Sanjeev sameer's Posts - Open Books Online2024-03-29T15:18:29Zsanjeev sameerhttps://openbooks.ning.com/profile/sanjeevsameerhttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991274556?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=2l6pwhbg3xm3y&xn_auth=noपानी के इस्तेमाल से कोडरमा के कई गांवों में दर्जनों लोग हुए विकलांगtag:openbooks.ning.com,2010-12-27:5170231:BlogPost:431782010-12-27T16:38:51.000Zsanjeev sameerhttps://openbooks.ning.com/profile/sanjeevsameer
<strong><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001456722?profile=original" target="_self"><img class="align-right" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001456722?profile=original" width="200"></img></a></strong> झारखंड बिहार की सीमा पर बसे कोडरमा जिले के कुछ गांव ऐसे हैं जहां पानी के इस्तेमाल से बच्चे और बडे विकलांग हो रहे हैं। ये बदनसीब ऐसे कि पानी का घूंट लेते वक्त उनके हाथ-पैर कांपते हैं। इन गांवों में बडे भी खुद कब की लाठी थामे हैं, अब बच्चों को बैसाखियों के सहारे जिंदगी ढोते देख रहे हैं। कोडरमा घाटी में बसे गाव मेघातरी, उससे सटे विष्नीटिकर और करहरिया को विकास का…
<strong><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001456722?profile=original"><img width="200" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001456722?profile=original" class="align-right"/></a></strong>झारखंड बिहार की सीमा पर बसे कोडरमा जिले के कुछ गांव ऐसे हैं जहां पानी के इस्तेमाल से बच्चे और बडे विकलांग हो रहे हैं। ये बदनसीब ऐसे कि पानी का घूंट लेते वक्त उनके हाथ-पैर कांपते हैं। इन गांवों में बडे भी खुद कब की लाठी थामे हैं, अब बच्चों को बैसाखियों के सहारे जिंदगी ढोते देख रहे हैं। कोडरमा घाटी में बसे गाव मेघातरी, उससे सटे विष्नीटिकर और करहरिया को विकास का मुखौटा तो मिल गया, हाल ही में बिजली भी पहुंची लेकिन सालों पुराने फ्लोराइड की अधिकता का अभिशाप आज यहां जनजीवन पर कुंडली मारे बैठा है। आलम यह है कि गाव के दर्जनों बच्चे और बुजुर्ग विकलाग हो चुके हैं। कुछ पढ़े-लिखे ग्रामीणों ने यह दर्द प्रशासन तक पहुंचाया पर कोई परिणाम नहीं निकला। बैसाखी पर लटके युवाओं और बच्चों को देखकर इनका दिल रोता है। गाव छोड़कर शहर में बसना चाहते हैं, लेकिन आर्थिक मजबूरियों की बेड़िया कहीं ज्यादा मजबूत हैं। जिला मुख्यालय कोडरमा से सिर्फ 18 किलोमीटर दूर मेघातरी पंचायत की आबादी करीब ढाई हजार है। पहले जब यहां काफा मात्रा में माइका निकलता था तब क्षयरोग से युवावस्था में ही लोगों की मौत हो जाने से बडी संख्या में महिलाओं के विधवा हो गयी थीं और इसे विधवाओं की बस्ती कहा जाने लगा। अब यहां जल में फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा होने के कारण एक के बाद एक ग्रामीण विकलाग होते जा रहे हैं और तीन साल के बच्चों तक के शरीर विकृत हो चुके हैं। पानी की सुविधा के लिए गाव में कई चापानल भी लगाये गये पर स्थिति नहीं सुधरी और नये नये मामले सामने आते रहे हैं। गाव में रहने वाले 28 साल के कुन्दन कहते हैं दो साल पहले अचानक स्थिति बिगडी जिसके बाद कई जगहों पर इलाज करवाया पर ठीक नहीं हो सका। मेघातरी में सत्येन्द्र सागर सिंह का 11 वर्षीय पुत्र रीतिक, जगदीष प्रसाद का 4 वर्षीय पुत्र राजू, सरयू साव का 6 वर्षीय पुत्र दिवाकर पैरों से विकलांग हो चुके हैं। इसी प्रकार करहरिया में जितेन्द्र (13 वर्ष, पिता लक्ष्मण सिंह), संगीता कुमारी (6 वर्ष, पिता विजय सिंह), झलवा (13 वर्ष, पिता स्व. सरयू सिंह), बसंती (12 वर्ष, पिता जेठू सिंह), बिरेन्द्र सिंह (13 वर्ष, पिता कैलू सिंह) भी विकलांगता के अभिषाप से ग्रस्त हैं। बिरेन्द्र की पत्नी सूनीता और लक्ष्मण सिंह की पत्नी लीलवा देवी भी विकलांग हो चुकी है। 13 साल के जितेन्द्र का पैर भी मुड़ चुका है और आज वह लाठी के सहारे चलता है। सामाजिक कार्यकर्ता और मेघातरी निवासी सत्येन्द्र सिंह सागर ने पानी के कारण बच्चों के विकलांग होने की जानकारी सरकारी स्तर पर विभाग को और उच्चाधिकारियों को इसकी जानकारी दी पर अब तक कोई कार्यवाई नहीं हुई। ऐसे में यहां के बच्चे पानी के कारण विकलांग होने और लाठी का सहारा लेने को अभिषप्त हैं।सोचना जरूरी हैtag:openbooks.ning.com,2010-12-26:5170231:BlogPost:429022010-12-26T06:59:26.000Zsanjeev sameerhttps://openbooks.ning.com/profile/sanjeevsameer
