Aparna Bhatnagar's Posts - Open Books Online2024-03-29T13:10:00ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagarhttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991268640?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=0rr60l6tovqgb&xn_auth=noमिनौतीtag:openbooks.ning.com,2010-10-16:5170231:BlogPost:272082010-10-16T11:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459149?profile=original"></img></p>
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<br />
(हर नारी मिनौती है .. यहाँ दृश्य अरुणाचल का है , इसलिए बांस, धान , सूरज , सीतापुष्प , पहाड़ के बिम्ब भी उसी प्रदेश के हैं. बरई, न्यिओगा वहाँ के लोक जीवन से जुड़े गीत हैं - जैसे हम बन्ना- बन्नी , आला , बिरहा से जुड़े हैं ... इस संगीत को बांसों से जोड़ा है .. जैसे बांस के खोखल से निसृत होकर ये मिनौती की आत्मा में पैठ गए हैं ... नारी के मन और आत्म को समझाते हुए पुरुष से अंतिम प्रश्न पर कविता समाप्त होती है ...)<br />
मेरे बांस<br />
<br />
पहचानते हो मिनौती( एक बाला का नाम…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459149?profile=original" alt=""/></p>
<br />
<br />
(हर नारी मिनौती है .. यहाँ दृश्य अरुणाचल का है , इसलिए बांस, धान , सूरज , सीतापुष्प , पहाड़ के बिम्ब भी उसी प्रदेश के हैं. बरई, न्यिओगा वहाँ के लोक जीवन से जुड़े गीत हैं - जैसे हम बन्ना- बन्नी , आला , बिरहा से जुड़े हैं ... इस संगीत को बांसों से जोड़ा है .. जैसे बांस के खोखल से निसृत होकर ये मिनौती की आत्मा में पैठ गए हैं ... नारी के मन और आत्म को समझाते हुए पुरुष से अंतिम प्रश्न पर कविता समाप्त होती है ...)<br />
मेरे बांस<br />
<br />
पहचानते हो मिनौती( एक बाला का नाम ) को<br />
तुम्हारी और मेरी आत्मा एक सरीखी है-<br />
इस खोखल से<br />
सर्रसर्र करती हवाओं ने बजना सीखा है<br />
छिल-छिल कर सरकंडों में गुंथी<br />
जीवन की टोकरियाँ<br />
जिनमें वे भर सके<br />
आराम ..<br />
आज भी तुम्हारी बांसुरी से<br />
गुज़र जाते हैं<br />
बरई, न्यिओगा(अरुणाचल के लोकगीत )<br />
मेरी सलवटों में उलझे<br />
कितनी तहों के भीतर<br />
छलकते आंसुओं की तलौंछ के नीचे<br />
दबे-दबे से स्वर<br />
<br />
मेरे सीतापुष्प (ऑर्किड )<br />
तुम्हे याद होगा मेरा स्पर्श-<br />
अपने कौमार्य को<br />
सुबनसिरी (अरुणाचल की नदी ) में धोकर<br />
मलमल किया था<br />
और घने बालों में तुम<br />
टंक गए थे<br />
तब मेरी आत्मा का प्रसार उस सुरभि के साथ<br />
बह चला था<br />
एक वसंत जिया था दोनों ने<br />
<br />
मिट्टी तुम क्यों घूर रही हो -<br />
इन झुर्रियों के नीचे<br />
अभी भी सूरज जलता है (अरुणाचल में सूरज स्त्री रूप है और चाँद पुरुष )<br />
जिसके दाह से<br />
तुम प्रसव करती रही हो<br />
क्षिप्र सफ़ेद धान का<br />
जैसे धूप सफ़ेद होती है<br />
तुम्हारे बीज से<br />
मेरी प्रसव पीड़ा से<br />
धैर्य पाया था सृजन का |<br />
<br />
चीड़-चीनार में खोये पहाड़<br />
तुम्हारी हरी पटरियों पर<br />
मेरे चुप पैर आहट देते रहे हैं<br />
ताकि तुम्हारा खोयापन<br />
अकेला न रह जाए<br />
इस विशाल समृद्धि में<br />
तुम्हारा विस्तार मेरी सीमाओं में बंधता रहा है<br />
अपने होने की मीमांसा करोगे ?<br />
मेरा चुप रहना ही ठीक I<br />
<br />
<br />
अपर्णासब भर जाएगाtag:openbooks.ning.com,2010-10-07:5170231:BlogPost:253092010-10-07T01:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459384?profile=original"></img></p>
<br />
<b>सब भर जाएगा !</b><br />
<br />
<br />
रॉबिन तुम एकदम रॉबिन चिड़िया जैसे हो<br />
<br />
छल्लेदार बाल , अकसर लाल रहने वाली दो गोल बड़ी आँखें<br />
<br />
कभी उंघते नहीं देखा तुम्हे<br />
<br />
माँ को कभी उठाना नहीं पड़ता<br />
<br />
मुर्गे की एक सरल बांग पर उमड़ जाती है सुबह<br />
<br />
और तुम नंगे पैर ही दौड़ जाते हो सागर के अंचल पर<br />
<br />
अंतहीन बढ़ते कदम<br />
<br />
रेत पर छापती चलती हैं नन्ही इच्छाओं के पैर<br />
<br />
तुम चलते कहाँ हो<br />
<br />
उछलते हो<br />
<br />
रॉबिन तुम्हे अच्छा लगता है<br />
<br />
अकसर एक पत्थर उछालकर फेंकना<br />
<br />
दूर जितना दूर फेंक सको<br />
<br />
चट्टान पर गोह की तरह…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459384?profile=original" alt=""/></p>
<br />
<b>सब भर जाएगा !</b><br />
<br />
<br />
रॉबिन तुम एकदम रॉबिन चिड़िया जैसे हो<br />
<br />
छल्लेदार बाल , अकसर लाल रहने वाली दो गोल बड़ी आँखें<br />
<br />
कभी उंघते नहीं देखा तुम्हे<br />
<br />
माँ को कभी उठाना नहीं पड़ता<br />
<br />
मुर्गे की एक सरल बांग पर उमड़ जाती है सुबह<br />
<br />
और तुम नंगे पैर ही दौड़ जाते हो सागर के अंचल पर<br />
<br />
अंतहीन बढ़ते कदम<br />
<br />
रेत पर छापती चलती हैं नन्ही इच्छाओं के पैर<br />
<br />
तुम चलते कहाँ हो<br />
<br />
उछलते हो<br />
<br />
रॉबिन तुम्हे अच्छा लगता है<br />
<br />
अकसर एक पत्थर उछालकर फेंकना<br />
<br />
दूर जितना दूर फेंक सको<br />
<br />
चट्टान पर गोह की तरह चिपककर देखते हो अपना खेल<br />
<br />
तुम्हारी क्षमता का पत्थर<br />
<br />
लहरों को तोड़ देता है<br />
<br />
विवर बनते हैं<br />
<br />
इस गोलाई में घूमते देखते हो पत्थर<br />
<br />
और फिर सब भीतर समाहित होना ..<br />
<br />
तुम्हे अच्छा लगता है इस विवर को भरना<br />
<br />
छोटी सीपियाँ , घोंघे , सूखे पत्ते , सफ़ेद रेत और न जाने क्या<br />
<br />
समुद्र को भर दोगे क्या ?<br />
<br />
रॉबिन तुम्हे जाल फेंकना कभी अच्छा नहीं लगा<br />
<br />
खाली हो जाता है समुद्र<br />
<br />
इस जाल में फंसकर ...<br />
<br />
तुम अल्बर्ट के साथ गोल नाव पर बैठकर दूर तक जाना पसंद करते हो<br />
तुम्हारे इस पिता ने बंजारापन दिया है<br />
<br />
जबकि मैं टिकना मांगती रही<br />
<br />
जैसे मेरा चरित्र टिक गया है<br />
<br />
समुद्र के किनारे ..<br />
<br />
इधर ये अबाबीलें<br />
<br />
तुम्हारी नाव के साथ क्षितिज तक जाती हैं<br />
<br />
तुम उनकी परछाई हाथ से पकड़ते हो<br />
<br />
चप्पू को धप्प -धप्प मारकर<br />
<br />
ऊँची उठती लहरों को कितना छोटा करोगे रॉबिन?<br />
<br />
ओह! प्रहर कितना बीता ?<br />
<br />
रॉबिन तुम्हारी गोल नाव किस किनारे लगी है?<br />
<br />
उस बार तुम बहुत दूर गए थे न ..<br />
<br />
समुद्र भरने ?<br />
<br />
मैं जानती हूँ तुम लौटोगे<br />
<br />
अल्बर्ट के साथ<br />
<br />
मैं लाल रूमाल लिए हर तूफ़ान आने पर<br />
<br />
अगाह करती हूँ<br />
<br />
अरे ! गोल नाव वालों लौट आओ ...<br />
<br />
तब तुम्हारे हाथ<br />
<br />
किसी विवर से पुकारते हैं<br />
<br />
माँ ...<br />
<br />
भरने लगा है समुद्र !<br />
<br />
देख दूर ..<br />
<br />
कितना नीला आकाश<br />
<br />
एकसाथ सागर टूट पड़ा है लहरों पर<br />
<br />
मेरे पत्थर की तरह ..<br />
<br />
इस बार उछाल में सब भर जाएगा !<br />
<br />
<br />
<br />
अपर्णागौतम की प्रतीक्षा ?tag:openbooks.ning.com,2010-10-04:5170231:BlogPost:247412010-10-04T11:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459458?profile=original"></img></p>
कुछ तितलियाँ<br />
<br />
फूलों की तलहटी में तैरती<br />
<br />
कपड़े की गुथी गुड़ियाँ<br />
<br />
कपास की धुनी बर्फ<br />
<br />
उड़ते बिनौले<br />
<br />
और पीछे भागता बचपन<br />
<br />
