Sheikh Shahzad Usmani's Posts - Open Books Online2024-03-28T18:58:22ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmanihttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2966943301?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=3m4jolv1wc3wy&xn_auth=noमुंगेरीलाल के वैक्सीन सपने (कहानी) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी :tag:openbooks.ning.com,2020-11-12:5170231:BlogPost:10369452020-11-12T03:00:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>मुंगेरीलाल और कोरोनाकाल... सबके बहुत बुरे हालचाल! लॉकडाउन पर लॉकडाउन... घर में क़ैद सब जॉब डाउन, रोज़गार डाउन! बेचारे मुंगेरीलाल ने अपनी कम्पनी की नौकरी छोड़कर बड़ी मुसीबत कर ली थी सात साल पहले। उनका काम और रुझान दिलचस्प और संतोषजनक था, फ़िर भी सपनों और दिवास्वप्नों में खोये रहने और बड़ी-बड़ी बातें फैंकने के कारण दफ़्तर, घर, बाज़ार और ससुराल सभी जगह लोग उनका मज़ाक उड़ा-उड़ा कर मौज-मस्ती कर लिया करते थे। उन सबकी बातों को मुंगेरीलाल कभी हल्के में, तो कभी बहुत गंभीरता से ले लेते थे।</p>
<p></p>
<p>एक बार…</p>
<p>मुंगेरीलाल और कोरोनाकाल... सबके बहुत बुरे हालचाल! लॉकडाउन पर लॉकडाउन... घर में क़ैद सब जॉब डाउन, रोज़गार डाउन! बेचारे मुंगेरीलाल ने अपनी कम्पनी की नौकरी छोड़कर बड़ी मुसीबत कर ली थी सात साल पहले। उनका काम और रुझान दिलचस्प और संतोषजनक था, फ़िर भी सपनों और दिवास्वप्नों में खोये रहने और बड़ी-बड़ी बातें फैंकने के कारण दफ़्तर, घर, बाज़ार और ससुराल सभी जगह लोग उनका मज़ाक उड़ा-उड़ा कर मौज-मस्ती कर लिया करते थे। उन सबकी बातों को मुंगेरीलाल कभी हल्के में, तो कभी बहुत गंभीरता से ले लेते थे।</p>
<p></p>
<p>एक बार कम्पनी के बॉस की ख़ूबसूरत जवाँ सेक्रेटरी ने उनकी हँसी क्या उड़ाई, कि उन के दिल पर गहरी चोट नहीं, चोटें लग गईं। बॉस तक बातें पहुँचीं और फ़िर... फ़िर बॉस से बहस हो ही गई। नौकरी गँवानी पड़ी। कई विषयों में डिग्रीधारी मुंगेरीलाल ने टीचिंग क्षेत्र में भाग्य और अपनी ईमानदार सेवाएं आजमाने का बड़ा फैसला कर लिया।</p>
<p></p>
<p>"तुम से नहीं हो पायेगा टीचरी का काम! क्लास में पढ़ाते हुए कहीं खो गये, तो तमाशा बना देंगे कक्षा के बच्चे!" मुंगेरीलाल की पत्नी सहित संयुक्त परिवार के सभी लोगों की यही राय थी। लेकिन उनका फैसला नहीं बदला गया और पिछले सात सालों से शहर के एक बड़े से स्कूल में बड़ी कामयाबी के साथ छोटी-बड़ी सभी कक्षाओं में भिन्न विषय ही नहीं पढ़ाते रहे, बल्कि चित्रकला और मंचीय कार्यक्रमों में भी उनका विशेष योगदान रहा।</p>
<p></p>
<p>लेकिन कोबिड-19 के विश्वव्यापी संक्रमण और नोवेल कोरोना वाइरस के हमले से एक ज़बरदस्त ब्रैक उनके जीवन में आ गया था। लॉकडाउन में ऑनलाइन कक्षाओं की ज़िम्मेदारी निभाना मुश्किल हो रहा था। हर रोज़ ऑनलाइन पढ़ाते वक़्त कोई न कोई गड़बड़ी हो जाती थी। मुंगेरीलाल हर रोज़ के अनुभव अपनी डायरी में नोट करना नहीं भूलते थे। उनके परिवारजन उनसे, उनकी ऑनलाइन कक्षाओं और उनके डायरी लेखन से परेशान हो रहे थे।</p>
<p></p>
<p>आज उनकी डायरी उनके पिताजी के हाथ लग गई। वे उसे अपने कमरे में ले गये और उसका एक-एक पेज उन्होंने पढ़ डाला :</p>
<p></p>
<p>(01/08/2020 ) -</p>
<p></p>
<p>आज साइंस का नया चैप्टर तैयार नहीं कर पाया था, सो आज कोरोना के बारे में पढ़ा दिया। गूगल मीट में बच्चों ने चैटिंग में लिखा :</p>
<p></p>
<p>"अबे, तुझे मुंगेरीलाल सर का संक्रमण हो गया है। वैक्सीन 2021 में आयेगा। अभी नहीं।"</p>
<p></p>
<p>"सर तो कह रहे थे कि तैयार हो गया। भारत में ही। भारत कोरोना की, उसके ख़ानदान की हरक़तों को वर्षों से जानता है। भारत ही सबसे पहले देश में और अपने दोस्त देशों में वैक्सीन फ्री में बँटवायेगा!"</p>
<p></p>
<p>"तू भी यार! सर की बातों को सही मान लेता है! मालूम है न उनकी सपनों में खो जाने की आदत!"</p>
<p></p>
<p>"कौन नहीं जानता! पिछले दिनों कितनी बार ऑनलाइन क्लास डिस्टर्ब हुई पढ़ाते-पढ़ाते कहीं खो जाने की वज़ह से!"</p>
<p></p>
<p>बच्चे ऐसी बातें करते हैं चैटिंग में! ऐसा कब हुआ, क्यूं हुआ? जबकि मैं तो उन्हें अपडेट्स देने की जागरूक करने की कोशिशें करता हूँ!</p>
<p></p>
<p>(03-08-2020) -</p>
<p></p>
<p>आज अंग्रेज़ी की ऑनलाइन क्लास में आठवीं कक्षा के बच्चों को कोरोना और वैक्सीन की कहानी हिंदी में सुनाई। कुछ बच्चों ने चैटिंग में मेरा नाम 'मुंगेरी कोरोना' रखा, तो कुछ ने 'मुंगेरोवैक्स-2020' ।</p>
<p></p>
<p>इस तरह की बातें डायरी में पढ़ने के बाद पिताजी अपसेट हो गये।</p>
<p></p>
<p>"मैंने पहले ही मुंगेरी को समझाया था कि टीचिंग लाइन के बजाए फ़िल्म लाइन में चला जाये या लेखक-कवि बन जाये!" यह सोचते हुए पिताजी चुपचाप मुंगेरी के कमरे में वह डायरी रखने गये। मुंगेरीलाल देर रात दो बजे भी बिस्तर पर लेटे हुए जाग रहे थे।</p>
<p></p>
<p>"बेटा, आप सोये नहीं! तुम्हारी डायरी पढ़ी मैंने। तुम योग और ध्यान पर ध्यान दो; कोरोना और वैक्सीन पर नहीं!</p>
<p>हो सके तो कुछ पूजा पाठ भी कर लिया करो! मन को शांति मिलेगी!"</p>
<p></p>
<p>मुंगेरीलाल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। पिताजी हैरान हो गये। मुंगेरी की आँखें भले खुली हुईं थीं, लेकिन वे कोरोना की वैक्सीन के विचारों में खोये हुए थे।</p>
<p></p>
<p>पिताजी ने उनका कंधा हिला कर कहा, "बेटा, कैसा महसूस कर रहे हो? सब ठीक तो है न!"</p>
<p></p>
<p>"सब ठीक-ठाक है। वैक्सीन का ह्यूमन ट्रायल केवल भारत में ही ठीक-ठाक चल रहा है!" बिस्तर पर ही बैठते हुए मुंगेरीलाल ने कहा।</p>
<p></p>
<p>"कौन सा वैक्सीन? तुम्हें क्या लेना-देना वैक्सीन की खोज और ट्रायल वग़ैरह से, ऐं! सो जा! चल, मैं तेरे सिर पर मालिश कर देता हूँ। पिताजी की स्नेहिल मालिश ने लोरियों का काम किया। मुंगेरीलाल की गहरी नींद लग गई। पिताजी ने संतोष की साँस ली और फ़िर वहीं मुंगेरीलाल के बगल में सो गये। उन्हें शक़ था कि वह रात में फ़िर जाग सकता है।</p>
<p></p>
<p>सुबह जब मुंगेरीलाल जागे, तो ऑनलाइन कक्षा की तैयारी करने से पहले कुछ ढूंढ़ रहे थे।</p>
<p></p>
<p>"क्या ढूंढ़ रहे हो?" उनकी पत्नी ने पूछा।</p>
<p></p>
<p>"यहीं तो रखी थी!"</p>
<p></p>
<p>"क्या?"</p>
<p></p>
<p>"वैक्सीन!"</p>
<p></p>
<p>"वैक्सीन या ईअर-फोन?"</p>
<p></p>
<p>"हाँ-हाँ.. वही हमारी ऑनलाइन वैक्सीन है! उसके बिना पढ़ाना मुमकिन नहीं मेरे लिए!"</p>
<p></p>
<p>"ईअर-फ़ोन आपके कानों में लगे हैं न!" पत्नी ने उनका कान पकड़ कर याद दिलाया।</p>
<p></p>
<p>आज दसवीं क्लास की सामाजिक विज्ञान की ऑनलाइन क्लास शेड्यूल थी। बड़ी मेहनत से एक पीपीटी प्रेजेंटेशन तैयार किया था मुंगेरीलाल ने। ऑनलाइन कक्षा में नया चैप्टर समझाने के दरमियाँ उन्होंने स्क्रीन शेअर कर पीपीटी चालू कर दी और फिर कुर्सी में बैठ गये। पता ही नहीं चला कि कब पंद्रह मिनट निकल गये। कहीं खो गये थे मुंगेरीलाल। अचानक ध्यान आया, तो गूगल मीट पर देखा कि ज्वाईन किये हुए पैंतीस बच्चों में से तीस क्लास छोड़ चुके थे। जो बचे थे, उनसे उन्होंने पूछा :</p>
<p></p>
<p>"उम्मीद है यह पीपीटी देखकर चैप्टर का हर कॉनसेप्ट क्लियर हो गया होगा!"</p>
<p></p>
<p>"जी सर! लेकिन यह समझा कि किस देश में कोरोना वैक्सीन का काम किस स्टेज पर पहुंच गया है ... और भारत में क्या चल रहा है!" एक छात्र ने बताया।</p>
<p></p>
<p>मुंगेरीलाल ने चौंक कर फाइल चैक की। दरअसल वह अन्य पीपीटी थी, जो उन्होंने वैक्सीन अपडेट्स और संबंधित फोटोज़ से बनायी थी वाट्सएप पर दोस्तों को भेजने के लिए।</p>
<p></p>
<p>"कोई बात नहीं.. आजकल यही सीन है... यही अनसीन है बेटा! आई मीन, नॉलिज ही वैक्सीन है!" मुंगेरीलाल ने यह कहकर बच्चों को संतुष्ट किया और वैक्सीन पर ही होम असाइनमेंट्स देकर क्लास ओवर घोषित की।</p>
<p></p>
<p>आज बच्चों ने चैटिंग में लिखा था :</p>
<p></p>
<p>"मास्किंग, फ़िज़िकल/सोशल डिस्टेंसिंग और इम्यूनिटी ही वैक्सीन है... !"</p>
<p></p>
<p>"बाक़ी मुंगेरी सर का हसीन पीपीटी सीन है!"</p>
<p></p>
<p>___________</p>
<p>(PPT = कम्प्यूटर पर शैक्षणिक स्लाइड्स युक्त फाइल प्रस्तुति)</p>
<p></p>
<p>(मौलिक, स्वरचित, अप्रसारित व अप्रकाशित)<br/> शेख़ शहज़ाद उस्मानी<br/> शिवपुरी, (मध्यप्रदेश)<br/> [रचना तिथि - 11-11-2020]</p>गार्गी की बार्बी (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानीtag:openbooks.ning.com,2020-11-10:5170231:BlogPost:10368782020-11-10T03:00:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>भगवान देता है, तो छप्पर फाड़ कर देता है। लेता है, तो एक झटके में ले लेता है। देकर ले लेता है, तो हँसाने के बाद रुला-रुला कर। राजन, रंजीता और गंगा का ज़िन्दगीनामा भी यही साबित करता रहा; गार्गी और गार्गी की बार्बी का भी! बार्बी के साथ कब, क्या, कैसे और क्यूँ होगा; बार्बी ने कभी सोचा न था। सोचती भी कैसे? उसकी सोच तो उसकी मम्मी पर निर्भर थी। उसकी मम्मी ने भी तो न सोचा था वह सब। यही हाल गार्गी का था। गार्गी के साथ कब, क्या, कैसे और क्यूँ होगा; गार्गी ने कभी सोचा न था। सोचती भी कैसे? उसकी सोच तो…</p>
<p>भगवान देता है, तो छप्पर फाड़ कर देता है। लेता है, तो एक झटके में ले लेता है। देकर ले लेता है, तो हँसाने के बाद रुला-रुला कर। राजन, रंजीता और गंगा का ज़िन्दगीनामा भी यही साबित करता रहा; गार्गी और गार्गी की बार्बी का भी! बार्बी के साथ कब, क्या, कैसे और क्यूँ होगा; बार्बी ने कभी सोचा न था। सोचती भी कैसे? उसकी सोच तो उसकी मम्मी पर निर्भर थी। उसकी मम्मी ने भी तो न सोचा था वह सब। यही हाल गार्गी का था। गार्गी के साथ कब, क्या, कैसे और क्यूँ होगा; गार्गी ने कभी सोचा न था। सोचती भी कैसे? उसकी सोच तो उसकी मम्मी पर निर्भर थी। उसकी मम्मी ने भी तो न सोचा था वह सब। दरअसल उन तीनों यानि राजन, रंजीता और गंगा का भी यही हाल था।</p>
<p></p>
<p>ख़ैर, गंगा अपने मालिक राजन और मालकिन रंजीता की वर्षों से वफ़ादार नौकरानी तो थी, लेकिन उस परिवार की सदस्य माफ़िक़ थी। राजन को एक सुंदर बेटी की चाहत थी; तो रंजीता को एक चंचल होशियार बेटे की। लेकिन ये दोनों चाहतें गंगा की भी तो थीं। </p>
<p></p>
<p>ख़ैर, मालिक और मालकिन का सुंदर चंचल इकलौता बेटा जैक (जैकी) नौकरानी गंगा की देखरेख में अब जवाँ हो चुका था। लेकिन उसके बेडरूम में कुछ सालों से जितना जैक का हक़ था, उतना ही बार्बी और गार्गी का। बड़ा ही दिलचस्प नज़ारा होता था। दरअसल वफ़ादार किंतु अपने बेरोज़गार कमज़ोर पति से पीड़ित नौकरानी गंगा की इकलौती बिटिया गार्गी को राजन और रंजीता अपनी बेटी बार्बी जैसा मानते थे। गार्गी बेहद सुंदर, चंचल और प्रतिभाशाली लड़की थी। गंगा भले पढ़-लिख न पायी थी, लेकिन अपने मालिक और मालकिन की बदौलत उसकी बिटिया ने सातवीं कक्षा पास कर ली थी। गार्गी और जैक सगे भाई-बहिन जैसे रहते थे, सो जब गंगा घर में काम करने आती, तो गार्गी का अधिकतर समय जैक के बेडरूम में और उसकी लायब्रेरी और कम्प्यूटर पर ही गुजरता था।</p>
<p></p>
<p>बार्बी को यह सब देख कर जितनी ख़ुशी होती थी, उतनी ही ईर्ष्या भी गार्गी से होती थी। बार्बी के हक़ में जिन खिलौनों और फैंसी पोषाकों को होना चाहिए था, उन सब पर गार्गी का ही हक़ था।</p>
<p></p>
<p>तभी एक महीना ऐसा भी आया था कि बार्बी ने उन सब से बारी-बारी अकेले में अपने दिल की बातें कह डालीं। </p>
<p></p>
<p>एक रात बार्बी राजन के सपने में आकर बोली थी, "पप्पा, आप एक सुंदर बेटी चाहते थे, पहली संतान के रूप में। जब मैं मम्मी के पेट में मात्र पाँच महीने की थी, तभी आपने मेरा नामकरण कर दिया था। मुझे बार्बी नाम दिया। उन नौ महीनों में मुझे मेरी मम्मी ने जितने प्यार--दुलार से सँभाला; उतने ही प्यार से आपने भी। रोज़ रात को सोने से पहले आप मम्मी के पेट से सटकर मुझसे बातें करते थे। लोरियाँ और राइम्स सुनाते थे। मुझे मानो सब कुछ हासिल हो गया था।" ... इतना ही कह पायी थी कि राजन हड़बड़ा सा गया और फिर अपनी पत्नी रंजीता से सटकर सो गया था। सपना टूट गया था।</p>
<p></p>
<p>उसी माह एक रात बार्बी रंजीता के सपने में आकर बोली थी, "मम्मा, आपको तो एक बेटा चाहिए था पहली संतान के रूप में; लेकिन मैं आ गई। बेटा ही चाहने के सभी कारणों को, तुम्हारे साथ हुए व्यवहारों और तुम्हारी आप-बीती से, मैं भी समझ चुकी थी।" ... इतना ही कह पायी थी कि रंजीता ने बेचैनी से करवट ली और अपने पति से लिपट कर सो गई थी। सपना टूट गया था।</p>
<p></p>
<p>कुछ दिनों बाद एक रात बार्बी जैक के सपने में आकर उसका सिर बड़े प्यार से सहला कर बोली थी, "बहुत मेहनत करते हो जैकी भैय्या अपने और अपने मम्मी-पापा के सपने पूरे करने वास्ते। बहुत थक जाते हो! मम्मी-पापा भी तुम्हारा बहुत ख़्याल रखते हैं। तुम मेरे छोटे भाई हो, तुम्हें वह सब मिला जो एक भाई को मिलना चाहिए। मुझे बहुत ख़ुशी है कि तुम्हें मेरे हिस्से का भी सब कुछ मिला। तुमने गार्गी में मुझे देखा और उसके साथ वह सब साझा किया, जो एक सगी बड़ी बहिन के साथ तुम्हें करना चाहिए यानी जो तुम मेरे साथ शेयर करते! मम्मी-पापा और गार्गी का बहुत ख़्याल रखना। अपनी तरह उसे भी अपना बेहतर करिअर बनाने देना। उसकी मदद करना। जितना वह तुम्हें चाहती है, उतना ही मुझे और अपने मम्मी-पापा को और ख़ुद अपनी माँ गंगा को भी!" ... इतना ही कह पायी थी कि जैक ने अपने तक़िये को छाती से चिपका लिया था और करवट बदल कर गहरी नींद में सो गया था। यह सपना भी टूट गया था।</p>
<p></p>
