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2024-03-29T15:43:21Z
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उस मुसाफिर के पाँव मत बाँधो - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
tag:openbooks.ning.com,2023-12-02:5170231:BlogPost:1113261
2023-12-02T01:30:00.000Z
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
https://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p dir="ltr"><a>२१२२/१२१२/२२</a><br></br> *<br></br> सूनी आँखों की रोशनी बन जा<br></br> ईद आयी सी फिर खुशी बन जा।१।<br></br> *<br></br> अब भी प्यासा हूँ इक सदी बीती<br></br> चैन पाऊँ कि तू नदी बन जा।२।<br></br> *<br></br> हो गया जग ये शीत का मौसम<br></br> धूप सी तू तो गुनगुनी बन जा।३।<br></br> *<br></br> मौत आकर खड़ी है द्वार अपने <br></br> एक पल को ही ज़िन्दगी बन जा।४।<br></br> *<br></br> मुग्ध कर दू फिर से हर महफिल <br></br> आ के अधरों पे शायरी बन जा।५।<br></br> *<br></br> इस नगर में तो सिर्फ मसलेंगे<br></br> फूल जाकर तू जंगली बन जा।६।…<br></br></p>
<p dir="ltr"><a>२१२२/१२१२/२२</a><br/> *<br/> सूनी आँखों की रोशनी बन जा<br/> ईद आयी सी फिर खुशी बन जा।१।<br/> *<br/> अब भी प्यासा हूँ इक सदी बीती<br/> चैन पाऊँ कि तू नदी बन जा।२।<br/> *<br/> हो गया जग ये शीत का मौसम<br/> धूप सी तू तो गुनगुनी बन जा।३।<br/> *<br/> मौत आकर खड़ी है द्वार अपने <br/> एक पल को ही ज़िन्दगी बन जा।४।<br/> *<br/> मुग्ध कर दू फिर से हर महफिल <br/> आ के अधरों पे शायरी बन जा।५।<br/> *<br/> इस नगर में तो सिर्फ मसलेंगे<br/> फूल जाकर तू जंगली बन जा।६।<br/> *<br/> काम आया न जो नदी होकर<br/> शाप उसको है तिश्नगी बन जा।७।<br/> *<br/> उस 'मुसाफिर' के पाँव मत बाँधो<br/> जिस ने बोला है चाँदनी बन जा।८।<br/> *<br/> *<br/> मौलिक/अप्रकाशित<br/> लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr"></p>
ग़ज़ल दिनेश कुमार -- अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा
tag:openbooks.ning.com,2023-12-03:5170231:BlogPost:1112567
2023-12-03T04:30:00.000Z
दिनेश कुमार
https://openbooks.ning.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212-- 1122-- 1212-- 22</p>
<p></p>
<p>अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा</p>
<p>परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा</p>
<p></p>
<p>ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है </p>
<p>उभर के आया है आदम में जानवर कैसा</p>
<p></p>
<p>अधूरे ख़्वाब की सिसकी या फ़िक्र फ़रदा की</p>
<p>हमारे ज़हन में ये शोर रात-भर कैसा</p>
<p></p>
<p>सरों से शर्मो हया का सरक गया आंचल </p>
<p>ये बेटियों पे हुआ मग़रिबी असर कैसा</p>
<p></p>
<p>वो ख़ुद-परस्त था, पीरी में आ के समझा है </p>
<p>जफ़ा के पेड़ पे रिश्तों का अब…</p>
<p>1212-- 1122-- 1212-- 22</p>
<p></p>
<p>अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा</p>
<p>परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा</p>
<p></p>
<p>ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है </p>
<p>उभर के आया है आदम में जानवर कैसा</p>
<p></p>
<p>अधूरे ख़्वाब की सिसकी या फ़िक्र फ़रदा की</p>
<p>हमारे ज़हन में ये शोर रात-भर कैसा</p>
<p></p>
<p>सरों से शर्मो हया का सरक गया आंचल </p>
<p>ये बेटियों पे हुआ मग़रिबी असर कैसा</p>
<p></p>
<p>वो ख़ुद-परस्त था, पीरी में आ के समझा है </p>
<p>जफ़ा के पेड़ पे रिश्तों का अब समर कैसा</p>
<p></p>
<p>दिनेश कुमार </p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p></p>
<p></p>
ठहरा यह जीवन
tag:openbooks.ning.com,2023-12-25:5170231:BlogPost:1113964
2023-12-25T16:30:00.000Z
Ashok Kumar Raktale
https://openbooks.ning.com/profile/AshokKumarRaktale
<p></p>
<p>गहरे तल पर ठहरे तम-सा,</p>
<p>ठहरा यह जीवन।</p>
<p>*</p>
<p>मौन तोड़ती एक न आहट,</p>
<p>घूरे बस निर्जन।</p>
<p>कौन रुका इस सूने पथ पर,</p>
<p>जो होगी खनखन।</p>
<p>घर आँगन दालानों की भी,</p>
<p>छाँव नहीं कोई।</p>
<p>दूर-दूर तक वीराना है,</p>
<p>गाँव नहीं कोई।</p>
<p>चले हवाएँ गला काटतीं,</p>
<p>सर्द बहुत अगहन।</p>
<p>*</p>
<p>कहीं चढ़ाई साँस फुलाए</p>
<p>कहीं ढाल फिसलन।</p>
<p>क़दम-क़दम पर भटकाने को,</p>
<p>ख़ड़ी एक उलझन।</p>
<p>लम्बा रस्ता पार न होता,</p>
<p>कितना चल आये।</p>
<p>चार क़दम पर…</p>
<p></p>
<p>गहरे तल पर ठहरे तम-सा,</p>
<p>ठहरा यह जीवन।</p>
<p>*</p>
<p>मौन तोड़ती एक न आहट,</p>
<p>घूरे बस निर्जन।</p>
<p>कौन रुका इस सूने पथ पर,</p>
<p>जो होगी खनखन।</p>
<p>घर आँगन दालानों की भी,</p>
<p>छाँव नहीं कोई।</p>
<p>दूर-दूर तक वीराना है,</p>
<p>गाँव नहीं कोई।</p>
<p>चले हवाएँ गला काटतीं,</p>
<p>सर्द बहुत अगहन।</p>
<p>*</p>
<p>कहीं चढ़ाई साँस फुलाए</p>
<p>कहीं ढाल फिसलन।</p>
<p>क़दम-क़दम पर भटकाने को,</p>
<p>ख़ड़ी एक उलझन।</p>
<p>लम्बा रस्ता पार न होता,</p>
<p>कितना चल आये।</p>
<p>चार क़दम पर हाँफ गये सब,</p>
<p>अपने ही साये।</p>
<p>छ्ल-छल करती आँखों ने भी </p>
<p>पायी बस बिछड़न ।</p>
<p>*</p>
<p>धड़कन की लय टूट रही है,</p>
<p>मन मनके टूटे।</p>
<p>ख़ुशियों को ईर्ष्या की पल-पल,</p>
<p>चढ़ी बाढ़ लूटे।</p>
<p>संघर्षों का अन्त नहीं है,</p>
<p>हो कोई मौसम</p>
<p>चाहे दिन हो उजियारे का</p>
<p>या रातों का तम।</p>
<p>अगवा सारी हुईं उमंगे</p>
<p>बेबस हैं तनमन।</p>
<p>#</p>
<p>अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’</p>
<p></p>
<p>मौलिक/अप्रकाशित.</p>
कहता हूँ तुझसे जन्मों का नाता है ओबीओ
tag:openbooks.ning.com,2022-04-05:5170231:BlogPost:1082180
2022-04-05T02:50:49.000Z
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
https://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<div align="left"><p dir="ltr">गजल<br></br> 221/2121/1221/212</p>
</div>
<p dir="ltr">*<br></br> लेखन का खूब गुण जो सिखाता है ओबीओ<br></br> कारण यही है सब को लुभाता है ओबीओ।।<br></br> *<br></br> जुड़कर हुआ हूँ धन्य निखर लेखनी गयी<br></br> परिवार जैसा धर्म निभाता है ओबीओ।।<br></br> *<br></br> कमियों बता के दूर करें कैसे यह सिखा<br></br> लेखक सुगढ़ हमें यूँ बनाता है ओबीओ।।<br></br> *<br></br> अच्छा स्वयं तो लिखना है औरों को भी सिखा<br></br> चाहत ये सब के मन में जगाता है ओबीओ।।<br></br> *<br></br> वर्धन हमारा हौसला करने को साथ…</p>
<div align="left"><p dir="ltr">गजल<br/> 221/2121/1221/212</p>
</div>
<p dir="ltr">*<br/> लेखन का खूब गुण जो सिखाता है ओबीओ<br/> कारण यही है सब को लुभाता है ओबीओ।।<br/> *<br/> जुड़कर हुआ हूँ धन्य निखर लेखनी गयी<br/> परिवार जैसा धर्म निभाता है ओबीओ।।<br/> *<br/> कमियों बता के दूर करें कैसे यह सिखा<br/> लेखक सुगढ़ हमें यूँ बनाता है ओबीओ।।<br/> *<br/> अच्छा स्वयं तो लिखना है औरों को भी सिखा<br/> चाहत ये सब के मन में जगाता है ओबीओ।।<br/> *<br/> वर्धन हमारा हौसला करने को साथ साथ<br/> बढ़चढ़ के आगे नित्य जो आता है ओबीओ।।<br/> ई*<br/> कब से जुड़े हो प्रश्न अगर पूछ ले कोई<br/> कहता हूँ तुझसे जन्मों का नाता है ओबीओ।।<br/> *<br/> रखते हैं याद जन्म दिवस हम भी इसलिए<br/> माता का धर्म जब यूँ निभाता है ओबीओ।।<br/> *<br/> मौलिक/अप्रकाशित<br/> लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"</p>
<p dir="ltr"></p>
ओबीओ की बारहवीं सालगिरह का तुहफ़ा
tag:openbooks.ning.com,2022-04-02:5170231:BlogPost:1082417
2022-04-02T15:30:00.000Z