मिट्टी की सौंध में रमी लाल बीर बहूटियाँ<br />
<br />
मेमनों के गले में झूलते हाथ<br />
<br />
नदी की छार से बीन-बीन कर गीतों को उछालता सरल नेह<br />
<br />
सूखे पत्तों की खड़-खड़ में<br />
<br />
अचानक बसंत की लुका-छिपी<br />
<br />
और फिर बसंत -सा ही बड़ा हो जाना -<br />
<br />
तब दीखना चारों ओर लगी कंटीली बाड़ का<br />
<br />
कई अवसादों का निवेश<br />
<br />
परित्यक्त देहर पर उलझे बंदनवार<br />
<br />
और माँ की देह से चिपकी अहिल्या<br />
<br />
पत्थर…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459458?profile=original" alt=""/></p>
कुछ तितलियाँ<br />
<br />
फूलों की तलहटी में तैरती<br />
<br />
कपड़े की गुथी गुड़ियाँ<br />
<br />
कपास की धुनी बर्फ<br />
<br />
उड़ते बिनौले<br />
<br />
और पीछे भागता बचपन<br />
<br />
मिट्टी की सौंध में रमी लाल बीर बहूटियाँ<br />
<br />
मेमनों के गले में झूलते हाथ<br />
<br />
नदी की छार से बीन-बीन कर गीतों को उछालता सरल नेह<br />
<br />
सूखे पत्तों की खड़-खड़ में<br />
<br />
अचानक बसंत की लुका-छिपी<br />
<br />
और फिर बसंत -सा ही बड़ा हो जाना -<br />
<br />
तब दीखना चारों ओर लगी कंटीली बाड़ का<br />
<br />
कई अवसादों का निवेश<br />
<br />
परित्यक्त देहर पर उलझे बंदनवार<br />
<br />
और माँ की देह से चिपकी अहिल्या<br />
<br />
पत्थर -सी चमकती आँखों में<br />
<br />
एक पथ खोजती ..<br />
<br />
कठफोड़वे की तरह टुकटुक करती<br />
<br />
पीड़ा की सुधियों को फोड़ रही है<br />
<br />
काष्ठ के कोटर -सी<br />
<br />
माँ , राम मिलेगा तो सौंप दूंगी तुझे<br />
<br />
पर गौतम की प्रतीक्षा ?माही बह रही थीtag:openbooks.ning.com,2010-10-01:5170231:BlogPost:237812010-10-01T02:00:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446821?profile=original"></img></p>
माही नदी के पानी पर ढाक के पेड़ों की सुनहरी काली छाया , चांदी का वरक लपेटे बहता प्रवाह और किनारे की बजरी पर उगी नरम घास अनारो के कबीलाई मन के संस्कार बन चुके थे. उसका बचपन यहीं रेत में लोट-लोटकर उजला हुआ था. घंटों नदी के पानी में पैर डालकर बैठी रहती.छोटे-छोटे हाथ अंजुरी में पानी समेटते और हवा में कुछ बूंदें यूँ ही उछल जातीं. अनारो उन्हें लपकने की कोशिश करती और जब एक-आध बूंद उसके श्याम मुख पर गिरती तो खनखनाकर ऐसे हंसती कि सारा वातावरण उसकी हंसी से…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446821?profile=original" alt=""/></p>
माही नदी के पानी पर ढाक के पेड़ों की सुनहरी काली छाया , चांदी का वरक लपेटे बहता प्रवाह और किनारे की बजरी पर उगी नरम घास अनारो के कबीलाई मन के संस्कार बन चुके थे. उसका बचपन यहीं रेत में लोट-लोटकर उजला हुआ था. घंटों नदी के पानी में पैर डालकर बैठी रहती.छोटे-छोटे हाथ अंजुरी में पानी समेटते और हवा में कुछ बूंदें यूँ ही उछल जातीं. अनारो उन्हें लपकने की कोशिश करती और जब एक-आध बूंद उसके श्याम मुख पर गिरती तो खनखनाकर ऐसे हंसती कि सारा वातावरण उसकी हंसी से धुल-पुंछ जाता .<br />
<br />
आज अनारो माही से कुछ कहने आई है. एक शिकायत ! एक फ़रियाद! "माही ! ओ माही ! कौन आएगा तेरे तीर ! कौन खेलेगा तेरे पानी से ! ऊँह ! ये कुटकुट गिलहरी भी न आएगी . ढाक पर फूल न खिलेगा ! सारे फूल बहा कर ले जाती है न , अब तरसना ! जा रही हूँ सासरे . पीछे अकेली बहती रहना. मेरे हाथों की मेहँदी देखोगी . कैसी लाल हो गयी है. कल मेरी बिदाई है . तुझे याद न आएगी . मैं भी रोने वाली नहीं."<br />
<br />
अपनी चुनरी में मुँह ढांप कर रो पड़ी अनारो ... आँखों का काजल बह गया . माथे की टिकली बालों में उलझ गयी और हाथों की चूडियाँ सिसकियों की खनक में चुप हो गयीं. थोड़ी देर बाद सन्नाटा हो गया . माही मंथर गति से बहती रही . अनारो ने अंजुरी भर पानी लिया पर हमेशा की तरह उछाला नहीं . बस ऐसे ही उलट दिया . फिर अपनी गुडिया निकाली और माही में विसर्जित कर दी. तेरह वर्ष की अनारो सयानी हो गयी थी.<br />
<br />
<br />
फिर कहाँ आई अनारो ! चली गयी. माही को बता तो जाती किस गाँव गयी है ? क्या मोहल्ला है ? कौन टोला है ? गुड़िया दे गयी अपनी ... इन अल्हड़ लहरों से वह भी सँभाल कर न रखी गयी. न जाने कहाँ खो गयी? कोई जलचर ले गया या कहीं तली में पड़ी होगी, माही क्या जाने !<br />
<br />
<br />
अचानक एक दिन , सुबह-सुबह माही ने सिरहाना छोड़ कर जब करवट ली तो सहसा चौंक गयी . पहचानने की कोशिश की . हाँ , अनारो तो थी . अपनी अनारो . पर क्या हुआ इसे ? इसकी चुनरी कहाँ है ? माथे की टिकली ? आँखों में काजल भी नहीं ? काँप उठी माही .<br />
<br />
अनारो पानी के आईने में अपनी बनती- बिगडती सूरत देखती रही . फिर उसने बड़ी कठोरता से लहरों में अपनी उँगलियाँ फंसा दीं और उन्हें अन्दर तक कुरेद दिया . माही सहम गयी. अब अनारो तेरह की नहीं थी .<br />
<br />
<br />
ओ ओ रे ! निपूती हूँ मैं . ले, तुझे गुड़िया दूँ ! कितनी ! कोख की जनी ! ले ,अभागी ले ! देवो के दिन फिर आउँगी. उसी दिन जनी थी मैंने ! तू ले ले . मेरे पास क्या धरा है? उसने एक-एक कर पांच गुड़ियाँ जल में प्रवाहित कर दीं.<br />
<br />
फिर विद्रूप -सा अट्टहास किया , डरावनी हुंकार भरी , गुथें बालों को फैला लिया और खिलखिलाती वहाँ से चली गयी . माही सहम गयी थी .<br />
<br />
<br />
कोहड़ का सारा कुनबा उसे पगली कहता . बच्चे पत्थर फेंकते , मुँह चिढ़ाते. बड़े-बूढ़े कतरा कर निकल जाते . माही चुप-चाप सब देखती. दिल पसीजता पर किसे क्या कहे ? नदी किनारे खेतु की झोपडी थी . वहीँ आसरा पा गयी थी वह . संसार खाली नहीं हो गया - अच्छे लोग हैं. खेतु की जोरू राधा कैसी भली है. अनारो भूखी नहीं रहती, राधा से बासी -बूसी खाने को जो मिलता है उसे पाकर तृप्त हो जाती है. दिनभर गलियों में भटकती है. आवारा कुत्ते पीछे-पीछे घूमते हैं . रोटी का एक कौर खुद खाती है और जो गिरता है वह भगवद कृपा से इन कूकरों को नसीब हो जाता है. रात में नदी के पानी में पैर डाल कर बैठ जाती है , और अपने झोले में से सूई -धागा , कुछ रेशमी कपडे निकाल लेती है. घंटों कुछ बनाती रहती है. क्या बना रही है? क्यों बना रही है ? माही में साहस नहीं और न ही उत्कंठा है जानने की .<br />
<br />
<br />
आज देवो है. माही किनारे गाँव उमड़ जाएगा .पुरुष गैर (एक नृत्य ) करेंगे . हाथ में लाठी -तलवार लिए नाचेंगे . ढोल बजेंगे . दीपों से दमक उठेगा गाँव . आज अनारो गली-गली नहीं भटकी . सुबह से नदी में पैर डाले बैठी थी. राधा का बींद खेतु कई बार पुकार चुका था - अन्नो, खाना खा ले . चबूतरे पर धर दिया है. कुत्ते न खा जाएँ . पर अनारो को फुर्सत कहाँ थी . उसके हाथ कुछ बना रहे थे . अलग-अलग अंग ! रेशमी हाथ!रेशमी पैर ! मिट्टी से बना<br />
<br />
मुंह ! अनारो ने अपने बालों की लट चाकू से काटी तो माही सिहर उठी ! हाय रे ! सत्यानाशिनी ! अपने बाल काट डाले ! पर अनारो बेखबर थी . उसकी आँखों में ममता थी . अलग -अलग अंग जुड़ने शुरू हुए - धड़, हाथ , फिर पैर और अंत में बालों की वह उलझी लट. माही हैरत में थी .<br />
<br />
<br />
रात हुई . दीप जलने लगे . झींगुर गैर के शोर से झाड़ियों में जा छिपे . खूब नाच हुआ . खजूर की शराब- खूब उबाल-उबाल कर पकाई हुई , ज़मीज़ में दबा कर सडाई हुई -पी- पीकर जवान झूम उठे . बूढ़े हसरत से देख रहे थे. औरतें घूँघट से झाँक-झाँक मिली स्वाधीनता का आनंद उठा रहीं थीं . वहां यदि कोई न था तो वह था खेतु , उसकी जोरू और अन्नो .<br />
<br />
<br />
