V.M.''vrishty'''s Posts - Open Books Online
2024-03-28T17:00:59Z
V.M.''vrishty''
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इंतेज़ार
tag:openbooks.ning.com,2019-01-09:5170231:BlogPost:968859
2019-01-09T09:04:30.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
इंतज़ार!<br />
उसके आने का!<br />
की आकर रोक लेगा....<br />
मेरे बहते अश्रुधार को!<br />
थकान...दर्द..<br />
उदासी..तड़प..<br />
समेट लेगा सब<br />
अपनी बाहों में!!<br />
मेरी नाराजगी का बुलबुला<br />
फूट जाएगा..<br />
उसकी छुवन से!!<br />
शाम हुई!<br />
हुआ इंतेज़ार पूरा!<br />
वो आया!<br />
और कर गया अधूरा!<br />
उसका आना<br />
सच था...<br />
या सपना??<br />
मार गया मुझे!<br />
उसका<br />
अपरिचित सा मिलना!!<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
इंतज़ार!<br />
उसके आने का!<br />
की आकर रोक लेगा....<br />
मेरे बहते अश्रुधार को!<br />
थकान...दर्द..<br />
उदासी..तड़प..<br />
समेट लेगा सब<br />
अपनी बाहों में!!<br />
मेरी नाराजगी का बुलबुला<br />
फूट जाएगा..<br />
उसकी छुवन से!!<br />
शाम हुई!<br />
हुआ इंतेज़ार पूरा!<br />
वो आया!<br />
और कर गया अधूरा!<br />
उसका आना<br />
सच था...<br />
या सपना??<br />
मार गया मुझे!<br />
उसका<br />
अपरिचित सा मिलना!!<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
बरसात
tag:openbooks.ning.com,2018-10-20:5170231:BlogPost:955412
2018-10-20T07:36:26.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
ये नाज़ुक से नगीने-<br />
जिनसे करके श्रृंगार,<br />
इठलाता है,<br />
सदाबहार!<br />
यूँ तो<br />
बहुत शीतल हैं..<br />
मखमली हैं !<br />
पर इन्हें छूते ही,अधरों से,<br />
जिस्म में<br />
आग सी जली है!<br />
ये एहसास कुछ<br />
जाना पहचाना-सा है !<br />
तेरे अधरों की तरह<br />
इनमें भी,,<br />
मयखाना-सा है!<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
ये नाज़ुक से नगीने-<br />
जिनसे करके श्रृंगार,<br />
इठलाता है,<br />
सदाबहार!<br />
यूँ तो<br />
बहुत शीतल हैं..<br />
मखमली हैं !<br />
पर इन्हें छूते ही,अधरों से,<br />
जिस्म में<br />
आग सी जली है!<br />
ये एहसास कुछ<br />
जाना पहचाना-सा है !<br />
तेरे अधरों की तरह<br />
इनमें भी,,<br />
मयखाना-सा है!<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
जलती मुस्कुराहटें
tag:openbooks.ning.com,2018-10-16:5170231:BlogPost:953827
2018-10-16T15:46:03.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
कुछ<br />
छिल रहा है!<br />
भीतर-भीतर!<br />
दुख रहा..<br />
नासूर जैसा!!<br />
क्या है ये!<br />
तुम्हारी चुप्पी?<br />
या मेरी उदासी ??<br />
नस-नस में<br />
बेचैनियाँ!<br />
घड़ी-घड़ी घबराहटें !!<br />
क्यों पड़ी हैं आज ?<br />
जलते तवे पर...<br />
रोटियों की जगह-<br />
मेरी मुस्कुराहटें!!<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
कुछ<br />
छिल रहा है!<br />
भीतर-भीतर!<br />
दुख रहा..<br />
नासूर जैसा!!<br />
क्या है ये!<br />
तुम्हारी चुप्पी?<br />
या मेरी उदासी ??<br />
नस-नस में<br />
बेचैनियाँ!<br />
घड़ी-घड़ी घबराहटें !!<br />
क्यों पड़ी हैं आज ?<br />
जलते तवे पर...<br />
रोटियों की जगह-<br />
मेरी मुस्कुराहटें!!<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
काली स्याही
tag:openbooks.ning.com,2018-10-15:5170231:BlogPost:953258
2018-10-15T06:54:02.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
सजल आँखें,,बोझल मन !<br />
अनुत्तरित प्रश्न ! टूटता बदन !<br />
कुछ फिक्र ! कुछ लाचारी !<br />
कुछ चाही...........,<br />