Samar kabeer
https://openbooks.ning.com/profile/Samarkabeer
<p>ग़ज़ल</p>
<p>212 212 212</p>
<p>तू है इक आइना ओबीओ<br></br> सबने मिल कर कहा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>जो भी तुझ से मिला ओबीओ<br></br> तेरा आशिक़ हुआ ओबीओ</p>
<p></p>
<p>तुझसे बहतर अदब का नहीं<br></br> कोई भी रहनुमा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>जन्म दिन हो मुबारक तुझे<br></br> मेरे प्यारे सखा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>यार बरसों से रूठे हैं जो<br></br> उनको वापस बुला ओबीओ</p>
<p></p>
<p>हम तेरा नाम ऊँचा करें<br></br> है यही कामना ओबीओ</p>
<p></p>
<p>जो नहीं सीखना चाहते<br></br> उनसे पीछा छुड़ा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>और जो सीखते हैं उन्हें<br></br> अपने…</p>
<p>ग़ज़ल</p>
<p>212 212 212</p>
<p>तू है इक आइना ओबीओ<br/> सबने मिल कर कहा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>जो भी तुझ से मिला ओबीओ<br/> तेरा आशिक़ हुआ ओबीओ</p>
<p></p>
<p>तुझसे बहतर अदब का नहीं<br/> कोई भी रहनुमा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>जन्म दिन हो मुबारक तुझे<br/> मेरे प्यारे सखा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>यार बरसों से रूठे हैं जो<br/> उनको वापस बुला ओबीओ</p>
<p></p>
<p>हम तेरा नाम ऊँचा करें<br/> है यही कामना ओबीओ</p>
<p></p>
<p>जो नहीं सीखना चाहते<br/> उनसे पीछा छुड़ा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>और जो सीखते हैं उन्हें<br/> अपने सर पर बिठा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>जो मेरे दिल ने मुझ से कहा<br/> मैंने वो कह दिया ओबीओ</p>
<p></p>
<p>हम तेरे साथ आगे बढ़ें<br/> रास्ता वो दिखा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>तेरा सेवक हूँ मुद्दत से मैँ<br/> और रहूँगा सदा ओबीओ</p>
<p></p>
<p>तू सदा यूँ ही फूले फले<br/> है 'समर की दुआ ओबीओ</p>
<p></p>
<p>'समर कबीर'</p>
<p>मौलिक/अप्रकाशित</p>
ओ बी ओ मंच को 12वीं सालगिरह पर समर्पित ग़ज़ल
tag:openbooks.ning.com,2022-04-03:5170231:BlogPost:1082150
2022-04-03T02:34:08.000Z
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
https://openbooks.ning.com/profile/Basudeo
<p>ओ बी ओ मंच को 12वीं सालगिरह पर समर्पित ग़ज़ल (1222*4)</p>
<p></p>
<p>किये हैं पूर्ण बारह वर्ष ओ बी ओ बधाई है,<br></br>हमारे दिल में चाहत बस तेरी ही रहती छाई है।</p>
<p></p>
<p>मिला इक मंच तुझ जैसा हमें अभिमान है इसका,<br></br>हमारी इस जहाँ में ओ बी ओ से ही बड़ाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी इक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते हैं,<br></br>हमारी एकता की ओ बी ओ ही बस इकाई है।</p>
<p></p>
<p>लगा जो मर्ज लिखने का, दिखाते ओ बी ओ को ही,<br></br>उसी के पास इसकी क्यों कि इकलौती दवाई है।</p>
<p></p>
<p>तुझे शत शत 'नमन' मेरा बधाई…</p>
<p>ओ बी ओ मंच को 12वीं सालगिरह पर समर्पित ग़ज़ल (1222*4)</p>
<p></p>
<p>किये हैं पूर्ण बारह वर्ष ओ बी ओ बधाई है,<br/>हमारे दिल में चाहत बस तेरी ही रहती छाई है।</p>
<p></p>
<p>मिला इक मंच तुझ जैसा हमें अभिमान है इसका,<br/>हमारी इस जहाँ में ओ बी ओ से ही बड़ाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी इक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते हैं,<br/>हमारी एकता की ओ बी ओ ही बस इकाई है।</p>
<p></p>
<p>लगा जो मर्ज लिखने का, दिखाते ओ बी ओ को ही,<br/>उसी के पास इसकी क्यों कि इकलौती दवाई है।</p>
<p></p>
<p>तुझे शत शत 'नमन' मेरा बधाई फिर से ओ बी ओ,<br/>यहीं मेरी पढ़ाई है यहीं मेरी लिखाई है।</p>
<p></p>
<p>बासुदेव अग्रवाल 'नमन'<br/>तिनसुकिया</p>
ओबीओ को एक छोटी सी भेंट---ग़ज़ल
tag:openbooks.ning.com,2022-04-03:5170231:BlogPost:1082335
2022-04-03T06:00:00.000Z
Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"
https://openbooks.ning.com/profile/PankajKumarMishraVatsyayan
<p>212 212 212 212</p>
<p></p>
<p>साल बारह का अब है हुआ ओबीओ </p>
<p>उम्र तरुणाई की पा गया ओबीओ</p>
<p></p>
<p>शाइरी गीत कविता कहानी ग़ज़ल</p>
<p>के अमिय नीर का है पता ओबीओ</p>
<p></p>
<p>संस्कार औ अदब का यहाँ मोल है</p>
<p>लेखनी के नियम पर टिका ओबीओ </p>
<p></p>
<p>गर है साहित्य संसार का आइना</p>
<p>तब तो दर्पण ही है दुनिया का ओबीओ</p>
<p></p>
<p>सीखने व सिखाने की है झील तू</p>
<p>ये भी पंकज तुझी में खिला ओबीओ </p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p>212 212 212 212</p>
<p></p>
<p>साल बारह का अब है हुआ ओबीओ </p>
<p>उम्र तरुणाई की पा गया ओबीओ</p>
<p></p>
<p>शाइरी गीत कविता कहानी ग़ज़ल</p>
<p>के अमिय नीर का है पता ओबीओ</p>
<p></p>
<p>संस्कार औ अदब का यहाँ मोल है</p>
<p>लेखनी के नियम पर टिका ओबीओ </p>
<p></p>
<p>गर है साहित्य संसार का आइना</p>
<p>तब तो दर्पण ही है दुनिया का ओबीओ</p>
<p></p>
<p>सीखने व सिखाने की है झील तू</p>
<p>ये भी पंकज तुझी में खिला ओबीओ </p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
यह भूला-बिसरा पत्र ...तुम्हारे लिए
tag:openbooks.ning.com,2021-12-05:5170231:BlogPost:1070082
2021-12-05T11:36:22.000Z
vijay nikore
https://openbooks.ning.com/profile/vijaynikore
<p>तेरे स्नेह के आंचल की छाँह तले</p>
<p>पल रहा अविरल कैसा ख़याल है यह</p>
<p>कि रिश्ते की हर मुस्कान को</p>
<p>या ज़िन्दगी की शराफ़त को</p>
<p>प्यार के अलफ़ाज़ से</p>
<p>क़लम में पिरो लिया है,</p>
<p>और फिर सी दिया है... कि</p>
<p>भूले से भी कहीं-कभी</p>
<p>इस रिश्ते की पावन</p>
<p>मासूम बखिया न उधड़े</p>
<p>और फिर कस दिया है उसे</p>
<p>कि उसमें कभी भी अचानक</p>
<p>वक़्त का कोई</p>
<p>झोल न पड़ जाए।</p>
<p> </p>
<p>सुखी रहो, सुखी रहो, सुखी रहो</p>
<p>हर साँस हर धड़कन दुहराए</p>
<p>स्नेह का यही एक ही…</p>
<p>तेरे स्नेह के आंचल की छाँह तले</p>
<p>पल रहा अविरल कैसा ख़याल है यह</p>
<p>कि रिश्ते की हर मुस्कान को</p>
<p>या ज़िन्दगी की शराफ़त को</p>
<p>प्यार के अलफ़ाज़ से</p>
<p>क़लम में पिरो लिया है,</p>
<p>और फिर सी दिया है... कि</p>
<p>भूले से भी कहीं-कभी</p>
<p>इस रिश्ते की पावन</p>
<p>मासूम बखिया न उधड़े</p>
<p>और फिर कस दिया है उसे</p>
<p>कि उसमें कभी भी अचानक</p>
<p>वक़्त का कोई</p>
<p>झोल न पड़ जाए।</p>
<p> </p>
<p>सुखी रहो, सुखी रहो, सुखी रहो</p>
<p>हर साँस हर धड़कन दुहराए</p>
<p>स्नेह का यही एक ही आलाप ....</p>
<p> </p>
<p>कि हो अब जैसे</p>
<p>यह मेरा एकमात्र मक़सद ही नहीं</p>
<p>संध्या-आरती में</p>
<p>प्यार का वह आलाप,</p>
<p>और उससे पल्ल्वित यह राग</p>
<p>मेरा मज़हब बन जाए</p>
<p>कुछ ऐसे कि अब हमारे बीच</p>
<p>कोई अपूर्णताएँ भी</p>
<p>कभी के बहे आँसुओं को बटोर कर</p>
<p>स्नेह का सागर बन जाएँ</p>
<p>और इस पर भी यदि उठे कोई वेदना</p>
<p>तो चूम लें हम स्नेहिल अधरो से उसको</p>
<p>प्यार का मज़हब हमारा उसी पल</p>
<p>सनातन हो जाए</p>
<p> </p>
<p>झंकृत हो उठें मेरी अक्षमताएँ भी</p>
<p>अंतिम साँस तक दुहराते</p>
<p>उसी एक आलाप को</p>
<p>कि तुमको सुख मिले, बहुत सुख मिले</p>
<p></p>
<p>मेरे "प्यार", मेरे "प्राण-रत्न"</p>
<p>मेरे बाद तुम बहुत दिन जीना</p>
<p>रोना नहीं</p>
<p>तब मेरे इन गीतों को पढ़ना</p>
<p>और फिर भी अगर आँख नम हो जाए</p>
<p>तो खीँच देना कुछ लकीरें</p>
<p>गीली रेत में</p>
<p> -----</p>
<p></p>
<p>-- विजय निकोर</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
तो रो दिया .......