राधा प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी , खेतु पास के गाँव से धाय को लाने चला गया था . कौन था उसका ,राधा के सिवाय ! गाँव का आवारा था . राधा मणि की इकलौती बेटी थी , जो शादी के एक बरस बाद ही विधवा हो गयी. गाँव में जब आई तो मणि के आलावा कौन सहारा था . दोनों बेवा साथ रहतीं . खेतु को राधा बड़ी भली लगती ,पर कहने की हिम्मत न जुटा पाता. एक दिन मणि ने उसे बुलाया और राधा का हाथ उसके हाथ में थमा दिया . उस दिन से खेतु की जिन्दगी बदल गयी. मणि ये पुण्य कमाकर दुनिया से चली गयी . बेवा को इस काम के लिए नेकनामी नहीं मिली . गाँव की औरतों ने जी भरकर कोसा . राधा को छिनाल की उपाधि मिली . बूढों न उसे डायन कहा . पर राधा ने बुरा नहीं माना. दोनों का कोई न था . अन्नो पता नहीं कैसे जुड़ गयी . पर पगली क्या जानती कि उसकी जीवन दात्री प्रसव पीड़ा से तड़प रही है. वह चबूतरे पर बैठी आसमान देखती रही . खेतु जाते -जाते अन्नो से कह गया था - "ध्यान रखियो, मैं अभी गया और आया ." राधा तड़प-तड़प कर कभी खेतु तो कभी अन्नो को आवाज़ लगाती .अन्नो उसकी चीख सुनकर कमरे में झाँक आती और फिर दालान में पालथी मारकर बैठ जाती .<br />
<br />
<br />
जब खेतु लौटा तो बाहर जमा भीड़ को देख घबरा गया . चबूतरे पर अन्नो पड़ी थी . दर्द से चीख रही थी . सारा गाँव आँखें फाड़े देख रहा था . "हाय , तू कहाँ है लाडो ! यहीं तो जाना था तुझे . इसी देवो को . कितनी बार जना तुझे .पांच बार . पर उसे तू न भायी . कैसे लकड़ी लेकर भागा था ! बेशरम ! कहता था - अरी तेरी कोख में डायन पलती हैं. लड़के को तरस गया . अरे इससे तो तू निपूती भली ! इन डायनो का पेट कौन भरेगा ?" "तू क्या भरेगा पेट ? ईंटें मैं पकाती हूँ . भट्टी पर मैं बैठती हूँ , तेरी दाल -रोटी कौन बनता है? तू तो ताड़ी पीकर पड़ा रहता है . आग लगे तुझे . मुँह झौंस दूंगी , जो इसबार डायन कहा तूने."<br />
<br />
<br />
अन्दर धाय राधा को सँभाल रही थी , बाहर गाँव आवाक खड़ा देख रहा था. अनारो को रोकने की हिम्मत किसी में न थी . वह नदी की ओर भागी , हुजूम भी उसके पीछे भागा. आँखों में वहशत , फैले बाल - अनारो दौड़ती जा रही थी, चीखती जा रही थी . माही ने उसकी ओर देखा तो अनारो चुप हो गयी . सब चुप थे. अँधेरे में रह-रहकर राधा की चीख सुनाई देती थी . अचानक अनारो खिलखिलाई . उसने एक सुन्दर गुड़िया झोले से निकाली . उसे चूमा . छाती से लगाया . फिर ठठाकर हंस पड़ी . दीयों की मद्धिम रोशनी नदी की लहरों पर झूल रही थी - ऊपर -नीचे . माही विस्फारित नेत्रों से देख रही थी - खामोश ! तभी धप्प की आवाज़ हुई ओर गुड़िया लहरों पर हिचकोले खाती आगे तैर गयी. अन्नो रोई -"ले जा माही . मेरे जिए के टुकड़े को . ले जा . हाय , मैंने अपने हाथों से मार दिया . बलवे में वे बल्लम लेकर आये थे . न जाने कौन थे ? उसे क्या पड़ी थी ? ताड़ी पीकर पड़ा था. सारा गाँव भूंज डाला उन्होंने . मेरी भट्टी की आग में झोंक गए - उसे भी और मेरी चार लाडलियों को . मैं प्रसव से तड़प रही थी . कुछ न कर पायी. जब होश आया तो बगल में लाडो पड़ी थी , सूखे स्तनों से चिपकी . रोई नहीं वह .निश्चेष्ट पड़ी थी . मर गयी थी मेरा कडवा दूध पीकर. मैंने उसे भट्टी में डाल दिया . मर जो गयी थी ! हाय पर भट्टी में गिर कर रोई क्यों वह ? वह तो मरी पैदा हुई थी न , बोल माही बोल ! मैं निपूती रह गयी , माही ! आज तू बहा कर ले गयी मेरे कलेजे को ! माही सुन रही थी !<br />
<br />
<br />
दिए जल रहे थे . "अन्नो , आ तो . देख बेटी जन्मी है राधा को . " अन्नो चबूतरे पर बैठ गयी . झोले से सामान निकाला और अलग-अलग अंगों को बनाने बैठ गयी. दिए जल रहे थे . लाडो के रोने की आवाज़ आ रही थी और बाहर छल -छलकर माही बह रही थी !<br />
<br />
<br />
<br />
अपर्णासलुम्बर की वह काव्य संध्याtag:openbooks.ning.com,2010-09-28:5170231:BlogPost:234542010-09-28T15:51:47.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446869?profile=original"></img></p>
<br />
सलुम्बर की वह काव्य संध्या<br />
<br />
<br />
आप हाड़ी रानी की कथा से कितने परिचित हैं , नहीं जानती .. मैं स्वयं भी कितना जानती थी , इस रानी को ! लेकिन इस नाम से पहला परिचय झुंझुनू शहर में जोशी अंकल द्वारा हुआ था . उन दिनों हम कक्षा नौ में थे . पापा की पोस्टिंग इस शहर में हुई ही थी. नए मित्र , नया परिवेश . मन में कई उलझनें थीं. जोशी अंकल हमारे पड़ोसी थे. बेटियां तो उनकी छोटी -छोटी थीं पर अंकल खासे बुज़ुर्ग लगते थे .. उनमें कुछ ऐसा था कि देखते ही श्रद्धा उत्पन्न होती.…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446869?profile=original" alt=""/></p>
<br />
सलुम्बर की वह काव्य संध्या<br />
<br />
<br />
आप हाड़ी रानी की कथा से कितने परिचित हैं , नहीं जानती .. मैं स्वयं भी कितना जानती थी , इस रानी को ! लेकिन इस नाम से पहला परिचय झुंझुनू शहर में जोशी अंकल द्वारा हुआ था . उन दिनों हम कक्षा नौ में थे . पापा की पोस्टिंग इस शहर में हुई ही थी. नए मित्र , नया परिवेश . मन में कई उलझनें थीं. जोशी अंकल हमारे पड़ोसी थे. बेटियां तो उनकी छोटी -छोटी थीं पर अंकल खासे बुज़ुर्ग लगते थे .. उनमें कुछ ऐसा था कि देखते ही श्रद्धा उत्पन्न होती. सुबह -सुबह उनके मधुर कंठ से जब श्लोक फूटते तो अनायास उस ओर ध्यान खिंच जाता , यद्यपि अर्थ एक न समझ आता था. ये गीतों वाले अंकल अब अकसर घर आने लगे थे और कारण था -पापा और उनका महकमा एक होना - ये बात हमारी बाल-बुद्धि की देन थी ; लेकिन बाद को कुछ और बातें भी समझ आने लगीं . पापा और अंकल का साहित्य प्रेम - दोनों को कविता का शौक ! फर्क इतना कि पापा क्योंकि खुद भी लिखा करते थे इसलिए अपनी भी यदाकदा सुनाते पर अंकल को दैवी कृपा से सधा कंठ मिला था इसलिए जो कविता सुनाते वह मिश्री -सी हवा में घुल जाती. एक दिन ऐसा ही कोई गीत वह सुना रहे थे. गीत drawing room में चल रहा था. हमारा study room काफी दूर था , किन्तु स्वर इस तरह मुखर जान पड़ते जैसे कोई जलतंत्र बजा रहा हो . मन न माना तो पढ़ाई छोड़ मेहमान कक्ष में आ गए, बहुत धीरे से प्रवेश किया ताकि कोई व्यवधान पैदा न हो , यदि इस बात की तमीज न भी होती तो भी कोई ख़ास फर्क न पड़ना था क्योंकि गायक और उनकी गायकी में खोये श्रोता सामान रूप से एक-दूसरे में विलीन जान पड़ते थे. स्वर आरोह पा रहा था ... जैसे कई तलवारें चमक उठी हों ! अब स्वर जिस तरह उठा उसी तरह अवरोह भी पा गया किन्तु गहरी निस्तब्धता के साथ . सभी की आँखें पथरायी हुईं .. विचलित .. अश्रुपूरित ! आह क्या था उस गान में ऐसा! गीत राजस्थानी में था इसलिए समझने में दिक्कत हुई , सो पापा ने उसके अर्थ बाद को बिठा कर समझाए I फिर तो ये गीत लगभग हर महफ़िल की जान बन बन गया . दिल को छूने वाला ये गीत हमें कंठस्थ क्यों न हो पाया ; इसका आश्चर्य और मलाल है .. खैर कुछ पंक्तियाँ दिमाग में जड़ गयीं जिन्हें लिखने का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं -<br />
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पैल्याँ राणी ने हरख हुयो,पण फेर ज्यान सी निकल गई |<br />
<br />
कालजो मुंह कानी आयो, डब-डब आँखङियां पथर गई |<br />
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उन्मत सी भाजी महलां में, फ़िर बीच झरोखा टिका नैण |<br />
<br />
बारे दरवाजे चुण्डावत, उच्चार रह्यो थो वीर बैण |<br />
<br />
आँख्या सूं आँख मिली छिण में , सरदार वीरता बरसाई |<br />
<br />
सेवक ने भेज रावले में, अन्तिम सैनाणी मंगवाई |<br />
<br />
सेवक पहुँच्यो अन्तःपुर में, राणी सूं मांगी सैनाणी |<br />
<br />
राणी सहमी फ़िर गरज उठी, बोली कह दे मरगी राणी |<br />
<br />
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फ़िर कह्यो, ठहर ! लै सैनाणी, कह झपट खडग खिंच्यो भारी |<br />
