बात पर गौर भी नहीं किया गया होगा कि उम्मीद से ज्यादा वजट खर्च करने के पश्चात भी नामांकन की प्रक्रिया के आंकडों के लक्ष्य को पूरा करने में भी समकालीन सरकार असफल साबित होंगी।</p>
<p></p>
<p>निसंदेह आज राष्ट्र की प्राथमिक शिक्षा अपने सफल अंजाम के लिए चुनौती बना हुआ है बावजूद उसके सरकारी तंत्र, अधिकारीवर्ग व शिक्षकगण के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है। अगर समय रहते राज्य सरकार ने अधिकारियों और शिक्षकगण की जबावदेही सुनिश्चित नहीं की तो शत प्रतिशत साक्षर करने की योजना सिर्फ योजना बनकर ही दम तोड़ देगी । हाशिये पर जा चुकी प्राथमिक शिक्षा को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार को अपनी अहम भूमिका निभानी ही होगी, तभी आने वाले कल की कहानी हमारे देश के बच्चे स्वर्णअक्षरों में लिख सकेंगे ।<b> </b> <b>( मौलिक एवं अप्रकाशित)</b></p>सावन के झूलों ने मुझको बुलायाtag:openbooks.ning.com,2014-07-23:5170231:BlogPost:5613852014-07-23T14:00:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p align="center" style="text-align: left;"><strong>सावन के झूलों ने मुझको बुलाया</strong></p>
<p align="right">डॉ० ह्रदेश चौधरी</p>
<p align="center">मदमस्त चलती हवाएँ, और कार में एफएम पर मल्हार सुनकर पास बैठी मेरी सखी साथ में गाने लगती है “सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापिस आया”। गाते गाते उसका स्वर धीमा होता गया और फिर अचानक वो खामोश हो गयी, उसको खामोश देखकर मुझसे पूछे बिना नहीं रहा गया। वो पुरानी यादों में खोयी हुयी सी मुझसे कहती है कहाँ गुम हो गए सावन में पड़ने वाले झूले, एक…</p>
<p style="text-align: left;" align="center"><strong>सावन के झूलों ने मुझको बुलाया</strong></p>
<p align="right">डॉ० ह्रदेश चौधरी</p>
<p align="center">मदमस्त चलती हवाएँ, और कार में एफएम पर मल्हार सुनकर पास बैठी मेरी सखी साथ में गाने लगती है “सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापिस आया”। गाते गाते उसका स्वर धीमा होता गया और फिर अचानक वो खामोश हो गयी, उसको खामोश देखकर मुझसे पूछे बिना नहीं रहा गया। वो पुरानी यादों में खोयी हुयी सी मुझसे कहती है कहाँ गुम हो गए सावन में पड़ने वाले झूले, एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आँगन में लगे पेड़ पर झूले पड जाते थे और किशोरियाँ गाने लगती थी।</p>
<p> कच्चे नीम की निवौरी, सावन जल्दी आइयों रे। </p>
<p> अम्मा दूर मत दीजों रे, दादा नहीं बुलावेंगे।</p>
<p> भाभी दूर मत दीजों रे, भईया नहीं बुलावेंगे।</p>
<p>सावन के झूलों की ये झोट बृजक्षेत्र के हर गाँव, हर कस्बे में और हर नगर में जगह जगह नजर आती थी, पास पड़ौस की सभी महिलाएं अपनी अपनी सहेलियों के साथ झुंड बनाकर घरों में झूले डालती थी या फिर घरों से बाहर बाग- बगीचों में झूले डालती थी, रंग बिरंगे वेषभूषा में उनका दमकता सौन्दर्य प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में और भी मनमोहक लगता था। किशोरियों और बालाओं में सावन के गीतों की प्रतिस्पर्धा सी होने लग जाती थी। झूलों के झोटे के साथ गीतों के आनंद की पींगे बढ्ने लगती थी। हर विवाहिता के मन में पहले सावन की हूक उठने लगती थी, वो अपने माइके में जाकर अपनी सखी सहेलियों से ठिठोली करने की सोचने लगती थी । अपने प्रियतम को सावन की पाती लिखने के लिए उसका दिल मचलने लगता था। साथ ही झूलों से आकाश चूमने की चाहत जवान होने लगती थी। बरखा बहार उसके तन मन को भिगोने लगती थी और उसका मन मयूर नृत्य करने लगता था। आखिर कुछ तो बात है इस महीने में जो सावन की इस आहट का पता अपने आप ही लगने लगता है और मन में कल्पनाएँ आकार लेने लगती हें। </p>
