Om Prakash Agrawal's Posts - Open Books Online2024-03-29T13:53:11ZOm Prakash Agrawalhttps://openbooks.ning.com/profile/OmPrakashAgrawalhttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/4507047380?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=2qr6581w20c4c&xn_auth=noग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2020-05-15:5170231:BlogPost:10075162020-05-15T06:36:40.000ZOm Prakash Agrawalhttps://openbooks.ning.com/profile/OmPrakashAgrawal
2212 1212 2212 1212<br />
<br />
यूँ तो ये माहेरीन हैं मशहूर हैं ज़हीन हैं<br />
फिर रगड़ें क्यों ज़मीन में कुर्सी को ये जबीन हैं<br />
<br />
<br />
संसार है विचित्र यह नाकाम कामयाब सब<br />
जो माहिर और ज़हीन हैं वह आज दीनहीन हैं<br />
<br />
<br />
हर बात में है नुक़्ताचीं सर गर्मियों में है ख़लल<br />
अक्सर ज़हीन लोग ही नाक़ाबिल-ए-यक़ीन हैं<br />
<br />
<br />
बंदिश हज़ार थोप दीं तुम ये करो न वो करो<br />
क्यों लड़कियां समाज में समझी गयीं रहीन हैं<br />
<br />
<br />
जम्हूरियत तो नाम है चलता है हुक्म शाहों का<br />
सब ऊंचे ऊंचे ओहदों पे इनके लवाहिक़ीन हैं<br />
<br />
<br />
सब हुक्मरां हैं जेब में ज़ालिम खुले में घूमते<br />
जो ज़ुल्म हों…
2212 1212 2212 1212<br />
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यूँ तो ये माहेरीन हैं मशहूर हैं ज़हीन हैं<br />
फिर रगड़ें क्यों ज़मीन में कुर्सी को ये जबीन हैं<br />
<br />
<br />
संसार है विचित्र यह नाकाम कामयाब सब<br />
जो माहिर और ज़हीन हैं वह आज दीनहीन हैं<br />
<br />
<br />
हर बात में है नुक़्ताचीं सर गर्मियों में है ख़लल<br />
अक्सर ज़हीन लोग ही नाक़ाबिल-ए-यक़ीन हैं<br />
<br />
<br />
बंदिश हज़ार थोप दीं तुम ये करो न वो करो<br />
क्यों लड़कियां समाज में समझी गयीं रहीन हैं<br />
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<br />
जम्हूरियत तो नाम है चलता है हुक्म शाहों का<br />
सब ऊंचे ऊंचे ओहदों पे इनके लवाहिक़ीन हैं<br />
<br />
<br />
सब हुक्मरां हैं जेब में ज़ालिम खुले में घूमते<br />
जो ज़ुल्म हों रिआया पे राजा तमाशबीन हैं<br />
<br />
<br />
सर पर न सायबाने हैं खानाबदोश ज़िंदगी<br />
अपने वतन में रह के भी हम क्यों मुहाजिरीन हैं<br />
<br />
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होती सियासत आजकल 'नोटों' के रंग रूप पर<br />
नीले मिले यसार हैं पीले मिले यमीन हैं<br />
<br />
<br />
ताउम्र दिल दिया नहीं वापस वो आज माँगते<br />
आए जनाज़े में मेरे कितने मुनाफ़िक़ीन हैं<br />
<br />
<br />
आए थे ख़्वाब में अभी बोसा लिया ओ चल दिये<br />
अब तक हैं शीरीं लब मेरे लब उनके अंगबीन हैं<br />
<br />
<br />
तुझसे मिले ख़ुशी हुई पर थी उदासी भी 'क़दम'<br />
तू सुबोह सुबोह जाएगा तेरे बयां मुबीन हैं<br />
<br />
<br />
माहेरीन...माहिर का बहुवचन<br />
रहीन...गिरवी<br />
लवाहिक़ीन... सगे संबंधी, निजी<br />
मुहाजिरीन ..शरणार्थी<br />
यसार..बाएं<br />
