शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"'s Posts - Open Books Online2024-03-28T11:44:19Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaalhttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991294930?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=034ygsc93iqxk&xn_auth=noलावणी छन्द,संपूर्ण वर्णमाला पर प्रेम सगाईtag:openbooks.ning.com,2021-06-01:5170231:BlogPost:10609892021-06-01T03:00:00.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)</p>
<p>.</p>
<p>अभी-अभी तो मिली सजन से,<br></br> आकर मन में बस ही गये।<br></br> इस बन्धन के शुचि धागों को,<br></br> ईश स्वयं ही बांध गये।</p>
<p></p>
<p>उमर सलोनी कुञ्जगली सी,<br></br> ऊर्मिल चाहत है छाई।<br></br> ऋजु मन निरखे आभा उनकी,<br></br> एकनिष्ठ हो हरषाई।</p>
<p></p>
<p>ऐसा अपनापन पाकर मन,<br></br> ओढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,<br></br> और मेरे सपनों का राजा,<br></br> अंतरंग मालूम खड़ा।</p>
<p></p>
<p>अ: अनूठा अनुभव प्यारा,<br></br> कलरव सी ध्वनि होती है।<br></br> खनखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,<br></br> गहना…</p>
<p>(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)</p>
<p>.</p>
<p>अभी-अभी तो मिली सजन से,<br/> आकर मन में बस ही गये।<br/> इस बन्धन के शुचि धागों को,<br/> ईश स्वयं ही बांध गये।</p>
<p></p>
<p>उमर सलोनी कुञ्जगली सी,<br/> ऊर्मिल चाहत है छाई।<br/> ऋजु मन निरखे आभा उनकी,<br/> एकनिष्ठ हो हरषाई।</p>
<p></p>
<p>ऐसा अपनापन पाकर मन,<br/> ओढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,<br/> और मेरे सपनों का राजा,<br/> अंतरंग मालूम खड़ा।</p>
<p></p>
<p>अ: अनूठा अनुभव प्यारा,<br/> कलरव सी ध्वनि होती है।<br/> खनखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,<br/> गहना हीरे-मोती है।</p>
<p></p>
<p>घन पानी से भरे हुए ज्यूँ,<br/> चन्द्र-चकोरी व्याकुलता।<br/> छटा निराली सावन जैसी,<br/> जरा-जरा मृदु आकुलता।</p>
<p></p>
<p>झरझर झरना प्रेम का बरसे,<br/> टसक उठी मीठी हिय में।<br/> ठहर गया हो कालचक्र भी,<br/> डर अंजाना सा जिय में।</p>
<p></p>
<p>ढम-ढम ढोल नगाड़े बाजे,<br/> तनिक हँसी आ जाती है।<br/> थपकी स्वीकृत मौन प्रेम की,<br/> दमक नयन में लाती है।</p>
<p></p>
<p>धड़क रहा दिल स्नेहपात्र पा,<br/> नव नूतन जग लगता है।<br/> प्रणय निवेदन सर आँखों पर,<br/> फाग प्रेम सा जगता है।</p>
<p></p>
<p>बन्द करी तस्वीर पिया की,<br/> भरी तिजोरी मन की है।<br/> महक उठी सूनी सी बगिया,<br/> यही कथा पिय धन की है।</p>
<p></p>
<p>रहना है अब साथ सदा ही,<br/> लगन लगी मन में भारी,<br/> वल्लभ की मैं बनूं वल्लभा,<br/> 'शुचि' प्रभु की है आभारी।</p>
<p></p>
<p>सकल सृष्टि सुखदायक लगती,<br/> षधा डगर है जीवन ही,<br/> हम बन जायें अब मैं-तुम से,<br/> क्षणिक नहीं आजीवन ही।</p>
<p></p>
<p>त्रास नहीं,सुख की बेला है ,<br/> ज्ञात यही बस होता है।<br/> वर्णमाल सी ऋचा है जीवन,<br/> भाव भरा मन होता है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p><br/></p>माधव मालती छन्द, नारी शौर्य गाथाtag:openbooks.ning.com,2021-05-31:5170231:BlogPost:10610872021-05-31T11:30:00.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>कष्ट सहकर नीर बनकर,आँख से वो बह रही थी।<br></br> क्षुब्ध मन से पीर मन की, मूक बन वो सह रही थी।</p>