<p>फिज़ाओं में जब सौंधी खुशबू आने लगे, मदमस्त हवाएँ बहने लगे, प्रकृति प्रेयसी के गीत गुनगुनाने लगे, भीगी-भीगी रुत में हम-तुम, तुम-हम कहने लगे दिल की हर धड़कन तो समझ लीजिये कि सावन का खुमार अपने पूरे यौवन पर है, जी हाँ सावन होता ही ऐसा है। क्या घर, क्या आँगन, क्या जंगल, क्या नदिया और क्या बादल सावन में तो ऐसा लगता है जैसे कि पूरी कायनात भीग रही है और जब रेशा-रेशा, पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, जर्रा-जर्रा जिस वक़्त भीगता है तब मिट्टी की सौंधी खुशबू हवाओं में घुल जाती है। अलबेली प्रकृति में नवयौवनायेँ झूम के गाने लगती हैं। </p>
<p> रिम-झिम के गीत सावन गाये, हाय</p>
<p> भीगी-भीगी रातों में।</p>
<p> होंठो पे बात दिल की आय, हाय</p>
<p> भीगी-भीगी रातों में।</p>
<p>वर्षा ऋतु की बहार में हमारे कवि भी खूब बहे। महादेवी वर्मा ने खुद को सावन की बदली का प्रतीक माना</p>
<p> मैं नीर भरी दुख की बदली</p>
<p> परिचय इतना ही इतिहास यही</p>
<p> उमड़ी कल थी मिट आज चली</p>
<p> मैं नीर भरी दुख की बदली</p>
<p> परिचय इतना इतिहास यही</p>
<p>दिन गुजरते गए और सब कुछ पीछे छूटता गया, साल दर साल बीतने के साथ ही हम आधुनिकता की दौड़ में शामिल होते गए। जबकि घटाएँ अब भी उमड़-घुमड़ कर आती हैं, आकाश अब भी बरसता है, फिल्मो में अब भी सावन के गीत गूँजते हें, गाँव, घर और जंगल अब भी सावन की फुहारों से सराबोर होता है। प्रकृति रूपी प्रेयसी और आकाश रूपी प्रियतम का दिल अब भी मचलता है। अगर कुछ बदला है तो वक़्त, और इस वक़्त के चलते सावन की खुशबू घरों के भीतर तक ही सिमटकर रह गयी है। संस्कृति में रची बसी मौज मस्ती अब क्लबों और होटलों की चमक दमक में गुम होती जा रही है। जो हमारी भारतीय परम्पराओं को दीमक की तरह चाट रही है। हमे सहेजना होगा प्रकृति की इस अनुपम छटा को और इससे उपजे हुये उल्लास को, ताकि दिन प्रतिदिन अवसाद से ग्रसित होती जा रही हमारी संवेदनाओं को पुनर्जन्म मिल सके। </p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p> </p>पैसे की बिसात पर लोकतंत्रtag:openbooks.ning.com,2014-03-26:5170231:BlogPost:5240592014-03-26T09:30:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p align="center" style="text-align: left;"><strong>पैसे की बिसात पर लोकतंत्र</strong></p>
<p align="center" style="text-align: left;"></p>
<p align="right" style="text-align: left;">लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सबसे भव्य प्रदर्शन अप्रैल और मई में होने वाला है जब देश के 81करोड़ मतदाताओं को अपने सांसदों को चुनने का सौभाग्य मिलेगा। मतदाताओं को अपने एक-एक वोट से उत्कृष्ट नेताओं को संसद तक पंहुचाने के लिए चुनावी इम्तिहान से गुजरना होगा। पैसा, प्रलोभन और भाई भतीजावाद से ऊपर उठकर लोकतंत्र के सभी मानकों…</p>
<p style="text-align: left;" align="center"><strong>पैसे की बिसात पर लोकतंत्र</strong></p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="right">लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सबसे भव्य प्रदर्शन अप्रैल और मई में होने वाला है जब देश के 81करोड़ मतदाताओं को अपने सांसदों को चुनने का सौभाग्य मिलेगा। मतदाताओं को अपने एक-एक वोट से उत्कृष्ट नेताओं को संसद तक पंहुचाने के लिए चुनावी इम्तिहान से गुजरना होगा। पैसा, प्रलोभन और भाई भतीजावाद से ऊपर उठकर लोकतंत्र के सभी मानकों में श्रेष्ठता बरकरार रखनी होगी। देश की जनता को मतदान के द्वारा सियासी इम्तिहान देना है क्योंकि चुनावी विसात तैयार है, पैसों के द्वारा वोटरों को लुभाने की चालें चलनी शुरू हो गयी हैं, आधारभूत मसलों से मतदाताओं को भटकाकर पैसों का प्रलोभन, धर्मवाद, जातिवाद, भाई भतीजावाद और ग्लैमर का तड़का लगाकर सब जीतने की होड़ में लगे हुये हैं।