<p>अब बारी थी गार्गी की। आज तेज बारिश की वजह से अपनी माँ गंगा के साथ अपने मालिक-मालकिन की इच्छा अनुसार उनके ही घर पर रुक कर आज रात जब गार्गी जैक के<span> </span>बेड पर सो रही थी, बार्बी गार्गी के सपने में आकर बोली, "आज मैं बहुत ख़ुश हूँ कि जब मेरा छोटा भाई जैक एक एक्ज़ाम देने बाहर गया हुआ है, तुम उसके बैड पर सो रही हो। ऐसा लग रहा है कि मानो मैं ख़ुद सो रही हूँ। तुमने जैक को वही प्यार दिया है, जो एक सगी बहिन देती है। जैक भी तुम्हारा बहुत ख़्याल रखता है। मैं तुम सब लोगों के साथ हर रूप में मौजूद हूँ। भले मेरी उम्र सिर्फ़ नौ महीने की रही अपनी मम्मी के ही पेट में! भले ही मैं जीवित दुनिया में न आ सकी; लेकिन अपने ढेर सारे बार्बी-डॉल-मॉडल्स रूप में और बार्बी-ड्रेसेस और खिलौनों के रूप में, डायरी, कैलेंडर, पोस्टर्स व स्टीकर्स वगैरह के रूप में इतने सालों से यहाँ मौजूद हूँ। तुम सबका ढेर सारा प्यार ही तो यूँ मिल रहा है मुझे, है न!" इतना कहकर सपने में बार्बी भी गार्गी के बगल में लेट गई और गार्गी का हाथ थाम कर बोली, "बड़ा अच्छा लगता है जब तुम बार्बी-ड्रेसेज पहनती हो और उन सब खिलौनों से खेलती हो और जैक के कम्प्यूटर पर उसकी ही तरह मेरी तस्वीरें, पोस्टर्स, मूवीज़ डाउनलोड कर सहेज कर रखती हो।... देखो जैकी भैया के बैडरूम की दीवारों पर मैं ही मैं छायी हुई हूँ।... तुम सबका ख़्याल रखती रहना। हाँ, पढ़ाई मत छोड़ना। तुम्हें अपने, अपनी माँ और मेरे मम्मी-पापा के ख़्वाब हक़ीक़त में बदलने हैं। हाँ, तुम डॉक्टर बनना। मेरी मम्मी की पहली डेलिवरी की तरह किसी औरत का डेलिवरी केस मत बिगड़ने देना। ऑपरेशन की ज़्यादा फ़ीस मत माँगना ... ग़रीबों की मदद करती रहना।" बार्बी<span> </span>इतना ही गार्गी से कह पायी कि घड़ी का अलार्म तेज़ी से बजा ओर गार्गी की नींद खुल गई। बिस्तर से उठते ही उसने जैक के उस बैडरूम की दीवारों पर टंगी तस्वीरों और कैलेंडर्स को बारी-बारी से देखने लगी। सब में बार्बी मुस्कुरा रही थी।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p></p>दिल के हाल सुने दिलवाला (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2020-03-10:5170231:BlogPost:10021412020-03-10T09:04:29.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>"अपनी पैरों से रौंदें, दूजी जो भा जाये!"</p>
<p><br></br>"घर की मुर्ग़ी दाल बराबर; नयी पीढ़ी को कौन समझाये!"</p>
<p><br></br>अपनापन त्याग कर ख़ुदग़र्ज़ी, मनमर्ज़ी, दोगलापन, पागलपन, बचकानापन दिखाती अपने मुल्क की नई पीढ़ी की सोच और पलायन-गतिविधियों पर दो बुजुर्गों ने अपनी-अपनी राय यूं ज़ाहिर की।</p>
<p><br></br>"... 'ओल्ड इज़ गोल्ड' कहावत को छोड़ो जी; ओल्ड इज़ सोल्ड! नई पीढ़ी है सो बोल्ड! उन्हें ज़मीनी स्टोरीज़ टोल्ड हों या अनटोल्ड! हम बुड्ढे तो हुए क्लीन-बोल्ड!" उनमें से एक ने दूसरे से कहा, लेकिन ख़ुद के…</p>
<p>"अपनी पैरों से रौंदें, दूजी जो भा जाये!"</p>
<p><br/>"घर की मुर्ग़ी दाल बराबर; नयी पीढ़ी को कौन समझाये!"</p>
<p><br/>अपनापन त्याग कर ख़ुदग़र्ज़ी, मनमर्ज़ी, दोगलापन, पागलपन, बचकानापन दिखाती अपने मुल्क की नई पीढ़ी की सोच और पलायन-गतिविधियों पर दो बुजुर्गों ने अपनी-अपनी राय यूं ज़ाहिर की।</p>
<p><br/>"... 'ओल्ड इज़ गोल्ड' कहावत को छोड़ो जी; ओल्ड इज़ सोल्ड! नई पीढ़ी है सो बोल्ड! उन्हें ज़मीनी स्टोरीज़ टोल्ड हों या अनटोल्ड! हम बुड्ढे तो हुए क्लीन-बोल्ड!" उनमें से एक ने दूसरे से कहा, लेकिन ख़ुद के दर्द-ए-दिल और दर्द-ए-ज़िगर को दबाने में नाकामयाब होते हुए और दूसरे के जगाते हुए!</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>हिताय और सुखाय (संस्मरण)tag:openbooks.ning.com,2019-11-23:5170231:BlogPost:9965972019-11-23T07:30:50.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<div class="mail-message expanded" id="m6144747151339699798"><div class="mail-message-content collapsible zoom-normal mail-show-images"><div class="clear"><div dir="auto"><div dir="auto"><div class="mail-message expanded" id="m6144747151339699798"><div class="mail-message-footer spacer collapsible"><div dir="auto">विद्यालय के भूतपूर्व छात्रों के मिलन सम्मेलन में मैं भी उपस्थित था। मेरे ऐसे प्रथम अनुभव पर हैरत अंगेज नज़ारे देखकर एक अज़ीब सा आश्चर्य मिश्रित सुख और आनंद मिल रहा था कि शब्दों में…</div>
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<div id="m6144747151339699798" class="mail-message expanded"><div class="mail-message-content collapsible zoom-normal mail-show-images"><div class="clear"><div dir="auto"><div dir="auto"><div id="m6144747151339699798" class="mail-message expanded"><div class="mail-message-footer spacer collapsible"><div dir="auto">विद्यालय के भूतपूर्व छात्रों के मिलन सम्मेलन में मैं भी उपस्थित था। मेरे ऐसे प्रथम अनुभव पर हैरत अंगेज नज़ारे देखकर एक अज़ीब सा आश्चर्य मिश्रित सुख और आनंद मिल रहा था कि शब्दों में बयान नहीं कर सकता। जिन बच्चों को मैंने नौवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा तक आंग्ल भाषा विषय पढ़ाया था, वे अब युवा हो चुके थे। कोई देश में कहीं सेवारत था, तो कोई विदेश में। मुझे भी उस मिलन सम्मेलन में उपस्थित देख कर मेरे प्रिय छात्र स्वयं मेरे नज़दीक़ आकर मेरे पैर छूकर प्रणाम या अभिवादन करने लगे। यह सुखद अद्भुत दृश्य था मध्यप्रदेश के हमारे शहर शिवपुरी के फतेहपुर क्षेत्र में अवस्थित मशहूर विद्यालय "सरस्वती आवासीय विद्यापीठ' के विशाल प्रांगण का। सभी सम्मानित आचार्यगण सहित प्राचार्य महोदय और व्यवस्थापक महोदय और समस्त स्टाफ़ से घिरे हूए भूतपूर्व छात्रों के बीच मैं जितना गौरवान्वित महसूस कर रहा था, उतना ही वर्षों पहले के अतीत में खोता जा रहा था।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">इस शैक्षणिक संस्थान (एक विश्वविद्यालय सा) में लगभग ढाई साल अध्यापन कार्य करने का अमूल्य अवसर मिला था मुझे। अंग्रेज़ी विषय के अच्छे शिक्षक के रूप में मुझे तत्कालीन प्राचार्य/व्यवस्थापक महोदय सहित पूरे स्टाफ़ और छात्रों द्वारा भरपूर प्रोत्साहन, सहयोग और स्नेह मिला था मुझे। मैंने भी विद्यार्थियों और स्टाफ़ को ख़ुश व संतुष्ट रखने का भरपूर यथासंभव प्रयास किया था। मुझे याद है कि छात्रों को मेरी स्पोकन इंग्लिश और.व्याकरण अध्यापन शैली के साथ पाठ्येत्तर गतिविधियों में मेरा मंच संचालन बहुत अच्छा लगता था। मुझे तत्कालीन विद्यालयीन गणवेश 'धोती और कुर्ता' में देखकर वे सभी बहुत ख़ुश होते थे और निश्चित रूप से मैं भी। दरअसल मेरी अध्यापन शैली विद्यार्थियों के अब तक के अंग्रेज़ी विषय के आचार्यगण से बिल्कुल भिन्न थी। पाठ्यपुस्तक में दिये गए अभ्यास-प्रश्नों के अलावा भी मैं अतिरिक्त प्रश्नोत्तर लिखवा दिया करता था। सभी छात्र मेहनत से उन्हें याद करके हमारे बीच विश्वास को मज़बूत करते थे। मैं पाठों का शब्दशः हिंदी अनुवाद व्याकरण के नियमों के अनुप्रयोग सहित समझाया करता था और इसी कारण छात्रों के मध्य काफ़ी हद तक लोकप्रिय हो गया था। यही मेरा संबल था मेरी वैवाहिक स्थिति में, जबकि मेरे पास आय का दूसरा अनुबंधित स्रोत मात्र था तो स्थानीय आकाशवाणी केंद्र में नैमित्तिक अंतर्वार्ताकार (युववाणी कार्यक्रम कॉम्पेअर) के रूप में मासिक अल्प आय। छात्रों ने मुझे रेडियो जॉकी/कॉम्पेअर के रूप में भी सराहा और मेरे मंच संचालन की प्रशंसा भी की थी।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"> मुझे याद है जब मैंने सरस्वती आवासीय विद्यापीठ के विशाल प्रांगण में आयोजित राज्य स्तरीय क्रीड़ा महोत्सव के समापन समारोह का मंच संचालन और पुरस्कार वितरण सम्मानित अतिथि श्रीमंत यशोधरा राजे सिंधिया जी के मुख्य आतिथ्य में बड़ी मेहनत और सफलता के साथ सम्पन्न किया था प्राचार्य/व्यवस्थापक महोदय व साथी आचार्यगण के सहयोग, विश्वास और प्रोत्साहन से। इसी प्रकार एक बार स्वामी विवेकानंद जयंती के समारोह का मंच संचालन निर्धारित गणवेश में करने का अमूल्य सफल अवसर मुझे मिला था।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"><div dir="auto">मुझे याद है सरस्वती आवासीय विद्यापीठ के वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम हेतु मैंने कक्षा नौवीं की आंग्ल-भाषा विषय पाठ्यपुस्तक की कविता 'ट्राइ अगेन' पर आधारित द्विभाषी अंतरों सहित एक समूह गान मंच पर प्रस्तुत करवाया था। इस हेतु प्रतिभागी भैयाओं का सहयोग, परिश्रम और बेहतरीन मंचीय प्रस्तुति आज भी मुझे गौरवान्वित करती है।</div>
</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"> मुझे याद आती है आचार्य विवेक शर्मा जी की जो आजकल प्राचार्य पद पर संगठन में कहीं सेवारत हैं। उन्होंने नकारात्मक हालत में मुझे मार्गदर्शन दिया और उन विद्यार्थियों से स्नेह दिलाया जिन्हें मैं कक्षाओं में पढ़ाया करता था। दरअसल एक ही विषय के दो या दो से अधिक आचार्य/शिक्षक होने पर बच्चों में अनुशासन व अध्यापन शैली संबंधित तुलना करने की सहज प्रवृत्ति होती है। इसका सामना मुझे भी करना पड़ा था। लेकिन कक्षा आठवीं, नौवीं व दसवीं के छात्रों ने सदैव मेरे कार्य की प्रशंसा की, हौसला अफ़ज़ाई की। कक्षा दसवीं की बोर्ड परीक्षा में भी परिश्रमी छात्रों ने उत्तम अंक प्राप्त कर मुझे गौरवान्वित किया था। हाँ, एक बात का दुख अवश्य रहा था मुझे कि कक्षा दसवीं की बोर्ड परीक्षा में अंग्रेज़ी में बेहतरीन प्राप्तांक की आकांक्षा के साथ मैंने विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी विषय के हर पाठ में सभी श्रेणी के इतने अधिक अतिरिक्त प्रश्नोत्तर लिखवा कर याद करवा दिये थे कि कुछ विद्यार्थी उलझ गये और उन्हें इस बात का बहुत दुख हुआ था कि उन अतिरिक्त प्रश्नों में से कोई भी प्रश्न बोर्ड परीक्षा के प्रश्नपत्र में नहीं पूछे गए थे और.उन विद्यार्थियों की मेहनत बेकार गई थी परीक्षा के संदर्भ में। लेकिन वे जानते थे कि वह सब उनके भाषा ज्ञान व अपठित गद्यांशों के अभ्यास के लिए सदैव लाभकारी रहेगा; इसलिए किसी भी विद्यार्थी ने कोई नकारात्मक टिप्पणी मुझ पर नहीं की। कुछ विद्यार्थी अंग्रेज़ी विषय में विशेष योग्यता के प्राप्तांक हासिल करने से वंचित रह गए थे अतिरिक्त प्रश्नों में उलझने के कारण। विद्यालय में किसी ने भी मुझ पर कोई आरोप नहीं लगाया। वे सभी मुझसे बहुत ख़ुश ही थे।</div>
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<div dir="auto">एक मुस्लिम होते हुए भी मेरा प्रार्थना सभा, यज्ञ-हवन, समस्त आयोजनों आदि में विधिवत सहभागिता निभाने से मेरे सभी विद्यार्थी काफ़ी संतुष्ट और प्रसन्न रहा करते थे। न मैंने कभी किसी को अपने मुस्लिम होने का अहसास कराया जाने-अनजाने मैं और न ही उन्होंने। यह हम सबकी एक विशिष्ट उपलब्धि थी।</div>
<div dir="auto">सरस्वती आवासीय विद्यापीठ, फतेहपुर में कार्य करते हुए सभी के सहयोग और हौसला अफ़ज़ाई से मैंने जीवाजी विश्वविद्यालय से बी.एड. की उपाधि भी हासिल की, जो आज मेरे रोज़गार का एक महत्वपूर्ण साधन है। यहाँ के विद्यार्थियों (भैयाओं) से मैंने बहुत कुछ सीखा और पाया है। उन भैयाओं के साथ भोजनालय में सामूहिक भोजन करने का सुख मैं कभी नहीं भूल सकता। बड़े ही आदर और स्नेह से मुझे वे भोजन कराया करते थे। सम्मानित लोकप्रिय बाल-पत्रिका 'देवपुत्र' के अंक मुझे भी मिला करते थे; लेकिन भैयाओं ने पुराने अंक भी मुझे स्थायी रूप से प्रदान किये प्रार्थना पुस्तिका सहित।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">भूतपूर्व छात्र मिलन सम्मेलन में अपने अतीत के लम्हों को याद करते हुए उन भूतपूर्व भैयाओं के साथ मैं बहुत ही गौरवान्वित महसूस कर रहा था। मैं कह सकता हूँ कि मेरे वे बच्चे आज भी मेरा ग़ुरूर हैं और हमेशा रहेंगे। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय।</div>
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<div dir="auto">(मौलिक व अप्रकाशित)</div>
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</div>फ़िर वही राग (क्षणिकायें)tag:openbooks.ning.com,2019-10-25:5170231:BlogPost:9949082019-10-25T01:16:57.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>दीये बनते, बिकते, जलते हैं<br></br>पेट पालते हैं<br></br>दीपक तले अंधेरा<br></br>फ़िर वही रात, वही सबेरा!</p>
<p></p>
<p>दीये पालते हैं, दीये पलते हैं<br></br>विरासत पलती है<br></br>दीपक तले अंधेरा<br></br>फ़िर वही बात, वही बखेड़ा!</p>
<p></p>
<p>विरासत पालती है, विरासत पलती है<br></br>उद्योग पलते हैं; राजनीति पलती है<br></br>लोकतंत्र पलता है<br></br>दीपक तले अंधेरा<br></br>फ़िर वही धपली, वही राग!</p>
<p></p>
<p>स्वच्छता पालती है, स्वच्छता पलती है<br></br>नारे-पोस्टर पलते हैं, भाषण पलते हैं<br></br>दीपक तले अंधेरा<br></br>फ़िर वही चाल, वही…</p>
<p>दीये बनते, बिकते, जलते हैं<br/>पेट पालते हैं<br/>दीपक तले अंधेरा<br/>फ़िर वही रात, वही सबेरा!</p>
<p></p>
<p>दीये पालते हैं, दीये पलते हैं<br/>विरासत पलती है<br/>दीपक तले अंधेरा<br/>फ़िर वही बात, वही बखेड़ा!</p>
<p></p>
<p>विरासत पालती है, विरासत पलती है<br/>उद्योग पलते हैं; राजनीति पलती है<br/>लोकतंत्र पलता है<br/>दीपक तले अंधेरा<br/>फ़िर वही धपली, वही राग!</p>
<p></p>