<br />
सिर काट्यो हाथ में उछल पड्यो, सेवक ले भाग्यो सैनाणी |<br />
<br />
सरदार उछ्ल्यो घोड़ी पर, बोल्यो, " ल्या-ल्या-ल्या सैनाणी |<br />
<br />
फ़िर देख्यो कटयो सीस हंसतो, बोल्यो, राणी ! राणी ! मेरी राणी !<br />
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तूं भली सैनाणी दी है राणी ! है धन्य- धन्य तू छत्राणी |<br />
<br />
हूं भूल चुक्यो हो रण पथ ने, तू भलो पाठ दीन्यो राणी |<br />
<br />
कह ऐड लगायी घोड़ी कै, रण बीच भयंकर हुयो नाद |<br />
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के हरी करी गर्जन भारी, अरि-गण रै ऊपर पड़ी गाज |<br />
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फ़िर कटयो सीस गळ में धारयो, बेणी री दो लाट बाँट बळी |<br />
<br />
उन्मत बण्यो फ़िर करद धार, असपत फौज नै खूब दळी |<br />
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सरदार विजय पाई रण में , सारी जगती बोली, जय हो |<br />
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रण-देवी हाड़ी राणी री, माँ भारत री जय हो ! जय हो !<br />
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<br />
वही गीत हाड़ी रानी का .. नयी वधू सलुम्बर ठिकाने के रावत रतन सिंह चुण्डावत की रानी! एक ओर शत्रु औरंगजेब की ललकार और दूसरी तरफ नवब्याहता रानी ! आखिर निशानी के रूप में सैनाणी मांग बैठे ; और रानी ने क्या किया - प्रमत्त हो अपना सर काट कर थाल में भेज दिया ! बस यही हाड़ी रानी हमारे १४ वर्षीय मन में जगह बना बैठी ! कभी भूल नहीं पाए - न हाड़ी रानी को , न इसे गाने वाले जोशी अंकल को ! आज भी जब यहाँ लिख रहे हैं तो अंतिम पंक्तियों तक आते-आते गला रुंध गया है , आंसू बह चले हैं .. और हम हठात हैं .. इतिहास से ! इसके रचयिता से ! या इसे सुनाने वाले जोशी अंकल से !<br />
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हाड़ी रानी के शहर से बुलावा -दिनांक २५ सितम्बर ........................................................................................................<br />
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जब विमला जी ने बताया कि सलुम्बर की धरती पर काव्य संध्या होने जा रही है और उसमें हमारा सहयोग अपेक्षित है तो बस न जाने कितनी रीलें घूम गयीं ! जिस धरती की कथा सुनी थी, आज उसे देखने का सौभाग्य भी मिलने वाला था ! वाह! किस्मत !<br />
<br />
२४ की रात तक ये तय नहीं हो पाया था कि हम जा रहे हैं या नहीं. हमें कई दिनों से बुखार था . हालत कभी ठीक रहती किसी दिन अधिक खराब . डरते-डरते मनोज से सलुम्बर चलने का प्रस्ताव और विमला जी के card को सामने रखा . विमला जी से फ़ोन पर हुई बातचीत का भी हवाला दिया , पर मनोज ने जो उदासीनता दिखाई उससे हम सहम गए और मन ही मन सोच लिया कि अब और पूछना ठीक नहीं . २४ की रात , करीब ९ बजे अचानक मनोज ने घोषणा की कि हम अपना व उनका सामान तैयार करें .. सब एकदम आकस्मिक हुआ l बुलबुल (हमारी बिटिया ) का कहना था " ममा, आपकी बच्चों जैसी सूरत देखकर पापा मान गए हैं ; फर्क सिर्फ इतना है कि आपको हमारी तरह मचलना नहीं पड़ा क्योंकि एक मचलना तो आपके चेहरे पर वैसे ही आ गया था जब पापा मना कर रहे थे .. उसे देखकर तो मन हुआ कि पापा से कहें कि आप माँ को ले जा रहे हैं .. और शायद वही भाव देखकर पापा ले जाने को तैयार हुए I " बेटी की बात सुनकर हम आरक्त हो उठे l बुलबुल की अर्धवार्षिक परीक्षा चल रही है . घर में बीमार माँ भी हैं ; ऐसे में हमारा जाना अपराधबोध दे रहा था किन्तु बुलबुल ने स्वयं हमारी तैयारी की और ये भी आश्वासन दिलाया कि वह दीदी (हमारी भांजी , जो हमारे पास पढ़ रही है ) के साथ ठीक से पढ़ाई कर लेगी और दादी को अपने हाथ से खाना भी खिला देगी I फिर एक ही दिन की तो बात है l बुलबुल ने ठीक से दवाइयां खाने की हिदायत भी साथ में दी I<br />
<br />
२५ की सुबह हम और मनोज कार से निकल पड़े . हिम्मतनगर के आगे से , श्यामला जी (प्रसिद्ध मंदिर ) से अरावली की उपत्यकाएं दीखने लगती हैं. वर्षा के आधिक्य से इस बार ये पहाड़ियां हरी चुनरिया ओढ़े नज़र आयीं I रास्ता बहुत खूबसूरत है I हाईवे पर ड्राइव करने का मज़ा भी कुछ और है. मनोज को रोकना पड़ता है ... गति का ध्यान रखिये ... अब टर्न है ... प्लीज़, स्पीड कंट्रोल ... पर ये भी अच्छा है कि इतनी रोक-टोक के बाद भी ये चिढ़ते नहीं ! खैर , ऋषभदेव के आगे एक बाइफरकेशन था , वहीँ से स्टेट रोड हमें पकड़नी थी ..जो सीधे सलुम्बर पहुँचती है I उदयपुर के दक्षिणपूर्व में बसी ये तहसील अपने इतिहास के कारण नाम स्थान पा चुकी है l हम दोपहर, करीब १ बजे सलुम्बर पहुंचे l थकान थी और बुखार भी तेज़ लग रहा था , पर हमने मनोज से ये बात छिपा ही ली I यहाँ पहुंचकर एक बात और जो मन को छू गयी वह ये थी - यूँ तो सभी के ठहरने की व्यवस्था एक साफ़-सुथरे होटल में की गयी थी किन्तु हमारे गिरते स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर हमें डाकबंगले में रुकाने की व्यवस्था दुतरफी होगी .. इसका भान न था I पापा और विमला जी दोनों ने ही हमारे ठहरने का प्रबंध यहाँ करा रखा था और एक पत्रकार (युवा लड़का ) पुरोहित लगभग हर पल हमारी सुविधा का ध्यान रख रहा था. विमला जी ने खिचड़ी विशेष रूप से इस व्यस्तता के बाद भी अपने घर पर बनवाई I इस आतिथ्य को कोई भुला सकता है भला ! हाड़ी रानी के इतिहास से रंगी ये भूमि मन को किस कदर छू रही थी ... ! रात को "सलिला" की काव्य संध्या थी I हम सभी अतिथि नगर पालिका के प्रांगण में एकत्रित थे I करीब साठ कवि तो रहे होंगे , इसके अतरिक्त परिवार जन भी थे I यहाँ परम्परिक ढंग से स्वागत किया गया I प्रांगण में ढोल बज रहा था . फिर सभी को माल्यार्पण करते हुए तिलक और नारियल दिया गया I मनोज और हम दोनों सहसा एक बात पर एक साथ मुसकराए - २७ दिसंबर ,१९८८ के दिन जयमाल के बाद आज दोनों फिर हार पहने हुए थे ! एकसाथ ! सलज्ज -सा हास ! इन रस्मों के बाद सारे कारवाँ को शहर से होकर गुज़ारना था I कार्यक्रम शहर के ऐतिहासिक किले पर था I तहसील की संकरी वीथिकाएँ .. दोनों ओर बनी हवेलियाँ .. हवेलियों से झांकते नक्काशीदार झरोखे और इन झरोखों में स्वागत व उत्सुकता से टिके नन्हे , जवान , बूढ़े चेहरे ! रास्ते में कहीं नगर सेठ ने स्वागत किया तो कहीं जन सामान्य हाथ बांधे खड़ा था I विहंगम था ये दृश्य ! साहित्यकारों के प्रति सम्मान ... हिंदी साहित्यकारों के प्रति ये सम्मान गुदगुदा गया मन को I इन सबके बीच विमला जी की उजली छब भी उभरकर सामने आई I<br />
<br />
समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ I मंच पर देश के साहित्यकारों के साथ कविता पाठ करने का पहला अवसर था और फेस करना था जनता जनार्दन को ! कवि सम्मेलनों की जो छब मन में बैठी हुई थी उसके अनुसार हमें हर संभावित के लिए तत्पर रहना था --- कर्म करो , फल की इच्छा नहीं ! पर हमारे सारे डर निर्मूल सिद्ध हुए I बड़े धैर्य से यहाँ की जनता रात एक बजे तक हर तरह की कविता का रस लेती रही ... ! नमन है इस भूमि को ... ! हाड़ी रानी की ये पवित्र स्थली अब हमारे मन में गहरे तक पैठ गयी है I<br />
<br />
एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण नहीं है , पर ज़िक्र करना ज़रूरी समझती हूँ I ये बात भी यूँ तो बचपन से अधिक जुड़ी है पर सलुम्बर में फिर घनघना कर बज उठी ... झनझना कर जी उठी ! यहाँ की प्रकृति ... ! राजस्थान .. जो विषमताओं का प्रदेश है वहाँ के धोरों में ऐसा स्वर्ग भी बसता है !<br />
<br />