<p><br></br> स्वावलम्बन आत्ममंथन,थे पुरुष कृत बेड़ियों में।<br></br> एक युग था नारियों की,बुद्धि समझी ऐड़ियों में।</p>
<p></p>
<p>आज नारी तोड़ सारे बन्धनों की हथकड़ी को,<br></br> बढ़ रही है,पढ़ रही है,लक्ष्य साधें हर घड़ी वो।</p>
<p><br></br> आज दृढ़ नैपुण्य से यह,कार्यक्षमता बढ़ रही है।<br></br> क्षेत्र सारे वो खँगारे, पर्वतों पर चढ़ रही है।</p>
<p></p>
<p>नभ उड़ानें विजय ठाने, देश हित में उड़ रही वो,<br></br> पूर्ण करती हर चुनौती…</p>
<p>कष्ट सहकर नीर बनकर,आँख से वो बह रही थी।<br/> क्षुब्ध मन से पीर मन की, मूक बन वो सह रही थी।</p>
<p><br/> स्वावलम्बन आत्ममंथन,थे पुरुष कृत बेड़ियों में।<br/> एक युग था नारियों की,बुद्धि समझी ऐड़ियों में।</p>
<p></p>
<p>आज नारी तोड़ सारे बन्धनों की हथकड़ी को,<br/> बढ़ रही है,पढ़ रही है,लक्ष्य साधें हर घड़ी वो।</p>
<p><br/> आज दृढ़ नैपुण्य से यह,कार्यक्षमता बढ़ रही है।<br/> क्षेत्र सारे वो खँगारे, पर्वतों पर चढ़ रही है।</p>
<p></p>
<p>नभ उड़ानें विजय ठाने, देश हित में उड़ रही वो,<br/> पूर्ण करती हर चुनौती हाथ ध्वज ले बढ़ रही वो।</p>
<p><br/> संकटों में कंटकों से है उबरती आत्मबल से,<br/> अब न अबला पूर्ण सबला विजय उसकी शौर्यबल से।</p>
<p></p>
<p>राष्ट्र सेवक मार्गदर्शक हौंसलों के पर लगाये,<br/> अड़चनों से दुश्मनों के होश देती वो उड़ाये।</p>
<p><br/> शान भी अभिमान भी वह देश का सम्मान नारी,<br/> आज कहता विश्व सारा है गुणों की खान नारी।।<br/>★★★★★★★★★★★★★★</p>
<p></p>
<p>यह मापनी आधारित मात्रिक छन्द है।<br/>इसकी मापनी निम्न है-<br/>2122 2122 2122 2122<br/>चूंकि यह मात्रिक छन्द है अतः गुरु वर्ण (2) को दो लघु (11) में तोड़ा जा सकता है।<br/>इसके चार चरण होते हैं, जिनमें दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिए।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं <span style="font-size: 12pt;">अप्रकाशित</span></p>कामरूपछन्द_वितालछन्द, माँ की रसोईtag:openbooks.ning.com,2021-05-25:5170231:BlogPost:10604752021-05-25T15:00:00.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>माँ की रसोई,श्रेष्ठ होई,है न इसका तोड़,<br></br> जो भी पकाया,खूब खाया,रोज लगती होड़।<br></br> हँसकर बनाती,वो खिलाती,प्रेम से खुश होय,<br></br> था स्वाद मीठा,जो पराँठा, माँ खिलाती पोय।</p>
<p></p>
<p>खुशबू निराली,साग वाली,फैलती चहुँ ओर,<br></br> मैं पास आती,बैठ जाती,भूख लगती जोर।<br></br> छोंकन चिरौंजी,आम लौंजी,माँ बनाती स्वाद,<br></br> चाहे दही हो,छाछ ही हो,कुछ न था बेस्वाद।</p>
<p></p>
<p>मैं रूठ जाती,वो मनाती,भोग छप्पन्न लाय,<br></br> सीरा कचौरी या पकौड़ी, सोंठ वाली चाय।<br></br> चावल पकाई,खीर लाई,तृप्त मन हो जाय,…<br></br></p>
<p>माँ की रसोई,श्रेष्ठ होई,है न इसका तोड़,<br/> जो भी पकाया,खूब खाया,रोज लगती होड़।<br/> हँसकर बनाती,वो खिलाती,प्रेम से खुश होय,<br/> था स्वाद मीठा,जो पराँठा, माँ खिलाती पोय।</p>
<p></p>
<p>खुशबू निराली,साग वाली,फैलती चहुँ ओर,<br/> मैं पास आती,बैठ जाती,भूख लगती जोर।<br/> छोंकन चिरौंजी,आम लौंजी,माँ बनाती स्वाद,<br/> चाहे दही हो,छाछ ही हो,कुछ न था बेस्वाद।</p>
<p></p>