tag:openbooks.ning.com,2021-09-30:5170231:BlogPost:1070347
2021-09-30T17:11:44.000Z
Sushil Sarna
https://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p>तो रो दिया .......</p>
<p></p>
<p>मौन की गहन कंदराओं में <br></br>मैनें मेरी मैं को <br></br>पश्चाताप की धूप में <br></br>विक्षिप्त तड़पते देखा<br></br>तो रो दिया ।</p>
<p></p>
<p>खामोशी के दरिया पर <br></br>मैंने मेरी मैं को <br></br>तन्हा समय की नाव पर <br></br>अपराध बोध से ग्रसित <br></br>तिमिर में लीन तीर की कामना में लिप्त <br></br>व्यथित देखा <br></br>तो रो दिया</p>
<p></p>
<p>क्रोध के अग्नि कुण्ड में <br></br>स्वार्थघृत की आहूति से परिणामों को<br></br>जब धू- धू कर जलते देखा <br></br>तो रो दिया</p>
<p>सच , क्रोध की सुनामी के बाद जब…</p>
<p>तो रो दिया .......</p>
<p></p>
<p>मौन की गहन कंदराओं में <br/>मैनें मेरी मैं को <br/>पश्चाताप की धूप में <br/>विक्षिप्त तड़पते देखा<br/>तो रो दिया ।</p>
<p></p>
<p>खामोशी के दरिया पर <br/>मैंने मेरी मैं को <br/>तन्हा समय की नाव पर <br/>अपराध बोध से ग्रसित <br/>तिमिर में लीन तीर की कामना में लिप्त <br/>व्यथित देखा <br/>तो रो दिया</p>
<p></p>
<p>क्रोध के अग्नि कुण्ड में <br/>स्वार्थघृत की आहूति से परिणामों को<br/>जब धू- धू कर जलते देखा <br/>तो रो दिया</p>
<p>सच , क्रोध की सुनामी के बाद जब <br/>तबाही का मंजर देखा <br/>तो साथ मेरे <br/>मेरा मैं भी रो दिया ।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 30-9-21<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
ग़ज़ल: किसी कँवल का हंसीं ख़ाब देखने के लिये
tag:openbooks.ning.com,2021-10-10:5170231:BlogPost:1070935
2021-10-10T06:30:00.000Z
Aazi Tamaam
https://openbooks.ning.com/profile/AaziTamaa
<p>1212 1122 1212 112</p>
<p></p>
<p>यूँ उम्र भर रहे बेताब देखने के लिये</p>
<p>किसी कँवल का हंसीं ख़ाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>कहाँ थे देखो सनम हम कहाँ चले आये</p>
<p>वो गुलबदन के वो महताब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>न जाने कब से हक़ीक़त की थी तलब हमको</p>
<p>न जाने कब से थे बेताब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>छुआ तो जाना हर इक ख़्वाब था धुआँ यारो</p>
<p>बचा न कुछ भी याँ नायाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>क़रीब जा के हर एक चीज खोयी है हमने</p>
<p>लुटे हैं ज़िंदगी शादाब देखने के…</p>
<p>1212 1122 1212 112</p>
<p></p>
<p>यूँ उम्र भर रहे बेताब देखने के लिये</p>
<p>किसी कँवल का हंसीं ख़ाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>कहाँ थे देखो सनम हम कहाँ चले आये</p>
<p>वो गुलबदन के वो महताब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>न जाने कब से हक़ीक़त की थी तलब हमको</p>
<p>न जाने कब से थे बेताब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>छुआ तो जाना हर इक ख़्वाब था धुआँ यारो</p>
<p>बचा न कुछ भी याँ नायाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>क़रीब जा के हर एक चीज खोयी है हमने</p>
<p>लुटे हैं ज़िंदगी शादाब देखने के लिये </p>
<p></p>
<p>कटी है ज़िंदगी अपनी भी यूँ उसूलों पर</p>
<p>फ़ज़ा में रह गया तल्ख़ाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>हाँ एक बार किया था भरम निग़ाहों पर</p>
<p>गये थे दश्त में तालाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>भटक रहे हैं अभी तक उन्हीं नज़ारों में</p>
<p>न मिल सका हमें गुल ख़्वाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>उजाड़ कर मेरे ख़्वाबों की छोटी सी दुनिया</p>
<p>मुझे वो दे गया इक ख़्वाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>यूँ दे के ज़ख़्म गया कोई ज़िंदगी भर को</p>
<p>किसी की आँख को ख़ूँ-नाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>न जाने ख़ाक हुईं हैं याँ कितनी ज़िंदगियाँ</p>
<p>सुकून चैन का पायाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>तमाम ज़िंदगी हमने गुजार दी 'आज़ी'</p>
<p>यहाँ तो ख़ुद को ज़फ़रयाब देखने के लिये</p>
<p></p>
<p>आज़ी तमाम</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
ग़ज़ल -सूनी सूनी चश्म की फिर सीपियाँ रह जाएँगी
tag:openbooks.ning.com,2021-10-11:5170231:BlogPost:1071063
2021-10-11T15:00:00.000Z
Anjuman Mansury 'Arzoo'
https://openbooks.ning.com/profile/Anjuman
<p>वज़्न - 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>ज़ीस्त की शीरीनियों से दूरियाँ रह जाएँगी<br></br>बिन तुम्हारे महज़ मुझ में तल्ख़ियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>वक़्त-ए-रुख़सत अश्क के गौहर लुटाएँगी बहुत<br></br>सूनी सूनी चश्म की फिर सीपियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>रेत पर लिख कर मिटाई हैं जो तुमने मेरे नाम<br></br>ज़ह्न में महफ़ूज़ ये सब चिट्ठियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>बातें मूसीक़ी-सी तेरी हैं मगर कल मेरे साथ<br></br>गुफ़्तगू करती हुई ख़ामोशियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>एक घर हो घर में तुम हो तुमसे सारी…</p>
<p>वज़्न - 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>ज़ीस्त की शीरीनियों से दूरियाँ रह जाएँगी<br/>बिन तुम्हारे महज़ मुझ में तल्ख़ियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>वक़्त-ए-रुख़सत अश्क के गौहर लुटाएँगी बहुत<br/>सूनी सूनी चश्म की फिर सीपियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>रेत पर लिख कर मिटाई हैं जो तुमने मेरे नाम<br/>ज़ह्न में महफ़ूज़ ये सब चिट्ठियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>बातें मूसीक़ी-सी तेरी हैं मगर कल मेरे साथ<br/>गुफ़्तगू करती हुई ख़ामोशियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>एक घर हो घर में तुम हो तुमसे सारी रौनकें<br/>मेरे इन ख़्वाबों की इक दिन किरचियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>इश्क़ मेरा है मजाज़ी या हक़ीक़ी उंस है<br/>बाद मेरे उलझी सारी गुत्थियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>'आरज़ू' थी हो मुकम्मल शख़्सियत मेरी मगर<br/>तुमको खो कर मुझमें कितनी ख़ामियाँ रह जाएँगी</p>
<p></p>
<p>-©अंजुमन 'आरज़ू' <br/> स्वरचित एवं अप्रकाशित</p>
ग़ज़ल नूर की - तमन्नाओं को फिर रोका गया है
tag:openbooks.ning.com,2021-10-14:5170231:BlogPost:1070888
2021-10-14T03:30:00.000Z
Nilesh Shevgaonkar
https://openbooks.ning.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>तमन्नाओं को फिर रोका गया है <br></br> बड़ी मुश्किल से समझौता हुआ है.<br></br> .<br></br> किसी का खेल है सदियों पुराना <br></br> किसी के वास्ते मंज़र नया है.<br></br> .<br></br> यही मौक़ा है प्यारे पार कर ले<br></br> ये दरिया बहते बहते थक चुका है.<br></br> .<br></br> यही हासिल हुआ है इक सफ़र से <br></br> हमारे पाँव में जो आबला है. <br></br> .<br></br> कभी लगता है अपना बाप मुझ को <br></br> ये दिल इतना ज़ियादा टोकता है.<br></br> .<br></br> नहीं है अब वो ताक़त इस बदन में <br></br> अगरचे खून अब भी खौलता है.<br></br> .<br></br> हम अपनी आँखों से ख़ुद देख आए <br></br> वहाँ बस…</p>
<p>तमन्नाओं को फिर रोका गया है <br/> बड़ी मुश्किल से समझौता हुआ है.<br/> .<br/> किसी का खेल है सदियों पुराना <br/> किसी के वास्ते मंज़र नया है.<br/> .<br/> यही मौक़ा है प्यारे पार कर ले<br/> ये दरिया बहते बहते थक चुका है.<br/> .<br/> यही हासिल हुआ है इक सफ़र से <br/> हमारे पाँव में जो आबला है. <br/> .<br/> कभी लगता है अपना बाप मुझ को <br/> ये दिल इतना ज़ियादा टोकता है.<br/> .<br/> नहीं है अब वो ताक़त इस बदन में <br/> अगरचे खून अब भी खौलता है.<br/> .<br/> हम अपनी आँखों से ख़ुद देख आए <br/> वहाँ बस तीरगी का सिलसिला है.<br/> .<br/> बहुत सी लडकियाँ मरती हैं उस पर <br/> वो लड़का, हाँ वही जो साँवला है.<br/> . <br/> ग़ज़ल में “नूर”! वो सब तू सुना दे <br/> तेरे जीवन में जो कुछ अनकहा है.<br/> .<br/> निलेश "नूर"<br/> मौलिक / अप्रकाशित </p>