</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;">ये अक्षरश: सत्य है कि अपने भाग्य के विधाता बनाने की चाबी जब हमारे स्वयं के पास है तो गुनहगार भी हम स्वयं हैं जो कि अपने वोट की कीमत की तराजू में तुल जाते है। हमें गांधारी कि तरह ध्रतराष्ट्र का हाथ पकड़ कर आगे नहीं बढना है, हमें प्रलोभन और खरीद-फरोख्त की राजनीति को धता बताकर आगे बढना है, असंतोष के अंगारे हमारी वोट की चोट में नज़र आने चाहिये ।</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;">देश में आम चुनाव का शंखनाद हो चुका है, और राजनीतिक पार्टियां एक बार फिर गुणा-भाग करने में जुट गईं हैं। इस चुनावी अभियान में सबसे गौर करने वाली बात यह है कि आम जनता के मुद्दे पूरी तरह से गायब हैं। सारी कसरत और सारा चिंतन-मनन इस बात पर होता है कि कौन कितने पैसों से ज़्यादा-से-ज़्यादा वोट खरीद सकता है। पैसों की राजनीति के सामने लोकतंत्र अब घुटना टेक चुका है। ऐसी विषम परिस्थिति में ये मतदान भारत के उन नौजवानों के लिए, पढ़े-लिखे लोगों के लिए, महिलाओं के लिए, वैज्ञानिकों के लिए, और प्रवुद्ध नागरिकों के लिए एक ऐसा अश्वमेघ यज्ञ है जिससे वो अपने वोटरूपी आहुती डालकर एक ऐसे प्रतिनिधि को संसद में भेज सकते हैं जो उनके अनुरूप कार्य कर सके और उनकी बात सुन सके। संभवतया संसद में सांसद जनता की पसंद के बैठे होंगे। इसके बावजूद भी हम लालचवश चंद पैसों में बिक जाते हैं। कभी जाति की राजनीति में बह जाते हैं, तो कभी धर्म की राजनीति में न्योछावर हो जाते हैं। एक बार मन में रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा जैसे मुद्दों पर इन सभी को आज़मा कर देखिये फिर लोकतन्त्र की खुसबू आम आदमी के घर के मिट्टी के बर्तनों में भी आएगी।</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;">जो राजनीति देश की दशा और दिशा तय करने वाली संसद से लेकर आपके रसोईघर तक में बैठी हो, वह कम महत्वपूर्ण कैसे हो सकती है ? जब वक्त एवं चुनाव हमारे और आपके हाथ में है तब कोसने के बजाय जनता और नेताओं को अपने अपने फर्ज़ निभाने चाहिए क्योंकि राजनेता किसी दूसरी प्रजाति के सदस्य नहीं है, वे इसी समाज के हिस्सा हैं। उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि जनता को प्रलोभन की राजनीति का ख्वाब न दिखाएँ। लोकतन्त्र की खूबसूरती यह है कि स्वयं को प्रलोभन की राजनीति से बचाकर ईमानदार छवि वाले नेताओं को संसद में भेजकर देश में बदलाव की बयार लाएँ। मंच से भाषण देते हुये हर कोई जनतंत्र को बचाने की बड़ी-बड़ी बातें करता है, किन्तु जब इन भाषणों की हकीकत देखने का अवसर मिलता है उन जगहों पर, जहां चार लोग खड़े होकर बात करते नज़र आते हैं या फिर उन जगहों पर जो लोग अपने-अपने क्षेत्र के नेता को जिताने के लिए समूह में बात करते नज़र आतें हैं, उनकी बातें सुनकर लोकतन्त्र का रंग स्याह हो जाता है। इन सब की बातों का मूल सार होता है पैसा और सिर्फ पैसा, जिसके लिए सब बिक जाते हैं। जो लोग पाँच साल तक बिजली, सड़क, पानी, सुरक्षा और विकास को लेकर बातें करते नहीं थकते थे वे सबके सब चंद पैसों के लालच में नेता के हाथों के कठपुतली बन जाते हैं। नेता उनके क्षेत्र में आते हैं और नोटों की गड्डियाँ दिखाकर रफूचक्कर हो जाते हैं। क्षेत्रीय नेता लग जाते हैं उन पैसों का बंदरबाट करने में, और जनता को मिलता है एक वोट के बदले एक बॉटल शराब। इस तरह ऐसी बस्ती तैयार हो जाती है वोट देने के लिए जिनके आगे विकास के मुद्दे भी कोई मायने नहीं रखते। भोली-भली गरीब जनता या फिर ऐसे तबके के लोग जो सौ एवं पाँच सौ रूपये में देश के विकास के सभी मुद्दे बेच देते हैं और छुट भैया नेताओं के लालच भरी बातों में आकर सच होते ख्वाब को खुद मसल देते हैं।</p>
