Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह's Posts - Open Books Online
2024-03-29T10:05:42Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
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प्यार में तुम.. Copyright ©
2011Photography by :- Jogendra Singh
प्यार में तुम जीते रहो ,
प्यार में तुम मरते रहो ,
प्यार में धोखा देते रहो ,
प्यार में धोखा खाते रहो ,
प्यार कहाती इबादत है ,
हाँ…
tag:openbooks.ning.com,2011-01-18:5170231:BlogPost:47234
2011-01-18T18:33:19.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
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<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001452194?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001452194?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5">प्यार में तुम..</span> Copyright ©</p>
<p>2011Photography by :- Jogendra Singh</p>
<p> </p>
<p>प्यार में तुम जीते रहो ,</p>
<p>प्यार में तुम मरते रहो ,</p>
<p>प्यार में धोखा देते रहो ,</p>
<p>प्यार में धोखा खाते रहो ,</p>
<p> </p>
<p>प्यार कहाती इबादत है ,</p>
<p>हाँ इस इबादत पर तुम ,</p>
<p>किसी की बली लेते रहो ,</p>
<p>प्यार पर बली…</p>
<p><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001452194?profile=original"><img class="align-full" width="750" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001452194?profile=RESIZE_1024x1024"/></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5">प्यार में तुम..</span> Copyright ©</p>
<p>2011Photography by :- Jogendra Singh</p>
<p> </p>
<p>प्यार में तुम जीते रहो ,</p>
<p>प्यार में तुम मरते रहो ,</p>
<p>प्यार में धोखा देते रहो ,</p>
<p>प्यार में धोखा खाते रहो ,</p>
<p> </p>
<p>प्यार कहाती इबादत है ,</p>
<p>हाँ इस इबादत पर तुम ,</p>
<p>किसी की बली लेते रहो ,</p>
<p>प्यार पर बली देते रहो ,</p>
<p><br/>प्यार खुद एक धोखा है ,</p>
<p>प्यार भरे धोखे से तुम ,</p>
<p>वफ़ा की उम्मीद क्यूँ करो ,</p>
<p>प्यार नमक है गला देगा ,</p>
<p>दरिया की तरह बहा देगा ,</p>
<p><br/>राहू है प्रेम, दशा केतु वाली ,</p>
<p>जंग दिमागी है और शरीरी ,</p>
<p>खुशियों के चन्द्रमा पे नज़र ,</p>
<p>बुद्धि पर लगा कॉर्क है प्रेम ,</p>
<p><br/>हर समंदर नहीं है एक सा ,</p>
<p>कि जाओ गोते लगा आओ ,</p>
<p>प्रेम समंदर में शार्क भी हैं ,</p>
<p>सत्यानाश करा लो प्यार में ,</p>
<p>भट्टा भी बिठा लो प्यार में ,</p>
<p>तब भी कहो बंदगी है प्यार ,</p>
<p><br/>वरना आ जाओ संग हमारे ,</p>
<p>जमाते हैं महफ़िल प्रेम की ,</p>
<p>नर से नारी नहीं, प्रेम हो तो ,</p>
<p>हो इंसान से इंसान के बीच ,</p>
<p>संग गले मिल दोहराएँ इसे ,</p>
<p>प्रेम परिभाषा फिर से गढ़ें...!!</p>
<p><br/><span class="font-size-4">जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</span> (18 जनवरी 2011)</p>
<p> </p>
<p>.</p>
<p> </p>
फिर एक किनारा......? Copyright ©
tag:openbooks.ning.com,2011-01-12:5170231:BlogPost:46025
2011-01-12T18:02:57.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001453208?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001453208?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5">फिर एक किनारा......? <span class="font-size-2">Copyright ©</span></span><br></br><br></br>फिर एक किनारा......?<br></br>इस ओर से उस ओर को जाने वाला एक खिवैया..<br></br>दो किनारों के बीच आवाजाही ही तो है जो समझ नहीं आती है..<br></br>रेत पर मेरे स्वागत को तत्पर..<br></br>बलुआ मिटटी और सीपियों से बनी तुम्हारी रंगोली..<br></br>मेरे आने से पहले ही बड़ी लहर उसे निगल…</p>
<p><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001453208?profile=original"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001453208?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"/></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5">फिर एक किनारा......? <span class="font-size-2">Copyright ©</span></span><br/><br/>फिर एक किनारा......?<br/>इस ओर से उस ओर को जाने वाला एक खिवैया..<br/>दो किनारों के बीच आवाजाही ही तो है जो समझ नहीं आती है..<br/>रेत पर मेरे स्वागत को तत्पर..<br/>बलुआ मिटटी और सीपियों से बनी तुम्हारी रंगोली..<br/>मेरे आने से पहले ही बड़ी लहर उसे निगल जाती है..<br/>सखी , रेत पर बिखरे पड़े तुम्हारे स्वागत में भी..<br/>है कुछ भीना सा खुशबू भरा अहसास..<br/>विजित सा कोई भाव समाया है उन सूनी आँखों में..<br/>हाँ , एक बार फिर सजाना तुम उस कनारे को..<br/>अबके रेत नहीं कुछ ठोस ढूंढ कर..<br/>हाँ , फिर आऊंगा मैं नयी सी उमंग को लेकर..<br/>फिर आयेगी एक बड़ी सी लहर..<br/>शायद उफान कभी हो जोर पर..<br/>ठोस भले हो पर रेत वही थी..<br/>हर बार की तरह फिर बहेगी रंगोली..<br/>बेबस ताकते रह जाने के सिवा तुम कर भी क्या सकती हो..<br/>गीली रेत के घरौंदे कच्चे जो होते हैं..<br/>लेकिन आते रहना मेरा काम है..<br/>रंगोली चाहे रहे ना रहे मुझे आना ही है..<br/>हां , मुझे आना ही है हर बार सिर्फ तुम्हारे लिए..<br/><br/><span class="font-size-5">जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</span> (12 January 2011 at 22:35)</p>
<p> </p>
<p>.</p>
फिर भी आँख है सूनी.. Copyright ©
tag:openbooks.ning.com,2011-01-10:5170231:BlogPost:45664
2011-01-10T05:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454814?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454814?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5">फिर भी आँख है सूनी.. <span class="font-size-3">Copyright ©</span></span><br></br><br></br>फिर भी आँख है सूनी..<br></br>उस राह को तकते हुए..<br></br>जो जाती है सीधे तेरे दर पे..<br></br>तुमने कहा मैं भूल गया आना..<br></br>कहा तुमने मैं भूल गया तुमको..<br></br>सुना मैंने भी कुछ ऐसा ही था कि मैं..<br></br>पर तुम क्या जानो क्या बीती है मुझ पर..<br></br>सारा जमाना क्या , हम…</p>
<p><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454814?profile=original"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454814?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"/></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5">फिर भी आँख है सूनी.. <span class="font-size-3">Copyright ©</span></span><br/><br/>फिर भी आँख है सूनी..<br/>उस राह को तकते हुए..<br/>जो जाती है सीधे तेरे दर पे..<br/>तुमने कहा मैं भूल गया आना..<br/>कहा तुमने मैं भूल गया तुमको..<br/>सुना मैंने भी कुछ ऐसा ही था कि मैं..<br/>पर तुम क्या जानो क्या बीती है मुझ पर..<br/>सारा जमाना क्या , हम खुद को ही भूले बैठे हैं..<br/>"आशा" आँखों में , पर तुम बिन आँखों का कोई काम नहीं..<br/><br/><span class="font-size-4">जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 10 जनवरी 2011 )</span><br/><br/>Photography by :- <strong>Jogendra Singh</strong></p>
<p> </p>
<p>► <strong>Note :-</strong> फोटो में कबूतर के चारों ओर बिखरे खत्म हो चुके दानों को मैंने नायिका सी संज्ञा देते हुए उन्हें छिलकों में खोजती कबूतर की सूनी आँखों को अपनी कविता के नायक की आँखों में भूली-बिसरी नायिका के लिए उत्पन्न हुए सूनेपन से तुलनीय माना है......</p>
<p>.</p>
दायरे.. ©
tag:openbooks.ning.com,2011-01-03:5170231:BlogPost:44521
2011-01-03T14:48:55.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454777?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454777?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5"><strong>दायरे.. ©</strong></span><br></br><br></br>कुछ सवाल कुछ ज़वाबों के घेरे में , उलझा जीवनपथ..<br></br>सीमित दायरे , दरकता है जीवन उनमें पल-प्रतिपल..<br></br><br></br>दहकते दावानल, स्वप्नों का होता दोहन उनमें निरंतर..<br></br>पल-प्रतिपल , भसम् उठा ख्वाबों की भेंट चढा रहे हम..<br></br>चरणों में अर्पित करने लगे , सीमित दायरों भरा जीवन..<br></br>चरण उस पथिक के ,…</p>
<p><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454777?profile=original"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454777?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"/></a></p>
<p> </p>