<p>मैं रूठ जाती,वो मनाती,भोग छप्पन्न लाय,<br/> सीरा कचौरी या पकौड़ी, सोंठ वाली चाय।<br/> चावल पकाई,खीर लाई,तृप्त मन हो जाय,<br/> मुझको खिलाकर,बाँह भरकर,माँ रहे मुस्काय।</p>
<p></p>
<p>चुल्हा जलाती,फूँक छाती,नीर झरते नैन,<br/> लेकिन न थकती,काम करती,और पाती चैन।<br/> स्वादिष्ट खाना,वो जमाना,याद आता आज,<br/> उस सी रसोई,है न कोई,माँ तुम्ही सरताज।</p>
<p>.<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>रसाल_छन्द, प्रकृति से खिलवाड़tag:openbooks.ning.com,2021-05-22:5170231:BlogPost:10603502021-05-22T11:30:00.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>सुस्त गगनचर घोर,पेड़ नित काट रहें नर,<br></br> विस्मित खग घनघोर,नीड़ बिन हैं सब बेघर।<br></br> भूतल गरम अपार,लोह सम लाल हुआ अब,<br></br> चिंतित सकल सुजान,प्राकृतिक दोष बढ़े सब।</p>
<p></p>
<p>दूषित जग परिवेश, सृष्टि विषपान करे नित।<br></br> दुर्गत वन,सरि, सिंधु,कौन समझे इनका हित,<br></br> है क्षति प्रतिदिन आज,भूल करता सब मानव,<br></br> वैभव निज सुख स्वार्थ,हेतु बनता वह दानव।</p>
<p></p>
<p>होय विकट खिलवाड़,क्रूर नित स्वांग रचाकर।<br></br> केवल क्षणिक प्रमोद,दाँव चलते बस भू पर,<br></br> मानव कहर मचाय,छोड़ सत धर्म विरासत…<br></br></p>
<p>सुस्त गगनचर घोर,पेड़ नित काट रहें नर,<br/> विस्मित खग घनघोर,नीड़ बिन हैं सब बेघर।<br/> भूतल गरम अपार,लोह सम लाल हुआ अब,<br/> चिंतित सकल सुजान,प्राकृतिक दोष बढ़े सब।</p>
<p></p>
<p>दूषित जग परिवेश, सृष्टि विषपान करे नित।<br/> दुर्गत वन,सरि, सिंधु,कौन समझे इनका हित,<br/> है क्षति प्रतिदिन आज,भूल करता सब मानव,<br/> वैभव निज सुख स्वार्थ,हेतु बनता वह दानव।</p>
<p></p>
<p>होय विकट खिलवाड़,क्रूर नित स्वांग रचाकर।<br/> केवल क्षणिक प्रमोद,दाँव चलते बस भू पर,<br/> मानव कहर मचाय,छोड़ सत धर्म विरासत<br/> लोलुप मन विकराल,दुष्ट गढ़ता नित आफत।</p>
<p></p>
<p>संकट अति विकराल,होय अब मानव शोषण,<br/> भोग जगत परिणाम,रोग अरु घोर कुपोषण।<br/> क्रूर प्रलय जग माय,प्राण बचने अब मुश्किल,<br/> आज जगत असहाय,जीव दिखते सब धूमिल।</p>
<p><br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>"करो उजागर प्रतिभा अपनी"tag:openbooks.ning.com,2021-04-27:5170231:BlogPost:10595242021-04-27T09:30:00.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>प्रतिभा छुपी हुई है सबमें,करो उजागर,<br></br> अथाह ज्ञान,गुण, शौर्य समाहित,तुम हो सागर।<br></br> डरकर,छुपकर,बन संकोची,रहते क्यूँ हो?<br></br> मन पर निर्बलता की चोटें,सहते क्यूँ हो?</p>
<p></p>
<p>तिमिर चीर रवि द्योत धरा पर ले आता है।<br></br> अंधकार से डरकर क्यूँ नहीं छिप जाता है?<br></br> पराक्रमी राहों को सुलभ सदा कर देते,<br></br> आलस प्रिय जिनको,बहाने बना ही लेते।</p>
<p></p>
<p>तंत्र,मन्त्र,ज्योतिष विद्या,कर्मठ के संगी,<br></br> भाग्य भरोसे जो बैठे वो सहते तंगी।<br></br> प्रबल भुजाओं को खोलो,प्रशंस्य बनो,…<br></br></p>
<p>प्रतिभा छुपी हुई है सबमें,करो उजागर,<br/> अथाह ज्ञान,गुण, शौर्य समाहित,तुम हो सागर।<br/> डरकर,छुपकर,बन संकोची,रहते क्यूँ हो?<br/> मन पर निर्बलता की चोटें,सहते क्यूँ हो?</p>
<p></p>
<p>तिमिर चीर रवि द्योत धरा पर ले आता है।<br/> अंधकार से डरकर क्यूँ नहीं छिप जाता है?<br/> पराक्रमी राहों को सुलभ सदा कर देते,<br/> आलस प्रिय जिनको,बहाने बना ही लेते।</p>
<p></p>