<p style="text-align: left;">पैसे की राजनीति सुरसा के मुख की भाँति विकराल रूप धारण कर चुकी है आज हमारे देश के लोकतन्त्र का ये उत्सव मुंबई शेयर बाज़ार की तरह बनता जा रहा है जहाँ नेता आम जनता का वोट खरीदकर अपना शेयर भाव बढ़ाते हें। नेताओं को भी इस बात का यकीन हो चुका है कि चुनाव में आम जनता के मुददों को वे उठाए या ना उठाए उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्यूकि चुनाव में हार जीत इस बात पर तय होती है कि किस नेता का फाइनेंस मेनेजमेंट कैसा रहा है।</p>
<p style="text-align: left;">बात यही पर खत्म नहीं हो जाती, ये प्रलोभन का सिलसिला सिर्फ मतदान तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि सरकार के गठन की प्रक्रिया में भी अपना वर्चस्व कायम रखता है जब पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बन पाती तब इन्ही नेताओं के बारे न्यारे हो जाते हें। सेकड़ों और हजारों में दिया जाने वाला प्रलोभन करोड़ों की सीमा पार कर जाता है। पैसे का ये खेल अब चोरी छुपे नहीं बल्कि सरेआम खेला जाता है संसद में नोटों की गड्डियाँ लहराई जाती हें, और लोकतंत्र के इस मंदिर की धज्जियां उड़ाईं जाती हें। गठबंधन की सरकार में छोटे छोटे दल भी धनकुबेर हो जाते हें। पैसों की विसात पर विछा ये लोकतंत्र अपनी बेवसी पर कराह उठता है अमृतपान के लिए जो जनता इस लोकतंत्र के समुद्र का मंथन करती है उसको सिर्फ हलाहल विष मिलता है और सत्ता सुंदरी के हाथों आए उस अमृत कलश को हासिल करने के लिए इन्ही नेताओं की राक्षसी प्रवत्ति जाग उठती है। जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐशों आराम की ज़िंदगी का फलसफ़ा हमारे इन रहनुमाओं को मानव से दानव बना देता है। आखिर पैसे के बल पर पैसा कमाना इनका ध्येय बन जाता है। लोकतंत्र के लिए पैसे का ये नंगा नाच राजनीति को इतना कलंकित करता है कि आज राजनीति एक उद्योग के रूप में विकसित हो चुकी है। वक़्त आ गया है सभी प्रलोभनों से मुख मोड़कर विकास के मुद्दे पर अपना मत देकर बड़े बदलाव के लिए छोटी शुरुआत की जा सकती है। </p>
<div style="text-align: left;"><p></p>
<p>.</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>डॉ० ह्रदेश चौधरी</p>
</div>गंगा जमुनी तहज़ीब है बसंतtag:openbooks.ning.com,2014-02-04:5170231:BlogPost:5080322014-02-04T14:00:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p align="center" style="text-align: left;">गंगा जमुनी तहज़ीब है बसंत</p>
<p align="center" style="text-align: left;"></p>
<p align="center" style="text-align: left;">पलकों की छांव में आकर जो खामोश हुये बैंठे हैं ।</p>
<p align="center" style="text-align: left;">दिल की चौखट पर हजारों सवालात लिए बैंठे हैं ।</p>
<p align="center" style="text-align: left;"></p>
<p align="center" style="text-align: left;">पीले फूलों की तरह हर तरफ खिलता रहे बसंत,…</p>