<p><span class="font-size-5"><strong>दायरे.. ©</strong></span><br/><br/>कुछ सवाल कुछ ज़वाबों के घेरे में , उलझा जीवनपथ..<br/>सीमित दायरे , दरकता है जीवन उनमें पल-प्रतिपल..<br/><br/>दहकते दावानल, स्वप्नों का होता दोहन उनमें निरंतर..<br/>पल-प्रतिपल , भसम् उठा ख्वाबों की भेंट चढा रहे हम..<br/>चरणों में अर्पित करने लगे , सीमित दायरों भरा जीवन..<br/>चरण उस पथिक के , जिन्हें सहेजा गया है हमारे लिए..<br/>नाम भर का स्वप्न सा है पथिक , अनुभूत जिसे करना..<br/>जैसे उल्लास से सुवासित जीवन , लेता विराम अचानक..<br/><br/>क्यूँ परवश बंधित है मानव मन , बंधन के नाम पर..?<br/>क्यूँ बादल संग न उड़ता फिरता , बावरा ये मानव मन..?<br/>रची-बसी चाहना , ह्रदय कोटर में वीतरागी पखेरू सम..<br/>भरना चाहता हूँ कुलाँचें , उस हरिन सह जो मुक्तक सा है..<br/>डाकिया आता है मेरे द्वार पर , हर दिन नयी कहानी संग..<br/>क्यूँ नहीं कोई कहानी , है जो मुझसे शुरू या हो खतम..?<br/><br/>हर ख्वाब नातों की दहलीज से टकराकर होता चकनाचूर..<br/>ज़बरन जगह बनाती नयी आदतें , बन जाती यहाँ संगी..<br/>मस्तिष्क को दे स्वप्न-निवाला छोड़ जाये , वो आदत..<br/>सालता है गम आदत का , कि चली ना जाये फिर कहीं..<br/>शूल हैं भ्रम आशा भरे , पूरे होने पर यही देते है सुख..<br/>मोडें मुख कैसे ? किसी भी पहलु से, उम्मीद भरा है जीवन..<br/>जब कोई आस नहीं, दबे ढके क्या सच में कोई आस नहीं..?<br/><br/>सुगबुगाहट मस्तिष्क से , रहती निकलती है निरंतर..<br/>संतुष्ट स्वयं को करने , खींच लेते हम कमजोर से दायरे..<br/>रेशे से बनी वही बंदिशें , टूटने पर फंदे सा भान करातीं..<br/>क्यूँ ना खुला छोड़ दें हम मन को , कि बनाने वाले ने..<br/>बनाया है उसे ऐसा ही , स्वच्छंद खग सा गगन विचरता..<br/>कौन होते हैं हम , बंदिशें के जाल उस पर लादने वाले..?<br/><br/>कर हसरतों को भूमिगत जिन्दा कहलाते हैं हम..<br/>कर निर्मित नवीन गढ़ दायरों वाले चहुँ ओर हमारे..<br/>दायरों ने कर रखा है गोल मकडजाल सा सोचों को भी..<br/>बाँध दीना हमने सारा जीवन , बेफिजूल इन सींखचों में..<br/><br/>क्यूँ ना छोड़ दें उसे , मुक्त गगन में फडफडाता हुआ..?<br/>नहीं छटपटाते रहो इन्हीं दायरों में, बेलगाम घोड़े की तरह..<br/>और लग भी जाये कभी लगाम तो , अपने से परे हटकर..<br/>जिए जाओ ताउम्र , और किसी के जीवन दर्शन पे चलकर...<br/>बूढ़े होने तक सोचते फिरना क्या किया , हमने जीवन भर...<br/>मिलेंगे ताले जड़े , दायरों की परिधि पर हर जगह...<br/>कुछ छोटी बड़ी औलाद की खुशियों के आलावा... देखना...<br/>क्या मेरा , क्या तुम्हारा... हश्र यहाँ , होना तो सबका यही है...<br/><br/><span class="font-size-4"><strong>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</strong></span> ( 03 जनवरी 2011 )<br/><br/>Photography by :- <strong>Jogendra Singh</strong><br/>In this Picture :- Me.. (Jogendra Singh)<br/>(Photo clicked by the help of mirror)<br/>_____________________________________________</p>
<p>.</p>
बहकाती है क्यूँ जिंदगी...? ©
tag:openbooks.ning.com,2010-12-21:5170231:BlogPost:42067
2010-12-21T18:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p><a href="http://openbooksonline.com/" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458809?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p> </p>
<p><strong>बहकाती है क्यूँ जिंदगी...? ©</strong><br></br><br></br>शुरू में गज़ल सी , फिर भटकती लय है क्यूँ जिंदगी......<br></br>हर रंग भरा इसमें तुमने , सवाल सी है क्यूँ जिंदगी.......<br></br>ज़वाब दिए खुद तुम्हीं ने , फिर अधूरी है क्यूँ जिंदगी.....<br></br>माना है डगर कठिन , कदम बहकाती है क्यूँ जिंदगी.....<br></br>मंजिल का पता नहीं पर , राह भटकाती है क्यूँ जिंदगी.....<br></br><br></br>Photography & Creation by :- <strong>जोगेन्द्र सिंह…</strong></p>
<p><a target="_self" href="http://openbooksonline.com/"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458809?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"/></a></p>
<p> </p>
<p><strong>बहकाती है क्यूँ जिंदगी...? ©</strong><br/><br/>शुरू में गज़ल सी , फिर भटकती लय है क्यूँ जिंदगी......<br/>हर रंग भरा इसमें तुमने , सवाल सी है क्यूँ जिंदगी.......<br/>ज़वाब दिए खुद तुम्हीं ने , फिर अधूरी है क्यूँ जिंदगी.....<br/>माना है डगर कठिन , कदम बहकाती है क्यूँ जिंदगी.....<br/>मंजिल का पता नहीं पर , राह भटकाती है क्यूँ जिंदगी.....<br/><br/>Photography & Creation by :- <strong>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</strong> (21 दिसंबर 2010)</p>
<p> </p>
<p>.</p>
कैसा है यह नाते पर नाता..? Copyright ©
tag:openbooks.ning.com,2010-12-20:5170231:BlogPost:41813
2010-12-20T16:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458632?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458632?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p> </p>
<p><span style="font-size: large;"><strong>कैसा है यह नाते पर नाता..?</strong></span> Copyright ©<br></br><br></br>निकल कर देखा.. अपनी माँ के उदर से उसने,<br></br>अनजानी.. कुछ मिचमिचाती अपनी आँखों से,<br></br>सारा जहान था दिख रहा अजनबी सा उसको,<br></br>लग रही माँ भी उसकी.. अजनबी सी उसको,<br></br>बना फिर इक नया.. माँ से पहचान का नाता,<br></br>फिर भी अकसर.. क्यूँ लगती माँ अजनबी सी,<br></br>गोद…</p>
<p><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458632?profile=original"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458632?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"/></a></p>
<p> </p>
<p><span style="font-size: large;"><strong>कैसा है यह नाते पर नाता..?</strong></span> Copyright ©<br/><br/>निकल कर देखा.. अपनी माँ के उदर से उसने,<br/>अनजानी.. कुछ मिचमिचाती अपनी आँखों से,<br/>सारा जहान था दिख रहा अजनबी सा उसको,<br/>लग रही माँ भी उसकी.. अजनबी सी उसको,<br/>बना फिर इक नया.. माँ से पहचान का नाता,<br/>फिर भी अकसर.. क्यूँ लगती माँ अजनबी सी,<br/>गोद में जनम ले रहा.. नाता नया जनम के बाद,<br/>है कैसी विडम्बना.. कैसा है.. यह नाते पर नाता,<br/>बनने के बाद बनाना पड़ता.. फिर एक नया नाता,<br/>है कितना अपनापन.. समाया होता इसमें भी,<br/>हर रोज़ है आती.. एक नयी हरकत भोली मासूम,<br/>जुड़ता हर रोज़.. एक नया अहसास भी...<br/>है कैसी विडम्बना.. कैसा है.. यह नाते पर नाता,<br/>बनने के बाद बनाना पड़ता.. फिर एक नया नाता...<br/><br/><span style="font-size: medium;"><strong>जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh</strong></span> ( 23 march 2010 ___ 04:41pm )</p>
<p> </p>
<p>( कुछ लोग कहते हैं कि एक baby के लिए माँ ही सारी दुनिया होती है..... पर मेरा कहना है की यह सब बाद की बातें हैं... newly born baby को किसी और को माँ बना कर हवाले कर दो जो उसे माँ जैसा ही प्यार करे... फिर six month के बाद वो उसे ही अपना समझेगा, ना की अपनी माँ को... ऐसा ना होता तो कृष्ण को देवकी अपनी लगती और यशोदा परायी...वैसे मेरा ये देखा हुआ भी है कई बार, वो भी खुद अपनी ही आँखों से... आप चाहें तो आप भी try कर लीजियेगा, अगर कभी मौका मिले तो...)</p>
<p> </p>
<p>.</p>
!! वायु प्रवाह !! ©
tag:openbooks.ning.com,2010-12-17:5170231:BlogPost:41078
2010-12-17T12:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458701?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458701?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p> </p>
<p><span style="font-size: large;"><strong>!! वायु प्रवाह !! ©</strong></span><br></br>(१)<br></br>वायु प्रवाह पर विचार !<br></br>अचानक उठा खयाल !<br></br>कितने होते हैं प्रकार ?<br></br>(२)<br></br>नाना हैं वायु प्रवाह !<br></br>कह चुकी संस्कृत भी !<br></br>वायु प्रकार के भेद भी !<br></br>मुख्य हैं तीन प्रकार !<br></br>उच्च निम्न मध्यम !<br></br>सप्तम सुप्त औसत स्वर !<br></br>(३)<br></br>भीषण मार सप्तम सुर…</p>
<p><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458701?profile=original"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458701?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"/></a></p>
<p> </p>
<p><span style="font-size: large;"><strong>!! वायु प्रवाह !! ©</strong></span><br/>(१)<br/>वायु प्रवाह पर विचार !<br/>अचानक उठा खयाल !<br/>कितने होते हैं प्रकार ?<br/>(२)<br/>नाना हैं वायु प्रवाह !<br/>कह चुकी संस्कृत भी !<br/>वायु प्रकार के भेद भी !<br/>मुख्य हैं तीन प्रकार !<br/>उच्च निम्न मध्यम !<br/>सप्तम सुप्त औसत स्वर !<br/>(३)<br/>भीषण मार सप्तम सुर !<br/>भूकंप सा अहसास देता !<br/>मध्यम है खदबदाता !<br/>चौंकता और उछलता !<br/>सुप्त स्वर नासा छिद्र में !<br/>जाकर उत्पात मचाता !<br/>(४)<br/>ना देखा आते किसी ने !<br/>घुसपैठ मचाता प्रवाह !<br/>अनायास ही हो अवरुद्ध !<br/>गवाह बनती सांसें स्वयं !<br/>सर्व शक्तिमान फुस्स स्वर !<br/>परिणाम देता उपस्थिति !<br/>कर्ता भी कर्मण्य होकर !<br/>दूजों संग दीदे मटकाता !<br/>हस्त करने जाते अवरुद्ध !<br/>समूह संग नासा छिद्र को !<br/>(५)<br/>विस्फोटक सा प्रतीत होता !<br/>सुर सप्तम पाद से निकला !<br/>कर्ण प्रान्त में सुन्नता !<br/>बिन गोले हवा में उड़ता ! <br/>बेचारा मानुस बस करता !<br/>पहले उससे पकड़ा जाता !<br/>दीदे फाड़ घूरते बहु नैन !<br/>खुद के दीदे धरती पाते !<br/>(६)<br/>कैसा खेला देखो वायु का !<br/>आती पर न कहता कोई !<br/>स्वयं को छोड़कर सब पर !<br/>अंगुली उठता है हर कोई !<br/><br/><strong><span style="font-size: medium;">जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</span></strong> (17 दिसंबर 2010)</p>
<p> </p>