लावणी छन्द,संपूर्ण वर्णमाला पर प्रेम सगाई
tag:openbooks.ning.com,2021-06-01:5170231:BlogPost:1060989
2021-06-01T03:00:00.000Z
शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
https://openbooks.ning.com/profile/suchisandeepagarwaal
<p>(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)</p>
<p>.</p>
<p>अभी-अभी तो मिली सजन से,<br></br> आकर मन में बस ही गये।<br></br> इस बन्धन के शुचि धागों को,<br></br> ईश स्वयं ही बांध गये।</p>
<p></p>
<p>उमर सलोनी कुञ्जगली सी,<br></br> ऊर्मिल चाहत है छाई।<br></br> ऋजु मन निरखे आभा उनकी,<br></br> एकनिष्ठ हो हरषाई।</p>
<p></p>
<p>ऐसा अपनापन पाकर मन,<br></br> ओढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,<br></br> और मेरे सपनों का राजा,<br></br> अंतरंग मालूम खड़ा।</p>
<p></p>
<p>अ: अनूठा अनुभव प्यारा,<br></br> कलरव सी ध्वनि होती है।<br></br> खनखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,<br></br> गहना…</p>
<p>(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)</p>
<p>.</p>
<p>अभी-अभी तो मिली सजन से,<br/> आकर मन में बस ही गये।<br/> इस बन्धन के शुचि धागों को,<br/> ईश स्वयं ही बांध गये।</p>
<p></p>
<p>उमर सलोनी कुञ्जगली सी,<br/> ऊर्मिल चाहत है छाई।<br/> ऋजु मन निरखे आभा उनकी,<br/> एकनिष्ठ हो हरषाई।</p>
<p></p>
<p>ऐसा अपनापन पाकर मन,<br/> ओढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,<br/> और मेरे सपनों का राजा,<br/> अंतरंग मालूम खड़ा।</p>
<p></p>
<p>अ: अनूठा अनुभव प्यारा,<br/> कलरव सी ध्वनि होती है।<br/> खनखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,<br/> गहना हीरे-मोती है।</p>
<p></p>
<p>घन पानी से भरे हुए ज्यूँ,<br/> चन्द्र-चकोरी व्याकुलता।<br/> छटा निराली सावन जैसी,<br/> जरा-जरा मृदु आकुलता।</p>
<p></p>
<p>झरझर झरना प्रेम का बरसे,<br/> टसक उठी मीठी हिय में।<br/> ठहर गया हो कालचक्र भी,<br/> डर अंजाना सा जिय में।</p>
<p></p>
<p>ढम-ढम ढोल नगाड़े बाजे,<br/> तनिक हँसी आ जाती है।<br/> थपकी स्वीकृत मौन प्रेम की,<br/> दमक नयन में लाती है।</p>
<p></p>
<p>धड़क रहा दिल स्नेहपात्र पा,<br/> नव नूतन जग लगता है।<br/> प्रणय निवेदन सर आँखों पर,<br/> फाग प्रेम सा जगता है।</p>
<p></p>
<p>बन्द करी तस्वीर पिया की,<br/> भरी तिजोरी मन की है।<br/> महक उठी सूनी सी बगिया,<br/> यही कथा पिय धन की है।</p>
<p></p>
<p>रहना है अब साथ सदा ही,<br/> लगन लगी मन में भारी,<br/> वल्लभ की मैं बनूं वल्लभा,<br/> 'शुचि' प्रभु की है आभारी।</p>
<p></p>
<p>सकल सृष्टि सुखदायक लगती,<br/> षधा डगर है जीवन ही,<br/> हम बन जायें अब मैं-तुम से,<br/> क्षणिक नहीं आजीवन ही।</p>
<p></p>
<p>त्रास नहीं,सुख की बेला है ,<br/> ज्ञात यही बस होता है।<br/> वर्णमाल सी ऋचा है जीवन,<br/> भाव भरा मन होता है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p><br/></p>
पर्यावरण-दिवस के अवसर पर छ: दोहे // --सौरभ
tag:openbooks.ning.com,2021-06-05:5170231:BlogPost:1061188
2021-06-05T12:00:00.000Z
Saurabh Pandey
https://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>आपाधापी, व्यस्तता, लस्त-पस्त दिन-रात<br></br> छोड़ इन्हें, आ चल सुनें, कली-फूल की बात ।<br></br> <br></br> मन मारे चुप आज मैं.. सोचूँ अपना कौन..<br></br> बालकनी के फूल खिल, ढाँढस देते मौन !!<br></br> <br></br> सांत्वना वाले हुए.. हाथ जभी से दूर ..<br></br> लगीं बोलने डालियाँ, 'मत होना मज़बूर' !! <br></br> <br></br> जाने आये कौन कब, मन की थामे डोर<br></br> तुलसी मइया पोंछना, नम आँखों की कोर <br></br> <br></br> फिर आया सूरज लिये, नई भोर का रूप<br></br> उठ ले अब अँगड़ाइयाँ, निकल काम पर धूप ! </p>
<p> </p>
<p>मन-जंगल उद्भ्रांत है, इसे चाहिए त्राण…</p>
<p>आपाधापी, व्यस्तता, लस्त-पस्त दिन-रात<br/> छोड़ इन्हें, आ चल सुनें, कली-फूल की बात ।<br/> <br/> मन मारे चुप आज मैं.. सोचूँ अपना कौन..<br/> बालकनी के फूल खिल, ढाँढस देते मौन !!<br/> <br/> सांत्वना वाले हुए.. हाथ जभी से दूर ..<br/> लगीं बोलने डालियाँ, 'मत होना मज़बूर' !! <br/> <br/> जाने आये कौन कब, मन की थामे डोर<br/> तुलसी मइया पोंछना, नम आँखों की कोर <br/> <br/> फिर आया सूरज लिये, नई भोर का रूप<br/> उठ ले अब अँगड़ाइयाँ, निकल काम पर धूप ! </p>
<p> </p>
<p>मन-जंगल उद्भ्रांत है, इसे चाहिए त्राण ।<br/> पस्त हुआ पर्यावरण, त्रस्त धरा का प्राण ।।<br/> ***</p>
<p>सौरभ</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>
ग़ज़ल नूर की - दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें
tag:openbooks.ning.com,2021-06-08:5170231:BlogPost:1061294
2021-06-08T06:30:00.000Z
Nilesh Shevgaonkar
https://openbooks.ning.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें <br></br> चार दिन की ज़िन्दगी में और क्या क्या हम करें?<br></br> .<br></br> एक दिन बौनों की बस्ती से गुज़रना क्या हुआ <br></br> चाहने वो यह लगे क़द अपना छोटा हम करें. <br></br> .<br></br> हाथ बेचे ज़ह’न बेचा और फिर ईमाँ बिका <br></br> पेट की ख़ातिर भला अब और कितना हम करें?<br></br> .<br></br> चाहते हैं हम को पाना और झिझकते भी हैं वो <br></br> मसअला यानी है उनका ख़ुद को सस्ता हम करें.<br></br> .<br></br> इक सितम से रू-ब-रु हैं पर ज़ुबां ख़ुलती नहीं <br></br> ये ज़माना चाहता है उस का चर्चा हम करें.…<br></br></p>
<p>दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें <br/> चार दिन की ज़िन्दगी में और क्या क्या हम करें?<br/> .<br/> एक दिन बौनों की बस्ती से गुज़रना क्या हुआ <br/> चाहने वो यह लगे क़द अपना छोटा हम करें. <br/> .<br/> हाथ बेचे ज़ह’न बेचा और फिर ईमाँ बिका <br/> पेट की ख़ातिर भला अब और कितना हम करें?<br/> .<br/> चाहते हैं हम को पाना और झिझकते भी हैं वो <br/> मसअला यानी है उनका ख़ुद को सस्ता हम करें.<br/> .<br/> इक सितम से रू-ब-रु हैं पर ज़ुबां ख़ुलती नहीं <br/> ये ज़माना चाहता है उस का चर्चा हम करें.<br/> .<br/> बा-अदब हैं हम सो जाहिल से फ़क़त इतना कहा <br/> आप अपने से न जाएँ तो रवाना हम करें. <br/> <strong>.<br/> निलेश "नूर"<br/> मौलिक अप्रकाशित </strong></p>
अहसास की ग़ज़ल : मनोज अहसास
tag:openbooks.ning.com,2021-01-28:5170231:BlogPost:1043169
2021-01-28T18:05:19.000Z
मनोज अहसास
https://openbooks.ning.com/profile/ManojkumarAhsaas
<p>221 2121 1221 212</p>
<p></p>
<p>ये मानता हूँ पहले से बेकल रहा हूँ मैं,<br></br>लेकिन तेरे ख़्यालों का संदल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>अब होश की ज़मीन पर टिकते नहीं क़दम,<br></br>बरसों तुम्हारे प्यार में पागल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>हैरत से देखते हैं मुझे रास्ते के लोग,<br></br>बिल्कुल किनारे राह के यूँ चल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>मुझको उदासियां मिली है आसमान से,<br></br>चुपचाप इन के आसरे में जल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>साहिल पर जाके तू मुझे मुड़ कर तो देखता,<br></br>इक वक्त तेरी रूह की हलचल रहा हूँ…</p>
<p>221 2121 1221 212</p>
<p></p>
<p>ये मानता हूँ पहले से बेकल रहा हूँ मैं,<br/>लेकिन तेरे ख़्यालों का संदल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>अब होश की ज़मीन पर टिकते नहीं क़दम,<br/>बरसों तुम्हारे प्यार में पागल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>हैरत से देखते हैं मुझे रास्ते के लोग,<br/>बिल्कुल किनारे राह के यूँ चल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>मुझको उदासियां मिली है आसमान से,<br/>चुपचाप इन के आसरे में जल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>साहिल पर जाके तू मुझे मुड़ कर तो देखता,<br/>इक वक्त तेरी रूह की हलचल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>मेरी खुशी है किसमें मुझे खुद नहीं पता,<br/>दुनिया की नाप तौल में बेकल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>अब खुद को ढूंढ लेने की मुश्किल में हूं जनाब,<br/>ताउम्र तेरी यादों से बोझल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>ग़र याद कभी आऊं तो ये जान लेना तुम ,<br/>मैं दौर इक बुरा था जो अब टल रहा हूँ मैं ।</p>