ऐसे समय में<br></br>जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है<br></br>बाजार हो रहा है हावी<br></br>और आदमी बिक रहा है<br></br>कैसी बच सकेगी आदमियत<br></br>यह सोचना जरूरी है।<br></br><br></br>टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें<br></br>हकीकत नहीं है<br></br>और न ही पेज 3 पर के चेहरे<br></br>आज भी बच्चे <br></br>दो जून की रोटी के लिये <br></br>चुनते हैं कचरे<br></br>और करते हैं बूट पालिष<br></br>अरमानों को संजोये <br></br>हजारों लडकियां <br></br>पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में<br></br>और यही हकीकत है।<br></br><br></br>पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है<br></br>जब बाजार हो रहा है…
ऐसे समय में<br/>जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है<br/>बाजार हो रहा है हावी<br/>और आदमी बिक रहा है<br/>कैसी बच सकेगी आदमियत<br/>यह सोचना जरूरी है।<br/><br/>टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें<br/>हकीकत नहीं है<br/>और न ही पेज 3 पर के चेहरे<br/>आज भी बच्चे <br/>दो जून की रोटी के लिये <br/>चुनते हैं कचरे<br/>और करते हैं बूट पालिष<br/>अरमानों को संजोये <br/>हजारों लडकियां <br/>पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में<br/>और यही हकीकत है।<br/><br/>पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है<br/>जब बाजार हो रहा है हावी<br/>तो इनकी <br/>किसी को भी फिक्र नहीं है<br/>बावजूद इसके<br/>जब हमें बचना है<br/>आदमियत को बचाना है<br/>तो इसपर सोचना जरूरी है।कुछ दिनो सेtag:openbooks.ning.com,2010-12-26:5170231:BlogPost:428982010-12-26T06:56:17.000Zsanjeev sameerhttps://openbooks.ning.com/profile/sanjeevsameer
<strong>कुछ दिनो से</strong><br></br><strong>ये शहर लगता उदास है</strong><br></br><strong>उपर से शान्त पर</strong><br></br><strong>अन्दर से बना आग है.</strong><br></br><strong>कुछ दिनो से</strong><br></br><strong>सान्झ होते ही</strong><br></br><strong>खिडकिया और दरवाजे</strong> <br></br><strong>हो जाते है बन्द</strong><br></br><strong>और लोग अपने ही घरो मे</strong><br></br><strong>होकर रह जाते है कैद.</strong><br></br><strong>कुछ दिनो से</strong><br></br><strong>लगता ही नही कि</strong><br></br><strong>रहता है यहा कोई आदमी…</strong>
<strong>कुछ दिनो से</strong><br/><strong>ये शहर लगता उदास है</strong><br/><strong>उपर से शान्त पर</strong><br/><strong>अन्दर से बना आग है.</strong><br/><strong>कुछ दिनो से</strong><br/><strong>सान्झ होते ही</strong><br/><strong>खिडकिया और दरवाजे</strong> <br/><strong>हो जाते है बन्द</strong><br/><strong>और लोग अपने ही घरो मे</strong><br/><strong>होकर रह जाते है कैद.</strong><br/><strong>कुछ दिनो से</strong><br/><strong>लगता ही नही कि</strong><br/><strong>रहता है यहा कोई आदमी भी</strong><br/><strong>चारो ओर होती है खामोशी</strong><br/><strong>और खामोशी के दौर मे</strong> <br/><strong>हवा का शोर होता है.</strong><br/><strong>कुछ दिनो से</strong><br/><strong>इस शहर मे</strong> <br/><strong>चलती हवा ऐसी है</strong><br/><strong>कि घुटन लगती है</strong><br/><strong>चारो ओर अजीब सी</strong> <br/><strong>गन्ध मिलती है.</strong><br/><strong>कुछ रोज से ये शहर</strong><br/><strong>लगता विरान है</strong><br/><strong>चन्द दिनो पहले जो घर था</strong><br/><strong>अब लगता सिर्फ मकान है.</strong>हम इंतजार करते हैंtag:openbooks.ning.com,2010-12-26:5170231:BlogPost:428972010-12-26T06:52:29.000Zsanjeev sameerhttps://openbooks.ning.com/profile/sanjeevsameer
कभी कोई अनजाना <br/>अपना हो जाता है. <br/>कभी किसी से <br/>प्यार हो जाता है. <br/>ये जरूरी नहीं <br/>कि जो खुशी दे <br/>उसी से प्यार हो. <br/>दिल तोडने वाले से भी <br/>प्यार हो जाता है. <br/>जिन्दगी हर कदम पर <br/>इम्तिहान लेती है, <br/>तन्हाई हर मोड पर <br/>धोखा देती है. <br/>फिर भी हम <br/>जिन्दगी से प्यार करते हैं <br/>क्यूंकि हम किसी का <br/>इंतजार करते हैं. <br/>कुछ दोस्तों का <br/>हां दोस्तों का <br/>इंतजार करते हैं.
कभी कोई अनजाना <br/>अपना हो जाता है. <br/>कभी किसी से <br/>प्यार हो जाता है. <br/>ये जरूरी नहीं <br/>कि जो खुशी दे <br/>उसी से प्यार हो. <br/>दिल तोडने वाले से भी <br/>प्यार हो जाता है. <br/>जिन्दगी हर कदम पर <br/>इम्तिहान लेती है, <br/>तन्हाई हर मोड पर <br/>धोखा देती है. <br/>फिर भी हम <br/>जिन्दगी से प्यार करते हैं <br/>क्यूंकि हम किसी का <br/>इंतजार करते हैं. <br/>कुछ दोस्तों का <br/>हां दोस्तों का <br/>इंतजार करते हैं.