<p>► दोस्तों , , , असल में विसर्जन भी अपने आप में एक कला है...... जितने इसके प्रकार हैं उतने ही परिणाम भी नज़र आते हैं....... जैसे किसी प्रकार से एकदम से लोग उड़न~शील हो जाते हैं तो वहीँ दूसरे प्रकार के परिणाम में जनता असमंजस में होती है कि क्या करें क्या ना करें....... उसमें अपना स्थान छोड़ देने वाले लोग फायदे में रहते हैं जबकि भ्रमित मनुष्यों को अपने नासा एवं मस्तिष्क को जज़ब देना होता है.......... वहीँ आखिरी शांत प्याकर में किसी को बचाव का कोई मौका उपलब्ध नहीं होता है....... जो होना होता है होकर ही रहता है....... फिर भी जाने क्यूँ लोग आखिरी वाले पर ही अधिक बड़ी प्रतिक्रिया देते हैं....... आशा है आप सबने इस रचना का आनंद लिया होगा........ धन्यवाद दोस्तों....... :)))<br/>_____________________________________________</p>
विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-12-13:5170231:BlogPost:40031
2010-12-13T19:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458775?profile=original" target="_blank"><img alt="" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458775?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p></p>
<p><strong><span style="font-size: large;">विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का</span> ::: ©</strong><br></br><br></br>मैं जानती हूँ के साथ मिला..<br></br>कह दी मुझसे तुमने हर बात..<br></br>यत्र-तत्र-सर्वत्र करा दिया भान..<br></br>मुझ ही को मेरे होने का..<br></br><br></br>नाव पतवार के बहाने..<br></br>तो कभी..<br></br>तप्त ओस भाप-बादल के बहाने..<br></br><br></br>सूखे से जीवन में हरियाली सा..<br></br>ढाक-पत्तों…</p>
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458775?profile=original" target="_blank"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458775?profile=RESIZE_1024x1024" alt="" width="750"/></a></p>
<p></p>
<p><strong><span style="font-size: large;">विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का</span> ::: ©</strong><br/><br/>मैं जानती हूँ के साथ मिला..<br/>कह दी मुझसे तुमने हर बात..<br/>यत्र-तत्र-सर्वत्र करा दिया भान..<br/>मुझ ही को मेरे होने का..<br/><br/>नाव पतवार के बहाने..<br/>तो कभी..<br/>तप्त ओस भाप-बादल के बहाने..<br/><br/>सूखे से जीवन में हरियाली सा..<br/>ढाक-पत्तों से बने दोने सा..<br/>अहसास उस प्रेम कुञ्ज सा..<br/>लहलहाता फिर रहा जो..<br/>बन आर्द्र आसक्ति सा जो..<br/>बह रहा उस ओर से इस ओर..<br/>सोता निश्छल तुम्हारे प्रेम का..<br/>कुरेद-खुरच भीतर तक..<br/>स्निग्ध तुम्हारे अहसास को..<br/>जगाता नित प्रति मेरे अन्तस्तल में..<br/><br/>कहाँ से कहूँ..?<br/>जानता हूँ मैं..<br/>कि तुम्हारी हर बात..<br/>पल में तोला माशा तुमने..<br/>बरबस ही अपना कलेवर..<br/>हर बार बदल डाला तुमने..<br/><br/>बिन प्रेम सुधा हरा ना होता..<br/>अकिंचन यह जीवन कोरा..<br/>ना समझोगे यह तुम..<br/>अतिवृष्टि भी अनावृष्टि सी..<br/>होती विनाशक समूची है..<br/><br/>अधीरता चपलता तुम्हारी..<br/>प्रेम सुधा से सिक्त सिंचित..<br/>सुकोमल मृदुल मन के भाव हैं..<br/>पानी सम बस से बाहर फ़ैल रहे हैं..<br/><br/>कर लो बस में इनको नहीं तो..<br/>बस पर भी बस ना रह पायेगा..<br/>धीर-अधीर के मध्य तुम्हारा..<br/>आतुर दृष्टिपथ के मध्य तुम्हारा..<br/>मिल जाना है विराम चिह्न कहीं..<br/>खोया-पाया सकुचाया सा..<br/>विराम चिह्न !! मेरे तुम्हारे नाम का..<br/><br/><strong><span style="font-size: medium;">जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</span></strong> (13 दिसंबर 2010)</p>
<p></p>
<p>Photography by :- <span style="font-size: medium;"><strong>Jogendra Singh</strong></span></p>
<p>In this Picture :- Me.. (Jogendra Singh)</p>
<p>(Photo clicked by the help of mirror)</p>
<p>.</p>
जिंदगी..©
tag:openbooks.ning.com,2010-12-07:5170231:BlogPost:39063
2010-12-07T05:56:13.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001457725?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
<b>जिंदगी..©</b><br />
जाने कितने रंग दिखावे है यह जिंदगी..<br />
बिखेरने थे उसे जो हमसे चाहे ये जिंदगी..<br />
माया फैला फँसा हमको देती है ये जिंदगी..<br />
इशारों पर अपने है नाचती ये जिंदगी..<br />
ना चाहें पर अपना बोझ लदाती है जिंदगी..<br />
अनचाहे ही हम पर गहराती है ये जिंदगी..<br />
कैसे पायें आज़ादी हम पे हावी है ये जिंदगी..<br />
<br />
<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> (07 दिसंबर 2010)<br />
<br />
Photography for both pictures :- <b>Jogendra…</b>
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001457725?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<b>जिंदगी..©</b><br />
जाने कितने रंग दिखावे है यह जिंदगी..<br />
बिखेरने थे उसे जो हमसे चाहे ये जिंदगी..<br />
माया फैला फँसा हमको देती है ये जिंदगी..<br />
इशारों पर अपने है नाचती ये जिंदगी..<br />
ना चाहें पर अपना बोझ लदाती है जिंदगी..<br />
अनचाहे ही हम पर गहराती है ये जिंदगी..<br />
कैसे पायें आज़ादी हम पे हावी है ये जिंदगी..<br />
<br />
<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> (07 दिसंबर 2010)<br />
<br />
Photography for both pictures :- <b>Jogendra Singh</b><br />
<br />
.
दर पे मेरे ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-11-28:5170231:BlogPost:36457
2010-11-28T17:01:18.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458067?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<br />
<b>दर पे मेरे ::: ©</b><br />
<br />
सारी जिंदगी अकेला बैठा हुआ हूँ,<br />
पलकें बिछाए हुए तेरे इंतज़ार में,<br />
न जाने कब इस रात की सुबह हो,<br />
और दर पे नाचीज़ के तू आ जाये..<br />
<br />
_____<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> (28 Nov 2010)<br />
<br />
<br />
.
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458067?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<br />
<b>दर पे मेरे ::: ©</b><br />
<br />
सारी जिंदगी अकेला बैठा हुआ हूँ,<br />
पलकें बिछाए हुए तेरे इंतज़ार में,<br />
न जाने कब इस रात की सुबह हो,<br />
और दर पे नाचीज़ के तू आ जाये..<br />
<br />
_____<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> (28 Nov 2010)<br />
<br />
<br />
.
गली का कुत्ता या इंसान ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-11-26:5170231:BlogPost:36174
2010-11-26T11:06:37.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458445?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
<br />
<b>गली का कुत्ता या इंसान ::: ©</b><br />
<br />
गली के आवारा कुत्ते को रात में डर-डर कर पीछे को हटते देख कभी ख्याल आता है कि इन्हें कहीं ज़रा भी प्यार से पुचकार दिया जाये तो इनकी प्रतिक्रिया ही बदल जाती है... आँखों में उभरे जहाँ भर की प्रेम में लिथड़ी मासूमियत , कान कुछ पीछे को दबे हुए , लगातार दाँये-बाँये को डोलती पूँछ , गर्दन से लेकर पूँछ तक का शरीर सर्प मुद्रा में अनवरत लहराता हुआ और चारों पाँव जैसे असमंजस में आये हों कि उन्हें करना क्या है सो परिणामस्वरूप…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001458445?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<br />
<b>गली का कुत्ता या इंसान ::: ©</b><br />
<br />
गली के आवारा कुत्ते को रात में डर-डर कर पीछे को हटते देख कभी ख्याल आता है कि इन्हें कहीं ज़रा भी प्यार से पुचकार दिया जाये तो इनकी प्रतिक्रिया ही बदल जाती है... आँखों में उभरे जहाँ भर की प्रेम में लिथड़ी मासूमियत , कान कुछ पीछे को दबे हुए , लगातार दाँये-बाँये को डोलती पूँछ , गर्दन से लेकर पूँछ तक का शरीर सर्प मुद्रा में अनवरत लहराता हुआ और चारों पाँव जैसे असमंजस में आये हों कि उन्हें करना क्या है सो परिणामस्वरूप एक ही जगह यहाँ-वहाँ बेतरतीब से उठते-गिरते पैर...<br />
<br />
तदक्षण यह खयाल व्यथित भी कर देता है कि आज के दौर की भागती-दौडती जिंदगी में मेरी खुद अपनी स्थिति भी इन निरीह प्राणियों से कितनी विलग है...? इतने सारे दिखते अपनों के मध्य भी कितना अकेला पड़ गया हूँ... इन्हें कदाचित कोई पुचकार भी जाता हो परन्तु एक प्यार भरी पुचकार तक के लिए तरस रहा हूँ... सभी अपनी आप में व्यस्त-मस्त हैं... जो किसी को फुर्सत हो तब भी इतना समय है ही किसके पास जो आकर किसी की पीड़ा को समझने यत्न करे...?<br />
<br />
कठिन नहीं है इसे समझना... आज मनुष्य जीवन संभवतः कुक्कुर योनी से भी बदतर हो गया है... मुझे याद है भरतपुर में जब गली के कुत्ते को कोई पीट जाता था तब उसके दर्द और उस उठती आवाज़ मात्र से मेरे पालतू को होने वाली बैचेनी देखने लायक होती थी... परन्तु आज इंसान दूसरे को पीड़ा देकर खुद आगे निकल जाने की होड में इतना आगे चला गया है कि फुर्सत ही नहीं किसी का दर्द समझने की या यूँ कहें आज हम कुछ अधिक ही बहरे हो गए हैं...<br />
<br />
कभी-कभी लगता है कोई आकर मुझे भी दो प्यार भरी पुचकार लगा जाये... लेकिन हाय री किस्मत अपने समझते नहीं परायों को मतलब नहीं... सूने नयन बेफिजूल कुछ बूंदों को जाया कर जाते हैं... जानते जो नहीं हैं इनका मोल...<br />
<br />
<b>कभी लगने लगता है क्या हमें गली के आवारा कुत्तों के स्तर तक आने के लिए भी मेहनत की दरकार है...?</b><br />
सवाल गंभीर अवश्य है लेकिन मुश्किल जरा भी नहीं...<br />
<br />
_____<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 26 नवंबर 2010 )<br />
<br />
.