<p></p>
<p>अहसास अपनी सोच में उलझी है जिंदगी, <br/>खुद अपने हर मकाम की दलदल रहा हूँ मैं।</p>
<p></p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>
<p></p>
गीत
tag:openbooks.ning.com,2021-02-02:5170231:BlogPost:1043555
2021-02-02T08:32:01.000Z
Chetan Prakash
https://openbooks.ning.com/profile/ChetanPrakash68
<p>स्वार्थ रस्ता रोके बैठे है.....!</p>
<p></p>
<p></p>
<p>कई दिनों से सोन चिरैया</p>
<p>गुमसुम बैठी रहती है</p>
<p>देख रही चहुँ ओर कुहासा</p>
<p>भूखी घर बैठी रहती है</p>
<p></p>
<p>चौराहे पर बंद लगे हैं</p>
<p>स्वार्थ रस्ता रोके बैठे हैं !</p>
<p></p>
<p></p>
<p>कितने बच्चे कितने बूढ़े</p>
<p>कितनों के रोज़गार छिने हैं</p>
<p>लोग मर गए बिना दवा के</p>
<p>हार गए जीवन से हैं...</p>
<p></p>
<p>जंतर मंतर रोज रचे हैं </p>
<p>हँसते हँसते रो दे ते हैं !</p>
<p></p>
<p></p>
<p>तोड़ रहे कानून …</p>
<p>स्वार्थ रस्ता रोके बैठे है.....!</p>
<p></p>
<p></p>
<p>कई दिनों से सोन चिरैया</p>
<p>गुमसुम बैठी रहती है</p>
<p>देख रही चहुँ ओर कुहासा</p>
<p>भूखी घर बैठी रहती है</p>
<p></p>
<p>चौराहे पर बंद लगे हैं</p>
<p>स्वार्थ रस्ता रोके बैठे हैं !</p>
<p></p>
<p></p>
<p>कितने बच्चे कितने बूढ़े</p>
<p>कितनों के रोज़गार छिने हैं</p>
<p>लोग मर गए बिना दवा के</p>
<p>हार गए जीवन से हैं...</p>
<p></p>
<p>जंतर मंतर रोज रचे हैं </p>
<p>हँसते हँसते रो दे ते हैं !</p>
<p></p>
<p></p>
<p>तोड़ रहे कानून देश का </p>
<p>राग अलापें तोड़ फोड़ का </p>
<p>बिना बात ये शोर मचाएं</p>
<p>सियासत सदा खेल होड़ का</p>
<p></p>
<p>रंग बिरंगी जुड़ बैठे हैं </p>
<p>जादूगर ये खुद गुर के हैं !</p>
<p></p>
<p></p>
<p>धुंध पड़ी है बीच रास्ते </p>
<p> सूरज का रस्ता हैं रोके </p>
<p>इन्द्र धनुष चाहे है रोना</p>
<p>ओस बिक गयी अँधेरों सस्ते</p>
<p></p>
<p></p>
<p>कब तक भारत खेल चलेगा</p>
<p>किसान तो चहुंओर डटे हैं....!</p>
<p></p>
<p>चौराहे पर बंद लगे हैं </p>
<p>स्वारथ रस्ता रोके बैठे हैं ! </p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p></p>
हम तो हल के दास ओ राजा-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
tag:openbooks.ning.com,2021-02-04:5170231:BlogPost:1043713
2021-02-04T04:26:33.000Z
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
https://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p dir="ltr"><a>२२/२२/२२/२२</a></p>
<p dir="ltr"><br></br> हम तो हल के दास ओ राजा<br></br> कम देखें मधुमास ओ राजा।१।<br></br> *<br></br> रक्त को हम हैं स्वेद बनाते <br></br> क्या तुमको आभास ओ राजा।२।<br></br> *<br></br> अन्न तुम्हारे पेट में भरकर<br></br> खाते हैं सल्फास ओ राजा।३।<br></br> *<br></br> पीता हर उम्मीद हमारी<br></br> कैसी तेरी प्यास ओ राजा।४।<br></br> *<br></br> हम से दूरी मत रख इतनी<br></br> आजा थोड़ा पास ओ राजा।५।<br></br> *<br></br> खेती - बाड़ी सब सूखेगी<br></br> जो तोड़ेगा आस ओ राजा।६।…</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr"><a>२२/२२/२२/२२</a></p>
<p dir="ltr"><br/> हम तो हल के दास ओ राजा<br/> कम देखें मधुमास ओ राजा।१।<br/> *<br/> रक्त को हम हैं स्वेद बनाते <br/> क्या तुमको आभास ओ राजा।२।<br/> *<br/> अन्न तुम्हारे पेट में भरकर<br/> खाते हैं सल्फास ओ राजा।३।<br/> *<br/> पीता हर उम्मीद हमारी<br/> कैसी तेरी प्यास ओ राजा।४।<br/> *<br/> हम से दूरी मत रख इतनी<br/> आजा थोड़ा पास ओ राजा।५।<br/> *<br/> खेती - बाड़ी सब सूखेगी<br/> जो तोड़ेगा आस ओ राजा।६।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मौलिक/अप्रकाशित<br/> लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'</p>
ग़ज़ल (इक है ज़मीं हमारी इक आसमाँ हमारा)
tag:openbooks.ning.com,2021-02-06:5170231:BlogPost:1043338
2021-02-06T13:57:09.000Z
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
https://openbooks.ning.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p><span style="text-decoration: underline;"><strong>2212 - 1222 - 212 - 122</strong></span></p>
<p></p>
<p>इक है ज़मीं हमारी इक आसमाँ हमारा</p>
<p>इक है ये इक रहेगा भारत हमारा प्यारा</p>
<p></p>
<p>हिन्दू हों या कि मुस्लिम सारे हैं भाई-भाई </p>
<p>होंगे न अब कभी भी तक़्सीम हम दुबारा </p>
<p></p>
<p>यौम-ए-जम्हूरियत पर ख़ुशियाँ मना रहे हैं </p>
<p>हासिल शरफ़ जो है ये, ख़ूँ भी बहा हमारा </p>
<p></p>
<p>अपने शहीदों को तुम हरगिज़ न भूल जाना</p>
<p>यादों को दिल में उनकी रखना जवाँ…</p>
<p><span style="text-decoration: underline;"><strong>2212 - 1222 - 212 - 122</strong></span></p>
<p></p>
<p>इक है ज़मीं हमारी इक आसमाँ हमारा</p>
<p>इक है ये इक रहेगा भारत हमारा प्यारा</p>
<p></p>
<p>हिन्दू हों या कि मुस्लिम सारे हैं भाई-भाई </p>
<p>होंगे न अब कभी भी तक़्सीम हम दुबारा </p>
<p></p>
<p>यौम-ए-जम्हूरियत पर ख़ुशियाँ मना रहे हैं </p>
<p>हासिल शरफ़ जो है ये, ख़ूँ भी बहा हमारा </p>
<p></p>
<p>अपने शहीदों को तुम हरगिज़ न भूल जाना</p>
<p>यादों को दिल में उनकी रखना जवाँ ख़ुदारा</p>
<p></p>
<p>फ़िरक़ा-परस्ती दहशत-गर्दी नहीं चलेगी </p>
<p>दुश्मन हैं अम्न के जो होंगे न वो गवारा</p>
<p></p>
<p>ज़रख़ेज़ ये ज़मीं है मिट्टी में इसकी सोना</p>
<p>हिन्दोस्ताँ मेरा है आँखों का मेरी तारा</p>
<p></p>
<p>जुर्रत है किसमें बढ़-के छू दे हमारी सरहद</p>
<p>हर चश्म शम्स है और हर ज़र्रा है सितारा </p>
<p></p>
<p><strong>''मौलिक व अप्रकाशित'' </strong></p>
<p>(गणतंत्र दिवस 26.01.2021 पर विशेष) </p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
ग़ज़ल~ 'इनकार मुझे'
tag:openbooks.ning.com,2021-02-06:5170231:BlogPost:1043341
2021-02-06T18:00:00.000Z
Krish mishra 'jaan' gorakhpuri
https://openbooks.ning.com/profile/krishnamishrajaangorakhpuri
<p>2122 1122 2(11)2</p>
<p></p>
<p>ये अलग बात है इनकार मुझे<br></br> तेरे साये से भी है प्यार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>सामने सबके बयाँ करता नहीं<br></br> रोज दिल कहता है, सौ बार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं बिक जाऊं अगर<br></br> तू खरीदे सरे बाजार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>था हर इक दिन कभी त्यौहार की तर्ह<br></br> भूल अब जाता है इतवार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>चाहकर मैं तुझे, मुजरिम हूँ तेरा<br></br> क्यूँ नहीं करता गिरफ़्तार मुझे</p>
<p> …</p>
<p>2122 1122 2(11)2</p>
<p></p>
<p>ये अलग बात है इनकार मुझे<br/> तेरे साये से भी है प्यार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>सामने सबके बयाँ करता नहीं<br/> रोज दिल कहता है, सौ बार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं बिक जाऊं अगर<br/> तू खरीदे सरे बाजार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>था हर इक दिन कभी त्यौहार की तर्ह<br/> भूल अब जाता है इतवार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>चाहकर मैं तुझे, मुजरिम हूँ तेरा<br/> क्यूँ नहीं करता गिरफ़्तार मुझे</p>
<p> **</p>
<p>ग़म तेरे आप ही, हो जाते फ़ना..<br/> तू बना लेेता जो, गमख़्वार मुझे</p>
<p> **</p>
<p>ये न सोचा था कभी भी मैंने <br/> तू ख़बर देगा बन अख़बार मुझे।</p>
<p> **</p>
<p>देखकर 'जान' तुझे जीता हूँ</p>
<p>है नफ़स जैसी तू दरकार मुझे।</p>
<p></p>
<p>*************************</p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>*************************</p>
<p></p>
ग़ज़ल ( जाना है एक दिन न मगर फिक्र कर अभी...)