<p>तंत्र,मन्त्र,ज्योतिष विद्या,कर्मठ के संगी,<br/> भाग्य भरोसे जो बैठे वो सहते तंगी।<br/> प्रबल भुजाओं को खोलो,प्रशंस्य बनो,<br/> राष्ट्रप्रेम हित योगदान का तुम भी अंश बनो।</p>
<p></p>
<p>निश्शंक होय बढ़ते जो,मंजिल पाते हैं।<br/> बल-बूते पर अपने वो अव्वल आते हैं।<br/> परिचय श्रेष्ठ बनाना हो तो,आगे आओ,<br/> वरना दूजों के बस सम्बन्धी कहलाओ।</p>
<p><br/> <br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>हास्य कुंडलियाtag:openbooks.ning.com,2019-01-17:5170231:BlogPost:9698702019-01-17T10:30:00.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>(1)<br></br> सारे घर के लोग हम, निकले घर से आज<br></br> टाटा गाड़ी साथ ले, निपटा कर सब काज।<br></br> निपटा कर सब काज, मौज मस्ती थी छाई<br></br> तभी हुआ व्यवधान, एक ट्रक थी टकराई।<br></br> ट्रक पे लिखा पढ़ हाय, दिखे दिन में ही तारे<br></br> 'मिलेंगे कल फिर बाय', हो गए घायल सारे।।</p>
<p>(2)<br></br> खोया खोया चाँद था, सुखद मिलन की रात<br></br> शीतल मन्द बयार थी, रिमझिम सी बरसात।<br></br> रिमझिम सी बरसात, प्रेम की अगन लगाये<br></br> जोड़ा बैठा साथ, बात की आस लगाये।<br></br> गूंगा वर सकुचाय, गोद में उसकी सोया<br></br> बहरी दुल्हन पाय, चैन जीवन…</p>
<p>(1)<br/> सारे घर के लोग हम, निकले घर से आज<br/> टाटा गाड़ी साथ ले, निपटा कर सब काज।<br/> निपटा कर सब काज, मौज मस्ती थी छाई<br/> तभी हुआ व्यवधान, एक ट्रक थी टकराई।<br/> ट्रक पे लिखा पढ़ हाय, दिखे दिन में ही तारे<br/> 'मिलेंगे कल फिर बाय', हो गए घायल सारे।।</p>
<p>(2)<br/> खोया खोया चाँद था, सुखद मिलन की रात<br/> शीतल मन्द बयार थी, रिमझिम सी बरसात।<br/> रिमझिम सी बरसात, प्रेम की अगन लगाये<br/> जोड़ा बैठा साथ, बात की आस लगाये।<br/> गूंगा वर सकुचाय, गोद में उसकी सोया<br/> बहरी दुल्हन पाय, चैन जीवन का खोया।</p>
<p>(3)<br/> गौरी बैठी आड़ में, ओढ़ दुप्पटा लाल<br/> दूरबीन से देखकर, होवे मालामाल<br/> होवे मालामाल, दौड़ जंगल में भागा<br/> पीछे कुत्ते चार, हांपने मजनू लागा<br/> हांडी गोल मटोल, नहीं कोई भी छोरी<br/> हरित खेत लहराय, खेत की थी वो गौरी।।</p>
<p>(4)<br/> रोटी बोली साग से, सुनो व्यथा भरतार<br/> गूंथ गूंथ बेलन रखे, मारे नित नर- नार।<br/> मारे नित नर -नार, पीड़ सब सह लेती हूं<br/> खाकर भी बिसराय, तभी मैं रो पड़ती हूँ।<br/> पिज़्ज़ा बर्गर खाय, करेंगे बुद्धि मोटी<br/> पड़ेंगे जब बिमार, याद तब आये रोटी।</p>
<p>(5)<br/> फूफा-जीजा साथ में, दूर खड़े मुख मोड़<br/> नया जवाई आ गया, कौन करे अब कोड़।<br/> कौन करे अब कोड़, आग मन में लगती है,<br/> राजा साडू आज, उसे आँखें तकती है।<br/> रगड़ रहा ससुराल, समझ हमको अब लूफा<br/> हुए पुरातन वस्त्र, रो रहे जीजा-फूफा।8</p>
<p>(6)<br/> बहना तुमसे ही कहूँ, अपने हिय की बात<br/> जीजा तेरा कवि बना, बोले सारी रात<br/> बोले सारी रात, नींद में कविता गाये<br/> भृकुटी अपनी तान, वीर रस गान सुनाये<br/> प्रकट करे आभार, गजब ढाता यह कहना<br/> धरकर मेरा हाथ, कहे आभारी बहना।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>इज्जतtag:openbooks.ning.com,2019-01-10:5170231:BlogPost:9689702019-01-10T11:00:00.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>(ताटंक छन्द)</p>
<p></p>
<p>इज्जत देना जब सीखोगे, इज्जत खुद भी पाओगे,<br></br> नेक राह पर चलकर देखो, कितना सबको भाओगे।</p>