मूँछों के झोंटे ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-11-19:5170231:BlogPost:34425
2010-11-19T08:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459178?profile=original"></img></p>
<br />
<br />
<b>झबरीली मूंछों वाले लोगों को देख कर मेरा भी कटीली मूँछ रखने का मन हो आया.... अब आप देखें तो मेरी बेटी झलक की ओर से किसी मूंछों वाले के लिए कही गयी नयी बात क्या होगी...</b><br />
<br />
<b><u>मूँछों के झोंटे</u> ::: ©</b><br />
<br />
ताऊ जी ताऊ जी.....<br />
मेले प्याले-प्याले ताऊ जी..<br />
मेले छुई-मुई छे बचपन को..<br />
लटका कल अपनी मूंछों में..<br />
त्लिप्ती दिया कलो झोंटे देकल..<br />
अनुपम छुन्दल हवादाल झूला..<br />
सदृश्य अनुराग मेली खिखिलाहट..<br />
देगी आनंद तुमको मेरे ताऊ जी..<br />
कुम्हला ना जाये मेला…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459178?profile=original" alt=""/></p>
<br />
<br />
<b>झबरीली मूंछों वाले लोगों को देख कर मेरा भी कटीली मूँछ रखने का मन हो आया.... अब आप देखें तो मेरी बेटी झलक की ओर से किसी मूंछों वाले के लिए कही गयी नयी बात क्या होगी...</b><br />
<br />
<b><u>मूँछों के झोंटे</u> ::: ©</b><br />
<br />
ताऊ जी ताऊ जी.....<br />
मेले प्याले-प्याले ताऊ जी..<br />
मेले छुई-मुई छे बचपन को..<br />
लटका कल अपनी मूंछों में..<br />
त्लिप्ती दिया कलो झोंटे देकल..<br />
अनुपम छुन्दल हवादाल झूला..<br />
सदृश्य अनुराग मेली खिखिलाहट..<br />
देगी आनंद तुमको मेरे ताऊ जी..<br />
कुम्हला ना जाये मेला बचपन..<br />
बाँध छको तो बाँध लो मूंछों में..<br />
अपने प्याल भले झूले का बंधन.. हा हा आहा.. ©<br />
<br />
<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 18 November 2010 )<br />
.
मिलना-बिछडना ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-11-11:5170231:BlogPost:32771
2010-11-11T12:04:10.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459003?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<br />
<br />
<b>मिलना-बिछडना ::: ©</b><br />
<br />
स्वप्न लोक से तू निकल आ ऐ रूपसी...<br />
माना है जिंदगी चाहत का एक सिलसिला..<br />
मिलना-बिछडना भी है लगा रहता यहाँ...<br />
क्यूँ मांगती है आ सीख ले तू छीन लेना..<br />
बिन मांगे न मिला है न तुझे मिलेगा कभी.. ©<br />
<br />
<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 11-11-2010 )<br />
<br />
<br />
<br />
.
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459003?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<br />
<br />
<b>मिलना-बिछडना ::: ©</b><br />
<br />
स्वप्न लोक से तू निकल आ ऐ रूपसी...<br />
माना है जिंदगी चाहत का एक सिलसिला..<br />
मिलना-बिछडना भी है लगा रहता यहाँ...<br />
क्यूँ मांगती है आ सीख ले तू छीन लेना..<br />
बिन मांगे न मिला है न तुझे मिलेगा कभी.. ©<br />
<br />
<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 11-11-2010 )<br />
<br />
<br />
<br />
.
तुम्हारे ये दो आँसू ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-11-07:5170231:BlogPost:32010
2010-11-07T19:08:40.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459033?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
<b>तुम्हारे ये दो आँसू ::: ©</b><br />
<br />
कुछ घाव हरे कर गए है..<br />
तुम्हारे ये दो आँसू मेरी..<br />
संवेदना को गहरा कर गए हैं..<br />
किसी पुराने जख्म का रिसना..<br />
और भर-भर कर उसका..<br />
रिसते चले जाना..<br />
नियति बन गया है अब..<br />
<br />
तुम्हारे मन की पीड़ा..<br />
आँसू की पहली बूँद से..<br />
उजागर हो रही है..<br />
एक ह्रदय से दूसरे तक..<br />
क्यों इस पीड़ा का गमन..<br />
हो रहा है निरंतर..<br />
<br />
सतत अविरल बहते आँसू..<br />
मेरे अंतर्मन को इन्होने..<br />
जाने कहाँ जाकर छुआ है..?<br />
<br />
शुक्रिया तुम्हारा..<br />
तुम्हारे द्वारा मुझे..<br />
कुछ आँसू…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459033?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<b>तुम्हारे ये दो आँसू ::: ©</b><br />
<br />
कुछ घाव हरे कर गए है..<br />
तुम्हारे ये दो आँसू मेरी..<br />
संवेदना को गहरा कर गए हैं..<br />
किसी पुराने जख्म का रिसना..<br />
और भर-भर कर उसका..<br />
रिसते चले जाना..<br />
नियति बन गया है अब..<br />
<br />
तुम्हारे मन की पीड़ा..<br />
आँसू की पहली बूँद से..<br />
उजागर हो रही है..<br />
एक ह्रदय से दूसरे तक..<br />
क्यों इस पीड़ा का गमन..<br />
हो रहा है निरंतर..<br />
<br />
सतत अविरल बहते आँसू..<br />
मेरे अंतर्मन को इन्होने..<br />
जाने कहाँ जाकर छुआ है..?<br />
<br />
शुक्रिया तुम्हारा..<br />
तुम्हारे द्वारा मुझे..<br />
कुछ आँसू उधार देने का..<br />
जो अपेक्षित थे कभी से..<br />
उन बूंदों से मेरा..<br />
साक्षात्कार कराने का..<br />
<br />
याद है मुझे तब..जब..<br />
अनकहे ही तुम्हारा..<br />
अमानत बन जाना..<br />
किसी और का..और..<br />
चुपचाप गुमसुम निगाहों से..<br />
तुमको मेरा निहारना..<br />
तुम्हें पता भी न था..<br />
<br />
और यहाँ.. उफ्फ्फ्फ्फ़..<br />
सारा जहाँ रिस रहा था..<br />
आज फिर तुम्हें सामने पाना..<br />
अतीत के मुर्दों को जगाना..<br />
हर कंकाल नाच रहा है..<br />
यादों का नंगा नाच..<br />
<br />
तुमने तो चले जाना है..<br />
फिर आने का स्वांग क्यों..<br />
तुम्हारा आना और..और..<br />
तुम्हारे ये दो आँसू मेरे..<br />
कुछ घाव हरे कर गए है..<br />
संवेदना को गहरा कर गए हैं..<br />
<br />
किसी पुराने जख्म का रिसना..<br />
और भर-भर कर उसका..<br />
रिसते चले जाना..<br />
रिसन सडन न बन जाये कहीं..<br />
आह.. न आना चाहिए था तुम्हें..<br />
चले जाओ-चले जाओ-चले जाओ..<br />
<br />
_____ <b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 07 नवंबर 2010 ) ©<br />
<br />
<br />
<br />
Photography By :- <b>Jogendra Singh</b> (for both d pic's)<br />
<br />
Night view of above picture is at Worli see face ( Mumbai )<br />
These lags are my own lags at Vasai Beach ( Mumbai )<br />
<br />
.
खयाल जिंदा रहे तेरा ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-11-06:5170231:BlogPost:31914
2010-11-06T18:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
खयाल जिंदा रहे तेरा..<br />
जिंदगी के पिघलने तक..<br />
और मैं रहूँ आगोश में तेरे..<br />
बन महकती साँसें तेरी..<br />
<br />
तुझे पिघलाते हुए अब..<br />
पिघल जाना मुकद्दर है..<br />
बह गया देखो तरल बनकर..<br />
अनजान अनदेखे नये..<br />
ख्वाहिशों के सफर पर..<br />
<br />
तुझे छोड़कर तुझे ढूँढने..<br />
खामोश पथ का राही बन..<br />
बेसाख्ता ही दूर तक..<br />
निकल आया हूँ मैं..<br />
<br />
सुनसान वीराने में तुझे पाना..<br />
तेरी वीणा के तारों को..<br />
नए सिरे से झंकृत..<br />
कर पाना मुमकिन नहीं..<br />
तुझसे दूर, तेरे पास भी..<br />
रह पाना मुमकिन नहीं..<br />
<br />
तुझे पिघलाते हुए अब..<br />
पिघल जाना मुकद्दर है..<br />
बह गया देखो तरल…
खयाल जिंदा रहे तेरा..<br />
जिंदगी के पिघलने तक..<br />
और मैं रहूँ आगोश में तेरे..<br />
बन महकती साँसें तेरी..<br />
<br />
तुझे पिघलाते हुए अब..<br />
पिघल जाना मुकद्दर है..<br />
बह गया देखो तरल बनकर..<br />
अनजान अनदेखे नये..<br />
ख्वाहिशों के सफर पर..<br />
<br />
तुझे छोड़कर तुझे ढूँढने..<br />
खामोश पथ का राही बन..<br />
बेसाख्ता ही दूर तक..<br />
निकल आया हूँ मैं..<br />
<br />
सुनसान वीराने में तुझे पाना..<br />
तेरी वीणा के तारों को..<br />
नए सिरे से झंकृत..<br />
कर पाना मुमकिन नहीं..<br />
तुझसे दूर, तेरे पास भी..<br />
रह पाना मुमकिन नहीं..<br />
<br />
तुझे पिघलाते हुए अब..<br />
पिघल जाना मुकद्दर है..<br />
बह गया देखो तरल बनकर..<br />
खयाल जिंदा रहे तेरा..<br />
जिंदगी के पिघलने तक..<br />
और मैं रहूँ आगोश में तेरे..<br />
बन महकती साँसें तेरी..<br />
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459039?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 06 नवंबर 2010 )<br />
<br />
.