कुछ अनचाही जिम्मेदारी !<br />
ये कहानी थी कभी शामों की!<br />
पर अब,,न जाने क्यों...<br />
सूरज सर पे चमकता है,<br />
फिर भी रातों का अंधेरा,,<br />
आँखों से नहीं छंटता है ।<br />
मैं लिख रही दास्तान---<br />
बदलते हुए हालात की !<br />
कि अब सफेद सुबहों में,<br />
घुली है............<br />
काली स्याही...रात की....!<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
सजल आँखें,,बोझल मन !<br />
अनुत्तरित प्रश्न ! टूटता बदन !<br />
कुछ फिक्र ! कुछ लाचारी !<br />
कुछ चाही...........,<br />
कुछ अनचाही जिम्मेदारी !<br />
ये कहानी थी कभी शामों की!<br />
पर अब,,न जाने क्यों...<br />
सूरज सर पे चमकता है,<br />
फिर भी रातों का अंधेरा,,<br />
आँखों से नहीं छंटता है ।<br />
मैं लिख रही दास्तान---<br />
बदलते हुए हालात की !<br />
कि अब सफेद सुबहों में,<br />
घुली है............<br />
काली स्याही...रात की....!<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
मौत की उम्मीद पर (ग़ज़ल)
tag:openbooks.ning.com,2018-10-13:5170231:BlogPost:953117
2018-10-13T07:04:29.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
मौत की उम्मीद पर जीने की आदत हो गयी<br />
जिंदगी सूखे हुए पत्ते की सूरत हो गयी<br />
ठंड ओलों की सही सूरज के अंगारे सहे<br />
पीढ़ियों को पाल कर जर्जर इमारत हो गयी<br />
चेहरा पैमाना बना है खूबियों का आज-कल<br />
रंग गोरा है मगर गुमनाम सीरत हो गयी<br />
धो दिया है तेज़ बारिश ने मकानों को मगर<br />
टूटी फूटी झोंपड़ी वालों की शामत हो गयी<br />
मैं! मेरा उत्कृष्ट सबसे! बाकी सब बेकार है<br />
बस यही समझाने में अब हर जुबाँ रत हो गयी<br />
©vrishty<br />
मौलिक व अप्रकाशित
मौत की उम्मीद पर जीने की आदत हो गयी<br />
जिंदगी सूखे हुए पत्ते की सूरत हो गयी<br />
ठंड ओलों की सही सूरज के अंगारे सहे<br />
पीढ़ियों को पाल कर जर्जर इमारत हो गयी<br />
चेहरा पैमाना बना है खूबियों का आज-कल<br />
रंग गोरा है मगर गुमनाम सीरत हो गयी<br />
धो दिया है तेज़ बारिश ने मकानों को मगर<br />
टूटी फूटी झोंपड़ी वालों की शामत हो गयी<br />
मैं! मेरा उत्कृष्ट सबसे! बाकी सब बेकार है<br />
बस यही समझाने में अब हर जुबाँ रत हो गयी<br />
©vrishty<br />
मौलिक व अप्रकाशित
इंसान का अस्तित्व
tag:openbooks.ning.com,2018-10-12:5170231:BlogPost:953012
2018-10-12T18:39:11.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
जीवन !<br />
एक तराजू ।<br />
आशा और निराशा !<br />
पीड़ा और आनंद !<br />
प्रेम और नफरत !<br />
इन्हीं दो पलड़ों के बीच<br />
इंसान का अस्तित्व !<br />
जैसे--<br />
लकड़ी का एक टुकड़ा !<br />
जो जुड़ा है ....<br />
दोनों पलड़ों से !<br />
अस्थिर...विचलित...<br />
डगमगाता.. लड़खड़ाता..<br />
उसी काष्ठ की भाँति<br />
मनुष्य भी,<br />
दोनों पलड़ों से बंधा<br />
स्थिर होने का<br />
प्रयत्न करता !!<br />
©vrishty<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(अतुकांत)
जीवन !<br />
एक तराजू ।<br />
आशा और निराशा !<br />
पीड़ा और आनंद !<br />
प्रेम और नफरत !<br />
इन्हीं दो पलड़ों के बीच<br />
इंसान का अस्तित्व !<br />
जैसे--<br />
लकड़ी का एक टुकड़ा !<br />
जो जुड़ा है ....<br />
दोनों पलड़ों से !<br />
अस्थिर...विचलित...<br />
डगमगाता.. लड़खड़ाता..<br />
उसी काष्ठ की भाँति<br />
मनुष्य भी,<br />
दोनों पलड़ों से बंधा<br />
स्थिर होने का<br />
प्रयत्न करता !!<br />
©vrishty<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(अतुकांत)
मस्तिष्क और हृदय
tag:openbooks.ning.com,2018-10-12:5170231:BlogPost:952747
2018-10-12T03:14:13.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