<p>स्वच्छता पालती है, स्वच्छता पलती है<br/>नारे-पोस्टर पलते हैं, भाषण पलते हैं<br/>दीपक तले अंधेरा<br/>फ़िर वही चाल, वही ढाल!</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>दीये पलते हैं...! (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-10-22:5170231:BlogPost:9945622019-10-22T17:10:02.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>दीपावली के चंद रोज़ पहले से ही त्योहार सा माहौल था उस कच्चे से घर में। सब अपने पालनहार बनाने में जुटे हुए थे; कोई मिट्टी रौंद रहा था, कोई पहिया चला-चला कर उसके केंद्र पर मिट्टी के लौंदों को त्योहार मुताबिक़ सुंदर आकार दे रहा था। वह उन्हें धूप में कतारबद्ध जमाती जा रही थी। लेकिन अपने-अपने काम में तल्लीन और सपनों में खोये अपनों को देख कर उसे अजीब सा सुकून मिल रहा था हर मर्तबा माफ़िक़। एक तरफ़ उसकी सास; दूसरी तरफ़ समय के पहिये संग कुम्हार का पैतृक पहिया चलाता उसका पति दीपक और उसके कंधों पर झूलता…</p>
<p>दीपावली के चंद रोज़ पहले से ही त्योहार सा माहौल था उस कच्चे से घर में। सब अपने पालनहार बनाने में जुटे हुए थे; कोई मिट्टी रौंद रहा था, कोई पहिया चला-चला कर उसके केंद्र पर मिट्टी के लौंदों को त्योहार मुताबिक़ सुंदर आकार दे रहा था। वह उन्हें धूप में कतारबद्ध जमाती जा रही थी। लेकिन अपने-अपने काम में तल्लीन और सपनों में खोये अपनों को देख कर उसे अजीब सा सुकून मिल रहा था हर मर्तबा माफ़िक़। एक तरफ़ उसकी सास; दूसरी तरफ़ समय के पहिये संग कुम्हार का पैतृक पहिया चलाता उसका पति दीपक और उसके कंधों पर झूलता हुआ, पहिये पर कलाबाज़ी दिखाती मिट्टी और पिता की हथेलियों-उंगलियों को निहारता हुआ चंचल दीपू।</p>
<p><br/>धूप को नज़रअंदाज़ करती हुई थोड़ी दूर खड़ी वह अपने घर के उजालों को निहार रही थी। घूमते पहिए को देखती हुई वह अतीत में खो गई।</p>
<p><br/>"एक वक़्त था, जब मुझे लोग कोसते थे! कोई बांझ, तो कोई कुछ और कह दिया करता था। कभी-कभी तो मेरे मेहनतकश पति को निकम्मा-नामर्द तक कह देते थे लोग!" यह सोचते हुए वह अपनी प्रेरणा, परिश्रमी 'सास' जी की ओर देखने लगी। देवरों के घर बेटियाँ ही पैदा हुईं। सबको दीपक से ही एक चिराग़ की उम्मीद थी। सास ने ही हमेशा उसके और उसके पति का हौसला बढ़ाया; कुम्हार के ख़ानदानी पेशे को जारी रखने की समझाइश दी।</p>
<p><br/>"दादी कह रही थीं कि भगवान ने मुझे भी इन दीयों की तरह बनाया है, अपने घर में उजाला लाने के लिए!" अचानक दीपू के मुख से निकले इन शब्दों ने वहाँ की ख़ामोशी में ख़लल पैदा कर दिया। उसकी दादी मुस्कराने लगी; माँ ने दूर से ही सिर हिलाकर उसकी बात का समर्थन किया। दीपक के हाथ पहिए पर पहले से तेज़ चलने लगे। दीपू उसके कंधों पर झूलने की असफल कोशिश कर रहा था।</p>
<p><br/>"इस बार तो पूरे दीये बिक जायेंगे न बापू!" दीपू के इन शब्दों से फ़िर सवालिया ख़ामोशी छा गई।</p>
<p><br/>"कुछ तो बिकेंगे; हमें पालेंगे... और हमारी तरह तुम भी इनकी विरासत संभालोगे बेटा!" दादी ने उसके नज़दीक़ आकर सबकी ओर देख कर कहा।</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>विकासोन्मुखी (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-10-08:5170231:BlogPost:9941192019-10-08T03:00:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>"ख़ामोश!" एक बलात्कार पीड़िता और सरेआम उसकी हत्या करने वाले युवकों के बाद बारी-बारी से माइक पर उसने मशहूर नेताओं-अभिनेताओं और पुलिसकर्मियों की मिमिक्री करते हुए कहा, "कितने आदमी थे!"</p>
<p><br></br> "साहब, ती..ई...तीन थे!"</p>
<p><br></br> "वे तीन थे ... और ये सब तीस-चालीस...ऐं! लानत है... तुम लोगों की ख़ामोशी पर!"<br></br> "साला... एक मच्छर इस देश के आदमी को हिजड़ा बना देता है!"</p>
<p><br></br> "साहब... मच्छर! .. मच्छर बोले तो... पैसा, डर, पुलिस, नेता, क़ानून या स्वार्थ!..है न!"</p>
<p><br></br> "कोई…</p>
<p>"ख़ामोश!" एक बलात्कार पीड़िता और सरेआम उसकी हत्या करने वाले युवकों के बाद बारी-बारी से माइक पर उसने मशहूर नेताओं-अभिनेताओं और पुलिसकर्मियों की मिमिक्री करते हुए कहा, "कितने आदमी थे!"</p>
<p><br/> "साहब, ती..ई...तीन थे!"</p>
<p><br/> "वे तीन थे ... और ये सब तीस-चालीस...ऐं! लानत है... तुम लोगों की ख़ामोशी पर!"<br/> "साला... एक मच्छर इस देश के आदमी को हिजड़ा बना देता है!"</p>
<p><br/> "साहब... मच्छर! .. मच्छर बोले तो... पैसा, डर, पुलिस, नेता, क़ानून या स्वार्थ!..है न!"</p>
<p><br/> "कोई शक़!"</p>
<p><br/> 'नारी सशक्तिकरण और बलात्कार' विमर्श पर एक आयोजन में दर्शक इस प्रस्तुति पर पिछली बार से अधिक ज़ोर से देर तक तालियाँ बजाते रहे! विशिष्ट अतिथि दीर्घा में बैठे किन्नर सब तरफ़ निगाहें घुमाते हुए एक-दूसरे की ओर देख कर मुस्कराने लगे।</p>
<p><br/> ठीक तभी ...</p>
<p><br/> "हाss हाss हाss हाss हाsss " वह माइक पर रावण की मिमिक्री करते हुए बोला, "मैं कालग्रस्त नहीं, अद्यतन हूँ.. कालजयी हूँ! मैं दशानन नहीं जी, नयी सदी का शतानन... सहस्त्रानन हूँ... विकासोन्मुखी हूं... हा हा हा हा!"</p>
<p><br/> दर्शक ख़ामोश हो गये!</p>
<p><br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>चक्र पर चल (छंदमुक्त काव्य)tag:openbooks.ning.com,2019-07-07:5170231:BlogPost:9869852019-07-07T06:24:11.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>विकसित से<br></br>हर पल जल<br></br>विकासशील<br></br>बेबस बेकल<br></br>होड़ प्रतिपल<br></br>छलके छल<br></br>भ्रष्टाचार-बल!<br></br>धरती घायल<br></br>सूखते स्रोत<br></br>उद्योग-दलदल!<br></br>उथल-पुथल<br></br>बिकता जल<br></br>दर-दर सबल<br></br>थकता निर्बल<br></br>धन से दंगल<br></br>नारे प्रबल<br></br>हर घर जल<br></br>सुनकर ढल<br></br>नेत्र सजल!<br></br>बड़ी मुश्किल<br></br>आग प्रबल<br></br>दूर दमकल<br></br>सीढ़ी दुर्बल<br></br>ज़िंदा ही जल!<br></br>जल में ही बल<br></br> जल है, तो कल<br></br>कर किलकिल<br></br>या फ़िर सँभल!<br></br>धाराओं का जल<br></br>बिन कलकल<br></br>नदियाँ बेकल<br></br>प्रदूषण-प्रतिफल!<br></br>प्रकृति ही…</p>
<p>विकसित से<br/>हर पल जल<br/>विकासशील<br/>बेबस बेकल<br/>होड़ प्रतिपल<br/>छलके छल<br/>भ्रष्टाचार-बल!<br/>धरती घायल<br/>सूखते स्रोत<br/>उद्योग-दलदल!<br/>उथल-पुथल<br/>बिकता जल<br/>दर-दर सबल<br/>थकता निर्बल<br/>धन से दंगल<br/>नारे प्रबल<br/>हर घर जल<br/>सुनकर ढल<br/>नेत्र सजल!<br/>बड़ी मुश्किल<br/>आग प्रबल<br/>दूर दमकल<br/>सीढ़ी दुर्बल<br/>ज़िंदा ही जल!<br/>जल में ही बल<br/> जल है, तो कल<br/>कर किलकिल<br/>या फ़िर सँभल!<br/>धाराओं का जल<br/>बिन कलकल<br/>नदियाँ बेकल<br/>प्रदूषण-प्रतिफल!<br/>प्रकृति ही संबल<br/>बन कर निश्छल<br/>चक्र पर चल<br/>कर्मठ अटल<br/>मानवता-बल!</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>छुट्टियों में हिंदी (संस्मरण)tag:openbooks.ning.com,2019-05-26:5170231:BlogPost:9847062019-05-26T04:00:58.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
विद्यालयीन हिंदी विषय पाठ्यक्रमों में हिंदी साहित्य की विभिन्न गद्य या काव्य विधायें बच्चे क्यों पसंद नहीं करते/कर सकते? यह सवाल मेरे मन में अक्सर उठता है।<p></p>
<p>मैं मानता हूँ कि यदि विद्यालयीन पाठ्यक्रमों में हिंदी साहित्य विधाओं की छोटी रचनायें कहानियां आदि/अतुकांत कविताएं/ क्षणिकाएं/कटाक्षिकायें आदि सम्मिलित की जायें; योग्य हिंदी शिक्षकों द्वारा बढ़िया समझाई जायें, तो विद्यार्थी उन्हें अधिक पसंद करेंगे।</p>
<p>अभी विद्यालयों में हिंदी पाठ भलीभांति कहाँ समझाये जा रहे हैं? मुख्य कठिन विषयों…</p>
विद्यालयीन हिंदी विषय पाठ्यक्रमों में हिंदी साहित्य की विभिन्न गद्य या काव्य विधायें बच्चे क्यों पसंद नहीं करते/कर सकते? यह सवाल मेरे मन में अक्सर उठता है।<p></p>
<p>मैं मानता हूँ कि यदि विद्यालयीन पाठ्यक्रमों में हिंदी साहित्य विधाओं की छोटी रचनायें कहानियां आदि/अतुकांत कविताएं/ क्षणिकाएं/कटाक्षिकायें आदि सम्मिलित की जायें; योग्य हिंदी शिक्षकों द्वारा बढ़िया समझाई जायें, तो विद्यार्थी उन्हें अधिक पसंद करेंगे।</p>
<p>अभी विद्यालयों में हिंदी पाठ भलीभांति कहाँ समझाये जा रहे हैं? मुख्य कठिन विषयों के पाठ्यक्रमों के प्रति समर्पित होने के कारण भाषा के विषयों के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है।</p>
<p>मैं लगभग 27 सालों से अंग्रेज़ी भाषा विषय का शिक्षक हूं लेकिन समय-समय पर व्याकरण या कविताएं कक्षा में पढ़ाते समय हिंदी की पाठ्यपुस्तक भी निकलवा कर तुलनात्मक अध्ययन करा कर हिंदी साहित्य की तरफ़ भी बच्चों की रुचि बढ़ाने की कोशिश करता हूंँ, लेकिन सब निरर्थक! क्योंकि हिंदी भाषा शिक्षण केवल पाठ्यक्रम पूरा करने की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं। हिंदी भाषण व वाद-विवाद और निबंध लेखन या रचनात्मक लेखन की प्रतियोगितायें या तो नगण्य की स्थिति में हैं या केवल 7-8 छात्रों को लेकर औपचारिकता निभाने की स्थिति में।</p>
<p>तो मैं जब भी होम ट्यूशनों में बच्चों के घर जाता हूंँ या अपनी कोचिंग संस्था में अंग्रेज़ी पढ़ाता हूं, तो समय-समय पर हिंदी भाषा से संबंधित रचनात्मक गतिविधियों को किसी न किसी मौखिक अथवा लिखित विधा में सम्मिलित करता रहा हूँ।</p>
<p>गर्मियों की छुट्टियों में बाल-पत्रिकाओं की तरफ़ बच्चों की अभिरुचि यथासंभव बढ़ाने की कोशिश के क्रम में एक बार मैंने अपनी कोचिंग कक्षा में हिंदी की बाल-पत्रिका से कविता गायन व कहानी पाठ कराने के अलावा लेखन कराने की भी कोशिश की। पहले तो कक्षा नवीं-दसवीं के बच्चे ख़ूब हंसे! फ़िर न-नुकुर करने लगे! अंग्रेज़ी भाषा सुझाने लगे! मेरे द्वारा सख़्ती से आदेश दिए जाने पर विवश हो कर उन्होंने किसी तरह कविता गायन और कहानी पाठ कर ही दिया। हाँ, अच्छे सुसंस्कृत परिवारों के दो-तीन प्रतिभाशाली बच्चों ने अवश्य रुचि लेकर अच्छी प्रस्तुतियाँ दीं।</p>
<p>ये बात उल्लेखनीय रही कि जब मैंने स्वयं अभिनय सा करते हुए कविता व कहानी पाठ कर उदाहरण प्रस्तुत किये, तभी बच्चों ने मेरे आदेश का पालन किया। कोरे भाषणों/प्रवचनों से बच्चे प्रेरित नहीं होते। टीएलएम की तरह मौलिक टीचिंग-लर्निंग मटैरियल से हम शिक्षकगण बच्चों से हिंदी भाषा संबंधित रचनात्मक गतिविधियाँ कम-से-कम गर्मियों की छुट्टियों व अन्य अवकाशों में करवा ही सकते हैं। ये भी सच है कि यदि परिवारजन भी ऐसा अपने घर, कॉलोनी, बर्थ-डे पार्टियों आदि में करते रहें, तो बेहतर परिणाम मिलेंगे। मैंने अपने निजी प्रयासों से ऐसे भी रिस्क लिए लेकिन अपेक्षित व आवश्यक सहयोग और सहभागिता न मिल पाने के कारण सफल नहीं हो सका।</p>
<p>प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षकगण हिंदी/अंग्रेज़ी कवितायें/पोइम्ज़/राइम्ज़ गा-गा कर या स्मार्ट क्लास में उनके वीडियोज़ दिखा कर बच्चों से पाठन व गायन और कंठस्थीकरण सफलतापूर्वक करवा लेते हैं। लेकिन कक्षा छटवीं से दसवीं तक ऐसा करवा पाने में मैं लगभग असफल ही रहा। दरअसल बच्चों में परीक्षा पाठ्यक्रम समय सीमा में पूरा करने/करवाने, मासिक टेस्ट, मिड-टर्म परीक्षाओं, औपचारिक से असाइनमेंट/प्रोजेक्ट पूरा करने आदि का दवाब अधिक रहता है।</p>
<p>शीतकालीन व ग्रीष्मकालीन अवकाशों के <br/> असाइनमेंट/प्रोजेक्ट कार्य में मैंने जब भी हिंदी या अंग्रेज़ी रचनात्मक लेखन करवाने की कोशिश की, केवल अनमनी सी औपचारिकता ही देखने को मिली। बच्चे फाइल सजाने, इंटरनेट से सामग्रियाँ जुटाकर फाइलों में चिपकाने में अधिक रुचि लेते रहे, वह भी अधिक अंक या बढ़िया ग्रेड पाने की लालसा में; न कि भाषा या साहित्य सीखने के लिए!</p>
<p></p>
<p>घर में भी संयुक्त परिवार के या कॉलोनी के बच्चों में ऐसी कोशिशें करने पर मुझे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। हो सकता है कि एकल प्रयास में कोई कमी रही हो।</p>
<p>बहरहाल मैं भी यही मानता हूँ कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। हिंदी भाषा/साहित्य के प्रति बच्चों के लगाव हेतु एक-एक क़दम तबियत से हमें उठाने ही होंगे।</p>
<p></p>
<p>[मौलिक व अप्रकाशित]<br/> <br/>
</p>अथ अभिकल्पित-आचार-संहिता (आलेख)tag:openbooks.ning.com,2019-05-19:5170231:BlogPost:9839742019-05-19T18:01:07.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<div dir="auto">बच्चों को शुरू से अध्यात्म, आराधना, वंदना आदि का व्यावहारिक अभ्यास 'लर्न विद़ फ़न, लर्न विद़ कर्म' या 'देखो, करो और सीखो' पद्धति से कराया जा सकता है। प्रवचन, भाषण, गायन, पुस्तकीय पठन-पाठन मात्र से नहीं। इसके लिए तो हर सरकारी दस्तावेज़ जारी या उपलब्ध कराने, विवाह, गर्भधारणा और उपाधियां देने से पहले, नागरिकता, आधार कार्ड, राशनकार्ड, परिचय पत्र, बैंक अकाउंट, सिमकार्ड, मताधिकार, ड्राइविंग लाइसेंस आदि उपलब्ध कराने से पहले भारत में जन्मे हर भारतवासी को भारत की सर्वधर्म समभाव वाली, …</div>
<div dir="auto">बच्चों को शुरू से अध्यात्म, आराधना, वंदना आदि का व्यावहारिक अभ्यास 'लर्न विद़ फ़न, लर्न विद़ कर्म' या 'देखो, करो और सीखो' पद्धति से कराया जा सकता है। प्रवचन, भाषण, गायन, पुस्तकीय पठन-पाठन मात्र से नहीं। इसके लिए तो हर सरकारी दस्तावेज़ जारी या उपलब्ध कराने, विवाह, गर्भधारणा और उपाधियां देने से पहले, नागरिकता, आधार कार्ड, राशनकार्ड, परिचय पत्र, बैंक अकाउंट, सिमकार्ड, मताधिकार, ड्राइविंग लाइसेंस आदि उपलब्ध कराने से पहले भारत में जन्मे हर भारतवासी को भारत की सर्वधर्म समभाव वाली, देशसेवा, राष्ट्र समर्पण वाली, राष्ट्रीय उत्थान मूलक "आचार-संहिता" का प्रशिक्षण एवं अनुपालन कार्यशाला परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रमाण पत्र हासिल करने की अनिवार्यता अत्यावश्यक है।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">अठारह वर्ष आयु हो जाने पर हर भारतवासी को निर्धारित आचार-संहिता में प्रशिक्षित हो जाने के बाद ही उसे विद्यालयीन शिक्षा की एक उपाधि दी जाये, उसी के आधार पर उसको आधार कार्ड, बैंक अकाउंट, मूल निवासी प्रमाण पत्र आदि उपलब्ध कराकर रोज़गार मूलक पाठ्यक्रमों या महाविद्यालयीन शिक्षा में प्रवेश दिया जाये। किसी भी चरण में आचार संहिता का उल्लंघन करने पर उसके सभी दस्तावेज़ व उपाधि, नौकरी या व्यवसाय तब तक सस्पैंड कर दिया जाये, जब तक कि वह पुनः आचार संहिता प्रशिक्षण की द्वितीय उपाधि प्रमाण पत्र हासिल न कर ले।</div>