हूँ अभी गर्भ में ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-10-31:5170231:BlogPost:30088
2010-10-31T19:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459117?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
► हूँ अभी गर्भ में ::: ©<br />
<br />
हूँ अभी गर्भ में<br />
ले रही आकर<br />
हुआ ही है शुरू<br />
स्पंदन ह्रदय का<br />
कि जान लिया<br />
कौन हूँ मैं<br />
जताने लायक<br />
हैं यंत्र नए<br />
क्या करती<br />
<br />
तैयार हूँ कट जाने को<br />
आएगा जोड़ा यंत्रों का<br />
होगी कोख कलंकित<br />
कर रहे हैं पुर्जा-पुर्जा<br />
अलग मुझे माँ से<br />
न सोच न ही समझ है मुझे<br />
करूँ क्रंदन कैसे<br />
पर दर्द समझती हूँ<br />
तडपा रहा कटना अंगों का<br />
बिन शब्द<br />
बे-आवाज़ होता करुण क्रंदन<br />
क्या सुन पायेगा कोई.....?<br />
<br />
लेते ज़न्म जिस कोख से<br />
काट रहे वे<br />
जन्मती इक नयी कोख<br />
माँ..!! मैं तेरा…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459117?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
► हूँ अभी गर्भ में ::: ©<br />
<br />
हूँ अभी गर्भ में<br />
ले रही आकर<br />
हुआ ही है शुरू<br />
स्पंदन ह्रदय का<br />
कि जान लिया<br />
कौन हूँ मैं<br />
जताने लायक<br />
हैं यंत्र नए<br />
क्या करती<br />
<br />
तैयार हूँ कट जाने को<br />
आएगा जोड़ा यंत्रों का<br />
होगी कोख कलंकित<br />
कर रहे हैं पुर्जा-पुर्जा<br />
अलग मुझे माँ से<br />
न सोच न ही समझ है मुझे<br />
करूँ क्रंदन कैसे<br />
पर दर्द समझती हूँ<br />
तडपा रहा कटना अंगों का<br />
बिन शब्द<br />
बे-आवाज़ होता करुण क्रंदन<br />
क्या सुन पायेगा कोई.....?<br />
<br />
लेते ज़न्म जिस कोख से<br />
काट रहे वे<br />
जन्मती इक नयी कोख<br />
माँ..!! मैं तेरा अंतर हूँ<br />
क्यूँ ना पसीजता<br />
ह्रदय तेरा भी<br />
<br />
सज जाते कटे अंग<br />
धवल तस्तरी में<br />
बंद फिर छोटे बोरे में<br />
किसी नाले की शोभा बढ़ाते<br />
शांत हूँ अब<br />
लग रहा जीवन सार्थक<br />
काम आना है<br />
कुछ वक़्त मुझे भी<br />
बुझा क्षुधा अपनी<br />
खुश हैं जल-जंतु<br />
पड़े प्रतीक्षा में<br />
एक नए स्त्री बिम्ब की...!!<br />
<br />
_____जोगेंद्र सिंह ( 19 मई 2010_02:21 am )<br />
<br />
► नोट :- मेरी मित्र रोली पाठक द्वारा एक असली किस्सा बताया गया था जिसमें भोपाल में उसके घर के पास वाले नाले में पौलिथिन में लिपटे किसी कन्या भ्रूण को पाया गया था... इस घटना का हम पर जो असर हुआ उसी के फलस्वरूप एक कविता रोली ने लिखी और एक मैंने..... मेरी लिखी पुरानी कविता को अबॉर्शन वाली फोटो के कारण फेसबुक वालों ने हटा दिया सो बदले में इसे फिर से नए रूप से आपके लिए लिख दिया कि कहीं शायद आपमें से किसी के प्रयास से आगे कोई एक भी भ्रूण-हत्या होने से रुक सके..... !!<br />
_____________________________________________<br />
<br />
मेरी यह कविता पूर्व में नवभारत टाईम्स में भी प्रकाशित हो चुकी है ...<br />
<a href="http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/6031461.cms">http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/6031461.cms</a><br />
_____________________________________________
निर्झरण से झरण की ओर ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-10-13:5170231:BlogPost:26980
2010-10-13T20:38:38.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459657?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
► निर्झरण से झरण की ओर ::: ©<br />
<br />
समय का बहाव, पवन का प्रवाह,<br />
सख्त भौंथरी चट्टान,<br />
अब तीखे नक्श पाने लगी है,<br />
<br />
न चाहते हुए भी,<br />
मन का खुद को बरगलाना,<br />
जैसे पानी का बर्फ बन,<br />
चट्टान के भ्रम संग,<br />
खुद को बरगलाना,<br />
<br />
वक्ती थपेड़े पड़े हैं मगर,<br />
आज नहीं कल ही सही,<br />
बदलेगा प्रारब्ध मेरा भी,<br />
<br />
क्षण-भंगुर हो,<br />
भटक-चटक रही है,<br />
चंचलता-कोमलता, मेरे मन की,<br />
पिघल-बहाल हो रही है,<br />
जैसे बर्फ की मानिंद,<br />
<br />
अब और भी करनी है,<br />
मेहनत करारी,<br />
नयी भावुकता है,<br />
नयी दुनियावी सोच है,<br />
खा गए सोच…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459657?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
► निर्झरण से झरण की ओर ::: ©<br />
<br />
समय का बहाव, पवन का प्रवाह,<br />
सख्त भौंथरी चट्टान,<br />
अब तीखे नक्श पाने लगी है,<br />
<br />
न चाहते हुए भी,<br />
मन का खुद को बरगलाना,<br />
जैसे पानी का बर्फ बन,<br />
चट्टान के भ्रम संग,<br />
खुद को बरगलाना,<br />
<br />
वक्ती थपेड़े पड़े हैं मगर,<br />
आज नहीं कल ही सही,<br />
बदलेगा प्रारब्ध मेरा भी,<br />
<br />
क्षण-भंगुर हो,<br />
भटक-चटक रही है,<br />
चंचलता-कोमलता, मेरे मन की,<br />
पिघल-बहाल हो रही है,<br />
जैसे बर्फ की मानिंद,<br />
<br />
अब और भी करनी है,<br />
मेहनत करारी,<br />
नयी भावुकता है,<br />
नयी दुनियावी सोच है,<br />
खा गए सोच पुरानी को,<br />
मिल सारे दानव कलयुगी,<br />
<br />
परन्तु अंत संग उदय भी है,<br />
आँखें मूंदे नहीं दिखेगा,<br />
मिंचमिंचाते ही सही,<br />
खोल पपोटे देखा मैंने,<br />
सामने है तैयार खड़ा,<br />
मेरे स्वागत को आतुर,<br />
सप्त-रंगी इन्द्रधनुष,<br />
नयी आभा है प्रकाश नया,<br />
गमन है मेरा,<br />
निर्झरण की बर्फ से झरण की ओर..!!<br />
<br />
<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 13 अक्टूबर 2010 )<br />
<br />
.
काँटा और गुहार :: (c)
tag:openbooks.ning.com,2010-10-02:5170231:BlogPost:24425
2010-10-02T21:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459415?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
<br />
Photography by : <b>Jogendra Singh</b><br />
_____________________________________<br />
<br />
<b>काँटा और गुहार :: ©</b> ( क्षणिका )<br />
<br />
<br />
आसान नहीं है ...<br />
<br />
पाँव से काँटा निकाल देना ...<br />
<br />
हाथ बंधे हैं पीछे और ...<br />
<br />
उसी ने बिखेरे थे यह कांटे ...<br />
<br />
निकालने की जिससे ...<br />
<br />
हमने करी गुहार है ...<br />
<br />
<br />
►<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 02 अक्टूबर 2010…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459415?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<br />
Photography by : <b>Jogendra Singh</b><br />
_____________________________________<br />
<br />
<b>काँटा और गुहार :: ©</b> ( क्षणिका )<br />
<br />
<br />
आसान नहीं है ...<br />
<br />
पाँव से काँटा निकाल देना ...<br />
<br />
हाथ बंधे हैं पीछे और ...<br />
<br />
उसी ने बिखेरे थे यह कांटे ...<br />
<br />
निकालने की जिससे ...<br />
<br />
हमने करी गुहार है ...<br />
<br />
<br />
►<b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 02 अक्टूबर 2010 )<br />
<br />
_____________________________________<br />
.
घरौंदा कहूँ या सराय :: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-09-29:5170231:BlogPost:23576
2010-09-29T14:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446897?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
.<br />
::: <b><u><a href="http://jogendrasingh.blogspot.com/" target="_blank">घरौंदा कहूँ या सराय</a></u></b> :: ©<br />
<br />
प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...<br />
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...<br />
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...<br />
<br />
कोई आये कह दे मुझे रह लूँ बन पथिक ...<br />
कुछ समय के लिए , तेरे इस आसरे में ...<br />
सोच रहा हूँ अब इसे घरौंदा कहूँ या सराय ...<br />
आना है तुम्हें फिर से चले जाने के लिए ...<br />
<br />
तुम न आते तो मैं राह तकता तुम्हारी ...<br />
सालता मुझे यह गम मगर…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446897?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
.<br />
::: <b><u><a href="http://jogendrasingh.blogspot.com/" target="_blank">घरौंदा कहूँ या सराय</a></u></b> :: ©<br />
<br />
प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...<br />
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...<br />
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...<br />
<br />
कोई आये कह दे मुझे रह लूँ बन पथिक ...<br />
कुछ समय के लिए , तेरे इस आसरे में ...<br />
सोच रहा हूँ अब इसे घरौंदा कहूँ या सराय ...<br />
आना है तुम्हें फिर से चले जाने के लिए ...<br />
<br />
तुम न आते तो मैं राह तकता तुम्हारी ...<br />
सालता मुझे यह गम मगर ज्यादा नहीं ...<br />
आकर चले जाना न बर्दाश्त होगा मुझे ...<br />
बेहतर है तुम न आओ इस घरौंदे में ..<br />
घर ही रह जाने दो मेरे इस घरौंदा को ...<br />
क्या फर्क हो जाना है ? पहले भी तो ...<br />
तुम बिन अकेला था , सूनी दीवारों में ..<br />
<br />
प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...<br />
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...<br />
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...<br />
पर अब राह पोखर की ओर जाती हुई ...<br />
<br />
एक अकेली तलैया बन रही वीरानों में ...<br />
ठहरे पानी में अब अक्स दिखना बंद हैं ...<br />
ठहरेपन में यादों की झाडियाँ उग पड़ी हैं ...<br />
क्या करूँ बूंदों से नज़र जो धुंधली हो रही है ...<br />
कोई चेहरा जोगी पानी में नज़र नहीं आता ...<br />
<br />
► <a href="http://jogendrasingh.blogspot.com/" target="_blank">जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</a> ( 29 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
<br />
Photography by : Jogendra Singh<br />
<br />
_____________________________________<br />
.
::: गुलिस्तान ::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-09-25:5170231:BlogPost:23003
2010-09-25T19:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446815?profile=original" alt=""/></p>
<br />
<br />
<br />
::: गुलिस्तान ::: © (मेरी नयी क्षणिका )<br />
<br />
<br />
कहने को तो तुम्हें दे देने थे, यह फूल मगर, ज़माने को यह गवारा न था !!<br />
सूख चुके हैं फूल मगर, अब भी तत्पर हूँ देने को यह गुलिस्तान तुम्हें .. !!<br />
<br />
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
<br />
.
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446815?profile=original" alt=""/></p>
<br />
<br />
<br />
::: गुलिस्तान ::: © (मेरी नयी क्षणिका )<br />
<br />
<br />
कहने को तो तुम्हें दे देने थे, यह फूल मगर, ज़माने को यह गवारा न था !!<br />
सूख चुके हैं फूल मगर, अब भी तत्पर हूँ देने को यह गुलिस्तान तुम्हें .. !!<br />
<br />
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
<br />
.