<p style="text-align: left;" align="center">गंगा जमुनी तहज़ीब है बसंत</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">पलकों की छांव में आकर जो खामोश हुये बैंठे हैं ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">दिल की चौखट पर हजारों सवालात लिए बैंठे हैं ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">पीले फूलों की तरह हर तरफ खिलता रहे बसंत,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">बासन्ती परिधान में इश्क के जज़्बात लिए बैंठे हैं ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">प्यार, मोहब्बत, इश्क चाहे जिस नाम से पुकारो,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">सूर और नज़ीर के हम खयालात लिए बैंठे हैं ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">सरसों के पुष्प से गुलजार है खेत और खलिहान,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">कृषकों की खुशियों के हम पारिजात लिए बैंठे हैं ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">हम भी बना देते मोहब्बत का दूसरा ताजमहल,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">पर शाहजहाँ द्वारा कटवाए हुये हाथ लिए बैंठे हैं ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">इस बासन्ती मौसम में तन - मन है प्रफुल्लित,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">गंगा जमुनी तहजीव की सौगात लिए बैंठे हैं ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center"> </p>
<p style="text-align: left;" align="center">डॉ हृदेश चौधरी</p>
<p style="text-align: left;" align="center">महासचिव</p>
<p style="text-align: left;" align="center">आराधना संस्था</p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p style="text-align: left;">नोट: यह रचना मौलिक एवं अप्रकाशित है ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"> </p>हर नुक्कड़, चौराहे पर गणतन्त्र कराहता हैtag:openbooks.ning.com,2014-01-26:5170231:BlogPost:5043952014-01-26T17:30:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p align="center" style="text-align: left;">हर नुक्कड़, चौराहे पर गणतन्त्र कराहता है</p>
<p align="center" style="text-align: left;">“किन्तु परंतु के भँवर में घुमंतू समाज”</p>
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<p>‘’वसुधैव कुटुंबकम’’ मूलमंत्र की प्राप्ति की पहली सीढ़ी शिक्षा ही है जिसको हासिल कर कोई भी देश अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। हमने अपने महापुरुषों के बलिदान से आज़ादी का सपना पूरा कर लिया, उस आज़ादी का सूरज निकले अरसा बीत चुका, ढंग से जीने का मौका अधिकार भी मिला, दुनिया के साथ अपना देश भी…</p>
<p style="text-align: left;" align="center">हर नुक्कड़, चौराहे पर गणतन्त्र कराहता है</p>
<p style="text-align: left;" align="center">“किन्तु परंतु के भँवर में घुमंतू समाज”</p>
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<p>‘’वसुधैव कुटुंबकम’’ मूलमंत्र की प्राप्ति की पहली सीढ़ी शिक्षा ही है जिसको हासिल कर कोई भी देश अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। हमने अपने महापुरुषों के बलिदान से आज़ादी का सपना पूरा कर लिया, उस आज़ादी का सूरज निकले अरसा बीत चुका, ढंग से जीने का मौका अधिकार भी मिला, दुनिया के साथ अपना देश भी तरक्की और प्रगति की दौड़ लगा रहा है। देश में जहां विकास की तमाम योजनाएँ संचालित हो रही हें वही एक समाज ऐसा भी है जिनकी आँखें दर्द और पीड़ा की दास्ताँ हर पल कुछ कहती है, जिनको न तो ढंग से जीने का अधिकार ही मिला और न ही इनकी कला को सम्मान।</p>