अगले दिन यानी २६ की सुबह एक आवाज़ जिसे कई वर्षों बाद सुना .. हमें जगा देती है ...दिड दिड दू दित ... ओह! चहा चिरई ! तरह-तरह की इन हिन्दुस्तानी चिड़ियों से पापा अकसर रूबरू कराते रहे I बीटल , भैया और हम अलवर शहर में प्रातकाल भ्रमण पर पापा के साथ जाते थे I तीनों ही छोटे थे I एक-एक साल का फर्क है क्रमश : ...I अलवर हरा-भरा शहर है और कई तरह की चिड़ियों को अपनी समझ में देखा और जाना भी यहीं था I बचपन की नाना स्मृतियाँ बड़ी मोहक होती हैं I<br />
<br />
तो आज इस चहा चिरई ने हमें फिर से सात साल का बना दिया ! हूँ ... अब थोड़ी देर यहीं रुकने का मन है ! अलविदा !<br />
<br />
अपर्णाविस्मृतिtag:openbooks.ning.com,2010-09-23:5170231:BlogPost:224312010-09-23T09:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446754?profile=original"></img></p>
<b>विस्मृति</b><br />
<br />
पोस्त के लाल फूल<br />
असंख्य<br />
उन्हें छूकर बहती प्रमत्त हवा<br />
ठंडी गुफा के मुहाने पर<br />
पालथी मारे बैठा सूरज<br />
देख रहा है फेनिल<br />
धारा का झर-झर झरना ...<br />
झागों के पत्ते अभी टूट कर बिछ गए हैं ..<br />
पतझड़ जो लगा है ..<br />
चट्टानों के बिछौनों पर ...<br />
अपने चारों ओर<br />
देवदार , चीड़ के गुम्बदों में कैद<br />
एक फंतासी ...<br />
जिस पर मखमल -सी बर्फ<br />
अपना आसमान ताने खड़ी है<br />
<br />
और ढरक रही है ख़ामोशी ...<br />
तोड़कर कलकल की ध्वनि को ..<br />
जैसे चुप ओठों पर<br />
धर दी हो सर्द उँगली समय की !<br />
लौट आने का…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446754?profile=original" alt=""/></p>
<b>विस्मृति</b><br />
<br />
पोस्त के लाल फूल<br />
असंख्य<br />
उन्हें छूकर बहती प्रमत्त हवा<br />
ठंडी गुफा के मुहाने पर<br />
पालथी मारे बैठा सूरज<br />
देख रहा है फेनिल<br />
धारा का झर-झर झरना ...<br />
झागों के पत्ते अभी टूट कर बिछ गए हैं ..<br />
पतझड़ जो लगा है ..<br />
चट्टानों के बिछौनों पर ...<br />
अपने चारों ओर<br />
देवदार , चीड़ के गुम्बदों में कैद<br />
एक फंतासी ...<br />
जिस पर मखमल -सी बर्फ<br />
अपना आसमान ताने खड़ी है<br />
<br />
और ढरक रही है ख़ामोशी ...<br />
तोड़कर कलकल की ध्वनि को ..<br />
जैसे चुप ओठों पर<br />
धर दी हो सर्द उँगली समय की !<br />
लौट आने का मन नहीं ..<br />
इस मानवेतर भीड़ से -<br />
अकेले<br />
दूर क्षितिज के पार<br />
कुछ रेखाएं<br />
आकृतियाँ<br />
कौंध रहीं हैं ...<br />
मेरे प्रयाण का समय आ चला ...<br />
निशब्द<br />
चुप ..<br />
आँखें मुंदने लगी हैं ...<br />
नींद मत तोड़ना...<br />
अपनी गुफा में सोने दो ..<br />
कोई स्मृति नहीं<br />
शरीर नहीं ...<br />
बस "मैं" हूँ<br />
और है निश्चिन्त निद्रा<br />
समय इस नींद से हार<br />
मौन है ...<br />
ये तिलस्म नहीं<br />
एक विस्मृति है मेरे होने की !<br />
अपर्णा<br />
<br />
(अपने उन एकांत क्षणों में जब मन निराशा से ओत-प्रोत था .. इस कविता का लिखना हुआ l बीमारी के दौरान लिखी इस कविता में प्रयाण की इच्छा .. किसी गंतव्य तक जाने की इच्छा केवल उन पलों का बोध है I कविता अंतर्मुखी हो गयी है.)<br />
<br />
<p style="text-align: left;"><img width="721" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446778?profile=RESIZE_1024x1024" alt=""/></p>सफ़ेद कबूतरtag:openbooks.ning.com,2010-09-22:5170231:BlogPost:221542010-09-22T04:37:16.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446961?profile=original"></img></p>
कैसी तरखा हो गयी है गंगा ! यूँ पूरी गरमी में तरसते रह जाते हैं , पतली धार बनकर मुँह चिढ़ाती है ; ठेंगा दिखाती है और पता नहीं कितने उपालंभ ले-देकर किनारे से चुपचाप निकल जाती है ! गंगा है ; शिव लाख बांधें जटाओं में -मौज और रवानी रूकती है भला ? प्राबी गंगा के उन्मुक्त प्रवाह को देख रही है. प्रांतर से कुररी के चीखने की आवाज़ सुनाई देती है. उसका ध्यान टूटता है. बड़ी-बड़ी हिरणी- आँखों से उस दिशा को देखती है जहां से टिटहरी का डीडीटीट- टिट स्वर मुखर हो रहा था…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446961?profile=original" alt=""/></p>
कैसी तरखा हो गयी है गंगा ! यूँ पूरी गरमी में तरसते रह जाते हैं , पतली धार बनकर मुँह चिढ़ाती है ; ठेंगा दिखाती है और पता नहीं कितने उपालंभ ले-देकर किनारे से चुपचाप निकल जाती है ! गंगा है ; शिव लाख बांधें जटाओं में -मौज और रवानी रूकती है भला ? प्राबी गंगा के उन्मुक्त प्रवाह को देख रही है. प्रांतर से कुररी के चीखने की आवाज़ सुनाई देती है. उसका ध्यान टूटता है. बड़ी-बड़ी हिरणी- आँखों से उस दिशा को देखती है जहां से टिटहरी का डीडीटीट- टिट स्वर मुखर हो रहा था . साल के पेड़ पर खुटक बढ़इया खुट-खुट कर तने को कोंच रहा था. घोमरा, कारंडव, गंगाचिल्ली आज पानी में उतरने का साहस नहीं कर पा रहे थे. किनारे पर गुमसुम बैठे थे. प्राबी ने बंसी जल की तेज़ धारा में डाल दी, पर मछलियाँ थीं कि फिसल-फिसल कर दूर-दूर तक तैर जातीं. उनके चिकने शरीर पानी की चांदी में और चांदीदार हो जाते. "हूँ , आज एक भी हाथ नहीं आएगी . भात का मांड दादी पकाएँगी ,वह भी बिना नमक के. मच्छी हाथ लगती तो वह भी तो उबाल कर निगलनी पड़ती- फीकी, बेस्वाद . नमक है कहाँ . गंगा पार कौन जाए ? महाजन तो गाँव आने से रहा !" अनूठा गाँव है - फल -फूलों से लदा पर हमेशा का भूखा . पानी है, पर पपड़ाए होंठ न जाने किस बिछलन से कुलबुलाये रहते हैं. थक-हार कर प्राबी ने टोकरी उठाई और उन्मन हो लौट गयी . खुटक बढ़इया अब भी खुट-खुट कर रहा था .<br />
<br />
<br />
झोपड़ी में अँधेरा था . दादी ने डिबरी नहीं जलाई थी ? "दादी कब तक लीपती रहोगी मड़ैया? बारिश में कहाँ टिकेगी ? रहने भी दे .आज भी न मिली सिंघी. बाबा कहाँ हैं..... ?"<br />
<br />
"मांड पका देती हूँ . कौन देर लगती है? बाबा तेरा पड़ा है महुआ पीकर. तेरी माँ क्या गयी इसका भी सब कुछ चला गया . बहाना है , काम न करने का ."<br />
<br />
"दादी , बाबा मारने दौड़ेंगे ; चुप भी रहो ."<br />
<br />
"तो, कौन डरती हूँ ? आँखें तरेरेगा ? डर नहीं पड़ा है . मेरा घर है , हौंस दिखायेगा तो कह दूंगी कि जाए कहीं और."<br />
<br />
"रोज़ यूँ ही बका-झका करती हो , बाबा बदले क्या?"<br />
<br />
दादी बड़बडाती रहीं -"न जाने किस घड़ी में ब्याह लाया था. गाँव में कोई तैयार न था. कौन उड़ाता चुनरी ? न जाने कहाँ मुँह काला कर आई थी. अरे , वह तो उसकी माँ थी दरियादिल. क्या नहीं देने को तैयार थी ? कितना पैसा दे रहे थे, कोई कमी न छोड़ते थे . मिल जाता तो दो पीढ़ियाँ पल जातीं. पर सिर पर भूत सवार था, लछमी से नाता बिठाने का. अपनी सौंह दी, सब आगा-पीछा बताया. न माना; सेंदूर भर दिया और मोल भी न लिया. बिरादरी की रस्में कोई ऐसे तो न बनी हैं ... कन्या -मूल्य माँगना ... कौन बुराई है इसमें ...और ऐसी डायन जो दो महीने से थी.... "<br />
<br />
प्राबी का चेहरा काला पड़ गया... गौरवर्ण सूखे पत्ते की तरह कांप गया. मुट्ठियाँ भिंच गयीं और उसकी आँखें तरखा बन गयीं ... ऐसा दांता जो पथरीला प्रवाह है . बाबा सुट पड़ा रहा . मन हुआ चिल्ला-चिल्लाकर पूछे बाबा से... कौन थी उसकी माँ? क्यों देती हैं दादी ताना ? बाबा कैसे सुन लेता है चुपचाप ?औरस पिता क्यों मिला उसे? माँ के लिए नफरत पैदा हुई ..छी..! फिर खुद के लिए... इतनी गहरी घृणा ... जैसे किसी ने कूट-कूट कर कोयला भर दिया हो ..गरम जलता कोयला. प्राबी बाबा की बगल में लेट गयी, बाबा की ठंडी उंगलियाँ उसके बालों में फिर रहीं थीं -एक दिलासा बनकर .. हूँ... मैं हूँ तेरा बाबा. लछमी को क्या यूँ ही ले आया था? सेंदूर भरा था गाँव के सामने ... तू पराई कैसे हुई ? जब लछमी अपनी थी तो तू भी तो अपनी है रे -दिल टुक्का... मेरा छौना... गरम बूंदें आँखों से ढरक गयीं. न जाने कब तक ढरकती रहीं,विद्रोह करती रहीं अपने दुःख से ! महुआ ने कहाँ सोने दिया उसे ? कितनी चुप थी रात ! कितना असहाय था उसका अंधेरापन ! कितना विलग और कितना अपना ! रात को मूक स्वीकृति देकर दोनों भूखे सो गए . दादी ने कई आवाजें लगायीं फिर सारी दुनिया को कोस-कोस कर मुँह ढांप पड़ी रही. बाहर गीदड़ हुआ -हुआ कर रहे थे . छप्पर पर बरसात तमाचे जड़ रही थी, बीच-बीच में साल के पेड़ साँय-साँय कर रुदन कर उठते .<br />