यमीन..दाहिने<br />
मुनाफ़िक़ीन..पाखंडी, ढौंगी<br />
मुबीन..स्पष्ट<br />
<br />
क़दम जयपुरी<br />
जयपुर<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2020-05-11:5170231:BlogPost:10062622020-05-11T06:34:03.000ZOm Prakash Agrawalhttps://openbooks.ning.com/profile/OmPrakashAgrawal
2122 1212 22 /112<br />
<br />
सिर्फ़ कुर्सी का रास्ता हूँ मैं<br />
यूं रियाया का रहनुमा हूं मैं<br />
<br />
आदमी हूं अना है ग़ैरत है<br />
फिर भी वक़्त आने पर बिका हूं मैं<br />
<br />
रसन-ए-जोर-ओ-ज़ुल्म इतनी चली<br />
रह गया ढांचा घिस गया हूं मैं<br />
<br />
जश्न-ए-आज़ादी हूं मैं कैसे कहूँ<br />
लगता है जैसे हादसा हूँ मैं<br />
<br />
तोड़ पत्थर में बन गया पत्थर<br />
अलविदा ख़ाब कह चुका हूं मैं<br />
<br />
मुफ़लिसी का न ज़ात-ओ-मज़हब है<br />
ये अगर कह दूं तो बुरा हूं मैं<br />
<br />
जेब मुफ़लिस की.. दिल अमीरों का<br />
ये न भरती कि थक गया हूं मैं<br />
<br />
हुस्न के जल्वे देख देख अभी<br />
कोई मंज़र हसीं बना हूं मैं<br />
<br />
छोड़ ख़्वाब-ए-सियासत…
2122 1212 22 /112<br />
<br />
सिर्फ़ कुर्सी का रास्ता हूँ मैं<br />
यूं रियाया का रहनुमा हूं मैं<br />
<br />
आदमी हूं अना है ग़ैरत है<br />
फिर भी वक़्त आने पर बिका हूं मैं<br />
<br />
रसन-ए-जोर-ओ-ज़ुल्म इतनी चली<br />
रह गया ढांचा घिस गया हूं मैं<br />
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जश्न-ए-आज़ादी हूं मैं कैसे कहूँ<br />
लगता है जैसे हादसा हूँ मैं<br />
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तोड़ पत्थर में बन गया पत्थर<br />
अलविदा ख़ाब कह चुका हूं मैं<br />
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मुफ़लिसी का न ज़ात-ओ-मज़हब है<br />
ये अगर कह दूं तो बुरा हूं मैं<br />
<br />
जेब मुफ़लिस की.. दिल अमीरों का<br />
ये न भरती कि थक गया हूं मैं<br />
<br />
हुस्न के जल्वे देख देख अभी<br />
कोई मंज़र हसीं बना हूं मैं<br />
<br />
छोड़ ख़्वाब-ए-सियासत अब तो 'क़दम'<br />
जिससे चाहा न मिल सका हूं मैं<br />
<br />
क़दम जयपुरी<br />
जयपुर<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाग़ज़ल (मातृ दिवस पर विशेष)tag:openbooks.ning.com,2020-05-10:5170231:BlogPost:10061662020-05-10T13:00:00.000ZOm Prakash Agrawalhttps://openbooks.ning.com/profile/OmPrakashAgrawal
<p>2122 2122 2122 212<br></br> <br></br>ख़ुद रही भूकी मुझे जी भर खिलाना याद है<br></br> मुफ़लिसी में टाट का 'स्वेटर' बनाना याद है<br></br><br></br> इम्तिहां कोई भी हो आशीष देती थी सदा<br></br> मां का हाथों से दही चीनी खिलाना याद है<br></br><br></br> एक मुर्शिद की तरह से हाथ सर पर फेरती<br></br> मैंने क्या कीं ग़लतियां इक इक गिनाना याद है<br></br><br></br> पाठशाला हम न जाएंगे ये ज़िद जब हमने की<br></br> पकड़े कान और खींच कर बस्ता थमाना याद है<br></br><br></br> बद-नज़र से दूर रखना था सियह टीका लगा<br></br> जो हरारत थोड़ी भी हो सहम जाना याद है<br></br><br></br> माँ सा तो…</p>