tag:openbooks.ning.com,2020-06-30:5170231:BlogPost:1011239
2020-06-30T02:30:00.000Z
सालिक गणवीर
https://openbooks.ning.com/profile/SalikGanvir
<p>(221 2121 1221 212)</p>
<p></p>
<p>जाना है एक दिन न मगर फिक्र कर अभी<br></br> हँस,खेल,मुस्कुरा तू क़ज़ा से न डर अभी</p>
<p></p>
<p>आयेंगे अच्छे दिन भी कभी तो हयात में<br></br> मर-मर के जी रहे हैं यहाँ क्यूँँ बशर अभी</p>
<p></p>
<p>हम वो नहीं हुज़ूर जो डर जाएँँ चोट से <br></br> हमने तो ओखली में दिया ख़ुद ही सर अभी</p>
<p></p>
<p>सच बोलने की उसको सज़ा मिल ही जाएगी <br></br> उस पर गड़ी हुई है सभी की नज़र अभी</p>
<p></p>
<p>हँस लूँ या मुस्कुराऊँ , लगाऊँ मैं क़हक़हे<br></br> ग़लती से आ गई है ख़ुशी मेरे घर…</p>
<p>(221 2121 1221 212)</p>
<p></p>
<p>जाना है एक दिन न मगर फिक्र कर अभी<br/> हँस,खेल,मुस्कुरा तू क़ज़ा से न डर अभी</p>
<p></p>
<p>आयेंगे अच्छे दिन भी कभी तो हयात में<br/> मर-मर के जी रहे हैं यहाँ क्यूँँ बशर अभी</p>
<p></p>
<p>हम वो नहीं हुज़ूर जो डर जाएँँ चोट से <br/> हमने तो ओखली में दिया ख़ुद ही सर अभी</p>
<p></p>
<p>सच बोलने की उसको सज़ा मिल ही जाएगी <br/> उस पर गड़ी हुई है सभी की नज़र अभी</p>
<p></p>
<p>हँस लूँ या मुस्कुराऊँ , लगाऊँ मैं क़हक़हे<br/> ग़लती से आ गई है ख़ुशी मेरे घर अभी</p>
<p></p>
<p>मंज़िल बुला रही है मुझे कब से दोस्तो<br/> है मेरे इंतिज़ार में सूनी डगर अभी</p>
<p></p>
<p>क्यों चहचहा रही हैंं परिंदों की टोलियाँ<br/> सूरज है सर पे देख हुई दोपहर अभी</p>
<p></p>
<p>* मौलिक एवं अप्रकाशित.</p>
चीन के नाम (नज़्म - शाहिद फ़िरोज़पुरी)
tag:openbooks.ning.com,2020-07-02:5170231:BlogPost:1011527
2020-07-02T19:30:00.000Z
रवि भसीन 'शाहिद'
https://openbooks.ning.com/profile/RaviBhasin
<p><span>212 / 1222 / 212 / 1222</span></p>
<p></p>
<p>दुनिया के गुलिस्ताँ में फूल सब हसीं हैं पर<br></br>एक मुल्क ऐसा है जो बला का है ख़ुद-सर<br></br>लाल जिसका परचम है इंक़लाब नारा है<br></br>ज़ुल्म करने में जिसने सबको जा पछाड़ा है</p>
<p></p>
<p>इस जहान का मरकज़ ख़ुद को गो समझता है<br></br>राब्ता कोई दुनिया से नहीं वो रखता है<br></br>अपनी सरहदों को वो मुल्क चाहे फैलाना<br></br>इसलिए वो हमसायों से है आज बेगाना</p>
<p></p>
<p>बात अम्न की करके मारे पीठ में खंजर<br></br>और रहनुमा उसके झूट ही बकें दिन भर<br></br>इंसाँ की तरक़्क़ी…</p>
<p><span>212 / 1222 / 212 / 1222</span></p>
<p></p>
<p>दुनिया के गुलिस्ताँ में फूल सब हसीं हैं पर<br/>एक मुल्क ऐसा है जो बला का है ख़ुद-सर<br/>लाल जिसका परचम है इंक़लाब नारा है<br/>ज़ुल्म करने में जिसने सबको जा पछाड़ा है</p>
<p></p>
<p>इस जहान का मरकज़ ख़ुद को गो समझता है<br/>राब्ता कोई दुनिया से नहीं वो रखता है<br/>अपनी सरहदों को वो मुल्क चाहे फैलाना<br/>इसलिए वो हमसायों से है आज बेगाना</p>
<p></p>
<p>बात अम्न की करके मारे पीठ में खंजर<br/>और रहनुमा उसके झूट ही बकें दिन भर<br/>इंसाँ की तरक़्क़ी में जिसका कुछ नहीं हिस्सा<br/>बे-हयाई में लेकिन क्या मुक़ाबला उसका</p>
<p></p>
<p>है वो मुल्क आमादा बस लहू बहाने पर<br/>वो बशर को ले आया मौत के दहाने पर<br/>दुनिया के मुमालिक को तुहफ़े दे वबाओं के<br/>और फिर करे सौदे लाज़मी दवाओं के</p>
<p></p>
<p>भेड़ों जैसे बाशिंदे सीधे सीधे चलते हैं<br/>हाकिमों के टुकड़ों पर मुश्किलों से पलते हैं<br/>हक़ नहीं है उनको ये मीर चुन सकें अपने<br/>ज़ुल्म देख कर भी वो बंद लब रखें अपने</p>
<p></p>
<p>क़ौम है ये कैसी और कैसी इसकी हैं क़द्रें<br/>दूसरों की दौलत पर इसकी हैं सदा नज़रें<br/>रहम और शफ़क़त के जज़्बों से ये आरी हैं<br/>धरती माँ के सीने पर बोझ कितने भारी हैं</p>
<p></p>
<p>बैट केकड़ा मछली साँप टिड्डियाँ मेंढक<br/>सब मकोड़े छिपकलियाँ मकड़ी च्यूँटी चूहे तक<br/>बिल्लियाँ भी कुत्ते भी ये ख़ुशी ख़ुशी खाएँ<br/>तल के भून के या फिर कच्चे ही निगल जाएँ</p>
<p></p>
<p>ज़िन्दगी-ओ-क़ुदरत पे फ़िक्र तक नहीं इनका<br/>इल्म की किताबों में ज़िक्र तक नहीं इनका<br/>एक ऐसा आलिम है जिसको ये ख़ुदा मानें<br/>झूट और दग़ाबाज़ी उसका फ़लसफ़ा जानें</p>
<p></p>
<p>नक़्ल में ये माहिर हैं इनका कुछ नहीं अपना<br/>कुछ बनाना बिन चोरी इनके वास्ते सपना<br/>ये ज़बाँ समझते हैं ज़र की और ताक़त की<br/>क़द्र ये नहीं करते हक़ की और शराफ़त की</p>
<p></p>
<p>अब सबक़ जहाँ ने इस मुल्क को सिखाना है<br/>बंद कर तिजारत को ठीक रह पे लाना है<br/>जब ये पूरी दुनिया में ख़ुद को तन्हा पाएगा<br/>अहमियत रफ़ाक़त की तब ये जान जाएगा</p>
<p></p>
<p>वैसे ये नहीं 'शाहिद' लहज-ए-कलाम अपना<br/>पेश करना था बस इक मुल्क को सलाम अपना<br/>फ़ख़्र है जिसे अपनी ना-हक़ीक़ी अज़मत पर<br/>ग़ौर जो नहीं करता अपनी ही जहालत पर<br/>(मौलिक एवं अप्रकाशित)<br/>––––––––––––––––––––––––––––<br/>कठिन शब्दों के अर्थ:<br/>1. ख़ुद-सर = अड़ियल, घमंडी, stubborn, arrogant, rude<br/>2. मरकज़ = केंद्र, centre (चीन के लोग अपने देश को 'Middle Kingdom' मानते हैं)<br/>3. आमादा = तैयार, तत्पर, ready<br/>4. मुमालिक = मुल्क का बहुवचन, countries<br/>5. बाशिंदे = नागरिक, citizens<br/>6. क़द्रें = मूल्य, values<br/>7. शफ़क़त = प्रेम, affection, kindness<br/>8. आरी = रहित, वंचित, devoid<br/>9. फ़िक्र = सोच-विचार, thought<br/>10. आलिम = विद्वान, scholar<br/>11. ज़र = पैसा, wealth, gold<br/>12. हक़ = सच, truth<br/>13. रफ़ाक़त = दोस्ती, friendship, companionship<br/>14. ना-हक़ीक़ी = अवास्तविक, unreal<br/>15. अज़मत = प्रतिष्ठा, greatness<br/>16. जहालत = अज्ञानता, जड़ता, ignorance, stupidity</p>
550 वीं रचना मंच को सादर समर्पित : सावनी दोहे :
tag:openbooks.ning.com,2020-06-30:5170231:BlogPost:1011248
2020-06-30T16:00:00.000Z
Sushil Sarna
https://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p>गौर वर्ण पर नाचती, सावन की बौछार।<br></br> श्वेत वसन से झाँकता, रूप अनूप अपार।। १<br></br> <br></br> चम चम चमके दामिनी, मेघ मचाएं शोर।<br></br> देख पिया को सामने, मन में नाचे मोर।।२<br></br> <br></br> छल छल छलके नैन से, यादों की बरसात।<br></br> सावन की हर बूँद दे, अंतस को आघात।।३<br></br> <br></br> सावन में प्यारी लगे, साजन की मनुहार।<br></br> बौछारों में हो गई, इन्कारों की हार।। ४<br></br> <br></br> कोरे मन पर लिख गईं, बौछारें इतिहास।<br></br> यौवन में आता सदा, सावन बनकर प्यास।।५<br></br> <br></br> भावों की नावें चलीं, अंतस उपजा प्यार।<br></br> बौछारों…</p>
<p>गौर वर्ण पर नाचती, सावन की बौछार।<br/> श्वेत वसन से झाँकता, रूप अनूप अपार।। १<br/> <br/> चम चम चमके दामिनी, मेघ मचाएं शोर।<br/> देख पिया को सामने, मन में नाचे मोर।।२<br/> <br/> छल छल छलके नैन से, यादों की बरसात।<br/> सावन की हर बूँद दे, अंतस को आघात।।३<br/> <br/> सावन में प्यारी लगे, साजन की मनुहार।<br/> बौछारों में हो गई, इन्कारों की हार।। ४<br/> <br/> कोरे मन पर लिख गईं, बौछारें इतिहास।<br/> यौवन में आता सदा, सावन बनकर प्यास।।५<br/> <br/> भावों की नावें चलीं, अंतस उपजा प्यार।<br/> बौछारों ने देह पर, रचा नृत्य संसार।। ६<br/> <br/> कहीं गीत है प्रीत का, कहीं मधुर संगीत।<br/> सावन में अच्छा नहीं, रूठे रहना मीत।। ७<br/> <br/> श्याम रंग के मेघ का, श्यामल श्यामल वेश।<br/> केश खोल विचरण करे, गौरी अंबर देश।। ८<br/> <br/> मेघों ने गागर भरी, सागर से कल रात।<br/> ठुमक -ठुमक अंबर चले, करने को बरसात।।९<br/> <br/> टप टप टपके झोंपड़ी, बुरी लगे बरसात।<br/> जलते ही चूल्हा बुझा, कटी जागते रात।।१०<br/> <br/> सुशील सरना<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