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<p>एक समय ऐसा भी था जब हुनरबंद पलायन करने वाले को उनकी श्रेष्ठ कलाओं, तकनीक के कारण सम्मान दिया जाता था। सुंदर गहरे रंगो के परिधानों में सजे ‘गाड़िया लुहार’ (घुमंतू), बंजारा जाति के ये लोग सड़क के किनारे आज भी हमे दिखाई देते हें, पर उनकी कला के प्रति सम्मान और बेहतर ज़िंदगी के प्रयास नदारद है। आज तक देश और प्रदेश में से किसी भी सरकार ने इस जातियों के उत्थान के लिए नहीं सोचा है जबकि छठी सदी के संस्कृत के महाकवि दंडी ने अपनी रचना ‘दशकुमार चरित्र’ में भी इस जाति का उल्लेख किया है। शहरी भारत को एक तिहाई आबादी भारत में बेघरवार इधर-उधर भटक रही है, इनकी न तो कोई नागरिकता होती है, न ही कोई पहचान, देश नागरिक के होने के बावजूद ये घुमंतू, बंजारा जाति के ये लोग न ही देश के नागरिक हें और न ही उन्हें नागरिक जैसे अधिकार प्राप्त हें। एक समाज के साथ इससे बड़ी नाइंसाफी क्या होगी, सरकार ने भी इनको अपने नसीब के साथ मरने के लिए छोड़ रखा है। तरक्की के इस मोड पर भी, पुलिस, प्रशासन और समाज इनको अपराधियों की नजर से देखता है। बुलंदी पर पहुँचने के लिए जितनी ऊंचाई से हमने छलांग लगाई उतनी तेजी से हमारी संवेदनाओं ने दम भी तोड़ा है।</p>
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<p>उपर खुला आसमान है, और नीचे धरती, इस दुनिया में इनके ये ही दो अपने हें। ये वो उपेक्षित और वंचित समाज है, जिनके अधिकारों की आवाज़ कोई नहीं उठाता है, सड़क किनारे की जगह जहां आमतौर पर कचरे के अंबार देखने को मिलते हें उस जगह पर अपनी ज़िंदगी जीने को विवश हें। सड़क पर विकसित भारत की वीभत्स तस्वीर देख अदम ‘गौंडवी’ का यह शेर की ‘’सरापा गुल मुहर है ज़िंदगी, हम गरीबों की नजर में एक कहर है ज़िंदगी’’।</p>
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<p>इस उपेक्षित समाज की व्यथा को तकदीर समझा जाए या उदासीनता .... अमीर हो या गरीब ख्वाब सबकी पलकों में सजते हे, बड़ी-बड़ी कल्पनाओं की तस्वीर भी गढ़ते होंगे, लेकिन दूसरे ही पल वो ख्वाब और तस्वीर बदरंग हो जाते होंगे, जब अपनी बदनसीबी को सड़क के किनारे रखे चूल्हे को देखते होंगे, जो न जाने कब किसकी बुरी नजर का शिकार हो जाए, और एक एक रोटी के लिए तरस जाए। कौन नहीं चाहता कि उसके पास मकान के नाम पर छत हो, जिसमें उसकी बूढ़ी माँ और बच्चे सकून से रह सके, कौन नहीं चाहता कि उसके बच्चे स्कूल जाएँ, कौन नहीं चाहता कि जब वो काम से वापिस आयें तो उसका परिवार स्वागत करे। लेकिन मजबूरियां उसकी सोच और सपने को चकनाचूर कर घायल कर देती है। क्यों इतनी संवेदनहीन होती जा रही है सरकार और हम सब। इस समाज की बस एक ही पुकार कब निकलेगा हमारी आज़ादी का सूरज, घुमंतू समाज की बदहाल ज़िंदगी की सुधि लेने वाला कोई नहीं है। सैकड़ों सदस्यों के समुदाय की हर झोपड़ी में निराशा का अँधियारा है। बेरोजगार नौजवान की फ़ौज है, बीमार बच्चे देश की सेहत पर सवाल खड़ा करते हें। अपने ही हक़ की जमीन मयस्सर नहीं है। ढेर सारे सवालों के कटघरे में खड़ी इनकी ज़िंदगी पर सरकार के नुमाइंदों की नजर इनकी तरफ नहीं उठ रही है। आज स्थिति यह है कि इन घुमंतू जातियों को अब तक देश में मूल निवास प्रमाण पत्र और राशन कार्ड जैसे मूलभूत दस्तावेज़ तक नहीं प्राप्त है। सवा सौ करोड़ कि आबादी वाले देश में इनकी संख्या कितनी है, इनका जबाव सरकारी आंकड़ों में उपलब्ध होना भी मुश्किल होगा। ठीक इसके विपरीत छठी सदी के दौर में घुमंतू जातियों का समाज में एक प्रमुख स्थान था, कला और तकनीक के क्षेत्र में उस समय के शासकों द्वारा सम्मानित किया जाता था। और आज विडम्बना यह है कि इस समाज के लोग अपने ही देश और संस्कृति से कटकर सड़क किनारे रहने को मज़बूर हें।</p>