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<div dir="auto">ऐसे तैयार भारतीय नागरिक ही अपनी संतान को बचपन से ही आध्यात्म, आराधना, वंदना, स्वच्छता, सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम, विश्व-स्तरीय भाईचारा, मानवता, मानवाधिकार, मानव कर्तव्य, देशप्रेम, देशहित, राष्ट्र समर्पण, रचनात्मक सक्रियता, पारिवारिक-सामाजिक-राष्ट्रीय दायित्व आदि सिखा सकेंगे।</div>
<div dir="auto"><div dir="auto"></div>
<div dir="auto">जब माँ-बाप, परिवारजन, रिश्तेदार, शिक्षकगण, कर्मचारी-अधिकारीगण, पार्षद-विधायक-सांसद-मंत्री-राष्ट्र सेवकगण का ही आचरण व व्यवहार, प्रवृत्तियां, दिनचर्या, भाषा प्रयोग आदि प्रदूषित या दोषपूर्ण या हास्यास्पद होगा, तो वे अपनी संतानों, अधीनस्थों आदि को क्या सिखा सकेंगे। मीडिया को भी ऐसी निर्धारित राष्ट्रीय आचार-संहिता (एतद द्वारा अभिकल्पित व यहां प्रस्तावित) का अनुपालन करना होगा।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"> यह आचार-संहिता हमारे संविधान व क़ानून के साथ राष्ट्र हितार्थ क़दमताल करती हुई सर्वधर्म समभाव के साथ विशेषज्ञों द्वारा तैयार की जाये। वरना केवल मीडियाई भाषण-प्रवचन, सीरियल-फ़िल्मों और धार्मिक-आध्यात्मिक-नैतिक शिक्षा की पुस्तकों व ग्रंथों के पठन-पाठन से न तो 70-72 सालों में हम कुछ कर.पाये और न ही आगे कर पायेंगे। हां, औद्योगीकरण, वैश्वीकरण और डिजिटलीकरण की विकास सुनामी में हमने बच्चों, युवाओं, महिलाओं को प्रदूषित व्यक्तित्व और चरित्र वाली मशीनों में बदल कर ही मझधार में संघर्ष करने छोड़ दिया है, छोड़ते जा रहे हैं। परिवार से, धर्मों से, देश की संस्कृति और संस्कार से पलायन तेज़ी से बढ़ रहा है।</div>
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<div dir="auto">अध्यापन कार्यकाल में शिक्षकों ने विद्यालयों में देखा है कि प्रार्थना सभा भली-भांति सम्पन्न करने के बाद अपनी कक्षाओं में पहुँचते ही छात्र ज़ोर से बातचीत या शोरगुल करने लगते हैं या कुछ अन्य गतिविधियाँ। उन्हें समझाया जाता है कि कक्षाओं में पहुँचते ही अपने पहले पीरियड की सामग्री बस्तों से निकाल कर सबसे पहले छात्र शिक्षक की उपस्थिति में या उनके आने तक कुछ मिनट ध्यान करें, फिर संबंधित विषय का उस दिन का गृहकार्य या पाठ या अध्ययन शांति से करें। कई बार छात्रों को समझाया गया और ऐसा अभ्यास भी करवाया गया, लेकिन यह सब निरर्थक ही रहा कई कारणों से।</div>
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<div dir="auto">इसी प्रकार बच्चों के बस्तों पर बच्चों के पैर लगने पर शिक्षकों ने बस्ते सही ढंग से रखने और शिक्षा सामग्री का आदर करने के तरीक़े सिखाने की कोशिश की, लेकिन अंततः वह प्रयास भी निरर्थक रहा। केवल सुसंस्कृत दो-चार विद्यार्थियों ने ही सीखा। जिसका श्रेय उनके परिवारजन से मिले संस्कारों को ही जाता है। आशय यह कि शिक्षकों से पहले मात-पिता व परिवारजन की भूमिका अहम है। अतः पहले उन्हें प्रशिक्षित किया जाना ज़रूरी है, फ़िर शिक्षकगण को। यहां भी उसी आचार-संहिता के प्रशिक्षण व अनुपालन की बात कही जा सकती है।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">विगत दस--बीस सालों से उच्च वर्गीय परिवारों के अलावा मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों, परिवारजन व शिक्षकगण के वार्तालाप, भाषा-शैली, शब्द चयन, अपशब्द प्रचलन देख कर स्पष्ट हो जाता है कि पारंपरिक रीति-रिवाज़ों, धार्मिक-आध्यात्मिक-नैतिक पुस्तकों/ग्रंथों के पठन-पाठन-गायन, कंठस्थीकरण आदि करते-करवाते रहने का संबंध केवल क्षणिक औपचारिकता, फ़न या इम्प्रेशन से रह गया है, न कि व्यक्तित्व/चरित्र/संस्कार निर्माण से। धार्मिक-आध्यात्मिक टीवी धारावाहिकों का असर बच्चों व लोगों पर होता, तो वह स्पष्ट आचरण व व्यवहार में दिखाई देता। सही हिंदी बोलने वाले की, धार्मिक नैतिक बातें करने वाले की आज भी हँसी ही उड़ाई जाती है; उसके साथ बच्चे व साथी बोर हो जाते हैंं। कारण मीडियाई प्रदूषित ख़ुराक और इंटरनेट से प्रदूषित सामग्री चयन ही है। अतः उपरोक्त अभिकल्पित व प्रस्तावित आचार-संहिता का ही आज औचित्य है विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित करने, अनुपालन करने/करवाने और समुचित अनिवार्य प्रशिक्षण दिलवाने बावत।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">(मौलिक व अप्रकाशित)</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">शेख़ शहज़ाद उस्मानी</div>
<div dir="auto">शिवपुरी (मध्यप्रदेश)</div>
<div dir="auto">(19-05-2019)</div>
</div>'कौन अनाड़ी, कौन खिलाड़ी?' (कविता)tag:openbooks.ning.com,2019-05-14:5170231:BlogPost:9838472019-05-14T03:30:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>हुन-हुना रे हुन-हुना<br></br> गुण गिना के गुनगुना<br></br> ज़ोर लगा के हय्शा<br></br> वोट-पथ पर नैया<br></br> अनाड़ी-खिलाड़ी खेवैया<br></br> मुश्किल में वोटर भैया<br></br> हुआ-हुआ जो बहुत हुआ<br></br> अपशब्दों का खेल हुआ<br></br> जुआ-जुआ सा हो गया<br></br> मतदाता खप-बिक गया<br></br> जनतंत्र पर क्या मंत्र हुआ<br></br> दुआ-दुआ करो, न बददुआ<br></br> संविधान का कर दो भला<br></br> कर भला , सो सबका भला<br></br> टाल सको, तो अब टाल बला<br></br> हुन-हुना रे हुन-हुना<br></br> गुण गिना के गुनगुना<br></br> ज़ोर लगा के हय्शा<br></br> वोट-पथ पर नैया<br></br> अनाड़ी-खिलाड़ी खेवैया…<br></br></p>
<p>हुन-हुना रे हुन-हुना<br/> गुण गिना के गुनगुना<br/> ज़ोर लगा के हय्शा<br/> वोट-पथ पर नैया<br/> अनाड़ी-खिलाड़ी खेवैया<br/> मुश्किल में वोटर भैया<br/> हुआ-हुआ जो बहुत हुआ<br/> अपशब्दों का खेल हुआ<br/> जुआ-जुआ सा हो गया<br/> मतदाता खप-बिक गया<br/> जनतंत्र पर क्या मंत्र हुआ<br/> दुआ-दुआ करो, न बददुआ<br/> संविधान का कर दो भला<br/> कर भला , सो सबका भला<br/> टाल सको, तो अब टाल बला<br/> हुन-हुना रे हुन-हुना<br/> गुण गिना के गुनगुना<br/> ज़ोर लगा के हय्शा<br/> वोट-पथ पर नैया<br/> अनाड़ी-खिलाड़ी खेवैया<br/> सोच-समझ लो सब भैया!</p>
<p><br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>माँ और मैं (चोका)tag:openbooks.ning.com,2019-05-09:5170231:BlogPost:9837272019-05-09T21:30:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>माँ बहुरूपी<br></br> मौजूद इर्द-गिर्द<br></br> पहचाना मैं!<br></br> ममता बरसाती<br></br> नि:स्वार्थ वामा<br></br> प्रकृति महायोगी<br></br> रोगी-भोगी मैं!<br></br> है त्यागी, चिकित्सक<br></br> सहनशील<br></br> सामंजस्य-शिक्षिका<br></br> शिष्य, लोभी मैं!<br></br> व्यक्तित्व बहुमुखी<br></br> चरित्रवान<br></br> परोक्ष-अपरोक्ष<br></br> लाभान्वित मैं!<br></br> विवादित-शोषित<br></br> कोमलांगिनी<br></br> अग्निपथ गमन<br></br> स्वाभिमानी माँ<br></br> यामिनी या दामिनी<br></br> अभियुक्त मैं!<br></br> बहुजन सुखाय<br></br> आत्म-दुखाय<br></br> उर्वीजा देवी तुल्य<br></br> है पूज्यनीय<br></br> पाता माता में…</p>
<p>माँ बहुरूपी<br/> मौजूद इर्द-गिर्द<br/> पहचाना मैं!<br/> ममता बरसाती<br/> नि:स्वार्थ वामा<br/> प्रकृति महायोगी<br/> रोगी-भोगी मैं!<br/> है त्यागी, चिकित्सक<br/> सहनशील<br/> सामंजस्य-शिक्षिका<br/> शिष्य, लोभी मैं!<br/> व्यक्तित्व बहुमुखी<br/> चरित्रवान<br/> परोक्ष-अपरोक्ष<br/> लाभान्वित मैं!<br/> विवादित-शोषित<br/> कोमलांगिनी<br/> अग्निपथ गमन<br/> स्वाभिमानी माँ<br/> यामिनी या दामिनी<br/> अभियुक्त मैं!<br/> बहुजन सुखाय<br/> आत्म-दुखाय<br/> उर्वीजा देवी तुल्य<br/> है पूज्यनीय<br/> पाता माता में ज्ञाता<br/> शरणार्थी मैं!<br/> रामबाण, अर्जुन<br/> चौकस दृष्टि<br/> याचक या शोषक<br/> बहुरूपी मैं!<br/> पुरुष महास्वार्थी!</p>
<p>.</p>
<p></p>
<p>[चोका काव्य में आद्यन्त निरन्तरता अधोलिखित वर्ण-संख्या अनुसार विषम संख्याओं में कुल पंक्तियाँ :<br/> 5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7———और समापन करते समय इस क्रम के अन्त में 7 वर्ण की एक और पंक्ति। ]</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)<br/> शेख़ शहज़ाद उस्मानी<br/> शिवपुरी (मध्यप्रदेश)<br/> [10 मई, 2019]</p>हास-परिहास (कविता)tag:openbooks.ning.com,2019-05-05:5170231:BlogPost:9834212019-05-05T16:58:26.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>टेढ़ा-मेढ़ा हास्य-रस<br/>बड़बोलापन, बस!<br/>सुबुद्धि हुई कुबुद्धि<br/>धन-सिद्धि हो, बस!</p>
<p></p>
<p>तेरा-मेरा हास्य-रस<br/>जीवन जस का तस<br/>बुद्धियांँ हो रहीं ठस!<br/>बच्चे-युवा हैं बेबस!</p>
<p></p>
<p>भोंडा-ओछा हास्य-रस<br/>टीवी टीआरपी तेजस!<br/>हास्यास्पद लगती बहस<br/>सेल्फ़ी रहस्य दे बरबस!</p>
<p></p>
<p>स्वच्छ, स्वस्थ हास्य-रस<br/>स्वाभाविक बरसता बस!<br/>बाल-बुज़ुर्ग-मुख के वश<br/>या फ़िर दे कार्टून, सर्कस!</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>टेढ़ा-मेढ़ा हास्य-रस<br/>बड़बोलापन, बस!<br/>सुबुद्धि हुई कुबुद्धि<br/>धन-सिद्धि हो, बस!</p>
<p></p>
<p>तेरा-मेरा हास्य-रस<br/>जीवन जस का तस<br/>बुद्धियांँ हो रहीं ठस!<br/>बच्चे-युवा हैं बेबस!</p>
<p></p>
<p>भोंडा-ओछा हास्य-रस<br/>टीवी टीआरपी तेजस!<br/>हास्यास्पद लगती बहस<br/>सेल्फ़ी रहस्य दे बरबस!</p>
<p></p>
<p>स्वच्छ, स्वस्थ हास्य-रस<br/>स्वाभाविक बरसता बस!<br/>बाल-बुज़ुर्ग-मुख के वश<br/>या फ़िर दे कार्टून, सर्कस!</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>द्वंद्व-प्रतिद्वंद्व (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-05-03:5170231:BlogPost:9833942019-05-03T22:00:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी तीन रंगमंचीय कलाकार थिएटर में फुरसत में मज़ाकिया मूड में बैठे हुए थे।</p>
<p><br></br> "तुम दोनों धृतराष्ट्र की तरह स्वयं को अंधा मानकर अपनी आंखों में ये चौड़ी और मोटी काली पट्टियां बांध लो!" उनमें से एक ने शेष दो साथियों से कहा, "पहला अंधा सुबुद्धि और दूसरा अंधा कुबुद्धि कहलायेगा! ... ठीक है!"</p>
<p><br></br> दोनों ने अपनी आंखों में पट्टियां सख़्ती से बंधवाने के बाद उससे पूछा, " ... और तुम क्या बनोगे, ऐं?"</p>
<p><br></br> "मैं! .. मैं बनूंगा तुम्हारी और आम लोगों की 'दृष्टि'!…</p>
<p>बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी तीन रंगमंचीय कलाकार थिएटर में फुरसत में मज़ाकिया मूड में बैठे हुए थे।</p>
<p><br/> "तुम दोनों धृतराष्ट्र की तरह स्वयं को अंधा मानकर अपनी आंखों में ये चौड़ी और मोटी काली पट्टियां बांध लो!" उनमें से एक ने शेष दो साथियों से कहा, "पहला अंधा सुबुद्धि और दूसरा अंधा कुबुद्धि कहलायेगा! ... ठीक है!"</p>
<p><br/> दोनों ने अपनी आंखों में पट्टियां सख़्ती से बंधवाने के बाद उससे पूछा, " ... और तुम क्या बनोगे, ऐं?"</p>
<p><br/> "मैं! .. मैं बनूंगा तुम्हारी और आम लोगों की 'दृष्टि'! देखते हैं हम तीनों को क्या-क्या दिखाई देता है!"</p>
<p><br/> "क्या मतलब?" सुबुद्धि ने कुबुद्धि का कंधा हिला कर कहा।</p>
<p><br/> "चलो आज यही खेलते हैं!" कुबुद्धि ने उसका हाथ दबा कर कहा।</p>
<p><br/> "तो शुरू करते हैं अपनी लघु-नाटिका!" तीसरे यानि 'दृष्टि' ने अपने दोनों हाथ सीने पर बांधकर कहा, "तो तुम दोनों अपनी अंतर्दृष्टि से अपने देश के ताज़े परिदृश्य को देख-समझ कर कोई लघु-टिप्पणी करो बारी-बारी से!"</p>
<p><br/> कुछ ही पलों में सुबुद्धि ने बताया, "मुझे कुख्यात आतंकी दल और तमाम लुटेरे-भगोड़े आत्मसमर्पण कर देश-भक्त-रक्षक बनते दिख रहे हैं और हमारा विकसित देश दुनिया का नेतृत्व करता दिख रहा है!"</p>
<p><br/> "जय हो! ... और कुबुद्धि तुम्हें क्या दिख रहा है?" दृष्टि ने पूछा।</p>
<p><br/> "मुझे शांतिप्रिय श्वेत वस्त्रधारी अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रधारी साधु-साध्वियां, बाबा-बुरकेवालियां अपने देश पर शासन करती दिख रहीं हैं भाई!" कुबुद्धि ने अपनी कुर्सी पर डमरू सी ताल बजाते हुए कहा।</p>
<p><br/> "जय हो!" दृष्टि ने अपने दोनों नेत्र फाड़कर कहा।</p>
<p><br/> "अब तुम बताओ, तुम्हारी असली दृष्टि क्या देख रही है?" दोनों पट्टीधारियों ने एक साथ पूछा।</p>
<p><br/> "अंधे बंधुओ! मैं देख रहा हूंँ कि अपने देश के अधिकतर लोगों के अनमोल ज़मीर और रिश्ते बिक चुके हैं! स्वार्थ और पदलोलुपता अस्त्र-शस्त्र युक्त व यंत्र-तंत्र-मंत्र युक्त हो गई है!" दृष्टि ने सुबुद्धि और कुबुद्धि दोनों के कंधे सहलाते हुए कहा, "लोगों में अंधापन, नंगापन और अंधानुकरण इतना बढ़ रहा है कि धनलोलुपता और दुनियावी चकाचौंध के संग देश में उन्हीं का प्रभुत्व और नेतृत्व है बंधुओं!"</p>
<p><br/> " ... और लोगों की बुद्धियां?" दोनों पट्टीधारियों ने अपनी आंखों से पट्टियां झटके से हटाकर पूछा।</p>
<p><br/> "बुद्धियां ही तो भ्रष्ट-पथभ्रष्ट हो गईं हैं न! ... जो स्वयं को बुद्धिजीवी मानते हैं या कहलाते हैं उनकी चेष्टाएँ-कुचेष्टाएँ आपस में द्वंद्वयुद्ध कर रही हैं!" दृष्टि ने पुनः अपनी आंखें फाड़कर कहा।</p>