<br />
<br />
सूरज की बीमार पीली रोशनी प्राबी के गोरे रंग पर पड़ रहीं थीं.उस गोरे रंग में भीग कर जैसे सुबह ताज़ा हो गई. लतुआ अपलक निहार रहा था. कितनी सुन्दर है . लछमी जिन्दा होती तो हिया जुड़ जाता उसका. एक नज़र भी न देख पायी अभागन . एक-एक महीना कैसे निकाला था? सूई-धागा लिए कपड़े सिलती. कभी कुछ गुनगुनाती , तो कभी अकारण उसका चेहरा शरम से अनार की तरह लाल हो जाता था. कभी अचानक आँखों में आंसू भर जाते और कह उठती, "तुम्हारा किया उपकार न भूलूंगी. जीती रही तब भी ,और मर गयी तो सरग में भी ....!" तब वह अपनी उँगली उसके कोमल अधरों पर रख देता था, "बस चुप रहो और नहीं.." उस दिन उसका मुँह कैसा हो गया था? दरद से तड़प उठी थी ... न सही गयी उससे पीड़ा. केवल प्रसव की होती तो सह लेती.. उसके सीने में तो ऐसा दरद था जो सिर्फ वही जानती थी. जाने की ऐसी जल्दी थी कि प्राबी के लिए भी न रुका गया पगली से. शायद मुझ पर भरोसा न कर पायी थी और न ही परेम...<br />
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<br />
दादी ने प्राबी को उठा दिया. धतुआ से कहा -"माँ हूँ तेरी. कुछ बोल जाती हूँ तो बुरा न माना कर."<br />
<br />
धतुआ ने सिर हिला कर हामी भरी और कुछ ऐसी नज़रों से देखा कि माँ सब भांप गयी . उठकर प्राबी के पास गयी और उसे छाती से लगा लिया. धातुआ बाहर चला गया , कहाँ गया नहीं पता . ऐसा अकसर होता है. दिन ढले ही आता है और महुआ पीकर सो जाता है.<br />
<br />
<br />
प्राबी अपने सफ़ेद कबूतरों से खेलती रही. बाबा ने माँ को लाकर दिए थे. दादी को इनसे चिढ़ है पर प्राबी उन पर जान छिड़कती है. उनकी लाल आँखें कितनी प्यारी लगती हैं. माँ को भी लगती होंगी! माँ से जुड़ी यादगार हैं ये. माँ से लाख नफरत करे पर उसकी यादों से प्यार करती है प्राबी - बाबा से भी; इन सफ़ेद कबूतरों से भी, लाल चूनर से भी जो बाबा ने माँ को उड़ाई थी; सेंदूर की उस डिबिया से जो माँ की मांग में लम्हे बनकर सजी थी और वे छोटे कपड़े जो माँ ने प्राबी के लिए सिले थे. उसकी अपनी प्राबी के लिए ...! कबूतर प्राबी के हाथों से तब तक बाजरा चुगते रहे जब तक दादी डंडा लेकर उन्हें उड़ाने न आयीं. कबूतरों के साथ प्राबी भी बाहर चली गयी. आज उसने माँ की लाल चूनर ओढ़ रखी थी. दादी बलैया लेकर काजल आँज गयीं थीं आँखों में .कितनी सुन्दर लग रही थी. ऐसा चम्पई रंग ढूंढने से भी न मिलेगा . दादी को प्राबी एकदम बड़ी लगी पर उसने टोका नहीं. कबूतर भी साथ-साथ उड़ते रहे . रात भर पानी बरसा था पर अब आसमान साफ़ था. पेड़-पौधे रातभर नहा कर निर्मल हो गए थे. नदी किनारे चलती गयी. गाँव से बहुत दूर . सीमा पार ,जहां से ठाकुर जी की हदें शरू होती थीं. धान के खेत , कटहल कतारों से लगे , आम के बगीचे और विशाल हवेली ! प्राबी के कदम रुक गए . बाबा की हिदायत याद हो आई - 'ठाकुर जी की हवेली में भूत रहतें हैं ,भूल कर भी न जाना.' मन में डर पैदा हुआ. लौटने के लिए उसने कदम उठाया तो एक कठोर आवाज़ ने उसे रोक दिया. पैरों को जैसे लकवा मार गया. ठीक सामने बाबा की उम्र का बलिष्ठ अधेड़ खड़ा था. उसकी आँखों में ऐसा पथरीलापन था कि भय से प्राबी की शिराएं जमती जान पड़ीं . कबूतर नीचे उतर आये थे और वहीँ कटहल की शाख पर बैठ गए. वह अधेड़ अजीब आँखों से देख रहा था. नश्तर की तरह कलेजा चीरने वाली आँखें . उसने उसे पीछे आने का आदेश दिया . अब कबूतर नीचे उतर आये और प्राबी के कंधे पर आकर बैठ गए. वह प्राबी को खींचकर ले गया. कबूतर साथ न दे पाए . हवेली अन्दर से बंद थी . कोई झरोखा नहीं .....ऊँची-ऊँची दीवारें , पुतलेनुमा पहरेदार .... वे पंख मारते रहे , सिर पटकते रहे दीवारों पर, लेकिन प्राबी कहाँ थी?<br />
<br />
<br />
फिर हवेली का द्वार खुल गया . तेज़ धमाका हुआ .कबूतर नीचे आ गिरे . एक लाल गहरी चूनर हवा के झोंके से उड़कर आई और कबूतरों पर आ गिरी . वहीँ खड़ा था धतुआ - ज़मीन पर बैठ गया . मुँह से निकला -हाय , लछमी तू यहीं लायी गयी थी रे ! मैं तब भी न आ पाया था , और उसे भी न रोक पाया.<br />
<br />
<br />
उसके बाद किसी ने न प्राबी को देखा , न धतुआ को. कहतें हैं गंगा कभी उस गाँव में तरखा न हो पायी और दादी हवेली के पास भटकती रही ......... कई महीनों , सालों .... सफ़ेद कबूतर कहाँ गए ? जहां वे होंगे वहीँ प्राबी भी होगी ....! यही पूछती रही .., भटकती रही .पर पहरेदार पुतले बने कुछ जवाब न दे पाए बुढ़िया को !<br />
<br />
<br />
अपर्णाबाहर बहुत बर्फ हैtag:openbooks.ning.com,2010-09-20:5170231:BlogPost:216382010-09-20T10:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
तुम्हारे देश के उम्र की है<br />
अपने चेहरे की सलवटों को तह करके<br />
इत्मीनान से बैठी है<br />
पश्मीना बालों में उलझी<br />
समय की गर्मी<br />
तभी सूरज गोलियां दागता है<br />
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं<br />
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है<br />
पर तुम घर में<br />
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो<br />
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के<br />
तुम्हारी आँखों की सुइयां<br />
बुन रही हैं रेशमी शालू<br />
कसीदे<br />
फुलकारियाँ<br />
दरियां ..<br />
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़<br />
अभी-अभी देख आई है<br />
कि चीड और देवदार के नीचे<br />
झीलों में खून का गंधक है<br />
और पी आई है वह<br />
पानी के धोखे में सारी झेलम<br />
अजीब सी बू…
तुम्हारे देश के उम्र की है<br />
अपने चेहरे की सलवटों को तह करके<br />
इत्मीनान से बैठी है<br />
पश्मीना बालों में उलझी<br />
समय की गर्मी<br />
तभी सूरज गोलियां दागता है<br />
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं<br />
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है<br />
पर तुम घर में<br />
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो<br />
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के<br />
तुम्हारी आँखों की सुइयां<br />
बुन रही हैं रेशमी शालू<br />
कसीदे<br />
फुलकारियाँ<br />
दरियां ..<br />
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़<br />
अभी-अभी देख आई है<br />
कि चीड और देवदार के नीचे<br />
झीलों में खून का गंधक है<br />
और पी आई है वह<br />
पानी के धोखे में सारी झेलम<br />
अजीब सी बू में<br />
मिमियाती ...<br />
किसी अंदेशे को सूंघती<br />
कानों में फुसफुसाना चाहती है<br />
पर हलक में पड़े शब्द<br />
चीत्कार में कैद<br />
सिर्फ बिफरन बन<br />
रिरियाते हैं ...<br />
तुम हठात<br />
अपनी झुर्रियों में<br />
कस लेती हो उसे<br />
लगता है<br />
बाहर बहुत बर्फ है !<br />
<br />
<br />
अपर्णा<br />
<br />
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446893?profile=original" alt=""/></p>कहानी - वह सामने खड़ी थीtag:openbooks.ning.com,2010-09-19:5170231:BlogPost:214322010-09-19T11:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