मस्तिष्क !<br />
और... हृदय!<br />
जैसे जमी<br />
और आसमान !<br />
जैसे नदी के<br />
दो किनारे !<br />
जैसे--<br />
पूरब और पश्चिम !<br />
इनके बीच<br />
इंसान का,<br />
रफ्ता रफ्ता<br />
पिस जाना ।<br />
जैसे-<br />
दो पाटों के बीच<br />
गेहूं का एक दाना ।<br />
महाभारत से भयावह है<br />
इनके द्वंद का मंजर<br />
अभी बाकी है कुरुक्षेत्र<br />
मेरे भीतर ,,,आपके अंदर !!<br />
©vrishty<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(अतुकांत)
मस्तिष्क !<br />
और... हृदय!<br />
जैसे जमी<br />
और आसमान !<br />
जैसे नदी के<br />
दो किनारे !<br />
जैसे--<br />
पूरब और पश्चिम !<br />
इनके बीच<br />
इंसान का,<br />
रफ्ता रफ्ता<br />
पिस जाना ।<br />
जैसे-<br />
दो पाटों के बीच<br />
गेहूं का एक दाना ।<br />
महाभारत से भयावह है<br />
इनके द्वंद का मंजर<br />
अभी बाकी है कुरुक्षेत्र<br />
मेरे भीतर ,,,आपके अंदर !!<br />
©vrishty<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(अतुकांत)
जाना पहचाना अजनबी
tag:openbooks.ning.com,2018-10-11:5170231:BlogPost:952708
2018-10-11T04:23:28.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
मेरे चुटकी भर<br />
मिलन को,,<br />
उसका आकाश-भर<br />
इंतेज़ार !<br />
मेरे सौ झूठ...<br />
उसका हज़ार ऐतबार !!<br />
कुछ घबराता,<br />
कुछ सकुचाता,<br />
मेरे शहर से दूर..<br />
मन के करीब आता ।<br />
एक जाना पहचाना अजनबी,<br />
हौले हौले ,<br />
मेरे हृदय में<br />
अपना घर बनाता है ।<br />
जैसे टुकड़ा,<br />
किसी बादल का ,,<br />
बेजान दरख्तों में<br />
जीवन भर जाता है!!<br />
©Vrishty<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित
मेरे चुटकी भर<br />
मिलन को,,<br />
उसका आकाश-भर<br />
इंतेज़ार !<br />
मेरे सौ झूठ...<br />
उसका हज़ार ऐतबार !!<br />
कुछ घबराता,<br />
कुछ सकुचाता,<br />
मेरे शहर से दूर..<br />
मन के करीब आता ।<br />
एक जाना पहचाना अजनबी,<br />
हौले हौले ,<br />
मेरे हृदय में<br />
अपना घर बनाता है ।<br />
जैसे टुकड़ा,<br />
किसी बादल का ,,<br />
बेजान दरख्तों में<br />
जीवन भर जाता है!!<br />
©Vrishty<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित
कविता का जीवन
tag:openbooks.ning.com,2018-10-10:5170231:BlogPost:952455
2018-10-10T17:20:33.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
टूट कर बिखरते<br />
हौले हौले संवरते<br />
क्या देखा है आपने?<br />
किसी कविता को,<br />
गिरते-संभलते !!<br />
मैंने देखा है--<br />
अगणित बार..<br />
हृदय-तल पर<br />
शब्दो की उंगलियों का<br />
सहारा पा-<br />
किसी नन्हे शिशु की भांति<br />
डगमगाते हुवे<br />
एक एक कदम उठाते !<br />
फिर आहिस्ता आहिस्ता<br />
वाक्यों के लंबे लंबे डग<br />
नापते !<br />
हाँ देखा है मैंने!<br />
कविता को-<br />
टूटते-संवरते,<br />
गिरते-संभलते,<br />
बनते-बिगड़ते !!<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित<br />
(अतुकांत कविता)
टूट कर बिखरते<br />
हौले हौले संवरते<br />
क्या देखा है आपने?<br />
किसी कविता को,<br />
गिरते-संभलते !!<br />
मैंने देखा है--<br />
अगणित बार..<br />
हृदय-तल पर<br />
शब्दो की उंगलियों का<br />
सहारा पा-<br />
किसी नन्हे शिशु की भांति<br />
डगमगाते हुवे<br />
एक एक कदम उठाते !<br />
फिर आहिस्ता आहिस्ता<br />
वाक्यों के लंबे लंबे डग<br />
नापते !<br />
हाँ देखा है मैंने!<br />
कविता को-<br />
टूटते-संवरते,<br />
गिरते-संभलते,<br />
बनते-बिगड़ते !!<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित<br />
(अतुकांत कविता)
शहीदों के नाम....