<p><br/> "तो ये कहो न कि हर देशवासी में 'सत्य, रज और तम' - इन त्रिगुणों में द्वंद्व और प्रतिद्वंद्व चरम पर है!" सुबुद्धि बने रंगकर्मी ने अपने दोनों साथियों के कंधे सहलाते हुए कहा।</p>
<p><br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>कस्तूरी यहाँँ, वहाँँ, कहाँ (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-05-01:5170231:BlogPost:9832412019-05-01T12:02:01.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>स्थानीय पार्क में शाम की चहल-पहल। सभी उम्र के सभी वर्गो के लोग अपनी-अपनी रुचि और सामर्थ्य की गतिविधियों में संलग्न। मंदिर वाले पीपल के पेड़ के नीचे के चबूतरे पर अशासकीय शिक्षकों का वार्तालाप :</p>
<p>"हम टीचर्ज़ तो कोल्हू के बैल हैं! मज़दूर हैं! यहां आकर थोड़ा सा चैन मिल जाता है, बस!" उनमें से एक ने कहा।<br></br> "महीने में हमसे ज़्यादा तो ये अनपढ़ मज़दूर कमा लेते हैं! अपन तो इनसे भी गये गुजरे हैं!" दूसरे ने मंदिर के पास पोटली खोलकर भोजन करते कुछ श्रमिकों को देख कर कहा।<br></br> उन दोनों को कोल्ड-ड्रिंक्स…</p>
<p>स्थानीय पार्क में शाम की चहल-पहल। सभी उम्र के सभी वर्गो के लोग अपनी-अपनी रुचि और सामर्थ्य की गतिविधियों में संलग्न। मंदिर वाले पीपल के पेड़ के नीचे के चबूतरे पर अशासकीय शिक्षकों का वार्तालाप :</p>
<p>"हम टीचर्ज़ तो कोल्हू के बैल हैं! मज़दूर हैं! यहां आकर थोड़ा सा चैन मिल जाता है, बस!" उनमें से एक ने कहा।<br/> "महीने में हमसे ज़्यादा तो ये अनपढ़ मज़दूर कमा लेते हैं! अपन तो इनसे भी गये गुजरे हैं!" दूसरे ने मंदिर के पास पोटली खोलकर भोजन करते कुछ श्रमिकों को देख कर कहा।<br/> उन दोनों को कोल्ड-ड्रिंक्स से अपने गले तर करते देख कर उन मज़दूरों में वार्तालाप शुरू हुआ :</p>
<p>"इन पढ़े-लिखों से अपन बेहतर! हम किसी के ग़ुलाम नहीं! ख़ुद ही राजा, ख़ुद ही रंक! दाल-रोटी खाओ; प्रभु के गुण गाओ!" उन श्रमिकों में से एक ने मंदिर के मटके से पानी लेकर गला तर करते हुए कहा।<br/> "नीयत, मेहनत, ख़ुराक और हाज़मे की बात है भाई! उन लोगों के कुछ ... और हम लोगों के कुछ और! ... इस पार्क की तरह सदाबहार हैं हम; उन जैसे मुरझाए, बेचैन नहीं!" दूसरे ने उन शिक्षकों की ओर देख कर कहा।</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>ये पब्लिक है? (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-04-28:5170231:BlogPost:9827142019-04-28T04:06:50.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>"सच कहूं! मुझे भी पता नहीं था कि मेरी अग्नि से मिट्टी के आधुनिक चूल्हे पर चढ़ी एक साथ चार हांडियों में मनचाही चीज़ें एक साथ पकाई जा सकती हैं!"</p>
<p><br></br>"तो तुम्हारा मतलब हमारे मुल्क की मिट्टी में आज़ादी के चूल्हे पर लोकतंत्र के चारों स्तंभों की हांडियां एक साथ चढ़ा कर मनचाही सत्ता चलाने से है ... है न?"</p>
<p><br></br>"तो तुम समझ ही गये कि इस नई सदी में तुम्हारे मुल्क में मेरी ही आग कारगर है; फ़िर तुम इसे चाहे जो नाम दो : धर्मांधता, तानाशाही, सामंतवाद, भ्रष्टाचार, भय या तथाकथित हिंदुत्व…</p>
<p>"सच कहूं! मुझे भी पता नहीं था कि मेरी अग्नि से मिट्टी के आधुनिक चूल्हे पर चढ़ी एक साथ चार हांडियों में मनचाही चीज़ें एक साथ पकाई जा सकती हैं!"</p>
<p><br/>"तो तुम्हारा मतलब हमारे मुल्क की मिट्टी में आज़ादी के चूल्हे पर लोकतंत्र के चारों स्तंभों की हांडियां एक साथ चढ़ा कर मनचाही सत्ता चलाने से है ... है न?"</p>
<p><br/>"तो तुम समझ ही गये कि इस नई सदी में तुम्हारे मुल्क में मेरी ही आग कारगर है; फ़िर तुम इसे चाहे जो नाम दो : धर्मांधता, तानाशाही, सामंतवाद, भ्रष्टाचार, भय या तथाकथित हिंदुत्व लहर!"</p>
<p><br/>"लेकिन याद रहे बंधुवर! जनता वो धौंकनी है, जो तुम्हारी अग्नि की ज्वाला में वृद्घि ही नहीं कर सकती, बल्कि विपरीत दिशा में अग्नि को बहका भी सकती है या फ़िर बुझा भी सकती है!"</p>
<p><br/>"जनता को मत लपेटो, बुद्धिजीवी नागरिक!... हवाओं के काम हैं सब! यह काम तो बिकाऊ नेता, अभिनेता, उद्योगपति या मीडिया ही कर रहा है न! ... जनता तो वो प्रेशर कुकर है, जिसे आधुनिक चूल्हे पर हम अपनी मर्ज़ी से चढ़ाते हैं मनमानी चीज़ पकाने के लिए ... लेकिन!"</p>
<p><br/>" ... लेकिन क्या?"</p>
<p><br/>"लेकिन उस प्रेशर कुकर का ढक्कन खोल कर! सीटी बजने की कोई गुंजाइश ही नहीं! हा हा हा!"</p>
<p><br/> यह सुनकर बुद्धिजीवी पहले तो उसके साथ हंसा; फ़िर अचानक रोने लगा।</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>लड़की (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-04-23:5170231:BlogPost:9816192019-04-23T12:49:39.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>अम्मा को चारपाई पर लेटे देख बिटिया किशोरी भी उसके बगल में लेट गई और दोनों हाथों से उसे घेर कर कसकर सीने से लगाकर चुम्बनों से अपना स्नेह बरसाने लगी। इस नये से व्यवहार से अम्मा हैरान हो गई। उसने अपनी दोनों हथेलियों से बिटिया का चेहरा थामा और फ़िर उसकी नम आंखों को देख कर चौंक गई। कुछ कहती, उसके पहले ही बिटिया ने कहा :</p>
<p><br></br> "अम्मा तुम ज़मीन पे चटाई पे लेट जाओ!"</p>
<p><br></br> जैसे ही वह लेटी, किशोरी अपनी अम्मा के पैर वैसे ही दाबने लगी, जैसे अम्मा अपने मज़दूर पति के अक्सर दाबा करती…</p>
<p>अम्मा को चारपाई पर लेटे देख बिटिया किशोरी भी उसके बगल में लेट गई और दोनों हाथों से उसे घेर कर कसकर सीने से लगाकर चुम्बनों से अपना स्नेह बरसाने लगी। इस नये से व्यवहार से अम्मा हैरान हो गई। उसने अपनी दोनों हथेलियों से बिटिया का चेहरा थामा और फ़िर उसकी नम आंखों को देख कर चौंक गई। कुछ कहती, उसके पहले ही बिटिया ने कहा :</p>
<p><br/> "अम्मा तुम ज़मीन पे चटाई पे लेट जाओ!"</p>
<p><br/> जैसे ही वह लेटी, किशोरी अपनी अम्मा के पैर वैसे ही दाबने लगी, जैसे अम्मा अपने मज़दूर पति के अक्सर दाबा करती है।</p>
<p><br/> "क्या बात है बच्ची! आज माँ पे इत्ता लाड़ क्यों बिटिया?"</p>
<p><br/> "तुम बहुत बहादुर हो अम्मा! इत्ती ग़रीबी में भी चार बच्चे पैदा करके हमें पढ़ा-लिखा रई हो; परिवार चला रई हो!" किशोरी ने अम्मा को औंधा कर उसकी पीठ पर बढ़िया मालिश करते हुए कहा।</p>
<p><br/> "बता न बेटा! परेशान सी क्यों है? तेरी आँखों में आंसू क्यों हैं? अपनी अम्मा को तो बतायेगी न!" माँ ने बैठ कर किशोरी के सिर पर हाथ फेरकर कहा।</p>
<p><br/> "दो-चार साल बाद तुम मेरी शादी कर दोगी न!"</p>
<p><br/> "हां, बच्ची! हम ग़रीब लोग ज़ल्दी ही बेटी ब्याह देना सही समझत हैं!" अम्मा ने जवाब तो दे दिया, लेकिन फिर घबराकर बोली, "कछु तो गड़बड़ है! ज़ल्दी बता, तेरे साथ कछु बुरो तो नईं भओ?"</p>
<p><br/> "बुरो जब कभी तुमाये साथ न भओ, तो तुमाई बिटिया के साथ कैसे हो सकत है अम्मा!"</p>
<p><br/> "तो फिर?"</p>
<p><br/> "अम्मा, तुम ने पहले मुझे जना, फ़िर तीन और बच्चे जने बिना अस्पताल गये!"</p>
<p><br/> "हां, तो?"</p>
<p><br/> "कित्ती तक़लीफ़ हुई होगी न तुम्हें झुग्गी में ही मुझे पैदा करने में!" यह कहते हुए किशोरी फफक कर रोने लगी।</p>
<p><br/> "ऐ किशोरी! पूरी बात बता! जे बहकी से बातें क्यों कर रई है आज!" बिटिया के आंसू पोंछती हुई माँ बोली।</p>
<p><br/> "अम्मा, आज पता चला! मैं भी लड़की हूं! मुझे भी ग़रीबी में बच्चा जनना पड़ेगा! ... लेकिन मैं शादी नहीं करूंगी! पढ़ूंगी; अपनी ग़रीबी दूर करूंगी!"</p>
<p><br/> "पहले ये बता, तुझे किसने क्या बताया जचकी के बारे में!" सब कुछ ताड़कर माँ ने पूछा।</p>
<p><br/> अम्मा को फिर से अपने सीने से लगाकर किशोरी बोली, "हमारी स्कूूूल वाली सहेेेली है न ... पूनम! उसने अपने मोबाइल में वीडियो में दिखाया कि औरत सड़क पर, घर में, गाड़ी में और खेत में बच्चा कैसे जनती है! औरत कित्ती तड़पती और चिल्लाती है!" फ़िर से रोते हुए वह बोली, "तुमाये जैसी ग़रीब औरत तो झुग्गी में और भी ज़्यादा परेशान हो जाती होगी न!"</p>
<p><br/> "बेटा, सरकारी अस्पताल वाले मदद करत हैं; लेकिन सब को नसीब नहीं होत! ... लेकिन तुमने सहेली के साथ ऐसे वीडियो क्यों देखे?, क्यों गई उसके घर?" माँ कुछ नाराज़ होकर बोली।</p>
<p><br/> "अम्मा, मोबाइल में तो सब कुछ दिख जात है! पूनम ने आज बताया और सब दिखाया हमें!"</p>
<p><br/> यह सुनते ही मां परेशान हो गई। उसे नाबालिग किशोरी जवान नज़र आ रही थी!</p>
<p><br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>"ओ आली, कौन अली; कौन महाबली?" (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-22:5170231:BlogPost:9814062019-04-22T10:02:36.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>छकपक ... छकपक ... करती आधुनिक रेलगाड़ी बेहद द्रुत गति से पुल पर से गुजर रही थी। नीचे शौच से फ़ारिग़ हो रहे तीन प्रौढ़ झुग्गीवासी बारी-बारी से लयबद्ध सुर में बोले :</p>
<p><br></br>पहला :</p>
<p><br></br>"रेल चली भई रेल चली; पेल चली उई पेल चली!"</p>
<p><br></br>दूसरा :</p>
<p><br></br>"खेल गई रे खेल गई; खेतन खों तो लील गई!"</p>
<p><br></br>फ़िर तीसरा बोला :</p>
<p><br></br>"ठेल चली; हा! ठेल चली; बहुतन खों तो भूल चली!"</p>
<p><br></br>दूर खड़े अधनंगे मासूम तालियां नहीं बजा रहे थे; एक-दूसरे की फटी बनियान पीछे से पकड़ कर छुक-छुक…</p>
<p>छकपक ... छकपक ... करती आधुनिक रेलगाड़ी बेहद द्रुत गति से पुल पर से गुजर रही थी। नीचे शौच से फ़ारिग़ हो रहे तीन प्रौढ़ झुग्गीवासी बारी-बारी से लयबद्ध सुर में बोले :</p>
<p><br/>पहला :</p>
<p><br/>"रेल चली भई रेल चली; पेल चली उई पेल चली!"</p>
<p><br/>दूसरा :</p>
<p><br/>"खेल गई रे खेल गई; खेतन खों तो लील गई!"</p>
<p><br/>फ़िर तीसरा बोला :</p>
<p><br/>"ठेल चली; हा! ठेल चली; बहुतन खों तो भूल चली!"</p>
<p><br/>दूर खड़े अधनंगे मासूम तालियां नहीं बजा रहे थे; एक-दूसरे की फटी बनियान पीछे से पकड़ कर छुक-छुक रेलगाड़ी का खेल भी नहीं खेल रहे थे! वे तो अपने-अपने मटमैले थैले और बोरियां समेटे दैनिक रद्दी-संग्रह-पदयात्रा पर रवाना होने वाले थे।</p>
<p><br/>उनमें से पहला बच्चा बोला :</p>
<p><br/>"भूख लगी, भैया भूख लगी; अम्मा तो जाने कहाँ चली!"</p>
<p><br/>दूसरे ने कहा :</p>
<p><br/>"झटपट-झटपट हाथ-पैर चलाओ; कूड़ा-कड़कट में सेंध लगाओ!"</p>
<p><br/>कुछ अधिक उम्र वाले तीसरे ने उन दोनों के कंधे पर हाथ रखकर कहा :</p>
<p><br/>"न अली; न महाबली! अपनी दुनिया अपन से चली!"</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>आम चुनाव और समसामायिक संवाद (लघुकथाएं) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-21:5170231:BlogPost:9814392019-04-21T10:00:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>(1).चेतना :<br></br> <br></br> ग़ुलामी ने आज़ादी से कहा, "मतदाता सो रहा है, उदासीन है या पार्टी-प्रत्याशी चयन संबंधी किसी उलझन में है, उसे यूं बार-बार मत चेताओ; हो सकता है वह अपने मुल्क में किसी ख़ास प्रभुत्व या किसी तथाकथित हिंदुत्व या किसी इमरजैंसी के ख़्वाब बुन रहा हो!"</p>
<p>आज़ादी ने उसे जवाब दिया, "नहीं! हमारे मुल्क का मतदाता न तो सो रहा है; न ही उदासीन है और न ही किसी उलझन में है! उसे चेताते रहना ज़रूरी है! हो सकता है कि वह तुष्टीकरण वाली सुविधाओं, योजनाओं, क़ानूनों से आज़ादी का मतलब भूल गया हो या…</p>
<p>(1).चेतना :<br/> <br/> ग़ुलामी ने आज़ादी से कहा, "मतदाता सो रहा है, उदासीन है या पार्टी-प्रत्याशी चयन संबंधी किसी उलझन में है, उसे यूं बार-बार मत चेताओ; हो सकता है वह अपने मुल्क में किसी ख़ास प्रभुत्व या किसी तथाकथित हिंदुत्व या किसी इमरजैंसी के ख़्वाब बुन रहा हो!"</p>
<p>आज़ादी ने उसे जवाब दिया, "नहीं! हमारे मुल्क का मतदाता न तो सो रहा है; न ही उदासीन है और न ही किसी उलझन में है! उसे चेताते रहना ज़रूरी है! हो सकता है कि वह तुष्टीकरण वाली सुविधाओं, योजनाओं, क़ानूनों से आज़ादी का मतलब भूल गया हो या सही उड़ान भरना भूल गया हो या ख़ुद को कठपुतली समझने लगा हो!"<br/> <br/> (2).जनता ही तो :<br/> <br/> आज़ादी ने लोकतंत्र से कहा, "तुम जनता के, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन रूप में पहचाने जाते हो; लेकिन हो ये रहा है कि व्यापारी-उद्योगपतियों के, उनके ही लिये, उनके ही द्वारा तुम हांके जा रहे हो!"</p>
<p>लोकतंत्र ने उसे जवाब दिया, "नहीं! मैं अब भी उसी रूप में परिभाषित, प्रचलित व स्थापित हूँ! इस सदी में जनता ही व्यापारी है; सौदागर है; उद्योगपति है! कोई लघुत्तम, तो कोई मध्यम और कोई बहुत ही बड़ा विश्वस्तरीय!"<br/> <br/> (3).अस्तित्व :<br/> <br/> लोकतंत्र ने ग़ुलामी से कहा, "मैं इस मुल्क में शताब्दी की ओर बढ़ रहा हूँ! अब भी मुझे संशय है कि मुल्क की जनता आज़ादी में मेरे साथ अधिक सुखी है या तुम्हारे दिनों में ज़्यादा सुखी थी?"</p>
<p>ग़ुलामी ने उसे सैल्यूट करते हुए जवाब दिया, "आयुष्मान भव; यशस्वी भव! ग़ुलामी के दिनों में कुछ एक ग़ुलाम ही अधिक सुखी थे और आज़ादी के दिनों में तुम्हारे साथ कुछ एक लोग ही ज़्यादा सुखी हैं बस; शेष नहीं! ... लेकिन मेरे समय में उन शेष के कारण ही मुल्क ने आज़ादी पाई और अब तुम्हारे समय में इन शेष के कारण ही तुम्हारा अस्तित्व है!"<br/> <br/> (4).असंतुष्टि :<br/> <br/> आज़ादी ने ग़ुलामी से कहा, "हमारे मुल्क के लोगों को मैं या तो रास नहीं आ रही या वे मुझे सही ढंग से समझ ही नहीं पा रहे हैँ! लोकतंत्र क़ायम है, पर संतुष्ट नहीं! सतत तुष्टिकरण के बावजूद जनता संतुष्ट नहीं!"</p>