<p></p>
<p>शब्द बाँधते हर रिश्ते को, शब्द तोड़ते नातों को।<br></br> मधुर भाव जो मन में पनपे, बहरा समझे बातों को।</p>
<p></p>
<p>तनय सुता वनिता माता सब,भूखे प्रेम के होते हैं,<br></br> कड़वाहट से व्यथित होय ये, आँसू पीकर सोते हैं।</p>
<p></p>
<p>इज्जत की रोटी जो खाते, सीना ताने जीते हैं,<br></br> नींद चैन की उनको आती, अमृत सम जल पीते हैं।</p>
<p></p>
<p>नारी का गहना है इज्जत, भावों की वह…</p>
<p>(ताटंक छन्द)</p>
<p></p>
<p>इज्जत देना जब सीखोगे, इज्जत खुद भी पाओगे,<br/> नेक राह पर चलकर देखो, कितना सबको भाओगे।</p>
<p></p>
<p>शब्द बाँधते हर रिश्ते को, शब्द तोड़ते नातों को।<br/> मधुर भाव जो मन में पनपे, बहरा समझे बातों को।</p>
<p></p>
<p>तनय सुता वनिता माता सब,भूखे प्रेम के होते हैं,<br/> कड़वाहट से व्यथित होय ये, आँसू पीकर सोते हैं।</p>
<p></p>
<p>इज्जत की रोटी जो खाते, सीना ताने जीते हैं,<br/> नींद चैन की उनको आती, अमृत सम जल पीते हैं।</p>
<p></p>
<p>नारी का गहना है इज्जत, भावों की वह माता है,<br/> शब्द प्रेम के सुनकर उसका , हृदय पिघल ही जाता है।</p>
<p></p>
<p>अपनों की इज्जत सब करना, अपने अपने होते हैं,<br/> अपनों को जो ठोकर मारे, अपनी इज्जत खोते हैं।</p>
<p></p>
<p>जो बोयेंगे खुद हम पायें, फिर कैसी नादानी है,<br/> सबकी इज्जत करनी हमको, ये अपनी मनमानी है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p><br/></p>गजलtag:openbooks.ning.com,2019-01-07:5170231:BlogPost:9687562019-01-07T14:32:10.000Zशुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>प्यार का तुमने दिया मुझको सिला कुछ भी नहीं,<br></br>मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p>कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं,<br></br>फिर भी अपने ज़ुर्म का जिनको गिला कुछ भी नहीं।<br></br> <br></br>राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में ,<br></br>मायने उनके लिए फिर काफिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p>हौंसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ,<br></br>बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p>ज़िंदगी चाहें तो बेहतर हम बना सकते यहाँ,<br></br>ज़ीस्त में…</p>
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>प्यार का तुमने दिया मुझको सिला कुछ भी नहीं,<br/>मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p>कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं,<br/>फिर भी अपने ज़ुर्म का जिनको गिला कुछ भी नहीं।<br/> <br/>राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में ,<br/>मायने उनके लिए फिर काफिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p>हौंसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ,<br/>बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p>ज़िंदगी चाहें तो बेहतर हम बना सकते यहाँ,<br/>ज़ीस्त में ग़र रंजोगम का दाखिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p>रहते जो हर हाल में खुश वो कहाँ कहते कभी,<br/>*जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं*।</p>
<p></p>
<p>चाह 'शुचिता' प्रेम की रख मंजिलें करती है तय,<br/>प्रेम जीवन में अगर तो अधखिला कुछ भी नहीं।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p><br/><br/><br/></p>