<p>2122 2122 2122 212<br/> <br/>ख़ुद रही भूकी मुझे जी भर खिलाना याद है<br/> मुफ़लिसी में टाट का 'स्वेटर' बनाना याद है<br/><br/> इम्तिहां कोई भी हो आशीष देती थी सदा<br/> मां का हाथों से दही चीनी खिलाना याद है<br/><br/> एक मुर्शिद की तरह से हाथ सर पर फेरती<br/> मैंने क्या कीं ग़लतियां इक इक गिनाना याद है<br/><br/> पाठशाला हम न जाएंगे ये ज़िद जब हमने की<br/> पकड़े कान और खींच कर बस्ता थमाना याद है<br/><br/> बद-नज़र से दूर रखना था सियह टीका लगा<br/> जो हरारत थोड़ी भी हो सहम जाना याद है<br/><br/> माँ सा तो मुश्क़िल कुशा मिल ही न पाया अब तलक<br/> वालिहाना देना पंद-ए-मुश्फ़िक़ाना याद है<br/><br/> अब सिवा यादों के तेरी है 'क़दम' के पास क्या<br/> जो नसीहत दीं अमल में मुझको लाना याद है<br/><br/> मुश्क़िल कुशा ..मुश्क़िल दूर करने वाला<br/> वालिहाना..प्रेम से<br/> पंद-ए-मुश्फ़िक़ाना....स्नेहिल सलाह या दिशा निर्देश<br/> <br/> <br/> क़दम जयपुरी<br/> जयपुर<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित रचना</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2020-05-07:5170231:BlogPost:10060182020-05-07T15:00:00.000ZOm Prakash Agrawalhttps://openbooks.ning.com/profile/OmPrakashAgrawal
<p>सिवाय मंज़िल-ए-मक़्सूद गर क़िफ़ा होगी<br></br> मसाफ़त उम्र भर अपनी तो बे-जज़ा होगी</p>
<p></p>
<p>मरीज़-ए-इश्क़ हैं चारागरी भी कीजे जनाब<br></br> दवा-ए-क़ुरबत-ए-जानां से ही शिफ़ा होगी</p>
<p></p>
<p>चला हूँ जानिब-ए-कूचा-ए-यार उमीद लिये<br></br> सलाम आख़िरी होगा या इब्तिदा होगी</p>
<p></p>
<p>हमारे रिश्ते के उक़्दे खुले नहीं अब तक<br></br> लगी जो गिरह-ए-शक़-ओ-शुबह दोख़्ता होगी</p>
<p></p>
<p>हुआ तलत्तुफ़-ए-ख़ैरात -ए-आमिर आज ही क्यों<br></br> ज़रूर ख़ूं-ओ-पसीने की इक़्तिज़ा होगी</p>
<p></p>
<p>ज़रूर होंगें फ़साहत पे सामयीं मसहूर…<br></br></p>
<p>सिवाय मंज़िल-ए-मक़्सूद गर क़िफ़ा होगी<br/> मसाफ़त उम्र भर अपनी तो बे-जज़ा होगी</p>
<p></p>
<p>मरीज़-ए-इश्क़ हैं चारागरी भी कीजे जनाब<br/> दवा-ए-क़ुरबत-ए-जानां से ही शिफ़ा होगी</p>
<p></p>
<p>चला हूँ जानिब-ए-कूचा-ए-यार उमीद लिये<br/> सलाम आख़िरी होगा या इब्तिदा होगी</p>
<p></p>
<p>हमारे रिश्ते के उक़्दे खुले नहीं अब तक<br/> लगी जो गिरह-ए-शक़-ओ-शुबह दोख़्ता होगी</p>
<p></p>
<p>हुआ तलत्तुफ़-ए-ख़ैरात -ए-आमिर आज ही क्यों<br/> ज़रूर ख़ूं-ओ-पसीने की इक़्तिज़ा होगी</p>
<p></p>
<p>ज़रूर होंगें फ़साहत पे सामयीं मसहूर<br/> नक़ाब ओढ़े हसीं जब ग़ज़लसरा होगी</p>
<p></p>
<p>ख़बर न ख़ुद की न दुनिया की मुझको तेरे सिवा<br/> मेरी तरह तू तसव्वुर में मुब्तिला होगी</p>
<p></p>
<p>बदलती फितरत-ए-इंसान मौसमों की तरह<br/> मक़ाम हो वहीं माइल जिधर हवा होगी</p>
<p></p>
<p>जो ख़ुदपरस्ती ही बुनियाद -ए-दोस्ती हो क़दम<br/> सिलाई आस्तीं की कुछ बढ़ा चढ़ा होगी</p>
<p></p>
<p>ओमप्रकाश अग्रवाल<br/> (क़दम जयपुरी)<br/> जयपुर</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>