<p>ग़ुलामी ने उसे सैल्यूट करते हुए कहा, "आयुष्मान भव; यशस्वी भव! तुम रास तो सब को आ रही हो! लोग तुम्हें समझ भी रहे हैं! कुछ अलोकतांत्रिक असंतुष्टों की वजह से तुम पर और लोकतंत्र पर लोग उंगलियां उठाते हैं; चोटिल करते और करवाते हैं!"<br/> <br/> (5) ख़तरा :<br/> <br/> आज़ादी ने जनता से कहा, "तुम्हारे द्वारा चलाया जा रहा लोकतंत्र विशाल और परिपक्व होते हुए भी ख़तरे में बताया जा रहा है! जागो और जगाओ! अबकी चुनाव में लोकतंत्र बचाओ!"</p>
<p>जनता ने उसे जवाब दिया, "ख़तरे में न लोकतंत्र है और न ही हम! ख़तरे में तो कुछ नेता हैं और उनके राजनैतिक दल, बस!"<br/> <br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>तूलिकायें (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-16:5170231:BlogPost:9807052019-04-16T12:00:44.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>नयी सदी अपना एक चौथाई हिस्सा पूरा करने जा रही थी। तेज़ी से बदलती दुनिया के साथ मुल्क का लोकतंत्र भी मज़बूत होते हुए भी अच्छे-बुरे रंगों से सराबोर हो रहा था। काग़ज़ों और भाषणों में भले ही लोकतंत्र को परिपक्व कहा गया हो, लेकिन लोकतंत्र के महापर्व 'आम-चुनावों' के दौरान राजनीतिक बड़बोलेपन के दौर में यह भी कहा जा रहा था कि अमुक धर्म ख़तरे में है या अपना लोकतंत्र ही नहीं, मुल्क का नक्शा भी ख़तरे में है! कोई किसी बड़े नेता, साधु-संत, उद्योगपति, धर्म-गुरु या देशभक्त को चौड़ी छाती वाला इकलौता 'शेर' कह रहा था,…</p>
<p>नयी सदी अपना एक चौथाई हिस्सा पूरा करने जा रही थी। तेज़ी से बदलती दुनिया के साथ मुल्क का लोकतंत्र भी मज़बूत होते हुए भी अच्छे-बुरे रंगों से सराबोर हो रहा था। काग़ज़ों और भाषणों में भले ही लोकतंत्र को परिपक्व कहा गया हो, लेकिन लोकतंत्र के महापर्व 'आम-चुनावों' के दौरान राजनीतिक बड़बोलेपन के दौर में यह भी कहा जा रहा था कि अमुक धर्म ख़तरे में है या अपना लोकतंत्र ही नहीं, मुल्क का नक्शा भी ख़तरे में है! कोई किसी बड़े नेता, साधु-संत, उद्योगपति, धर्म-गुरु या देशभक्त को चौड़ी छाती वाला इकलौता 'शेर' कह रहा था, तो किसी को गीदड़, कुत्ता, बंदर, देशद्रोही या कठपुतली! कोई किसी अभिनेत्री या राजनेत्री को 'शेरनी' कह रहा था; तो कोई किसी मुंहफट साधवी या बुरकाधारिणी को!</p>
<p><br/>तकनीकों, डिजीटलीकरण, आतंक, प्रदूषण, जनसंख्या या बेरोज़गारी की बेइंतहा तरक़्क़ी के दौर में मुल्क की युवा और बाल-पीढ़ी सुविधाओं, घोषणाओं या योजनाओं से घिरे होने के बावजूद दुविधाओं से परेशान थी।</p>
<p><br/>मीडिया से अपडेटिड रहते हुए इक बेचारा हार कर वापस पुराणों, वेदों, धर्म-ग्रंथों का सरसरी तौर पर अध्ययन करने के बाद अपने कक्ष में बैठा हुआ अब स्वामी विवेकानंद जी के उपदेश पढ़ने लगा।</p>
<p><br/>कुछ देर बाद पता नहीं उसे क्या सूझा! खड़ा हुआ। अपनी अक़्ल के ताले खुलने पर अपनी शक्ल आइने में देखने लगा। बस, फिर क्या था! ख़ुशी से उछल कर अपने आप से ही, किंतु चिल्ला कर बोला, "मैं ही तो शेर हूँ न!"</p>
<p><br/>उसने वापस अपनी टेबल तक जाकर स्वामी विवेकानंद जी के उपदेशों की वह पुस्तक उठाई और आइने के सामने फिर खड़ा हो गया। उसे लगा कि उस पुस्तक रूपी तूलिका ने उसका असली चित्र उसे दिखा दिया हो; एकदम चौड़ी छाती वाला बब्बर शेर!"</p>
<p><br/>वह मुल्क का, विशाल लोकतंत्र का आम नागरिक था; युवा था; मतदाता था!</p>
<p><br/>"सारी शक्ति तुम में ही निहित है! अकेले हो, तो क्या हुआ! उठो; जागो; आगे बढ़ो; अपनी शक्ति को पहचानो और बाधाओं या फल की चिंता किये बिना भले कर्म में सदैव संलग्न रहो!" स्वामी विवेकानंद जी के उपदेशों के कुछ ऐसे ही शब्दों के रंग उसके असली चित्र को उसके मन-मस्तिष्क में चित्रित कर रहे थे, उसमें नवीन जोश के रंग भर रहे थे।</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>विवशतायें (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-15:5170231:BlogPost:9808232019-04-15T16:01:39.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>बहाव को रोकने के लिये किसी भी प्रकार के बंध या बंधन काम नहीं आ पा रहे थे। तेज बहाव के बीच एक टीले पर कुछ नौजवान अपनी-अपनी क्षमता और सोच अनुसार विभिन्न पोशाकें पहने, विभिन्न स्मार्ट फ़ोन, कैमरे और दूरबीनें लिए हुए बहती तेज धाराओं के थमने या थमाये जाने; बचाव दल के आने या बुलवाये जाने; नेताओं, मंत्री, यंत्री, धर्म-गुरुओं अथवा विशेषज्ञों के दख़ल करने या करवाने के भरोसे, प्रतीक्षा और शंका-कुशंकाओं के साथ माथापच्ची करते हुए एक-दूसरे के हाथ थामे खड़े हुए थे। कोई तटों की ओर देख रहा था, तो कोई आसमां की…</p>
<p>बहाव को रोकने के लिये किसी भी प्रकार के बंध या बंधन काम नहीं आ पा रहे थे। तेज बहाव के बीच एक टीले पर कुछ नौजवान अपनी-अपनी क्षमता और सोच अनुसार विभिन्न पोशाकें पहने, विभिन्न स्मार्ट फ़ोन, कैमरे और दूरबीनें लिए हुए बहती तेज धाराओं के थमने या थमाये जाने; बचाव दल के आने या बुलवाये जाने; नेताओं, मंत्री, यंत्री, धर्म-गुरुओं अथवा विशेषज्ञों के दख़ल करने या करवाने के भरोसे, प्रतीक्षा और शंका-कुशंकाओं के साथ माथापच्ची करते हुए एक-दूसरे के हाथ थामे खड़े हुए थे। कोई तटों की ओर देख रहा था, तो कोई आसमां की ओर!</p>
<p><br/>बहुत ही तेज़ धाराओं के साथ भयंकर बहाव जल का था, वैश्वीकरण का, आधुनिकता का, उच्च तकनीकों-डिजीटलीकरण का था या लोकतांत्रिक व्यवस्था का था या अलोकतांत्रिक का या सामंतवाद, आतंकवाद, नशाखोरी, तानाशाही या कट्टरपन, योजनाओं अथवा बड़बोलेपन या धर्मांधता का! जो भी हो; नौजवानों के लिए रोमांचक था, चुनौती था, आनंददायक था या रोबोटिक अहसास था। टीला भी कोई विकास था, उच्च ओहदा या मुकाम था; लक्ष्य था या दिवास्वप्न था! बंध या बंधन कोई उच्च तकनीक का बांध था या भ्रष्टाचार; बेरोज़गारी थी, अशिक्षा थी, उच्च शिक्षा थी या परिवार या समाज या धर्म था; नीति थी, आदर्श थे, पाखंड या अंधविश्वास था! जो कुछ भी हो! नौजवान हैरान-परेशान से थे। कुछ युवक थे, कुछ युवतियां थीं! तो कुछ थर्ड-जेंडर या समलैंगिक! कुछ एक बहुत ग़रीब थे, तो कुछ बहुत अमीर और अधिकतर तो मध्यम वर्ग के ही थे! लगभग ऐसे ही दृश्य तटों पर भी थे। ये तट स्थायी रोज़गार थे या अस्थायी; जुगाड़ थे, उद्योगपतियों के व्यापार थे या राजनीति या धर्म के ठोस स्तंभ; पैतृक धन-सम्पत्ति थी या देश की सम्पदा! जो कुछ भी हो! नौजवानों को उन पर अटूट विश्वास था!</p>
<p><br/>तेज़ धाराओं के बहाव के बीच टीले वालों और तट वालों के बीच स्मार्ट फ़ोनों आदि से सम्पर्क बना हुआ था। चर्चाएं जारी थीं। वादे किये जा रहे थे। रेस्क्यू ऑपरेशन की संभावनाएं कभी बढ़ रहीं थीं, तो कभी कम हो रहीं थीं।</p>
<p><br/>कुछ जोशीले युवा जो तैरना जानते थे, बेसब्री से लहरों में कूंद गये। उनमें से कुछ तट पा गये, तो कुछ मौत! सब्र रखते हुए ढलती शाम में भी शेष युवा चुनौतियों को स्वीकार कर रहे थे संभावित नतीज़ों की कल्पनाओं में खोये हुए अपने-अपने फ़ैसले या चुनाव पर चिंतन-मनन कर रहे थे।</p>
<p><br/>"देखो, किसी दमदार मंत्री से सम्पर्क करो या उद्योगपति से या फ़िर किसी दलाल या बड़ी पहुंच वाले आतंकी से! कोशिश करो हमारे रेस्क्यू की किसी न किसी जुगाड़ से!" टीले पर खड़े एक दमदार युवा ने फ़ोन पर तट पर खड़े एक बड़े नेता से कहा।</p>
<p><br/>"हम कोशिश कर रहे हैं बारी-बारी से उन सभी लिंक्स का चयन करके! चुनाव का समय है। कोई न कोई तो पहल करेगा ही! जस्ट वेट!" दूसरी तरफ़ से जवाब आया।</p>
<p><br/>शेष नौजवान वार्तालाप या ऑनलाइन-चैटिंग सुन रहे थे; या स्मार्ट फ़ोनों पर समाचारों के अपडेट्स सुन या देख रहे थे; सपने बुन रहे थे। कुछ ज़िन्दगियाँ ऑनलाइन थीं; कुछ ऑफ़लाइन! धैर्य और इंतज़ार के चुनाव की विवशता थी!</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>डाटा रिकवरी! (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-13:5170231:BlogPost:9807512019-04-13T18:00:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>कई दिनों से टल रहा काम निबटा कर, थके-हारे मिर्ज़ा मासाब अपने अज़ीज़ दोस्त पंडित जी के साथ अपने घर वापस पहुंचे। अपनी नाराज़ बेगम साहिबा को कुछ इस अंदाज़ में देखने लगे कि बेगम का ग़ुस्सा फ़ुर्र से उड़ गया!</p>
<p><br></br> "क्या बात है पंडित जी! आज ये हमें इस तरह क्यूँ घूर रहे हैं!" कुछ शरमा कर मुस्कराते हुए बेगम ने अपने पल्लू की आड़ लेकर कहा।</p>
<p><br></br> "डाटा रिकवरी करवा कर आये हैं मिर्ज़ा जी के लेपटॉप की!" पंडित जी ने दोस्त का कंधा दबाते हुए कहा।</p>
<p><br></br> "अच्छा! वो तो बहुत बढ़िया किया आपने। बहुत…</p>
<p>कई दिनों से टल रहा काम निबटा कर, थके-हारे मिर्ज़ा मासाब अपने अज़ीज़ दोस्त पंडित जी के साथ अपने घर वापस पहुंचे। अपनी नाराज़ बेगम साहिबा को कुछ इस अंदाज़ में देखने लगे कि बेगम का ग़ुस्सा फ़ुर्र से उड़ गया!</p>
<p><br/> "क्या बात है पंडित जी! आज ये हमें इस तरह क्यूँ घूर रहे हैं!" कुछ शरमा कर मुस्कराते हुए बेगम ने अपने पल्लू की आड़ लेकर कहा।</p>
<p><br/> "डाटा रिकवरी करवा कर आये हैं मिर्ज़ा जी के लेपटॉप की!" पंडित जी ने दोस्त का कंधा दबाते हुए कहा।</p>
<p><br/> "अच्छा! वो तो बहुत बढ़िया किया आपने। बहुत परेशां रहते थे एक ड्राइव लॉक करके पासवर्ड वग़ैरह सब भूलकर! लेकिन मुझे क्यूं ऐसे देख रहे हैं ये इतने सालों बाद!" बेगम ने अबकी बार बिना किसी शरम और लिहाज़ के वही सवाल दोहराया।</p>
<p><br/> मिर्ज़ा जी चुप्पी साधे हुए बस मंद-मंद मुस्करा रहे थे। सो पंडित जी ही कुछ यूं बताने लगे सारा माज़रा :</p>
<p><br/> "भाभीजान, हुआ ये कि इनके लेपटॉप की उस लॉक्ड ड्राइव की डाटा रिकवरी कराने जहां मैं इन्हें ले गया, वहां की एक ख़ूबसूरत, जवां और मॉडर्न कर्मचारी के हाथों में मेंहदी और कलाइयों में राजस्थानी सी ढेर सारी चूड़ियां और कड़े देखकर इन्हें आपसे निकाह के पहले के लव-अफ़ेअर और बाद के दिनों की याद ताज़ा हो गई! वहां ये जनाब उसे भी ऐसे ही घूर रहे थे! वो तो मैंने इनका कंधा दबाकर इनका सिर दूसरी कर्मचारी की तरफ़ घुमा दिया, ...वरना!" इतना कहकर पंडित जी ज़ोर से हंसने लगे।</p>
<p><br/> "तो वो क्या नई-नई शादीशुदा थी!"</p>
<p><br/> "नहीं, भाभीजान! वो तो बेहद फ़ैशनेबल कुंवारी लड़की थी। माथे पर बिंदी लगाये, कानों में भारी बालियां पहने छोटे कपड़े पहने हुए थी! इतरा रही थी एकदम रिमिक्स्ड आइटम!" पंडित जी को यूं बोलते देख मिर्ज़ा मासाब उन्हें इशारे से चुप होने को कहते रहे, लेकिन सब बेकार।</p>
<p><br/> बेगम साहिबा तुरंत अपनी ड्रेसिंग टेबल की ओर गईं और अपनी शक्ल और बदन का मुआयना सा करने लगीं। मुरझाया सा झुर्रीदार चेहरा, रूखी-सूखी चमड़ी और बुढ़ापे की दस्तक उनकी आंखों को नम करने लगे।</p>
<p><br/> तभी अंदर जाकर पीछे से मिर्ज़ा साहिब ने उन्हें बाहों में लेकर कहा, "वहां उस लड़की के हाथों, मेंहदी, कलाइयों और चूडियों-कड़ों से तुम्हारी डाटा रिकवरी करने लगा था बेगम! वाकई आज मुझे तुम उन दिनों वाली वैसी ही मेरी मेहबूबा नज़र आ रही हो!"</p>
<p><br/> तभी बैठक-कक्ष से पंडित जी ने खांसते हुए कहा, "अच्छा, अब चलता हूं; दुआओं में याद रखना!"</p>
<p><br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>'आह क्या सीन है!' (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-08:5170231:BlogPost:9805132019-04-08T15:53:04.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>कई दिनों देश-विदेश यात्राएं कर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों और परिदृश्यों की साक्षी होने के बाद एक मशहूर पुस्तकालय का मुआयना करते हुए उन दोनों ने अपनी लम्बी चुप्पी यूं तोड़ ही दी :</p>
<p><br></br>"यह भी सभ्य लोगों का ही एक अड्डा है!"</p>
<p><br></br>"बाहर से इंसान कुछ भी दिखे, अंदर से तो प्राय: उसका चरित्र भद्दा है!" सभ्यता की बात पर असभ्यता ने कहा।</p>
<p><br></br>"संक्रमण-काल है! वैश्वीकरण में मिलावट का दौर है! स्वार्थी तकनीकी तरक़्क़ी का मुद्दा है!" एक आह भरते हुए सभ्यता ने कहा और पुस्तकालय में सलीके से…</p>
<p>कई दिनों देश-विदेश यात्राएं कर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों और परिदृश्यों की साक्षी होने के बाद एक मशहूर पुस्तकालय का मुआयना करते हुए उन दोनों ने अपनी लम्बी चुप्पी यूं तोड़ ही दी :</p>
<p><br/>"यह भी सभ्य लोगों का ही एक अड्डा है!"</p>
<p><br/>"बाहर से इंसान कुछ भी दिखे, अंदर से तो प्राय: उसका चरित्र भद्दा है!" सभ्यता की बात पर असभ्यता ने कहा।</p>
<p><br/>"संक्रमण-काल है! वैश्वीकरण में मिलावट का दौर है! स्वार्थी तकनीकी तरक़्क़ी का मुद्दा है!" एक आह भरते हुए सभ्यता ने कहा और पुस्तकालय में सलीके से रखी धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक, नीति-शास्त्र आदि तमाम विषयांतर्गत ग्रंथों पर दृष्टिपात करने लगी।</p>
<p><br/>असभ्यता यह दृश्य देखकर कुटिलता से मुस्करा रही थी और पुस्तकालय की खाली कुर्सियों और बैंचों पर नज़रें दौड़ा रही थी।</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>"फ़ेम्अलि वाली सेल्फ़ी" (कविता) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-08:5170231:BlogPost:9802062019-04-08T09:30:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>सेल्फ़ी-स्टिक से ले डाली रे, कुल्फ़ी वाली सेल्फ़ी।<br/> हेल्द़ी-स्टिक दो खा डालीं रे, हम सब दिखते हेल्द़ी।।</p>
<p></p>
<p>मम्मी-पापा को भी लाओ, सेल्फ़ी लेंगी मम्मी।<br/> कुल्फ़ी सब जी भर के खाओ, मम्मी वाली कुल्फ़ी।।</p>
<p></p>
<p>सर्दी-ज़ुकाम से क्या डरना, गर्मी वाली सर्दी।<br/> ज़ल्दी से अब और खिलादो, ठंडी कुल्फ़ी ज़ल्दी।।</p>
<p></p>
