Sudhir Sharma's Posts - Open Books Online2024-03-28T13:43:15ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharmahttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991276719?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=13wzpwm18g0w7&xn_auth=noहोलीtag:openbooks.ning.com,2011-03-19:5170231:BlogPost:625072011-03-19T12:22:00.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
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<h6 class="uiStreamMessage"></h6>
<div class="text_exposed_root" id="id_4d849f8d80ea22526148133"><h6 class="uiStreamMessage"> यूकेलिप्टस से बाएं को मुडके...<br></br> सफ़ेद कुरते में निकला था दिन अकेला सा..<br></br> जेब में रख गुलाल की पुडिया..<br></br> गाल उसका छुआ था...हौले से...<br></br> सजा दिए थे सभी रंग एक ही पल में... नीले,पीले, गुलाबी और हरे..<br></br><span class="font-size-5"> और एक रंग गिर गया था वहीँ...</span><br></br><span class="font-size-5"> घर के बारामदे की चौखट…</span></h6>
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<h6 class="uiStreamMessage"></h6>
<div id="id_4d849f8d80ea22526148133" class="text_exposed_root"><h6 class="uiStreamMessage"> यूकेलिप्टस से बाएं को मुडके...<br/> सफ़ेद कुरते में निकला था दिन अकेला सा..<br/> जेब में रख गुलाल की पुडिया..<br/> गाल उसका छुआ था...हौले से...<br/> सजा दिए थे सभी रंग एक ही पल में... नीले,पीले, गुलाबी और हरे..<br/><span class="font-size-5"> और एक रंग गिर गया था वहीँ...</span><br/><span class="font-size-5"> घर के बारामदे की चौखट पर....</span><br/><span class="font-size-5"> हो सके तौ वो रंग लौटा दौ....</span><br/><span class="font-size-5"> `होली, बेरंग हुई जाती है....</span></h6>
</div>लिफ़ाफ़ाtag:openbooks.ning.com,2011-02-24:5170231:BlogPost:553922011-02-24T18:00:00.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
<p>नाम नहीं कोई पता नहीं है....</p>
<p>कोई भी पहचान नहीं है....<br/> जाने किस एक शख्स ने अपने,</p>
<p>सहमें सहमें जज्बातों को,<br/> बंद लिफाफे में रखकर के,</p>
<p>मेरे नाम से लिख भेजा है....<br/> काश के ऐसा कोई लिफाफा</p>
<p>आज से पंद्रह बरसों पहले,<br/> तुमने मुझको भेजा होता...</p>
<p>नाम नहीं कोई पता नहीं है....</p>
<p>कोई भी पहचान नहीं है....<br/> जाने किस एक शख्स ने अपने,</p>
<p>सहमें सहमें जज्बातों को,<br/> बंद लिफाफे में रखकर के,</p>
<p>मेरे नाम से लिख भेजा है....<br/> काश के ऐसा कोई लिफाफा</p>
<p>आज से पंद्रह बरसों पहले,<br/> तुमने मुझको भेजा होता...</p>ग्रीटिंगtag:openbooks.ning.com,2010-12-31:5170231:BlogPost:439882010-12-31T20:45:37.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
<h6 class="uiStreamMessage"><span class="font-size-3" style="font-family: georgia,palatino;"><strong>याद है जब एक साल तुम्हारा ग्रीटिंग मुझे नहीं पहुंचा था...<br></br>ग्रीटिंग जिसके भीतर मैं तुमको पढता था...<br></br>जिसके एक-एक हर्फ़ से अफ़साने गढ़ता था <a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454547?profile=original" target="_self"><img class="align-left" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454547?profile=RESIZE_320x320" width="245"></img></a> <br></br>बहुत पुरानी बात है वो भी नया साल था.......<br></br>कई दिनों तक रक्खी थीं उम्मीद होल्ड पर...<br></br>...आज भी बीता बरस सिराने जाता…</strong></span></h6>
<h6 class="uiStreamMessage"><span class="font-size-3" style="font-family: georgia,palatino;"><strong>याद है जब एक साल तुम्हारा ग्रीटिंग मुझे नहीं पहुंचा था...<br/>ग्रीटिंग जिसके भीतर मैं तुमको पढता था...<br/>जिसके एक-एक हर्फ़ से अफ़साने गढ़ता था <a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454547?profile=original"><img width="245" class="align-left" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001454547?profile=RESIZE_320x320" width="245"/></a><br/>बहुत पुरानी बात है वो भी नया साल था.......<br/>कई दिनों तक रक्खी थीं उम्मीद होल्ड पर...<br/>...आज भी बीता बरस सिराने जाता हूँ....<br/>आज भी रूठा हुआ साल, हर साल मनाता हूँ........</strong></span></h6>रात..........tag:openbooks.ning.com,2010-12-10:5170231:BlogPost:395872010-12-10T17:49:21.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