वह सामने खड़ी थी . मैं उसकी कौन थी ? क्यों आई थी वह मेरे पास ? बिना कुछ लिए चली क्यों गयी थी? न मैंने रोका, न वह रुकी. एक बिजली बनकर कौंधी थी, घटा बनकर बरसी थी और बिना किनारे गीले किये चली भी गयी . कुछ छींटे मेरे दामन पर भी गिरे थे. मैंने अपना आँचल निचोड़ लिया था. लेकिन न जाने उस छींट में ऐसा क्या था कि आज भी मैं उसकी नमी महसूस करती हूँ - रिसती रहती है- टप-टप और अचानक ऐसी बिजली कौंधती है कि मेरा खून जम जाता है -हर बूंद आकार लेती है ; तस्वीर बनती है -धुंधली -धुंधली ,सिमटी-सिमटी फिर कोई गर्म…
वह सामने खड़ी थी . मैं उसकी कौन थी ? क्यों आई थी वह मेरे पास ? बिना कुछ लिए चली क्यों गयी थी? न मैंने रोका, न वह रुकी. एक बिजली बनकर कौंधी थी, घटा बनकर बरसी थी और बिना किनारे गीले किये चली भी गयी . कुछ छींटे मेरे दामन पर भी गिरे थे. मैंने अपना आँचल निचोड़ लिया था. लेकिन न जाने उस छींट में ऐसा क्या था कि आज भी मैं उसकी नमी महसूस करती हूँ - रिसती रहती है- टप-टप और अचानक ऐसी बिजली कौंधती है कि मेरा खून जम जाता है -हर बूंद आकार लेती है ; तस्वीर बनती है -धुंधली -धुंधली ,सिमटी-सिमटी फिर कोई गर्म उँगली इस बूंद को छेड़ देती है -वह बिखर जाती है. उसका आना-जाना बरसों से लगा है. शायद लगा रहेगा .<br />
<br />
उस दिन भी वह खड़ी थी मेरे द्वार पर. पहली बार आई थी. उसका आना एकदम आकस्मिक था. मैं तैयार नहीं थी. अपलक उसे देखती रही. किसी की पारदर्शी आँखें इतना बोल लेती हैं ये मैंने उसी दिन जाना था. बेझिझक वह भीतर आ गयी. आरामकुर्सी पर निश्चिन्तता से बैठ गयी. कमरे में हम दोनों थे और बीच में खड़ी थी सन्नाटे की दीवार. पहल उसी ने की. "यदि मैं कहूँ कि मैं आपके पास रहने आई हूँ तो क्या आप मान जाएँगी ?" अटपटा सवाल था. उत्तर देते न बना. मेरा उससे परिचय ही कितना है ? इस शहर में नयी हूँ. दो साल की कच्ची नौकरी है. एक कमरे का किराए का छोटा सा घर है . अकसर मकान मालिक पर निर्भर रहना पड़ता है. मैं अन्यमनस्क उसकी तरफ देख रही थी और वह अपनी रौ में बोल रही थी. "आप नहीं कर पाएंगी ऐसा. कोई नहीं कर पायेगा." मैंने बात काटकर कहा -"सुलभा ,तुम शादी के जोड़े में ? आज है क्या विवाह? पढ़ाई छोड़ दोगी? पहले क्यों नहीं बताया?" प्रश्नों की असंभावित झड़ी के लिए वह तैयार नहीं थी. वह थोड़ा उचककर मुसकरा दी थी. उसके गालों पर हलके गड्ढे पड़ गए ,आँखें सलज्ज झुक गयीं, हाथों की लाल चूड़ियाँ हलकी-सी बज उठीं. आहिस्ता से बोली -"शादी!" आवाज़ में विस्मय का पुट था. "नहीं तो !" फिर वह ठठाकर हंस पड़ी बिलकुल ऐसे जैसे किसी नटखट ने सितार के तार छेड़ दिए हों . हवा में मिश्री घुल गयी. उसकी खनक घुटे कमरे में स्वातंत्र्य का बोध करा रही थी. मैंने उठकर बंद खिड़की खोल दी. अचानक चुप्पी छा गयी. उसने गहरी सांस भरी. मैंने देखा वह अपने होंठ काट रही थी. चेहरा काला पड़ गया था और आँखों में रोने की विवशता थी जिसे वह मुझसे छिपाना चाहती थी. "क्या बात है ? कोई ख़ास बात?" मैं उठकर उसके पास आ गयी. उसकी पीठ सहलाने लगी . अब विवशता बाँध तोड़ चुकी थी. रोते-रोते नाक लाल हो गयी और मेरी गोदी में उसने अपना सिर छिपा लिया. कातर निगाहों से मुझे देखती और फिर ऊँचे स्वर में रोने लगती. जब आवेश थम गया तो बोली "मैम, शादी! कहाँ शादी? कैसी शादी? आपने भी तो नहीं की." इस बात के लिए मैं तैयार न थी. शर्म की लहर गालों से कानों तक खिंच गयी. बनावटी क्रोध किया और हलके से एक चपत सुलभा के कोमल गालों पर लगा दी. हौले से पूछा -"ये लाल जोड़ा तो शादी का दीख रहा है ? " उसने हथेलियाँ आगे कर दीं-"और ये मेहँदी ? कैसी रची है ,मैम ?" अब उसकी आवाज़ में स्वाभाविक चपलता थी,एक नवयौवना की चंचलता . "जोड़ा शादी का ही है,बाबूजी ने सिलवाया था. ये नथ उधार लेकर बनवाई थी. माँ से कहते न थकते थे -"हमारी सुलभा रानी बनकर राज करेगी. शकुन, बड़ी धूम-धाम से ब्याहूँगा अपनी लाडली. बस पढ़ाई ख़तम कर ले फिर ... " "और ..और ...मैम, ....ये चाहने वाले बाबूजी ही न रहे. हम अकेले हो गए ऊपर से उधारी ..." आँखें फिर बरस रही थीं. मैं सिर्फ आहत थी और वह बेबस ! रोशनदान में बैठी चिड़िया चींचीं कर उठी. हम दोनों ने एकसाथ गर्दन उठायी- चिड़िया चुप हो गयी जैसे इस धृष्टता की माफ़ी मांग रही हो. "मैम , आपके यहाँ हल्दी है?" उसने बिना तारतम्य के पूछा . मुझे उसकी हर बात पहेली लग रही थी पर इस भाव को मैं छिपा गयी. यंत्रवत उठी और हल्दी ले आई. उसने एक कार्ड निकाला, बिना छपा कार्ड . वहीँ रखी बोतल से थोड़ा पानी लिया और हाथों पर मल लिया. गीले हाथों पर हल्दी लगायी और कार्ड पर अपने सुन्दर हाथों की अल्पना जड़ दी, फिर कार्ड मुझे दे दिया . मैं असमंजस में देख रही थी. वही बोली -"मैम , दुबारा आऊँगी. आने देंगी न आप. आपको बहुत कुछ बताना चाहती थी पर देर हो गयी. जब बताने की घड़ी आई तो आप अपने घर चली गयीं थीं. मैं पूरी छुट्टियों में आपकी बाट जोहती रही. जब आप आयीं तो सब ख़तम हो चुका था." उसने अपने आँचल से एक और कार्ड निकाला तथा मेरे हाथ में थमा दिया. मैं कुछ कहती-सुनती उससे पहले ही वह दरवाजा खोल कर बिजली की गति से बाहर हो गयी. मैं दोनों कार्ड लिए हतप्रभ खड़ी थी. कार्ड की छपाई नुकीली पेंसिल बनकर मेरी आँखें छील रही थी. सारा दिन ये लिखावट मुझे कुरेदती रही... छीलती रही ... दीवारों से सुलभा की आवाज़ टकरा-टकराकर लौट आती और यहीं इसी कमरे में दफ़न हो जाती. रह-रहकर सुलभा सामने आ जाती. लाल जोड़े में लिपटी सुलभा ... हाथों में हिना रचाए सुलभा ....बड़ी सी नथ का भार संभालती सुलभा ...गोरे माथे पर सिंदूरी बिंदिया सजाये सुलभा....!<br />
<br />
<br />
अगले दिन कार्ड पर दिए पते पर निश्चित समय पर पहुँच गयी. विशाल पंडाल - कनातें सजी थीं . इत्र की ख़ुशबू से वातावरण महक रहा था. शहनाई बज रही थी . वहीँ एक भव्य रथ पर सुलभा अपनी माँ के साथ बैठी थी. शादी का वही जोड़ा... वही मेहंदी ... ! मैंने उसी रूप को आरोपित किया जो कल मेरे सामने प्रत्यक्ष था. भव्य रथ यात्रा थी. सुलभा पञ्च -मेवों का दान करती .. पीछे चलता जन-समूह उसे लूट कर प्रसाद प्राप्ति का सुख पाता. पर इस व्यस्तता में चार आँखें थीं जो कुछ अलग -अलग सूनापन लिए खुद से लड़ रहीं थीं - दो मेरी और दो सुलभा की. रथ यात्रा नियत समय पर नियत स्थान पर पहुँच गयी. कोई और स्थान नहीं - मेरा ही कॉलेज; जहाँ मैं पढ़ाती थी सुलभा को.... और अन्य कइयों को . कॉलेज के प्रांगण को विशेष रूप से सजाया गया था. नीली-पीली, लाल-हरी तिकोनी झंडियाँ ... आज विशाल पूजा जो होनी थी!<br />
<br />
<br />
सब कुछ मेरे सामने हुआ ... मैं चुप खड़ी रही ! सुलभा अब सफ़ेद वस्त्रों में थी . संगमरमर की तराशी मूर्ति! वह मंत्रचलित सी बैठ गयी. जन-समूह उसकी जय-जयकार कर रहा था. कितने लम्बे बाल हैं सुलभा के ! पहले कभी क्यों नहीं ध्यान गया ! रेशम जैसे बाल लहरा रहे थे. मौसम बहुत खुशगवार था पर गरम पसीना मेरे माथे से चू रहा था .ठंडी हवा कंटीली जान पड़ रही थी. सब कुछ बदल रहा था ... वेश ..किसका ? ... भाव.....किसका? और वह सुन्दर चिर -परिचित नाम किसका ...! मैंने आँखें मूंद लीं . मन हुआ कि भाग जाऊं, किन्तु वे दो आँखें मुझे घेर लेतीं.. ... जकड लेतीं .... मैं कहीं नहीं गयी. वहीँ रही ..अपनी सुलभा के पास. यही तो चाहती थी वह .<br />
<br />
<br />
अब उसके सिर पर उस्तरा चल रहा था .... घर्र -घर्र करता ... लपक -लपक कर उसके बाल कटते रहे और मैं ........ जडवत देखती रही ... घर्र -घर्र -घर्र ...."यदि मैं कहूँ कि मैं आपके पास रहने आई हूँ तो क्या आप मान जाएँगी ?" घर्र -घर्र -घर्र ...जैसे कोई घन पीट-पीटकर शब्द कानों में उतार रहा था और मैं झूठे मुँह भी न बोल पायी....सुलभा तू इसे अपना घर मान. मैंने सुना कि उसका नाम साक्षी महाराज हो गया है. ये भी सुना कि कल वह पितृ -गृह प्रथम भीक्षा लेने जायेगी और अपने माँ-पिता का नाम गौरवान्वित करेगी .<br />