<p>सेल्फ़ी-स्टिक से ले डाली रे, मस्ती वाली सेल्फ़ी।<br/> ले ली दादा-दादी वाली, सेल्फ़ी सुंदर ले ली।।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>सेल्फ़ी-स्टिक से ले डाली रे, कुल्फ़ी वाली सेल्फ़ी।<br/> हेल्द़ी-स्टिक दो खा डालीं रे, हम सब दिखते हेल्द़ी।।</p>
<p></p>
<p>मम्मी-पापा को भी लाओ, सेल्फ़ी लेंगी मम्मी।<br/> कुल्फ़ी सब जी भर के खाओ, मम्मी वाली कुल्फ़ी।।</p>
<p></p>
<p>सर्दी-ज़ुकाम से क्या डरना, गर्मी वाली सर्दी।<br/> ज़ल्दी से अब और खिलादो, ठंडी कुल्फ़ी ज़ल्दी।।</p>
<p></p>
<p>सेल्फ़ी-स्टिक से ले डाली रे, मस्ती वाली सेल्फ़ी।<br/> ले ली दादा-दादी वाली, सेल्फ़ी सुंदर ले ली।।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>लो आ गईं छुट्टियां! (संस्मरण) :tag:openbooks.ning.com,2019-04-07:5170231:BlogPost:9801872019-04-07T05:04:05.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>लो फिर से गर्मियों की छुट्टियां आ गईं। दो महीने पहले से परिवारजन और बच्चे इन छुट्टियों के सही व नये इस्तेमाल के बारे में अपनी-अपनी राय दे रहे थे। बच्चों की योजनाओं पर बड़ों की व्यस्तताओं और योजनाओं के कारण बच्चों के मन के फैसले नहीं हो पा रहे थे। आम चुनावों का भी माहौल चल रहा था। किसी के मम्मी-पापा किसी ज़िम्मेदारी में फंसे थे, तो किसी के किसी और काम में। बहरहाल इन छुट्टियों के एक-एक दिन का सही इस्तेमाल होना बहुत ज़रूरी था।</p>
<p></p>
<p>मुझे फुरसत देख घर के और पड़ोस के बच्चों ने मुझे यह…</p>
<p>लो फिर से गर्मियों की छुट्टियां आ गईं। दो महीने पहले से परिवारजन और बच्चे इन छुट्टियों के सही व नये इस्तेमाल के बारे में अपनी-अपनी राय दे रहे थे। बच्चों की योजनाओं पर बड़ों की व्यस्तताओं और योजनाओं के कारण बच्चों के मन के फैसले नहीं हो पा रहे थे। आम चुनावों का भी माहौल चल रहा था। किसी के मम्मी-पापा किसी ज़िम्मेदारी में फंसे थे, तो किसी के किसी और काम में। बहरहाल इन छुट्टियों के एक-एक दिन का सही इस्तेमाल होना बहुत ज़रूरी था।</p>
<p></p>
<p>मुझे फुरसत देख घर के और पड़ोस के बच्चों ने मुझे यह ज़िम्मेदारी सौंपी, सो मैं हर रोज़ उन्हें शहर के किसी ख़ास स्थान पर एक-दो घंटों के लिए ले जाने लगा अपनी-अपनी साइकिलों से।</p>
<p></p>
<p>ज़िला पुस्तकालय, श्रीमंत सिंधिया छत्री, भदैया कुंड, नेशनल पार्क के बाद शहर के नज़दीक़ के बढ़िया पार्कों की बारी आ गई थी। अब हम सब शहर के बीचों-बीच स्थित वीर सावरकर पार्क पर पहुंचे।</p>
<p></p>
<p>शाम का समय था। बढ़िया मौसम था। सब बच्चों ने पहले तो अपनी रुचि के अनुसार झूलों का, स्केटिंग का, फिसल-पट्टियों और कुछ खेलों आदि का भरपूर आनंद लिया। मैंने सबके फोटो लिए और वीडियोज़ भी। उनको प्रसन्न देख कर मुझे जो सुख और आनंद मिल रहा था, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।</p>
<p></p>
<p>अब हम सब पार्क में एक बहुत बड़े और घने बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठे हुए थे। सब ने अपने-अपने टिफिन और पानी की बोतलें निकालीं। योजना अनुसार हर बार की तरह घर पर ही बनाई गई भिन्न-भिन्न प्रकार खाने-पीने की चीज़ें और दोना-पत्तल या काग़ज़ की प्लेटें चम्मचों आदि सहित लेकर आये थे। सबने साझा करते हुए इसका भी भरपूर आनंद लिया। सब कह रहे थे कि दादा-दादी, नाना-नानी या मम्मी वग़ैरह भी आतीं, तो और अधिक मज़ा आता। लेकिन उनको साइकल कैसे चलवाते। मैंने तो इन छुट्टियों में सब बच्चों को ख़ूब साइकल चलवाने का पक्का इरादा कर लिया था न। साल भर न के बराबर ही साइकल चला पाते हैं वे। रविवार का दिन कॉलोनी में ही खेलकूंद में निकल जाता है।</p>
<p>बच्चों को थोड़ी सी आज़ादी और प्राइवेसी देने के इरादे से मैं चबूतरे के दूसरी तरफ़ बैठ गया। लेकिन मेरा स्मार्ट मोबाइल फ़ोन अपना काम करता रहा। रिकॉर्डिंग चालू थी।</p>
<p></p>
<p>"मैं तो अब कोई हॉबी क्लास ज्वाइन कर लूंगा! ड्राइंग या डांस सीखूंगा या गिटार बजाना!" तनुज बोला।</p>
<p></p>
<p>"कुछ नहीं होता इतने कम दिनों में! फीस बहुत ज़्यादा रहती है और दिल भी नहीं भर पाता!" सुबोध ने अपना पिछला अनुभव बताते हुए कहा।</p>
<p></p>
<p>"पिछले साल तो मैंने एक महीने में कैलीग्राफ़ी इतनी बढ़िया सीख ली थी, कि टीचर्स भी मेरी तारीफ़ करते हैं!" शबनम ने उन सब बच्चों को बड़े गर्व से बताया।</p>
<p></p>
<p>"मेरे मम्मी-पापा तो हर साल मुझे इंग्लिश ग्रामर और स्पोकन-इंग्लिश की कोचिंग में भेज देते हैं इन छुट्टियों में!" समर्थ ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा।</p>
<p></p>
<p>मैं दूर से ही सबकी बातें सुन रहा था। बच्चों की भी अपनी इच्छायें या महत्वाकांक्षायें होती हैं। परिवारजन की मर्ज़ियों और परिस्थितियों से उनके मन की बात उनके मन में ही रह जाती है। इस तरह की टोली में वे किस तरह अपनी बात कह डालते हैं, यह देखकर मैं भी गहरे सोच में डूब गया था। रिकॉर्डिंग चालू थी। घर जाकर बड़ों को सुनाऊंगा इन बच्चों के मन की बातें। यह सोचते हुए उनकी बातें कान लगाकर सुनता रहा, लेकिन उनकी प्राइवेसी में कोई दख़ल नहीं किया।</p>
<p></p>
<p>"मेरे पापा कहते हैं कि तुम पढ़ाई-लिखाई में बहुत कमज़ोर चल रहे हो! अभी से हिंदी-अंग्रेज़ी टाइपिंग सीखने लगो। बारहवीं कक्षा के बाद स्टेनोग्राफ़ी सिखवा देंगे! कोई न कोई नौकरी मिल ही जायेगी!" सजल ने दुखी स्वर में कहा।</p>
<p></p>
<p>"अपने पापा से कहना कि टाइपिंग तो मोबाइल और कंप्यूटर के की-बोर्ड से घर पर ही सीखी जा सकती है। मैंने तो ख़ुद ही गूगल इंडिक की-बोर्ड पर हिंदी और अंग्रेज़ी की टाइपिंग सीख ली है। दादा जी की कविताएं स्पीड से टाइप कर देता हूं!" असलम ने अपनी उंगलियों को नचाते हुए कहा।</p>
<p></p>
<p>"हम तो मोबाइल में बोल कर ही वॉइस वाले एप से टाइपिंग कर लेते हैं!" सुबोध ने बताया।</p>
<p>"अरे, वह एप तो दिव्यांगों और कमज़ोर नज़र वाले बूढ़े लोगों के लिए होता है, तुम क्यों ऐसा शॉर्ट-कट अपनाते हो अभी से!" शबनम ने सुबोध को समझाने की कोशिश की।</p>
<p></p>
<p>"ऐसा कुछ नहीं है! सब एप सब का टाइम बचाने और मदद करने के लिए होते हैं!" समर्थ ने अपनी राय दी।</p>
<p></p>
<p>"देखो दोस्तों, हमारे अंकल हमको इतना समय देकर हमारी इन छुट्टियों का इतना बढ़िया इस्तेमाल करवा रहे हैं, यह क्या कम है! हमारे मम्मी-पापा के पास जब समय होगा, तब वे हमें कहीं न कहीं घुमाने तो ले जायेंगे ही न!" तनुज ने सबको तसल्ली देने की कोशिश की।</p>
<p></p>
<p>अब शाम ढलने लगी थी। मैं उन बच्चों के नज़दीक़ आ गया और घर लौटने की तैयारी करने की कहकर उनका सामान पैक करने में उनकी मदद करने लगा।</p>
<p></p>
<p>"कल हम शहर के एक नये पार्क में चलेंगे और वहां अंत्याक्षरी खेलेंगे और साथ ही वहां के योग-साधना केंद्र और हास्य-क्लब की गतिविधियों से कुछ सीखेंगे।" मैंने उनसे कहा। सब बच्चे ख़ुश होकर एक-दूसरे से हाथ मिलाकर थम्स-अप करने लगे। फ़िर अपनी-अपनी साइकिलों से हम सब अपने-अपने घर पहुंच गए। आज की छुट्टी का भी सही इस्तेमाल होने पर हम सब काफ़ी संतुष्ट थे।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)<br/><br/></p>इति सिद्धम (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-03-31:5170231:BlogPost:9797912019-03-31T05:30:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>डियर संस्कार,</p>
<p></p>
<p>चौंक तो गये होगे! मोबाइल एप्स से, सोशल मीडिया पर या ऑनलाइन अपनी बात कहने के बजाय इस ख़त से ही अपने अंजाम से वाक़िफ़ करा रहा हूं तुम्हें। आख़िर तुमने ही तो सुसाइड के लिए मज़बूर कर दिया! ख़ूब घमंड था मुझे अपनी ऑनलाइन पढ़ाई पर! माडर्न अपडेटिड छात्र समझने लगा था मैं अपने आपको। स्कूल की पढ़ाई, ट्यूशनों की पढ़ाई और फिर सोशल मीडिया, मोबाइल गेम, आधुनिक दोस्त-यारी, फ़ोटो-वीडियोग्राफ़ी इन सब में मशगूल रहते हुए ऑनलाइन अपने हसीन करियर की हसीन रणनीति बनाया करता था मैं! रात भर…</p>
<p>डियर संस्कार,</p>
<p></p>
<p>चौंक तो गये होगे! मोबाइल एप्स से, सोशल मीडिया पर या ऑनलाइन अपनी बात कहने के बजाय इस ख़त से ही अपने अंजाम से वाक़िफ़ करा रहा हूं तुम्हें। आख़िर तुमने ही तो सुसाइड के लिए मज़बूर कर दिया! ख़ूब घमंड था मुझे अपनी ऑनलाइन पढ़ाई पर! माडर्न अपडेटिड छात्र समझने लगा था मैं अपने आपको। स्कूल की पढ़ाई, ट्यूशनों की पढ़ाई और फिर सोशल मीडिया, मोबाइल गेम, आधुनिक दोस्त-यारी, फ़ोटो-वीडियोग्राफ़ी इन सब में मशगूल रहते हुए ऑनलाइन अपने हसीन करियर की हसीन रणनीति बनाया करता था मैं! रात भर जागता था उन दिनों!</p>
<p>"हां, तैयार हूं मैं! ऑनलाइन प्रेक्टिस पेपर्स हल कर पूरा सिलेबस मुझमें समा गया है।" यही आभास होता रहा मुझे! हर पेपर की पिछली रात मुझे यही महसूस होता था। अपनी फाइनल परीक्षाओं के प्रति ज़बरदस्त आत्मविश्वास था मुझे।</p>
<p>"तुम तो उत्तर पुस्तिकाएं पूरी भर कर आना। प्रोफेशनल परीक्षक बढ़िया ही नंबर देते हैं!" मेरे दोस्तों ने समझाया था न कि परीक्षक बहुत उदार होते हैं। मैं उत्तर पुस्तिकाओं को पूरा भरता रहा। मुझे क्या पता था कि मैंने उनमें ऐसा क्या लिखा कि ईमानदार परीक्षक की कलम ने मेरी उत्तरपुस्तिकाओं का ख़ून कर दिया। कितनी ज़ालिम होती है ईमानदार शिक्षक की क़लम! मैं लगभग सभी मुख्य विषयों में फेल हो गया।</p>
<p>अब मुझे तुम बहुत याद आ रहे हो दोस्त! मैं तुम्हें क़िताबी कीड़ा, कूप-मण्डूक और भी न जाने क्या-क्या कहकर चिढ़ाकर ज़माने से कटा इंसान कहता था। आज मेरी उस ग़लत और घटिया सोच ने ख़ुदकुशी कर ली है! अब मैं तुम्हारी सोच की शरण में हूं। मैं भी तुम्हारे नेक संतुलित व संयमित सुव्यवस्थित तरीक़े से अपने करियर निर्माण में जुटना चाहता हूं! मैं हवा में उड़ रहा था। तुम सही साबित हुए!</p>
<p></p>
<p>(क्यू. ई. डी.) इति सिद्धम!</p>
<p></p>
<p>अब तुम्हारा मित्र व शिष्य,<br/> "अभिनव"</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>"श्याम-रत्न-धन" (संस्मरण) :tag:openbooks.ning.com,2019-03-29:5170231:BlogPost:9796462019-03-29T16:34:05.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<div dir="auto">कुछ वर्ष पूर्व की बात है। लम्बी गंभीर बीमारी के बाद मेरी अम्मीजान का इंतकाल हो गया था। पूरे संयुक्त परिवार के साथ मैं भी बहुत दुखी था। मुझे सबसे ज़्यादा चाहने और मेरे भविष्य की सबसे ज़्यादा फ़िक्र और देखभाल करने वाली मेरी मां के चले जाने पर मुझे अहसास हुआ कि स्वयं उनको बहुत चाहते हुए और उनकी चिंता करते हुए भी मैं उनकी न तो समुचित देखभाल कर पाया था और न ही उनकी अपेक्षित सेवा। हां, उनके इंतकाल के बाद सब कुछ याद करते हुए उनके प्रति प्यार इतना ज़्यादा बढ़ गया था कि शुरुआत में हफ़्ते…</div>
<div dir="auto">कुछ वर्ष पूर्व की बात है। लम्बी गंभीर बीमारी के बाद मेरी अम्मीजान का इंतकाल हो गया था। पूरे संयुक्त परिवार के साथ मैं भी बहुत दुखी था। मुझे सबसे ज़्यादा चाहने और मेरे भविष्य की सबसे ज़्यादा फ़िक्र और देखभाल करने वाली मेरी मां के चले जाने पर मुझे अहसास हुआ कि स्वयं उनको बहुत चाहते हुए और उनकी चिंता करते हुए भी मैं उनकी न तो समुचित देखभाल कर पाया था और न ही उनकी अपेक्षित सेवा। हां, उनके इंतकाल के बाद सब कुछ याद करते हुए उनके प्रति प्यार इतना ज़्यादा बढ़ गया था कि शुरुआत में हफ़्ते में दो बार फूल/इत्र/अगरबत्ती में से कुछ न कुछ लेकर सात किलोमीटर दूर उनकी क़ब्र पर जाया करता था क़ब्रिस्तान में; महाविद्यालयीन शिक्षा के समय की सामान्य हीरो-साइकल से; क्योंकि स्कूटर या मोटर साइकिल चलाना आता नहीं था। पास के हैंडपंप से पानी भरकर अम्मीजान की क़ब्र और उनकी पड़ोसी क़ब्रों के आसपास के दरख़्तों और झाड़ियों में पानी सींचा करता था। कभी-कभी क़ब्रिस्तान की देखभाल और चौकीदारी करने वाले बुज़ुर्ग चच्चाजान को पचास या सौ रुपये दे आया करता था। अब इसी रूप में मां के प्रति मुहब्बत और ख़िदमत सम्प्रेषित हो रही थी। हालांकि घर पर क़ुरआन-मजीद-पाठ कर उनकी रूह के लिए दुआएं करना ही काफी था। ख़ैर, अशासकीय विद्यालय में अध्यापन और आकाशवाणी के शिवपुरी केंद्र में नैमित्तिक रेडियो उद्घोषक का काम करते हुए यह गतिविधि शनै:-शनै: कम होकर हफ़्ते में एक बार, फ़िर माह में एक बार और फ़िर साल में एक बार यानि ई़द तक सिमट कर रह गई।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">फ़िर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मेरे छोटे भाई के मित्र अमित की पत्नी जब उसे व मुझे भी हमारे घर हर बार की तरह रक्षाबंधन पर राखी बांधने आई और फ़िर जब मैं अपने परिवार के साथ उनके घर गया, तो मालूम हुआ कि कोई मणि नाम की युवती की माता जी गंभीर रूप से कुछ सालों से बीमारी के कारण बिस्तर पर पड़ी हुई हैं। रिटायर्ड विधवा संगीत शिक्षिका की जवान बेटी अपनी मां की सेवा अकेले ही कर रही थी। उसका इकलौता भाई इंदौर में उच्च शिक्षा हासिल कर मां के सपने पूरे करने की कोशिश कर रहा था और बहिन उसकी पढ़ाई में किसी भी तरह की बाधा न आने देने के संकल्प के साथ अकेले ही मां की सेवा कर रही थी।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मेरे मन में फ़िर से ममता तीव्र हुई। एक दिन स्कूल से घर लौटने के बजाय मैं सीधे मणि के घर पहुंचा। अपना परिचय दिया। उसकी मां का हालचाल जाना। बीमारी के तमाम लक्षण मेरी अम्मीजान जैसे ही थे। हम दोनों ने अपने अनुभव साझा किए। </div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">"आप अभी स्कूल से ही लौटे हैं। भूख लग रही होगी। आप मम्मा के पास बैठो, मैं खाना परोसती हूं। दूसरे धर्म की अकेली युवती के घर में यूं भोजन करने से मैं मना कर सकता था, किंतु नहीं कर पाया क्योंकि उसकी मम्मी की मेडिकल रिपोर्ट्स और 'बेडरिडन-अवस्था' देख कर मुझे रह-रहकर अपनी अम्मीजान की याद आ रही थी। मैंने मणि की माता जी को सहारा देकर व्हील चेयर पर बिठाना चाहा। लेकिन उनका लम्बा क़द और भारी शरीर था। बीच में ही मणि आ गईं। अकेले उसी ने अपनी मां को उठाया और व्हील चेयर पर बिठा कर मेरे कहे अनुसार घर के पूजा वाले कमरे में ले गई। फ़िर हम दोनों उन्हें बालकनी तक ले गए। अब खाना परोसा जा चुका था। मैंने कुछ अलग ही तरह के स्नेह भरे स्वाद वाला भोजन सम्पन्न किया। लस्सी भी पी। फिर माता जी को वापस उनके बिस्तर पर लिटा कर मैंने वहां से विदा ली, यह कहकर कि फिर आता रहूंगा।