<h6 class="uiStreamMessage"><span class="messageBody"><span style="font-size: large;">लिटाया तकिये पे हौले से थपकियाँ देकर .</span><br></br><span style="font-size: large;">और परियों की कहानी भी सुना डाली हैं...</span><br></br><span style="font-size: large;">उनींदी रात ये जगार की एक जिद सी लिए बैठी है...</span><br></br><span style="font-size: large;">चाँद आये तौ मैं कह दूंगा सुला दौ इसको...</span><br></br><span style="font-size: large;">तमाम ख्वाब मेरे खिडकियों पे बैठे</span> हैं....…</span></h6>
<h6 class="uiStreamMessage"><span class="messageBody"><span style="font-size: large;">लिटाया तकिये पे हौले से थपकियाँ देकर .</span><br/><span style="font-size: large;">और परियों की कहानी भी सुना डाली हैं...</span><br/><span style="font-size: large;">उनींदी रात ये जगार की एक जिद सी लिए बैठी है...</span><br/><span style="font-size: large;">चाँद आये तौ मैं कह दूंगा सुला दौ इसको...</span><br/><span style="font-size: large;">तमाम ख्वाब मेरे खिडकियों पे बैठे</span> हैं....<a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459000?profile=original" target="_blank"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459000?profile=original" alt="" width="640"/></a></span></h6>सर्दियाँtag:openbooks.ning.com,2010-11-28:5170231:BlogPost:364732010-11-28T22:55:41.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
सुबह से चढ़ रहा मुंडेर, गुनगुना सूरज,<br />
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है...<br />
<br />
देखता हूँ वो कच्ची धुप में लिपा आँगन,<br />
माँ ने नहलाके खड़ा कर दिया है फर्शी पे..<br />
<br />
कान के पीछे लगाया है फ़िक्क्र का टीका....<br />
और पहना दिया है पीला पुलोवर जिसमें..<br />
बुनी है कितनी जागती रातें....<br />
<br />
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है,<br />
सुबह से ढूंढ रहा हूँ वो गुनगुना सूरज
सुबह से चढ़ रहा मुंडेर, गुनगुना सूरज,<br />
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है...<br />
<br />
देखता हूँ वो कच्ची धुप में लिपा आँगन,<br />
माँ ने नहलाके खड़ा कर दिया है फर्शी पे..<br />
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कान के पीछे लगाया है फ़िक्क्र का टीका....<br />
और पहना दिया है पीला पुलोवर जिसमें..<br />
बुनी है कितनी जागती रातें....<br />
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शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है,<br />
सुबह से ढूंढ रहा हूँ वो गुनगुना सूरजदस का सिक्का...tag:openbooks.ning.com,2010-11-14:5170231:BlogPost:330842010-11-14T09:27:50.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
`बहुत दिन हुए नहिं देखा दस का सिक्का...<br />
<br />
स्कूल के दरवाज़े पर खड़े होकर शांताराम के चने नहीं खाए<br />
<br />
बहुत दिन हुए आंगन के चूल्हे पर हाथ तापे..<br />
<br />
याद नहीं आखरी बार कब डरे थे अँधेरे से...<br />
<br />
कब झूले थे आखरी बार, पेड़ की डाली पर...<br />
<br />
कब छोडा था चाँद का पीछा करना..<br />
<br />
याद नहीं, कब कह दिया सुनहरी पन्नी वाली चॉकलेट को अलविदा..!!<br />
<br />
कहाँ छुट गए कांच की चूडियों के टुकड़े..,<br />
<br />
माचिस की डिबिया, चिकने पत्थरों की जागीर..<br />
<br />
कब सुना था आखरी बार, स्कूल की घंटी का मीठा सुर...<br />
<br />
बहुत दिन हुए नहीं खाई अम्मा की डाट...<br />
<br />
...बसता…
`बहुत दिन हुए नहिं देखा दस का सिक्का...<br />
<br />
स्कूल के दरवाज़े पर खड़े होकर शांताराम के चने नहीं खाए<br />
<br />
बहुत दिन हुए आंगन के चूल्हे पर हाथ तापे..<br />
<br />
याद नहीं आखरी बार कब डरे थे अँधेरे से...<br />
<br />
कब झूले थे आखरी बार, पेड़ की डाली पर...<br />
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कब छोडा था चाँद का पीछा करना..<br />
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याद नहीं, कब कह दिया सुनहरी पन्नी वाली चॉकलेट को अलविदा..!!<br />
<br />
कहाँ छुट गए कांच की चूडियों के टुकड़े..,<br />
<br />
माचिस की डिबिया, चिकने पत्थरों की जागीर..<br />
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कब सुना था आखरी बार, स्कूल की घंटी का मीठा सुर...<br />
<br />
बहुत दिन हुए नहीं खाई अम्मा की डाट...<br />
<br />
...बसता पटक के भाग गया था खेलने...<br />