धर्म या राजनीती © (सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )
tag:openbooks.ning.com,2010-09-24:5170231:BlogPost:22719
2010-09-24T17:01:22.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446806?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
<b><u>धर्म या राजनीति</u></b> © ( <b>सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें</b> )<br />
<br />
► <b>विवाद और मानव</b> ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये माँस के टुकड़े…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446806?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
<b><u>धर्म या राजनीति</u></b> © ( <b>सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें</b> )<br />
<br />
► <b>विवाद और मानव</b> ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये माँस के टुकड़े पाए गए यह धार्मिक दंगा फ़ैलाने की साजिश है ... इन दिनों नया एक फैसला आने वाला है ... जो अगर एक समुदाय के पक्ष में आया तो वो लोग लड़ेंगे और यदि विपक्ष में आया तो ये लड़ेंगे , मगर इनका लड़ना तय है ...<br />
<br />
► <b>मानवीय पहलू</b> ► कुछ टुच्चे किस्म के स्वार्थी नेतागण अपनी-अपनी रोटियों को सेंकने को कोशिश में <u>जाने कितने ही घरों के चूल्हे बुझा जाते हैं यह किसी को दिखाई नहीं देता</u> ... रोज-रोटी की जुगाड में लगे लोग इन दंगों की भेंट चढ जाते हैं ... रोते बच्चे के लिए कुछ खाने की जुगाड करने को घर से निकला मजलूम बाप शाम को जब घर नहीं लौट पाता तब कोई नेता या संगठन का अधिकारी इन्हें पूछने नहीं आता ... कई बार तो परिवार को यह तक पता नहीं चल पाता कि जो लौट नहीं पाया उसके न आने के पीछे छुपी असल वज़ह क्या है ... दूसरी ओर लोग सोच रहे होते हैं कि यह जो क्षत-विक्षत शरीर पड़ा हुआ है वह आखिर है किसका ... ?<br />
<br />
पंचनामे में पुलिस की तरफ से एक लावारिस लाश पाई दिखा दी जाती है ... कुछ का पता चल जाता है तो मीडीया एवं अखबारनवीसों की ऐसी छीना-झपटी जैसे मुर्दे के घर वालों से ही अब उनकी रोटी चलने वाली हो ... थोड़े से रुपये देने की घोषणा जोकि कम ही लोगों को नसीब होती है , कारण कि <b>बेचारी बीवी अपने पति के मरने का सबूत नहीं दिखा पायी</b> ... अब <u>वह बेचारी सड़क पर छितराए माँस के लोथड़ों में से कैसे ढूंढें अपने पति को</u> ... और वह लाश जिसका सर सड़क के दांये फुटपाथ के किनारे , एक आँख सुए द्वरा फोड कर विक्षत बनायीं हुई या फिर बम के धमाके से फटी-टूटी एक दूसरी लाश जिसके छितराकर फ़ैल चुके चेहरे की पहचान अब शायद उसके अपने घरवाले भी ना कर सकें ... शहर की सड़कों पर ऐसे ही नज़ारे आम होने लगते हैं <b>जिन्हें देखना तो दूर सुनना भी ह्रदय-विदारक होता है</b> ...<br />
<br />
किलकारी मार-मार कर रोता बच्चा जिसके करीब उसकी माँ कज़ा (मौत) के हवाले हो चुकी है का करुण क्रंदन सुनने की उस समय जैसे किसी को फुर्सत ही नहीं होती ... <u>उस समय कर्मकांडी अपना काम जो किये जा रहे होते हैं</u> ... <u>जैसे सभी को यमराज के पास हिसाब देना हो कि उसके दरबार में किसने कितने भेजे या किसके आदेश से कितने भेजे गए</u> ...<br />
<br />
► <b>मरता कौन है</b> ► यह सवाल भी एक सोचने का एक नया मुद्दा हो सकता है ... ठीक से अगर सोचा जाये तो जो जलाये जाते हैं वे कच्चे झोंपड़े या सामान्य लोगों के घर होते हैं , उनमे से घसीटकर हिंदू या मुस्लिम बताकर काट डाले जाने वाले भी मजलूम ही होते हैं ... क्या कभी किसी ने सुना है कि कोई राजनेता या किसी संगठन का पदाधिकारी मारा गया हो ... या इस दौरान ऐसे किसी बंदे को देखा किसी ने जिसकी रोज़ी रोटी छिन कर उसके बच्चों के भूखों मरने की नौबत आई हो ...<br />
<br />
► <b>आर्थिक पहलू</b> ► दंगों के दुष्प्रभाव स्वरुप सरकारी गैर-सरकारी संपत्ति की तोड़-फोड से कितना नुकसान होता है उसका आकलन कर तो लिया जाता है मगर उसका सत्यापन कौन करे ? असली आंकड़े किये गए आकलन से कहीं आगे की चीज़ होते हैं ... जो तथ्य सरकार पेश करती है वे आधे-अधूरे होते हैं ... <u>इस दौरान जाने कितने घरों का आर्थिक गणित गड़बड़ा जाता है इसका हिसाब कौन रखता है</u> ? इन्हें हर्जाना कौन देगा ? बड़े स्तर के हर दंगे या बंद से देश को हजारों करोड रुपयों की चपत लगती है , सरकार तो इसे झेल जाती है परन्तु व्यक्तिगत स्तर पर चल रहे व्यापारों को मिली क्षति पर कौन जिम्मेदार कहलायेगा ?<br />
<br />
► <b>आखिरी सवाल</b> ► चाहे मंदिर रहे या मस्जिद रहे उसका फायदा क्या है ? क्या भगवान तुम्हारे अल्लाह/भगवान ने यह कह दिया है कि जब तक मेरे नाम पर हजारों-लाखों मनुष्यों की बलि नहीं चढाई जायेगी तब तक मुझे चैन नहीं आएगा ? या बलि चढ़वाने का काम अब ऊपर वाले ने अपने हाथों में ले लिया है ? और अगर ऐसा है तब भी कौन है वह जिसे खुदा/भगवान ने स्वयं आकार ऐसा करने को कह दिया है ? सिर्फ मंदिर में शीश नवाने से या मस्जिद की अजान गाने से ही क्या हम इंसान होने का दर्ज़ा पा जाते हैं ? अगर ऐसा है तो क्यूँ नहीं सभी धर्मावलंबी मंदिरों या मस्जिदों के बाहर लाईन लगाकर खड़े नज़र आते ? या इंसानियत अब ईद का चाँद हो गयी है जो साल में सिर्फ कुछ-एक बार ही आती है ? अपने झूठे नाम के लिए औरों की छाती पर पाँव रखना कब छोड़ेंगे हम ? और घर को भरने के लिए मासूमों के खून की होली खेलना कब बंद करेंगे समाज के ये कथित ठेकेदार ? हिंदू हो या मुस्लिम या फिर कोई और भी हो, हैं तो सब आखिर मानव के बच्चे ही ना ... तो फिर बचपन से साथ खेलने वाले क्यूँ बड़े होकर एक-दूसरे को ही काट डालना चाहते हैं ?<br />
<br />
शर्म करो अब ... बस करो, बहुत हुआ यह नंगा नाच ...<br />
<u>कब तक मासूम जानता के खून से अपनी होली मनोरंज़क बनाते रहोगे</u> ?<br />
<br />
<u>सोचो</u> ... !! <u>सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें</u> ... !!<br />
<br />
<br />
► <b>जोगेन्द्र सिंह Jogedra singh</b> ( 24 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
.
::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-09-23:5170231:BlogPost:22562
2010-09-23T16:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446884?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: © (मेरी नयी कविता)<br />
<br />
हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...<br />
तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...<br />
साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?<br />
कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...<br />
जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...<br />
<br />
गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...<br />
मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...<br />
मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा देखने की ...<br />
तुम में समा कर मैं नज़र आता हूँ मैं से…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446884?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: © (मेरी नयी कविता)<br />
<br />
हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...<br />
तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...<br />
साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?<br />
कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...<br />
जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...<br />
<br />
गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...<br />
मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...<br />
मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा देखने की ...<br />
तुम में समा कर मैं नज़र आता हूँ मैं से बेहतर ...<br />
<br />
_____जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 23 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
Photography by : Jogendra Singh<br />
<br />
_____________________________________<br />
Note :- (( मेरी उपरोक्त रचना के बन जाने के पीछे जिस रचना ने प्रेरणा का कार्य किया है<br />
वह नीलू पुरी जी द्वारा रचित एक कविता है , जिसका लिंक नीचे मौजूद है ))<br />
<br />
<a href="http://www.facebook.com/note.php?note_id=412197984246&comments&ref=notif&notif_t=note_reply">http://www.facebook.com/note.php?note_id=412197984246&comments&ref=notif&notif_t=note_reply</a><br />
एडमिन जी आप चाहें तो लिंक रहने दें अन्यथा इसे निकाल दें ...<br />
_____________________________________<br />
<br />
<br />
► यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
► !!..धन्यवाद..!!<br />
.<br />
_____________________________________
::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-09-21:5170231:BlogPost:22117
2010-09-21T23:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446972?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: © (मेरी नयी सवालिया व्यंग्य कविता)<br />
<br />
मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है...<br />
नाना प्रकार के प्रेत...<br />
भरमाते हुए...<br />