<br />
<br />
कॉलेज का प्रांगण खली हो गया. सुलभा चली गयी. मैं भी लौट आई अपने एक कमरे के घर में. रोशनदान में बैठी चिड़िया चीं चीं करती रही. मैंने आँखें बंद कर लीं . अगले दिन सुबह -सुबह किसी ने दरवाज़ा खटखटाया . बेमन से दरवाज़ा खोला .....सामने सुलभा खड़ी थी .. सफ़ेद कपड़ों में लिपटी...हाथ में एक भिक्षा पात्र. थोड़ी देर खड़ी रही...सूनी बड़ी आँखें कुछ पूछ रहीं थीं ... कुछ मांग रहीं थीं ,पर मेरे पास क्या था जो दे देती ......वह खाली हाथ चली गयी.....पर उसका दिया हल्दी-लगा कार्ड है मेरे पास . हल्दी मेरे पके बालों के साथ कुछ उजली हो गयी है. एक आवाज़ गाहे-बगाहे सुनती हूँ , कोई कहा रहा है ....सुलभा कब आओगी???<br />
<br />
अपर्णा<br />
<br />
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446904?profile=original" alt=""/></p>क्या स्वीकार कर पाएगी वहtag:openbooks.ning.com,2010-09-18:5170231:BlogPost:209632010-09-18T13:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<b>क्या स्वीकार कर पाएगी वह ?</b><br />
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446631?profile=original"></img></p>
<br />
कोयला उसे बहुत नरम लगता है<br />
और कहीं ठंडा ..<br />
उसके शरीर में<br />
जो कोयला ईश्वर ने भरा है<br />
वह अजीब काला है<br />
सख्त है<br />
और कहीं गरम .!<br />
अक्सर जब रात को आँखों में घड़ियाँ दब जाती हैं<br />
और उनकी टिकटिक सन्नाटे में खो जाती है ..<br />
तब अचानक कुछ जल उठता है ..<br />
और सारे सपनों को कुदाल से तोड़<br />
वह न जाने किस खंदक में जा पहुँचती है l<br />
<br />
<br />
तभी पहाड़ों से लिपटकर<br />
कई बादल चीखते हैं<br />
जंगल काँप उठता है<br />
और न जाने कहाँ से<br />
भेड़िये गाँव की बकरियों को दबोचने आ…
<b>क्या स्वीकार कर पाएगी वह ?</b><br />
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446631?profile=original" alt=""/></p>
<br />
कोयला उसे बहुत नरम लगता है<br />
और कहीं ठंडा ..<br />
उसके शरीर में<br />
जो कोयला ईश्वर ने भरा है<br />
वह अजीब काला है<br />
सख्त है<br />
और कहीं गरम .!<br />
अक्सर जब रात को आँखों में घड़ियाँ दब जाती हैं<br />
और उनकी टिकटिक सन्नाटे में खो जाती है ..<br />
तब अचानक कुछ जल उठता है ..<br />
और सारे सपनों को कुदाल से तोड़<br />
वह न जाने किस खंदक में जा पहुँचती है l<br />
<br />
<br />
तभी पहाड़ों से लिपटकर<br />
कई बादल चीखते हैं<br />
जंगल काँप उठता है<br />
और न जाने कहाँ से<br />
भेड़िये गाँव की बकरियों को दबोचने आ पहुँचते हैं !<br />
कुछ झील में तैरती झख बतखें<br />
क्वक-क्वक कर दौड़ती हैं<br />
और रात की स्याही पर<br />
लाल छींटबिखर जाता है ...<br />
झील की परत लाल हो जाती है l<br />
ओह !<br />
बादल की चीख खो गयी है<br />
किन्हीं कंदराओं में l<br />
<br />
<br />
वह अपने कोयले से बाहर आती है<br />
जब लूसीफर (शुक्र तारा ) आसमान की कोर पर<br />
भोर की लकीर खींचता है ...<br />
किसी दैमौन (ग्रीक का द्वितीय श्रेणी देवता ) की तरह<br />
उसके अन्दर की औरत को धिक्कारता<br />
उसे सक्यूबस कह कर उलाहना देता ...<br />
वह चुप हो बाहर आती है ...<br />
गाँव की निगाहें गीध बनकर छेदती हैं ...<br />
रोज़ के अनिष्ट से नहीं डरी<br />
पर आज न जाने क्या मंगल घटा है ..<br />
वह काँप गयी है भीतर तक ...<br />
अलाव तप्त हो गया है ...<br />
सूखे आंसू गलना सीख गए हैं ..<br />
कोई पुरुष उसकी कालिख डाकिन पर रीझा है ...<br />
क्या स्वीकार कर पाएगी वह ?<br />
<br />
अपर्णा भटनागर <br />
<br />
<br />
<br />
विशेष - (सन्दर्भ हेतु )<br />
कविता में विदेशी मिथकों को लिया गया है - डेमन के लिए जब हिंदी संस्कृत के शब्दों को लेकर बैठी तो लगा ये द्वितीय श्रेणी के देवताओं में नहीं आते और पिशाच आदि शब्द कविता में जुगुप्सा पैदा करते हैं .. इससे बचने के लिए और व्यापकता को समाविष्ट करने के लिए इन बिम्बों का प्रयोग किया l दैमौन (ग्रीक देवता ) शुक्र को बताया है जो सुबह आकाश में दीख पड़ रहा है ... क्योंकि दैमौन का प्रयोग उपयुक्त लगा इसलिए शुक्र को लूसीफर कहना पड़ा l इसी तरह काम की डायन कहना भारी लग रहा था तो सक्यूबस का प्रयोग किया ... ये शब्द आदिम अवस्था के प्रतिमान अधिक लगे और जिस नाज़ुक स्थिति में कविता आगे बढ़ रही है वहां इन शब्दों का प्रयोग प्रासंगिक लगा l कथा की ये नायिका उस समस्त तबके का हिस्सा है जो संसार में हर काल में , हर स्थान में विद्यमान रहा l चित्र भी विदेशी लगाया है l पर कविता पूरी तरह से देशी है l दुरूह न लगे इसलिए कोष्ठक में समानार्थी डाल दिए l कभी-कभी कविता में ध्वनियाँ भी महत्वपूर्ण होती हैं - इन शब्दों को आप हिंदी में डाल कर देखिये ... कविता अपनी ध्वनि खो बैठेगी और कुछ ऐसी कठोर हो जायेगी कि जिस depth को छूना चाहते हैं वह नहीं रहेगी l इसलिए हमारी भाषा से इतर शब्दों का चयन करने में हिचकिचाहट नहीं हुई ... कई विदेशी कविताओं में आप भारतीय मिथकों का प्रयोग पायेंगे...lजगाना मत !tag:openbooks.ning.com,2010-09-17:5170231:BlogPost:204702010-09-17T11:30:00.000ZAparna Bhatnagarhttps://openbooks.ning.com/profile/AparnaBhatnagar
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446944?profile=original"></img></p>
कांपते हाथों से<br />
वह साफ़ करता है कांच का गोला<br />
कालिख पोंछकर लगाता है जतन से ..<br />
लौ टिमटिमाने लगी है ..<br />
इस पीली झुंसी रोशनी में<br />
उसके माथे पर लकीरें उभरती हैं<br />
बाहर जोते खेत की तरह<br />
समय ने कितने हल चलाये हैं माथे पर ?<br />
पानी की टिपटिप सुनाई देती है<br />
बादलों की नालियाँ छप्पर से बह चली हैं<br />
बारह मासा - धूप, पानी ,सर्दी को<br />
अपनी झिर्रियों से आने देती<br />
काला पड़ा पुआल तिकोना मुंह बना<br />
हँसता है<br />
और वह काँप-काँपकर<br />
जिन्दगी को लालटेन में जलते देखता है ..<br />
इस रोशनी में और भी कुछ…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001446944?profile=original" alt=""/></p>
कांपते हाथों से<br />
वह साफ़ करता है कांच का गोला<br />
कालिख पोंछकर लगाता है जतन से ..<br />
लौ टिमटिमाने लगी है ..<br />
इस पीली झुंसी रोशनी में<br />
उसके माथे पर लकीरें उभरती हैं<br />
बाहर जोते खेत की तरह<br />
समय ने कितने हल चलाये हैं माथे पर ?<br />
पानी की टिपटिप सुनाई देती है<br />
बादलों की नालियाँ छप्पर से बह चली हैं<br />
बारह मासा - धूप, पानी ,सर्दी को<br />
अपनी झिर्रियों से आने देती<br />
काला पड़ा पुआल तिकोना मुंह बना<br />
हँसता है<br />
और वह काँप-काँपकर<br />
जिन्दगी को लालटेन में जलते देखता है ..<br />
इस रोशनी में और भी कुछ शामिल है -<br />
कुछ तुड़े-मुड़े ख़त<br />
उसके जाने के बाद के<br />
विस्मृति के बोझिल अक्षर<br />
जिन्हें वह बंचवाता था डाकिये से<br />
आजकल वह भी नहीं आता ..l<br />
इस लौ के सामने खोल देता है<br />
अक्षरों के बिम्ब ..<br />
अनपढ़ मन के रटे पाठ ..<br />
और सुधियाँ बरस पड़ती हैं<br />
ज्यों बैल की पीठ पर दागे कोड़े l<br />
गोले की जलन आँखों में भर गयी है<br />
एक कलौंस -<br />
अकेलेपन की ..<br />
कंपकंपाती लौ ऊपर उठती है<br />
भक होकर पछाड़ मारती है<br />
धुंए से भरी<br />
एक भोर -<br />
अब उसकी आँख लग गयी है<br />
जगाना मत !<br />
<br />
<br />
अपर्णा भटनागर