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">"बिल्कुल भैया आते रहिएगा। आपने इतना समय दिया मम्मा को। इतना तो ख़ास रिश्तेदार भी नहीं करते।" इन शब्दों से भी मुझे अपनी अम्मीजान वाले हालात याद आ गये। ख़ैर, कुछ दिन यूं ही मणि के घर जाता रहा। एक दिन उसने बताया कि कुछ बच्चों को वह संगीत की ट्यूशन भी देती है। मकान की दूसरी मंज़िल पर वह मां के साथ रहती है और नीचे कुछ किरायेदार रहते हैं। नीचे दो गाय भी उसने पाल रखीं हैं। उनकी सेवा भी वह अकेले करती थी। उच्च शिक्षित होते हुए भी उसे आयुर्वेद पर अधिक भरोसा था। गाय को ऊपर वाली मंज़िल तक ले जाकर वह कुछ मान्य गतिविधियां भी करती थी मां के इलाज़ के लिए। न ख़ूबसूरत और न ही बदसूरत, श्यामवर्ण की औसत ऊंचाई की दुबली-पतली सी मणि इतना सब कैसे कर लेती थी, मुझे इसलिए आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि मैंने स्वयं कुर्सी में बैठे हुए वह सब सेवा देखी थी।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">"आप शादी कर लीजिए और पति को भी यहीं रखियेगा।" मैंने मणि को सलाह दी थी।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">"नहीं, शादीशुदा होने पर पति तो क्या मैं भी मम्मा की सेवा नहीं कर पाऊंगी। भैया को बहुत ऊंचाई पर पहुंचाना है। जब तक मां ज़िंदा हैं, न तो मैं और न ही मेरा भाई शादी करेगा!" मणि का यह जवाब भी मुझे अपने पारिवारिक हालात और अम्मीजान की सेवा में आने वाली बाधाओं का स्मरण करा रहा था।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">फ़िर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि अपने ही विद्यालय के एक शिक्षक राजेश से ज्ञात हुआ कि मणि तो उसकी ख़ास रिश्तेदार है। तो फ़िर संकोच होने लगा मणि के घर जाने में। उसके और उसकी मां के सारे हालचाल मैं राजेश से ही पूछने लगा। फिर माह में एक बार मणि के घर जाता और फ़िर साल में एक बार। मैंने अपनी अम्मीजान के बेडरिडन-पेशेंट वाली कुछ पोशाकें भी मणि को दीं। उसने मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें स्वीकार किया। एक बार जब मणि का भाई इंदौर से शिवपुरी आया, तो उसने मुझे फ़ोन कर बुलाया और अपने भाई से भी मिलवाया। बहुत यादगार मुलाक़ात रही।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">फ़िर विद्यालयीन परीक्षाओं और पारिवारिक दायित्वों में उलझा रहा। एक दिन कुछ ऐसा संयोग हुआ कि राजेश से ही मुझे पता चला कि मणि की माता जी का देहावसान कुछ महीनों पहले हो चुका है। मुझे बहुत दुःख हुआ। उनके अंतिम संस्कार में जाने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी। दुख इस बात का भी था कि देहान्त के दिन ही न तो राजेश को न मणि को, न उसके भाई को और न ही मेरे भाई के दोस्त अमित को मुझे सूचना देने का समय मिल सका। लेकिन मैं मां की निस्वार्थ भाव से अद्भुत सेवा करने वाली सर्वधर्म समभाव वाली होनहार युवती के रूप में मणि को हमेशा याद रखूंगा।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">(मौलिक व अप्रकाशित<span> )</span></div>'कागा उवाच' (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-03-22:5170231:BlogPost:9791312019-03-22T13:00:00.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>तीनों प्यासे थे। अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार वे पानी की तलाश कर चुके थे। मुश्किल से एक सुनसान जगह पर एक झुग्गी के द्वार के पास एक मटका उन्हें दिखाई दिया। बारी-बारी से तीनों ने उसमें झांका। फिर गर्दन झुकाकर एक दूसरे को उदास भाव से देखने लगे। मटके में पानी का तल काफी नीचे था।</p>
<p><br></br> बहुत ज़्यादा प्यासे कौए ने पुरानी लोककथा अनुसार काफी कंकड़-पत्थर चोंच से उठा-उठा कर मटके में डाल कर पानी का स्तर ऊपर लाने की कोशिश की, लेकिन उसे उस कथा की कल्पना की सच्चाई समझ में आ गई। थक कर वह बैठ…</p>
<p>तीनों प्यासे थे। अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार वे पानी की तलाश कर चुके थे। मुश्किल से एक सुनसान जगह पर एक झुग्गी के द्वार के पास एक मटका उन्हें दिखाई दिया। बारी-बारी से तीनों ने उसमें झांका। फिर गर्दन झुकाकर एक दूसरे को उदास भाव से देखने लगे। मटके में पानी का तल काफी नीचे था।</p>
<p><br/> बहुत ज़्यादा प्यासे कौए ने पुरानी लोककथा अनुसार काफी कंकड़-पत्थर चोंच से उठा-उठा कर मटके में डाल कर पानी का स्तर ऊपर लाने की कोशिश की, लेकिन उसे उस कथा की कल्पना की सच्चाई समझ में आ गई। थक कर वह बैठ गया।</p>
<p></p>
<p>दूसरे कौए से देखा न गया। अपनी प्यास बुझाने हेेतु उसने अंदाज़ लगा कर मटके के बीच और नीचे वाले भाग की तरफ़ चोंच मारकर छेद करने की कोशिश की। चोंच में अत्याधिक दर्द होने लगा, लेकिन छेद ही न हो सका। पहले वाले को भी कुछ उम्मीद बंधी थी, लेकिन दूसरे वाले का निराश चेहरा उससे देखा न गया।</p>
<p></p>
<p>वे दोनों तीसरे कौए को निहारने लगे, जिसकी आवाज़ बंद हो गई थी प्यास की वज़ह से। तीसरे ने इधर-उधर फुदक कर कोई युक्ति सोची और उड़ कर भाग गया। एक घूरे से कोल्ड-ड्रिंक पीने वाली जैसी लम्बी नलिका सी स्ट्रॉ चोंच में दबाकर वापस लौटा और वह स्ट्रॉ मटके में डाल कर पहले वाले कौए की मेहनत का फ़ायदा लेकर उससे पानी की घूंट पीने लगा। उसके आमंत्रण पर बाकी दोनों कौओं ने भी अपने गले तर कर लिए।</p>
<p><br/> "भाईसाहब! आपको ये तरीक़ा कैसे सूझा? क्या कोई नई लोककथा सुन-पढ़ ली?" दूसरे वाले कौए ने पहले वाले के पास बैठ कर तीसरे से पूछा।</p>
<p><br/> "चौकन्ना रहना होगा! इस ज़माने में इंसान किस-किस तरह से जुगाड़ करते हैं; चारों तरफ़ क्या, कैसे और क्यों हो रहा है सब समझना होगा अपडेट रहने वास्ते!" तीसरे के कंठ से आवाज़ निकली, आत्मविश्वास के साथ।</p>
<p><br/> "हां, सही कहते हो! यहां तो लोग बेरोज़गार, अनपढ़़, ग़रीब, अपराधी, पशु-पक्षियों सब से अपने काम निकाल लेते हैं! हमको भी आजकल के साम-दाम-दंड-भेद-तकनीक सब सीखने चाहिए! यही नई कथा-व्यथा है!" पहले कौए ने तीसरे से चोंच मिला कर कहा।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p></p>'मुझे भी!' (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-03-20:5170231:BlogPost:9788392019-03-20T10:26:41.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>आज होलिका दहन दिवस था। पहले से लिए गए फैसले के अनुसार अधिकतर लोग कोई न कोई सफ़ेद पोशाक पहन कर आये थे। होली अवकाश के पहले विद्यालय में छुट्टी होने के एक घंटे पूर्व परीक्षा मूल्यांकन कार्य के बीच स्टाफ को गुलाल से होली खेलने की अनुमति जैसे ही मिली महिला स्टाफ लायी हुई अपनी गुलाल की पुड़ियें खोलकर एक-दूसरे को तिलक कर गालों पर रंगीन गुलाल पोतने लगीं। एक-दो नौजवान पुरुष शिक्षक भी उनमें शामिल हो गये। शेष परीक्षा-मूल्यांकन कार्य में जुटे रहे। मोबाइल कैमरों से फ़ोटो, सेल्फ़ी व वीडियो का दौर भी शुरू…</p>
<p>आज होलिका दहन दिवस था। पहले से लिए गए फैसले के अनुसार अधिकतर लोग कोई न कोई सफ़ेद पोशाक पहन कर आये थे। होली अवकाश के पहले विद्यालय में छुट्टी होने के एक घंटे पूर्व परीक्षा मूल्यांकन कार्य के बीच स्टाफ को गुलाल से होली खेलने की अनुमति जैसे ही मिली महिला स्टाफ लायी हुई अपनी गुलाल की पुड़ियें खोलकर एक-दूसरे को तिलक कर गालों पर रंगीन गुलाल पोतने लगीं। एक-दो नौजवान पुरुष शिक्षक भी उनमें शामिल हो गये। शेष परीक्षा-मूल्यांकन कार्य में जुटे रहे। मोबाइल कैमरों से फ़ोटो, सेल्फ़ी व वीडियो का दौर भी शुरू हो गया।</p>
<p><br/>"सर, ध्यान रखना कोई इस कमरे में न आ पाये!" सुंदर सफ़ेद पोशाक पहने सुंदर व चंचल युवा शिक्षिका वर्तिका ने मूल्यांकन कर रहे एक शिक्षक से कहा।</p>
<p><br/>"क्यों, सब तो खेल रही हैं, आप भी खेलिए!" शिक्षक ने आश्चर्य से कहा।</p>
<p><br/>"सर, मम्मी-पापा को बताये बिना यह नई सफ़ेद ड्रेस पहन कर आई हूं। दाग़ लग गये, तो मुश्किल हो जायेगी!"</p>
<p><br/>उसकी यह बात बाहर से ही सुन कर एक शिक्षिका उसे पकड़ कर ले गई और सावधानी से उसके चेहरे पर गुलाल पोत कर सेल्फ़ी लेने लगी। तभी छुट्टी की घंटी बजी। सब शिक्षिकायें एक-दूसरे को होली की शुभकामनाएं देते हुए कहने लगीं, " मोबाइल के ये फ़ोटो और सेल्फ़ियां मुझे भी भेज देना सोशल मीडिया पर!"</p>
<p><br/>"मैडम हमें तो तुमने ज़रा भी गुलाल नहीं लगाया और जाने लगीं!" विद्यालय की चतुर्थ-वर्ग स्टाफ़ की बुज़ुर्ग बाई ने वर्तिका मैडम से यह कहा और जब मैडम ने उसके गालों पर गुलाल पोत कर और सेल्फ़ी ली, तो वह उसके पैर छू कर बोली, "मैडम मुझे भी भेज देना! ..... लेकिन ऐसा वाला मोबाइल तो हमारे पास है नहीं!"</p>
<p><br/>लेकिन उसकी आवाज़ स्कूल-बस के हॉर्न की आवाज़ों में दब कर रह गई।</p>
<p><br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>"क़तरा-क़तरा मेरा-तेरा!" (लघुकथा) :tag:openbooks.ning.com,2019-03-03:5170231:BlogPost:9770842019-03-03T14:41:54.000ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>अपने दिल के टुकड़े को अपने सीने से अचानक चिपटे देख उसने कहा -"स्वागत-अभिनंदन, ख़ैर-मक़्दम बहादुर, मेरे लख़्ते-जिगर!"</p>
<p></p>
<p>अपने ही भू-खंड पर पैराशूट समेत गिरा जवां पायलट सैनिक पहले तो भौंचक्का था, इस भ्रम में कि यह भू-खंड उसका अपना वाला है या पड़ोसी मुल्क द्वारा हथियाया हुआ! फ़िर जब उसने कुछ युवकों से पुष्टि करनी चाही, तो उनके जवाब सुन वह चौकन्ना हो गया। उसके ज़ख़्मी मुख से देशभक्ति के नारे समां में गूंज उठे।</p>
<p></p>
<p>"अभिनंदन मेरे अज़ीज़ शेर-ए-हिंद!" एक अजीब सी क़ैद से रिहा…</p>
<p>अपने दिल के टुकड़े को अपने सीने से अचानक चिपटे देख उसने कहा -"स्वागत-अभिनंदन, ख़ैर-मक़्दम बहादुर, मेरे लख़्ते-जिगर!"</p>
<p></p>
<p>अपने ही भू-खंड पर पैराशूट समेत गिरा जवां पायलट सैनिक पहले तो भौंचक्का था, इस भ्रम में कि यह भू-खंड उसका अपना वाला है या पड़ोसी मुल्क द्वारा हथियाया हुआ! फ़िर जब उसने कुछ युवकों से पुष्टि करनी चाही, तो उनके जवाब सुन वह चौकन्ना हो गया। उसके ज़ख़्मी मुख से देशभक्ति के नारे समां में गूंज उठे।</p>
<p></p>
<p>"अभिनंदन मेरे अज़ीज़ शेर-ए-हिंद!" एक अजीब सी क़ैद से रिहा होने की चाह में वह भू-खंड कराहता हुआ बोला।</p>
<p></p>
<p>उस मिट्टी को माथे पर लगा वह घायल सैनिक अपने मुल्क के ज़रूरी दस्तावेज़ संभाले हवा में फायरिंग करता रहा और वहां के युवा पत्थरबाज़ उसके पैर ज़ख्मी कर उसे वहां की सेना के हवाले करने ही वाले थे कि वह पानी-पानी पुकारता हुआ एक तालाब में कूंद पड़ा कुछ गोपनीय दस्तावेज़ गले में उतारता और कुछ पानी में गलाता हुआ।</p>
<p></p>
<p>"अय हिंदुस्तान के बहादुर, तेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता! तेरे तन और कंठ की क्षुधा हमने बुझा दी! अब तू भी हमें अपने पड़ोसी की ज़ालिम क़ैद से हमें रिहा करा दे!" उस तालाब ने दोनों पड़ोसी मुल्कों की भिड़ंत में उस भू-खंड पर मिग-21 से अवतरित हुए उस ज़ख्मी सैनिक को अपने मन के ज़ख़्म ज़ाहिर करते हुए कहा।</p>
<p></p>
<p>कुछ ही पलों में वह उस पड़ोसी मुल्क की सेना की कस्टडी में था। अब वह सुरक्षित व स्वस्थ्य तो था, लेकिन अपने देशवासियों के मन-मस्तिष्क में क़ैद सपनों और इस भूखंड के निवासियों के मन-मस्तिष्क के प्रश्नवाचक भावों के बीच स्वयं को अजीब सी क़ैद में महसूस कर रहा था।</p>
<p></p>
<p>"क्या वह यहां युद्ध-बंदी करार कर दिया जायेगा या अपनी मातृभूमि का चरण-स्पर्श शीघ्र ही कर लेगा!" वह सैनिक आत्मविश्वास व संयम बरकरार रखते हुए भी इतिहास के झरोखों से झांक कर अपने भविष्य के प्रति सशंकित सा था।</p>
<p></p>
<p>ख़ैर, दोनों पड़ोसी मुल्कों का जंग टालने का इरादा अंततः बैठक, विचार-विनिमय या शर्तों की क़ैद से मुक्त होकर इस निर्णय पर पहुंचा कि आवश्यक पूछताछ और औपचारिकताओं के बीच उसे सुरक्षित उसकी मातृभूमि और सरकार को सुरक्षित सौंप दिया गया।</p>
<p></p>
<p>"अभिनंदन, मेरे शेर-ए-वतन!" हर आम-ओ-ख़ास हिंदुस्तानी के मुख से निकले कथनों, नारों, काव्य-पंक्तियों आदि से मुल्क का फ़लक गूंज उठा।</p>
<p></p>
<p>लेकिन एक तरफ़ परमाणु-युद्ध और साम्प्रदायिक दंगे-फ़सादों की संकीर्ण मानसिकता की क़ैद से स्वार्थी, मौकापरस्त राजनीति अब भी मुक्त होती नज़र नहीं आ रही थी। दूसरी तरफ़ सीमाओं पर गोलीबारी और शहादतें जारी थीं।</p>
<p></p>
<p>"आर-पार की लड़ाई अब हो ही जाने दो! अत्याधुनिक सैन्य प्रहार से आतंकियों को नेस्तनाबूद हो जाने दो!" दिमागों में क़ैद योजनायें इस इरादे से क्रियान्वित होने को छटपटा रहीं थीं।</p>
<p></p>
<p>"नहीं! .. क़तरा-क़तरा बहेगा, महकेगा या बहकेगा! .. दुश्मन को सुधरने का एक और मौक़ा अब भी दिया जाना चाहिए! आख़िर पैदाइशी जात तो हमारी एक ही है! हैं तो एक ही मुल्क के टुकड़े न! अमन-ओ-अमान की गुंजाइश अब भी है!" देशभक्ति की सोच नाना-प्रकार से कुछ लोगों के दिलो-दिमाग़ से अब भी शाब्दिक और क्रियान्वित होने के लिए छटपटा रही थी।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>