विकराल शक्लें...<br />
लोभ-काम-क्रोध-मद-मोह...<br />
नाम हैं उनके...<br />
प्रचंड हो जाता जब कोई...<br />
घट जाता नया काण्ड कोई...<br />
सृष्टि के दारुण दुःख समस्त...<br />
सब दिये इन्हीं पञ्च-तत्व-भूतों ने...<br />
<br />
लालसा...<br />
अधिक से भी अधिक पाने की...<br />
नहीं रहा काबू मन पे मेरे...<br />
कोशिश...<br />
कर देखी मैंने बहुतेरी...<br />
मन में दिया रौशन कर लेने…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446972?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: © (मेरी नयी सवालिया व्यंग्य कविता)<br />
<br />
मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है...<br />
नाना प्रकार के प्रेत...<br />
भरमाते हुए...<br />
विकराल शक्लें...<br />
लोभ-काम-क्रोध-मद-मोह...<br />
नाम हैं उनके...<br />
प्रचंड हो जाता जब कोई...<br />
घट जाता नया काण्ड कोई...<br />
सृष्टि के दारुण दुःख समस्त...<br />
सब दिये इन्हीं पञ्च-तत्व-भूतों ने...<br />
<br />
लालसा...<br />
अधिक से भी अधिक पाने की...<br />
नहीं रहा काबू मन पे मेरे...<br />
कोशिश...<br />
कर देखी मैंने बहुतेरी...<br />
मन में दिया रौशन कर लेने की...<br />
रूह में बसा था जो ईश्वर...<br />
<br />
कोशिश...<br />
खोज उसे लेने की...<br />
मिल गया बसेरा...<br />
पर ईश्वर का कोई पता नहीं...<br />
देख कर शायद...<br />
लापतागंज का कोई इश्तिहार...<br />
हो समर्थ...<br />
कर काबू मन को...<br />
खोज लाये कोई खोये ईश्वर को...<br />
<br />
मगर...<br />
फिर चढ़ेगा एक प्रेत ईश्वर पर...<br />
फिर लगेगा इश्तिहार...<br />
लापतागंज का...<br />
संभवतः दौर नया है...<br />
खुद ईश्वर की भाग-दौड़ का...<br />
<br />
शायद...<br />
हो गया था अहसास...<br />
मेरे ईश्वर को...<br />
अब उद्धार चाहिए उसी को...<br />
जो कहलाता उद्धारक था...<br />
<br />
हा हन्त...कैसे पार पड़े...<br />
कौने में बैठा ईश्वर...<br />
अपना नाम ना बताऊँ...<br />
सोचता होगा...<br />
भीषण दानवों से...<br />
जिन्हें बचाया जीवन भर...<br />
वे ही अब दानव बने बैठे हैं...<br />
अब उनसे खुद को बचाऊँ कैसे...<br />
<br />
मैं कहता..<br />
आ देख मिल कर, मेरे दानव साथी...<br />
कैसे होगा...?<br />
अब उद्धार खुद उद्धारक का...<br />
<br />
► <b>जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 21 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
_____________________________________<br />
Note :- (( मेरी उपरोक्त रचना के बन जाने के पीछे जिस रचना ने प्रेरणा का कार्य किया है<br />
वह डॉ. नूतन गैरोला द्वारा रचित एक लघु कविता है , जोकि नीचे नाम सहित मौजूद है ))<br />
<br />
मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है |<br />
कभी ईर्ष्या उफनती,<br />
कभी लोभ, क्षोभ<br />
कभी मद - मोह,<br />
लहरों से उठते<br />
और फिर गिर जाते ||<br />
पर न हारी हूँ कभी |<br />
सर्वथा जीत रही मेरी,<br />
क्योंकि रोशन दिया<br />
रहा संग मन मेरे,<br />
मेरी रूह में ,<br />
ईश्वर का बसेरा है ||<br />
► (डॉ. नूतन गैरोला)<br />
_____________________________________<br />
<br />
► यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
► !!..धन्यवाद..!! ( <b>Jogendra Singh</b> )<br />
_____________________________________
::::: गुमशुदा की तलाश :::::
tag:openbooks.ning.com,2010-09-18:5170231:BlogPost:21214
2010-09-18T20:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446747?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
एक लड़की लापता है ...<br />
चिंताग्रस्त ...<br />
हड्डियों के ढाँचे सी दुबली ...<br />
सुना है घर से अकेली निकली है ...<br />
कहती है ज़माना बदलेगी ...<br />
<br />
दीवारों पर गुमशुदा का ...<br />
"प्रति" जी का इश्तिहार लगा है ...<br />
नाम छपा मानवता ...<br />
कोई कहे यथार्थवादी डाकू ...<br />
कोई कहे भौतिकता का डाकू ...<br />
उठा ले गया उसे ...<br />
<br />
लिखा है गुमशुदा के पोस्टर में ...<br />
किसी सज्जन को मिले तो ले आना ...<br />
मैं बोला भईया ...<br />
सज्जन हैं कहाँ अब ...<br />
जो पहले ही गुशुदा है ...<br />
उसी से काहे गुहार लगा बैठे ...<br />
काहे गलत…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446747?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
एक लड़की लापता है ...<br />
चिंताग्रस्त ...<br />
हड्डियों के ढाँचे सी दुबली ...<br />
सुना है घर से अकेली निकली है ...<br />
कहती है ज़माना बदलेगी ...<br />
<br />
दीवारों पर गुमशुदा का ...<br />
"प्रति" जी का इश्तिहार लगा है ...<br />
नाम छपा मानवता ...<br />
कोई कहे यथार्थवादी डाकू ...<br />
कोई कहे भौतिकता का डाकू ...<br />
उठा ले गया उसे ...<br />
<br />
लिखा है गुमशुदा के पोस्टर में ...<br />
किसी सज्जन को मिले तो ले आना ...<br />
मैं बोला भईया ...<br />
सज्जन हैं कहाँ अब ...<br />
जो पहले ही गुशुदा है ...<br />
उसी से काहे गुहार लगा बैठे ...<br />
काहे गलत इश्तिहार लगा बैठे ...<br />
या यूँ कहें मीडिया का ...<br />
कारोबार बढ़ा बैठे ...<br />
<br />
मानवता नाम की चिरैया ...<br />
या लड़की जो भी कहो ...<br />
इस नए भौतिकतावादी दौर में ...<br />
लुप्तप्राय नहीं वरन ...<br />
दफ़न हो चुकी समझो ...<br />
और अब ...कौन नहीं जनता ?<br />
मुर्दे कभी लौट कर नहीं आते ... Copyright ©<br />
<br />
► <b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra singh</b> ( 18 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
<br />
<b>Photography by</b> : <b>Jogendra Singh</b> ( all pic's are in dist pic are taken by me.)<br />
___________________________________________<br />
(मेरी ऊपर वाली रचना प्रतिबिम्ब भईया की रचना से प्रेरित है...<br />
उनकी रचना नीचे दिए दे रहा हूँ ... आप देख सकते हैं ...)<br />
<br />
एक लड़की दुबली पतली<br />
चिन्ताओ से ग्रस्त,<br />
आयु कुछ हज़ार साल<br />
सत्यता का घुंघट निकाल<br />
घर से निकली<br />
नवयुग के इस मेले में<br />
लापता हो गई.<br />
एक सड़क है - आधुनिक सभ्यता<br />
वही से चली है<br />
उसका पता सुना है की<br />
नैतिकता के घोडे पर सवार<br />
भौतिकवाद के डाकू ने<br />
उसे उठाया है<br />
यदि किसी सज्जन को मिले<br />
तो घर पहुँचने का कष्ट करे<br />
लड़की का नाम " मानवता " है<br />
► ( प्रतिबिम्ब बडथ्वाल )<br />
<br />
<br />
► NOTE :- यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा.. (जोगी)<br />
▬► !!..धन्यवाद..!!
शेर या गीदड (एक व्यथा)
tag:openbooks.ning.com,2010-09-17:5170231:BlogPost:20542
2010-09-17T15:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446743?profile=original"></img></p>
आज कौन शेर है ... ?<br />
सब हैं गीदड ...और ...<br />
शेरनियों से शादी रचाए बैठे हैं ...<br />
वो गुर्राया करती हैं ...<br />
हम दुबके पड़े रहते हैं ...<br />
<br />
घर से निकल कर कैसे कह दूँ ?<br />
चौका-चूल्हा, बर्तन-भांडे ...<br />
थे कभी जो उनके हिस्से ...<br />
आते हैं अब मेरे हिस्से ...<br />
<br />
कोमला, निर्मला, सौंदर्या ...<br />
अबला, पीड़ित, कुचली, प्रताड़ित ...<br />
कितने ही उपमान पाए इन्होने ...<br />
सभी जानते हैं असलियत इनकी ...<br />
कौन चाहता लाँघ द्वार को ...<br />
हो जाये यह चर्चा आम ...<br />
<br />
देख-देख सूरत इनकी ...<br />
होते थे पुलकित…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446743?profile=original" alt=""/></p>
आज कौन शेर है ... ?<br />
सब हैं गीदड ...और ...<br />
शेरनियों से शादी रचाए बैठे हैं ...<br />
वो गुर्राया करती हैं ...<br />
हम दुबके पड़े रहते हैं ...<br />
<br />
घर से निकल कर कैसे कह दूँ ?<br />
चौका-चूल्हा, बर्तन-भांडे ...<br />
थे कभी जो उनके हिस्से ...<br />
आते हैं अब मेरे हिस्से ...<br />
<br />
कोमला, निर्मला, सौंदर्या ...<br />
अबला, पीड़ित, कुचली, प्रताड़ित ...<br />
कितने ही उपमान पाए इन्होने ...<br />
सभी जानते हैं असलियत इनकी ...<br />
कौन चाहता लाँघ द्वार को ...<br />
हो जाये यह चर्चा आम ...<br />
<br />
देख-देख सूरत इनकी ...<br />
होते थे पुलकित कभी ...<br />
सूरत वही पर सीरत नयी है ...<br />
मन वही इधर भी है ...<br />
नासपीटी बस दहशत नयी है ...<br />
जो होते थे कम्पायमान कभी ...<br />
कम्पित-भूकम्पित कर डाला उन्होंने ...<br />
<br />
कौन जाने अब क्या हो कल ...<br />
बन छिद्रान्वेषक ...<br />
अपनी नज़रों से ...<br />
गुजारेंगी हर पल ...<br />
<br />
गुजर गया जो ...<br />
वह रूप बदल फिर आयेगा ...<br />
पीटते-पीटते, पिटने लगे हैं ...<br />
है यह समय का पहिया भईया ...<br />
इसके वार से बचा न कोई ...<br />
बदल रहा यह दौर है ...<br />
छोड़ सजातीय विजातीय संग हैं ...<br />
बोलो भईया शेर-शेरनी कब होवेंगे संग ?<br />
<br />
► ...जोगेन्द्र सिंह ... Jogendra Singh ( 17 सितम्बर 2010 )<br />
<br />
▬► NOTE :- कृपया झूठी तारीफ कभी ना करिए.. यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
▬► !!..धन्यवाद..!!<br />
.