नहीं लौटा है अब तक शाम ढलने को है...,!!!वक़्त.tag:openbooks.ning.com,2010-11-02:5170231:BlogPost:304642010-11-02T03:33:55.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
पांच छत्तीस थे...घडी में जब...<br />
<br />
शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी थी,<br />
<br />
दूर तक साये चले आये थे... बीते मौसम को छोड़ने के लिए....<br />
<br />
दर्द बहने लगा था पलकों से,<br />
<br />
तुमने आँखों से उतारी थी...आंसुओं की नज़र..<br />
<br />
ठंडी काफी में घुल गए थे जाने कितने पहर,<br />
<br />
पांच छत्तीस हैं घडी में अब,<br />
<br />
शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी है,<br />
<br />
वक़्त गुज़रा है मगर,अब तलक नहीं बीता
पांच छत्तीस थे...घडी में जब...<br />
<br />
शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी थी,<br />
<br />
दूर तक साये चले आये थे... बीते मौसम को छोड़ने के लिए....<br />
<br />
दर्द बहने लगा था पलकों से,<br />
<br />
तुमने आँखों से उतारी थी...आंसुओं की नज़र..<br />
<br />
ठंडी काफी में घुल गए थे जाने कितने पहर,<br />
<br />
पांच छत्तीस हैं घडी में अब,<br />
<br />
शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी है,<br />
<br />
वक़्त गुज़रा है मगर,अब तलक नहीं बीतासर्दियाँtag:openbooks.ning.com,2010-10-29:5170231:BlogPost:297062010-10-29T18:00:00.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...<br />
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर<br />
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से<br />
<br />
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...<br />
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..<br />
ताप लें रूह में जमी यादें<br />
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..<br />
<br />
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...<br />
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..<br />
एक रिश्ते की आंच से शायद...<br />
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये...
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...<br />
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर<br />
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से<br />
<br />
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...<br />
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..<br />
ताप लें रूह में जमी यादें<br />
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..<br />
<br />
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...<br />
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..<br />
एक रिश्ते की आंच से शायद...<br />
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये...निर्जला....tag:openbooks.ning.com,2010-10-28:5170231:BlogPost:294912010-10-28T15:52:52.000ZSudhir Sharmahttps://openbooks.ning.com/profile/SudhirSharma
पूरा दिन यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने<br />
<br />
हंसके डिब्बे में रखी थी परमल... फेवरेट थी मेरी...<br />
<br />
मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग<br />
<br />
तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...<br />
<br />
औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से...<br />
<br />
और फिर रात को पीले मकान की छत पर...<br />
<br />
चाँद दो घंटे लेट था शायद...<br />
<br />
चांदनी छानकर पिलाई थी...<br />
<br />
पूरा दिन,यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने<br />
<br />
आज भी रक्खा है...वो दिन मेरे सिरहाने कहीं...
पूरा दिन यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने<br />
<br />
हंसके डिब्बे में रखी थी परमल... फेवरेट थी मेरी...<br />
<br />
मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग<br />
<br />
तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...<br />
<br />
औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से...<br />
<br />
और फिर रात को पीले मकान की छत पर...<br />
<br />
चाँद दो घंटे लेट था शायद...<br />
<br />
चांदनी छानकर पिलाई थी...<br />
<br />
पूरा दिन,यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने<br />
<br />
आज भी रक्खा है...वो दिन मेरे सिरहाने कहीं...