ग़ज़ल (वही मंज़र है और मैं) - शाहिद फ़िरोज़पुरी
tag:openbooks.ning.com,2020-06-16:5170231:BlogPost:1010179
2020-06-16T06:24:57.000Z
रवि भसीन 'शाहिद'
https://openbooks.ning.com/profile/RaviBhasin
<p><span style="font-weight: 400;">बहरे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">221 / 2121 / 1221 / 212</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बद-हालियों का फिर वही मंज़र है और मैं</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">इक आज़माइशों का समंदर है और मैं [1]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">अरमान दिल के दिल में घुटे जा रहे हैं सब</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">महरूमियों का एक बवंडर है और मैं…</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बहरे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">221 / 2121 / 1221 / 212</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बद-हालियों का फिर वही मंज़र है और मैं</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">इक आज़माइशों का समंदर है और मैं [1]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">अरमान दिल के दिल में घुटे जा रहे हैं सब</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">महरूमियों का एक बवंडर है और मैं [2]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बैठा हूँ इन्तेज़ार में ढय जाये ख़ुद-ब-ख़ुद</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">दिल में तुम्हारी याद का खंडर है और मैं [3]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">आँखों में धुँधले धुँधले से फूलों के ख़्वाब हैं</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">काँटों भरा हयात का बिस्तर है और मैं [4]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">मुझ नातवाँ से बोझ ये उठ पाएगा कहाँ</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">कार-ए-जहाँ पहाड़ बराबर है और मैं [5]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">मुझको सज़ा मिलेगी सदाक़त की बार बार</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर आदमी के हाथ में पत्थर है और मैं [6]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">मक़तल में खेंच लाया है फिर से मुझे ये दिल</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">क़ातिल भी है वही वही ख़ंजर है और मैं [7]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">सुनता हूँ दश्त में भी मैं शहरों का शोर-ओ-ग़ुल</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">शोरिश ये मेरे ज़ह्न के अंदर है और मैं [8]</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">कब से सफ़र में हूँ दिल-ए-बे-मुद्दआ लिए</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">'शाहिद' ये मेरे पाँव का चक्कर है और मैं [9]</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">(मौलिक एवं अप्रकाशित)</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">--------------------------------------------------</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">कठिन शब्दों के अर्थ:</span></p>
<ol>
<li><span style="font-weight: 400;">बद-हाली = बुरी हालत</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">मंज़र = दृश्य</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">आज़माइश = परीक्षा</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">महरूमी = वंचित रहना, प्राप्त न होना</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">हयात = ज़िन्दगी</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">नातवाँ = कमज़ोर</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">कार-ए-जहाँ = दुनिया का काम</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">सदाक़त = सच्चाई</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">मक़तल = क़त्ल करने की जगह</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">दश्त = रेगिस्तान, जंगल, सूखी और बंजर भूमि</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">शोरिश = खलबली, कोलाहल</span></li>
<li><span style="font-weight: 400;">दिल-ए-बे-मुद्दआ = वो दिल जिसकी कोई इच्छा न हो</span></li>
</ol>
ईद कैसी आई है!
tag:openbooks.ning.com,2020-05-25:5170231:BlogPost:1008278
2020-05-25T00:30:00.000Z
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
https://openbooks.ning.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p>ईद कैसी आई है ! ये ईद कैसी आई है ! <br></br> ख़ुश बशर कोई नहीं, ये ईद कैसी आई है !</p>
<p></p>
<p>जब नमाज़े - ईद ही, न हो, भला फिर ईद क्या,<br></br> मिट गये अरमांँ सभी, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>दे रहा कोरोना कितने, ज़ख़्म हर इन्सान को,<br></br>सब घरों में क़ैैद हैं, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>गर ख़ुदा नाराज़ हम से है, तो फिर क्या ईद है,<br></br> ख़ौफ़ में हर ज़िन्दगी, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>रंज ओ ग़म तारी है सब पे, सब परीशाँ हाल हैं,<br></br> फ़िक्र में रोज़ी की सब, ये ईद कैसी आई…</p>
<p>ईद कैसी आई है ! ये ईद कैसी आई है ! <br/> ख़ुश बशर कोई नहीं, ये ईद कैसी आई है !</p>
<p></p>
<p>जब नमाज़े - ईद ही, न हो, भला फिर ईद क्या,<br/> मिट गये अरमांँ सभी, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>दे रहा कोरोना कितने, ज़ख़्म हर इन्सान को,<br/>सब घरों में क़ैैद हैं, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>गर ख़ुदा नाराज़ हम से है, तो फिर क्या ईद है,<br/> ख़ौफ़ में हर ज़िन्दगी, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>रंज ओ ग़म तारी है सब पे, सब परीशाँ हाल हैं,<br/> फ़िक्र में रोज़ी की सब, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>बच्चे, बूढ़े, सब जवां भी, देखते हैं हैफ़ से,<br/> बेकसी का हाल है, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>हम गले मिलकर, मुबारकबाद भी न दे सके,<br/> हाल ए दिल सुन न सके, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>अब न बच्चों की धमक वो, अब न है वो शोर ग़ुल,<br/> चहचहाहट भी नहीं ! ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>दोस्तों का आना जाना, महफ़िलों का दौर वो,<br/> सब जुदा है इस बरस, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>जैसी भी है, जितनी भी है, ईद तो बस ईद है,<br/>हो ग़रीबों पर करम, ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>मुआ़फ़ कर दे या ख़ुदा, हम हैं तिरे मुजरिम बड़े,<br/>बख़्श दे रब ईद है ! ये ईद कैसी आई है!</p>
<p></p>
<p>"मौलिक व अप्रकाशित" </p>
"ओबीओ की सालगिरह का तुहफ़ा"
tag:openbooks.ning.com,2020-04-01:5170231:BlogPost:1003703
2020-04-01T15:30:00.000Z
Samar kabeer
https://openbooks.ning.com/profile/Samarkabeer
<p><font color="#FF00FF">2122 2122 212</font></p>