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<p>उम्मीदों का पसीना बहाते हुये हर रोज इस आशा से जागते हें कि आज का सूरज उनकी ज़िंदगी को रोशन करेगा। सरकार की तरफ से पहल होनी चाहिए कि उनके समाज की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का आंकलन किया जाय और विकास की योजनाएँ बनाई जाय जिससे इस वर्ग को भी समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का समुचित अवसर मिल सके। यही कहना ठीक रहेगा कि शिक्षा ही वह चिराग है जिनसे इनकी जिंदगियाँ रोशन हो सकती हें, एक बेहतर ज़िंदगी जी सकते हें, लोकतन्त्र कि सोच में शामिल हो सकते हें। शिक्षा की पाठशाला ही इनको उन्नति के द्वार तक ले जा सकती है क्यूंकि साक्षर बच्चे ही खुशहाली और बुलंदियों की सीढ़ियाँ चढ़ते हें। और देश की आने वाली पीढ़ियाँ इतिहास रचती हें। साथ ही घुमंतू समाज अपना खोया हुआ गौरव पुनः हासिल कर सकता, देश के विकास में अपना महत्तपूर्ण योगदान दे सकेगा। गणतंत्र देश का सपना साकार होगा। एक कराहता समाज खोया हुआ आत्मसम्मान प्राप्त कर सकेगा।</p>
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<p>डॉ ह्रदेश चौधरी</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>रिश्तों का अलंकार बनूँगी माँtag:openbooks.ning.com,2014-01-14:5170231:BlogPost:4997272014-01-14T14:00:00.000ZDR. HIRDESH CHAUDHARYhttps://openbooks.ning.com/profile/DRHIRDESHCHAUDHARY
<p align="center" style="text-align: left;"><strong>रिश्तों का अलंकार बनूँगी माँ</strong></p>
<p align="center" style="text-align: left;"> </p>
<p align="center" style="text-align: left;">इंद्र्धनुष के समाये हें मुझमें सातों रंग</p>
<p align="center" style="text-align: left;">हर कली में ममता का श्रंगार करूंगी माँ।</p>
<p align="center" style="text-align: left;">बंद कली खिल जाने दे, नई सृष्टि रच जाने दे,</p>
<p align="center" style="text-align: left;">इस जग में आकर प्रकृति का उपहार बनूँगी…</p>
<p style="text-align: left;" align="center"><strong>रिश्तों का अलंकार बनूँगी माँ</strong></p>
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<p style="text-align: left;" align="center">इंद्र्धनुष के समाये हें मुझमें सातों रंग</p>
<p style="text-align: left;" align="center">हर कली में ममता का श्रंगार करूंगी माँ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">बंद कली खिल जाने दे, नई सृष्टि रच जाने दे,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इस जग में आकर प्रकृति का उपहार बनूँगी माँ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"> </p>
<p style="text-align: left;" align="center">माँ तू अपना ही अस्तित्व मिटाने में लगी,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">गुनहगार बन क्यूँ लिंगानुपात घटाने में लगी।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">तेरे कलेजे का टुकड़ा हूँ, मैं तेरा ही तो मुखड़ा हूँ</p>
<p style="text-align: left;" align="center">आँगन में आकर तेरी पायल की झनकार बनूंगी माँ।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"> </p>
<p style="text-align: left;" align="center">माँ तेरी ममता आज क्यूँ इस तरह बिखरने लगी</p>
<p style="text-align: left;" align="center">सारी इंसानियत तेरे इस कदम से सिहरने लगी.</p>
<p style="text-align: left;" align="center">बेशक तेरी कोख में बंद हूँ, पर मैं मुकम्मल छंद हूँ,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">दुनियाँ में आकर रिश्तों का अलंकार बनूँगी माँ।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित) </p>
<div style="text-align: left;"><p>डॉ० ह्रदेश चौधरी </p>
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