tag:openbooks.ning.com,2018-10-09:5170231:BlogPost:952425
2018-10-09T11:00:00.000Z
V.M.''vrishty''
https://openbooks.ning.com/profile/Varshamishravrishty
<p>रक्त से जिनके सना था,तर-ब-तर कण-कण धरा का,<br></br> हिन्द पर कुर्बान थे, भारत के सच्चे लाल थे जो !<br></br> सिंह की गर्जन लिए, टूटे फिरंगी गीदड़ों पर,<br></br> भय रहा भयभीत जिनसे, काल के भी काल थे जो!!<br></br> देख कर वीरत्व जिनका, विघ्न पथ को छोड़ देता ।<br></br> स्वयं विपदा काँप जाती,हाथ तूफ़ां जोड़ लेता ।।<br></br> जो कनक-सदृश तपाकर स्वयं को, जीते थे हरदम ।<br></br> जो कि कायरता, गुलामी, स्वार्थ से रीते थे हरदम ।।<br></br> जिनके आगे पर्वतों का कद सदा बौना रहा था ।<br></br> तपते अंगारों पे हरदम,जिनका बिछौना रहा था ।।<br></br> उष्णता…</p>
<p>रक्त से जिनके सना था,तर-ब-तर कण-कण धरा का,<br/> हिन्द पर कुर्बान थे, भारत के सच्चे लाल थे जो !<br/> सिंह की गर्जन लिए, टूटे फिरंगी गीदड़ों पर,<br/> भय रहा भयभीत जिनसे, काल के भी काल थे जो!!<br/> देख कर वीरत्व जिनका, विघ्न पथ को छोड़ देता ।<br/> स्वयं विपदा काँप जाती,हाथ तूफ़ां जोड़ लेता ।।<br/> जो कनक-सदृश तपाकर स्वयं को, जीते थे हरदम ।<br/> जो कि कायरता, गुलामी, स्वार्थ से रीते थे हरदम ।।<br/> जिनके आगे पर्वतों का कद सदा बौना रहा था ।<br/> तपते अंगारों पे हरदम,जिनका बिछौना रहा था ।।<br/> उष्णता जिनके हृदय की, शैल को पानी बना दे ।<br/> वो जो खुद विपत्ति पर छा कर,उसे फानी बना दे ।।<br/> नाप ली आकाशगंगाएं गरुड़ बन के जिन्होंने ।<br/> काटे थे अहिपाश अंग्रेजी हुकूमत के जिन्होंने ।।<br/> भारती के आन, स्वाभिमान के प्रतिमान थे जो ।<br/> हिन्दू मुस्लिम से परे थे, स्वयं हिंदुस्तान थे जो ।।<br/> दासता माँ भारती की, सूरमा जो सह न पाए।<br/> अश्रु जिनके इस व्यथा पर,,निज नयन में रह न पाए।।<br/> देशहित जिनकी जवानी का रहा क्षण क्षण समर्पित ।<br/> कर गए आज़ाद हमको,कर के अपना शीश अर्पित ।।<br/> धन्य थी वह कोख की जिसने जने थे सिंह-शावक ।<br/> धन्य वह माटी की पाले जिसने ऐसे वीर बालक ।।<br/> हाथ की मेहंदी! सपन! जीवन! नयन का नूर जिसने!<br/> धन्य वह देवी! किया बलिदान निज सिंदूर जिसने!!<br/> जिनके यशगीतों से सारा विश्व गुंजित है, रहेगा ।<br/> सुन के जिनकी वीर गाथाएं हरएक बच्चा पलेगा ।।<br/> हो के जो कुर्बान..हमको दे गए स्वाधीन सांसे ।<br/> जो हमारी नींद की खातिर ,बने थे स्वयं लाशें ।।<br/> साक्षी जिनके त्याग और बलिदान के,धरती-गगन हैं!<br/> उन शहीदों को मेरा क्षण-क्षण नमन! शत-शत नमन है!!</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>