::::: हिंदी दिवस (क्या इस दिवस का नाम लेने भर की भी हैसियत है हमारी ?) :::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-09-14:5170231:BlogPost:19661
2010-09-14T08:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: center;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001447028?profile=original"></img></p>
::::: <b>हिंदी दिवस</b> :::::<br />
::::: (<b>क्या इस दिवस का नाम लेने भर की भी हैसियत है हमारी ?</b>) :::: ©<br />
<br />
हिंदी हिंदी हिंदी !!!<br />
► . . . आज सभी इस शब्द केपीछे पड़े हैं, जैसे शब्द न हुआ तरक्की पाने अथवा नाम कमाने का वायस हो गया l खुद के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में चाहेंगे और शोर ऐसा कि बिना हिंदी के जान निकल जाने वाली है l अरे मेरे बंधु यह दोगलापन किसलिए ? स्वयं को धोखा किस प्रकार दे लेते हैं हम ? किसी से बात करते समय खुद को अगर ऊँचे दर्जे पर स्थापित…
<p style="text-align: center;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001447028?profile=original" alt=""/></p>
::::: <b>हिंदी दिवस</b> :::::<br />
::::: (<b>क्या इस दिवस का नाम लेने भर की भी हैसियत है हमारी ?</b>) :::: ©<br />
<br />
हिंदी हिंदी हिंदी !!!<br />
► . . . आज सभी इस शब्द केपीछे पड़े हैं, जैसे शब्द न हुआ तरक्की पाने अथवा नाम कमाने का वायस हो गया l खुद के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में चाहेंगे और शोर ऐसा कि बिना हिंदी के जान निकल जाने वाली है l अरे मेरे बंधु यह दोगलापन किसलिए ? स्वयं को धोखा किस प्रकार दे लेते हैं हम ? किसी से बात करते समय खुद को अगर ऊँचे दर्जे पर स्थापित दर्शाना हो <b>तो इसी हिंदी का दामन जाने कब छूट जाता है, पता ही नहीं चलता</b> l उस वक्त टूटी-फूटी या साबुत जैसी भी सही परन्तु हिंदी के कथित ये गीतकार महानुभाव बोलेंगे बस अंग्रेजी में ही l कहाँ गुल हो जाता है तब उनका हिंदी प्रेम ? अनायास ही ऐसा क्या हो जाता है कि <b>जो आज प्रेयसी है वह तत्क्षण ही अपना दर्ज़ा खो बैठती है</b> ?<br />
<br />
► . . . हम यह भरोसा कब दिला पाएंगे स्वयं को कि भाषा जो चीनी भाषा के बाद <b>दूसरे नंबर पर विश्व में सर्वाधिक रूप से बोली जाती है</b> वह अपने ही उद्गम स्थल पर दोयम दर्जेदार नहीं वरन अपने आप में एक सशक्त अभिव्यक्तिदार भाषा है l<br />
<br />
► . . . ज़रूरत यह नहीं कि वर्ष में एक बार कुछ हो-हल्ला मचा कर या नारेबाजी द्वारा हिंदी की आरती बाँच ली जाये और इसे ही इति समझ लिया जाये, वरन <b>आवश्यकता है कुछ यथार्थवादी कदम उठाये जाने की</b> जिन्हें कोई उठाना नहीं चाहता l <b>कौन करे कुछ जब परायी भाषा से रोटी मिल जाती है ?</b> हमें पड़ी ही क्या है, कहकर पल्ला झाड लिया जाता है l कहाँ कुछ फर्क पड़ जाने वाला है ?<br />
<br />
► . . . यही सोच लिए, जिए और मरे जाओ l हिंदी उत्थान के नाम पर सारे देश में जाने कितने सरकारी गैर-सरकारी संसथान स्थापित हैं जो अपने कर्मचारियों के घर की <b>रोज़ी-रोटी का जरिया</b> बने हुए हैं l परन्तु क्या कभी किसी ने यह देखने की कोशिश की है कि इस सारे खटराग के बाद भी <b>हिंदी का वास्तविक विकास</b> कितना और किस स्तर तक हो पाया है ? आवश्यकता है स्वयं का <b>आत्मविश्लेषण</b> किये जाने की, यह देखे जाने की, कि असल में हम हैं कहाँ ?<br />
<br />
► . . . जिस विस्तृत पैमाने पर हिंदी बोली जाती है, इस सम्भावना को देख-समझ विदेशियों ने अपने यहाँ कोर्स खोल रखे हैं l अभी हाल के कुछ महीनों में अमेरिका ने अपने कॉलेजों में हिंदी विभाग भी शामिल किया था, ताकि वे लोग इस भाषा से लाभ उठा सकें l एक बस हम ही हैं जो वैश्विक स्तर पर अपनी महत्ता को नहीं समझ पा रहे हैं l यदि हम चाहें तो इतनी मजबूत स्थिति में तो हम हैं ही कि किसी भी अन्य देश को अपनी भाषा के बल पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दें, परन्तु आज भी शायद मानसिक स्तर पर हम अंग्रेजों के गुलाम ही हैं, जो उनके जाने के बाद भी उनकी सभ्यता-संस्कृति और भाषा तक को एक अच्छे और सच्चे आज्ञाकारी एवं ईमानदार ज़र-खरीद गुलाम की हैसियत से ढोये जा रहे हैं l मैं तो कहता हूँ मिलकर सब बोलो मेरे साथ "<b>लौंग लिव द किंग - लौंग लिव द किंगडम</b>" l<br />
<br />
► . . . कुछ होगा ज़रूर मगर शोर मचने भर से नहीं बल्कि अपनी मानसिकता बदलने से होगा l<br />
<br />
► . . . जय हिंद ll और अगर जाग गए तो जय हिंदी तो हम कर ही लेंगे ll<br />
<br />
► ► ► ► ► <b>जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh</b> ( 14 सितम्बर 2010 )<br />
.
::::: चाँद की चाहत ::::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-09-05:5170231:BlogPost:18397
2010-09-05T17:00:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446935?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©<br />
The little girl in dis pictire is my daughter "Jhalak"..<br />
<br />
::::: चाँद की चाहत ::::: Copyright © (मेरी नयी शायरी)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 08 अगस्त 2010 )<br />
<br />
▬► NOTE :- कृपया झूठी तारीफ कभी ना करिए.. यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
▬► !!..धन्यवाद..!!<br />
.
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446935?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©<br />
The little girl in dis pictire is my daughter "Jhalak"..<br />
<br />
::::: चाँद की चाहत ::::: Copyright © (मेरी नयी शायरी)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 08 अगस्त 2010 )<br />
<br />
▬► NOTE :- कृपया झूठी तारीफ कभी ना करिए.. यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
▬► !!..धन्यवाद..!!<br />
.
::::: मैं एक हर्फ़ हूँ ::::: Copyright ©
tag:openbooks.ning.com,2010-09-05:5170231:BlogPost:18387
2010-09-05T16:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001447037?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
.<br />
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©<br />
<br />
::::: मैं एक हर्फ़ हूँ ::::: Copyright © (मेरी नयी कविता)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 09 अगस्त 2010 )<br />
<br />
मेरे मित्र आर.बी. की लिखी एक रचना जो नीचे ब्रैकेट्स में लिखी है से प्रेरित होकर मैंने अपनी रचना रची है..<br />
आर.बी. की मूल रचना नीचे है आप देख सकते हैं ► ► ►<br />
((hum dono jo harf hain....<br />
hum ek roz mile....<br />
ek lafz bana...<br />
aur humne ek maane paaye,...<br />
phir jaane kya hum per guzri ....<br />
aur..<br />
ab yun hain....<br />
tum ek…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001447037?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
.<br />
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©<br />
<br />
::::: मैं एक हर्फ़ हूँ ::::: Copyright © (मेरी नयी कविता)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 09 अगस्त 2010 )<br />
<br />
मेरे मित्र आर.बी. की लिखी एक रचना जो नीचे ब्रैकेट्स में लिखी है से प्रेरित होकर मैंने अपनी रचना रची है..<br />
आर.बी. की मूल रचना नीचे है आप देख सकते हैं ► ► ►<br />
((hum dono jo harf hain....<br />
hum ek roz mile....<br />
ek lafz bana...<br />
aur humne ek maane paaye,...<br />
phir jaane kya hum per guzri ....<br />
aur..<br />
ab yun hain....<br />
tum ek harf ho ek khaane mein ....<br />
main ek harf hoon ek khaane mein ....<br />
beech mein kitne lamhoN ke khaane khaali hain......<br />
phir se koi lafz bane.....<br />
aur hum dono ek maane paayeiN ......<br />
aesa ho sakta hai...<br />
lekin.....<br />
sochnaa hogaa...<br />
in khaali khaanoN Mein humeiN bharnaa kya hai... ► आर.बी.))<br />
<br />
▬► NOTE :- कृपया झूठी तारीफ कभी ना करिए.. यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
▬► !!..धन्यवाद..!!<br />
.
::::: हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं ::::: ©
tag:openbooks.ning.com,2010-08-27:5170231:BlogPost:18385
2010-08-27T16:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001447006?profile=original"></img></p>
<br />
► Photography by : Jogendra Singh ( all the photographs in this picture are taken by me ) ©<br />
<br />
::::: हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं ::::: © (मेरी नयी कविता)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 27 अगस्त 2010 )<br />
Note :- ऊपर एक पंक्ति चित्र के नीचे दब गयी है उसे यहाँ पूरा लिखे दे रहा हूँ ►<br />
►►►<br />
"क्षितिज रेखा से झाँकना सूरज का ...<br />
छिटका रहा है सूरज ...<br />
रक्तिम बसंती आभा ..."<br />
►►► शब्द सुधार --> गदर्भ = गर्दभ<br />
<br />
► NOTE :- यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001447006?profile=original" alt=""/></p>
<br />
► Photography by : Jogendra Singh ( all the photographs in this picture are taken by me ) ©<br />
<br />
::::: हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं ::::: © (मेरी नयी कविता)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 27 अगस्त 2010 )<br />
Note :- ऊपर एक पंक्ति चित्र के नीचे दब गयी है उसे यहाँ पूरा लिखे दे रहा हूँ ►<br />
►►►<br />
"क्षितिज रेखा से झाँकना सूरज का ...<br />
छिटका रहा है सूरज ...<br />
रक्तिम बसंती आभा ..."<br />
►►► शब्द सुधार --> गदर्भ = गर्दभ<br />
<br />
► NOTE :- यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
▬► !!..धन्यवाद..!!<br />
<br />
((इस कविता की प्रेरणा प्रतिबिम्ब भैय्या की रचना "हाँ मैं अकेला हूँ" से मिली है ...<br />
जिस पंक्ति ने मुझे यह कविता लिखने को प्रेरित किया वह है ►<br />
"अब मै निसहाय मौन खडा हूँ, सूख गई है काया" ))<br />
.
अंकुरण
tag:openbooks.ning.com,2010-08-26:5170231:BlogPost:16578
2010-08-26T17:30:00.000Z
Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह
https://openbooks.ning.com/profile/JogendraSingh
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001445949?profile=RESIZE_1024x1024" width="721"></img></p>
<br />
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©<br />
<br />
::::: अंकुरण ::::: Copyright © (मेरी नयी कविता)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 10 अगस्त 2010 )<br />
<br />
(सामान्य जीवन में अच्छे या बुरे का चरम बहुधा नहीं हुआ करता है.. परन्तु यह भी तो देखिये कि यहाँ मानव मन को अभिव्यक्त किया गया है, जिसकी सोचों का कोई पारावार नहीं होता.. जितना सोच जाये वही कम है.. सीमा बंधन सोचों के लिए बने ही नहीं हैं.. फिर लिखते वक्त मेरे मन में अपने मित्र सी हुई बातचीत थी जिसमे मैंने कहा था कि परस्पर…
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001445949?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>
<br />
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©<br />
<br />
::::: अंकुरण ::::: Copyright © (मेरी नयी कविता)<br />
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 10 अगस्त 2010 )<br />
<br />
(सामान्य जीवन में अच्छे या बुरे का चरम बहुधा नहीं हुआ करता है.. परन्तु यह भी तो देखिये कि यहाँ मानव मन को अभिव्यक्त किया गया है, जिसकी सोचों का कोई पारावार नहीं होता.. जितना सोच जाये वही कम है.. सीमा बंधन सोचों के लिए बने ही नहीं हैं.. फिर लिखते वक्त मेरे मन में अपने मित्र सी हुई बातचीत थी जिसमे मैंने कहा था कि परस्पर दो विपरीत सोचों वाले लोग किस तरह एक दुसरे से आकर्षित हो लेते हैं, और होने पर जुड़े भी कैसे रह लेते हैं.. तत्पश्चात उसी के आगे पीछे जो विचार मन में आते गए, बस उन्ही को लिखता गया..)<br />
<br />
▬► हिंदी रचनाओं के क्षेत्र में एक अदना सा प्रयास है.. कोशिश यह भी रहती है कि समाज में कुछ बदल पाए.. कभी-कभी व्यक्तिगत भाव भी ज़गह पा जाते हैं..<br />
<br />
▬► NOTE :- कृपया झूठी तारीफ कभी ना करिए.. यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..<br />
▬► !!..धन्यवाद..!!<br />
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