<p>.<br></br><font color="#FF0000">देख साँसों में बसा है ओ बी ओ<br></br>मेरी क़िस्मत में लिखा है ओ बी ओ</font><br></br><font color="#FF9900"><br></br>कितने आए और कितने ही गए<br></br>शान से अब तक खड़ा है ओ बी ओ</font><br></br><br></br><font color="#351C75">बढ़ गई तौक़ीर मेरी और भी<br></br>तू मुझे जब से मिला है ओ बी ओ</font><br></br><font color="#F1C232"><br></br>हों वो 'बाग़ी' या कि भाई 'योगराज'<br></br>तू सभी का लाडला है ओ बी ओ<br></br></font><font color="#0000FF"><br></br>भाई 'सौरभ' शान से कहते…</font></p>
<p><font color="#FF00FF">2122 2122 212</font></p>
<p>.<br/><font color="#FF0000">देख साँसों में बसा है ओ बी ओ<br/>मेरी क़िस्मत में लिखा है ओ बी ओ</font><br/><font color="#FF9900"><br/>कितने आए और कितने ही गए<br/>शान से अब तक खड़ा है ओ बी ओ</font><br/><br/><font color="#351C75">बढ़ गई तौक़ीर मेरी और भी<br/>तू मुझे जब से मिला है ओ बी ओ</font><br/><font color="#F1C232"><br/>हों वो 'बाग़ी' या कि भाई 'योगराज'<br/>तू सभी का लाडला है ओ बी ओ<br/></font><font color="#0000FF"><br/>भाई 'सौरभ' शान से कहते यही<br/>मेरे तो दिल की सदा है ओ बी ओ</font><br/><br/><font color="#9900FF">सीखने वाले नये जितने भी हैं<br/>तू सभी का आसरा है ओ बी ओ</font><br/><br/><font color="#FF00FF">है अदब में आप ये अपनी मिसाल<br/>बेश क़ीमत बे बहा है ओ बी ओ</font><br/><font color="#38761D"><br/>दिल से निकली है यही मेरे सदा<br/>जान भी तुझ पर फ़िदा है ओ बी ओ</font><br/><br/><font color="#783F04">चाहता हूँ मैं तुझे दिल से अगर<br/>क्या मेरी इस में ख़ता है ऒ बी ओ</font><br/><br/><font color="#FF0000">देख लो दिल चीर कर मेरा 'समर'<br/>शान से इसमें सजा है ओ बी ओ</font><br/>.<br/><font color="#38761D">'समर कबीर'</font><br/><font color="#351C75">मौलिक/अप्रकाशित</font></p>
छुड़ाना है कभी मुमकिन बशर का ग़म से दामन क्या ? (७० )
tag:openbooks.ning.com,2020-03-17:5170231:BlogPost:1002411
2020-03-17T18:30:00.000Z
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत '
https://openbooks.ning.com/profile/GIRDHARISINGHGAHLO
<p>(1222 1222 1222 1222 ) <br></br>छुड़ाना है कभी मुमकिन बशर का ग़म से दामन क्या ? <br></br>ख़िज़ाँ के दौर से अब तक बचा है कोई गुलशन क्या ? <br></br>**<br></br>कभी आएगा वो दिन जब हमें मिलकर सिखाएंगे <br></br>मुहब्बत और बशरीयत यहाँ शैख़-ओ-बरहमन क्या ?<br></br>**<br></br>क़फ़स में हो अगर मैना तभी क़ीमत है कुछ उसकी <br></br>बिना इस रूह के आख़िर करेगा ख़ाना-ए-तन* क्या ?(*शरीर का भाग )<br></br>**<br></br>निग़ाह-ए-शौक़ का दीदार करने की तमन्ना है <br></br>उठेगी या रहेगी बंद ये आँखों की चिलमन क्या ? <br></br>**<br></br>अगर बेकार हैं तो काम ढूंढे या करें बेगार…</p>
<p>(1222 1222 1222 1222 ) <br/>छुड़ाना है कभी मुमकिन बशर का ग़म से दामन क्या ? <br/>ख़िज़ाँ के दौर से अब तक बचा है कोई गुलशन क्या ? <br/>**<br/>कभी आएगा वो दिन जब हमें मिलकर सिखाएंगे <br/>मुहब्बत और बशरीयत यहाँ शैख़-ओ-बरहमन क्या ?<br/>**<br/>क़फ़स में हो अगर मैना तभी क़ीमत है कुछ उसकी <br/>बिना इस रूह के आख़िर करेगा ख़ाना-ए-तन* क्या ?(*शरीर का भाग )<br/>**<br/>निग़ाह-ए-शौक़ का दीदार करने की तमन्ना है <br/>उठेगी या रहेगी बंद ये आँखों की चिलमन क्या ? <br/>**<br/>अगर बेकार हैं तो काम ढूंढे या करें बेगार <br/>कभी बैठे बिठाये भी मिली दौलत है मद्फ़न* क्या ? (*गाड़ी हुई /दफ़्न )<br/>**<br/>सियासतदाँ करे दावे बहुत तक़रीर में लेकिन <br/>कटाने को मगर होता कोई तैयार गर्दन क्या ? <br/>**<br/>किसी भी दर्द को शायद कभी हम भूल भी जाएँ <br/>मगर मुमकिन किसी की भूलना भोली सी चितवन क्या ?<br/>**<br/>समझ में क्यों नहीं आता उन्हें जो बैठे धरने पर <br/>कि कोरोना से अब भी है बड़ा इन्सां का दुश्मन क्या ? <br/>**<br/>मुहब्बत से 'तुरंत' अपनी सभी को बात समझाएं <br/>किसी पर फ़ैसले को थोपना अच्छा है ज़बरन क्या ? <br/>**<br/>गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी<br/>(<strong>मौलिक व अप्रकाशित)</strong></p>
किसी आजाद पन्छी को न थी मन्जूर पाबन्दी -गजल
tag:openbooks.ning.com,2020-03-18:5170231:BlogPost:1002412
2020-03-18T00:47:09.000Z
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
https://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p dir="ltr"><a href="tel:1222">१२२२</a> /<a href="tel:1222">१२२२</a>/ <a>१२२२ /१२२२</a>/</p>
<p dir="ltr">*<br></br> कभी कतरों में बँटकर तो कभी सारा गिरा कोई<br></br> मिला जो माँ का आँचल तो थका हारा गिरा कोई।१।</p>
<p dir="ltr">*<br></br> कि होगी कामना पूरी किसी की लोग कहते हैं<br></br> फलक से आज फिर टूटा हुआ तारा गिरा कोई।२।</p>
<p dir="ltr">*<br></br> गमों की मार से लाखों सँभल पाये नहीं लेकिन<br></br> सुना हमने यहाँ खुशियों का भी मारा गिरा कोई।३।</p>
<p dir="ltr">*<br></br> किसी आजाद पन्छी को न थी मन्जूर…</p>
<p dir="ltr"><a href="tel:1222">१२२२</a> /<a href="tel:1222">१२२२</a>/ <a>१२२२ /१२२२</a>/</p>
<p dir="ltr">*<br/> कभी कतरों में बँटकर तो कभी सारा गिरा कोई<br/> मिला जो माँ का आँचल तो थका हारा गिरा कोई।१।</p>
<p dir="ltr">*<br/> कि होगी कामना पूरी किसी की लोग कहते हैं<br/> फलक से आज फिर टूटा हुआ तारा गिरा कोई।२।</p>
<p dir="ltr">*<br/> गमों की मार से लाखों सँभल पाये नहीं लेकिन<br/> सुना हमने यहाँ खुशियों का भी मारा गिरा कोई।३।</p>
<p dir="ltr">*<br/> किसी आजाद पन्छी को न थी मन्जूर पाबन्दी<br/> उसी की फड़फड़ाहट से वहाँ कारा गिरा कोई।४।</p>
<p dir="ltr">*<br/> पतित कर आचरण को नित धरासायी उजाले हैं<br/> सुना अबतक मगर यारो न अँधियारा गिरा कोई।५।</p>
<p dir="ltr">*</p>
<p dir="ltr">मौलिक.अप्रकाशित<br/> लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'</p>
कोरोना के विरुद्ध पाँच दोहे (गणेश बाग़ी)
tag:openbooks.ning.com,2020-03-20:5170231:BlogPost:1002523
2020-03-20T04:30:00.000Z
Er. Ganesh Jee "Bagi"
https://openbooks.ning.com/profile/GaneshJee
<p>(1)</p>
<p>सुनी सुनाई बात पर, मत करना विश्वास ।<br></br> चक्कर में गौमूत्र के, थम ना जाए श्वास ।।</p>
<p>(2)</p>
<p>कोरोना से तेज अब, फैल रही अफ़वाह ।<br></br> सोच समझ कर पग रखो, कठिन बहुत है राह ।।</p>
<p>(3)<br></br> कोरोना के संग यदि, लड़ना है अब जंग ।<br></br> धरना-वरना बस करो, बंद करो सत्संग ।।</p>
<p>(4)<br></br> साफ सफाई स्वच्छता, सजग रहें दिन रात ।<br></br> दें साबुन से हाथ धो, कोरोना को मात ।</p>
<p>(5)</p>
<p>मुश्किल के इस दौर में, मत घबराओ यार ।<br></br> बस वैसा करते रहो, जो कहती सरकार ।।</p>
<p>(मौलिक एवं…</p>
<p>(1)</p>
<p>सुनी सुनाई बात पर, मत करना विश्वास ।<br/> चक्कर में गौमूत्र के, थम ना जाए श्वास ।।</p>
<p>(2)</p>
<p>कोरोना से तेज अब, फैल रही अफ़वाह ।<br/> सोच समझ कर पग रखो, कठिन बहुत है राह ।।</p>
<p>(3)<br/> कोरोना के संग यदि, लड़ना है अब जंग ।<br/> धरना-वरना बस करो, बंद करो सत्संग ।।</p>
<p>(4)<br/> साफ सफाई स्वच्छता, सजग रहें दिन रात ।<br/> दें साबुन से हाथ धो, कोरोना को मात ।</p>
<p>(5)</p>
<p>मुश्किल के इस दौर में, मत घबराओ यार ।<br/> बस वैसा करते रहो, जो कहती सरकार ।।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
तृप्ति
tag:openbooks.ning.com,2020-05-13:5170231:BlogPost:1002414
2020-05-13T00:00:00.000Z
vijay nikore
https://openbooks.ning.com/profile/vijaynikore
<p><span style="font-size: 10pt;">तृप्ति</span></p>
<p></p>
<p>चहुँ ओर उलझा कटा-पिटा सत्य</p>
<p>कितना आसान है हर किसी का</p>
<p>स्वयं को क्षमा कर देना</p>
<p></p>
<p>हो चाहे जीवन की डूबती संध्या</p>
<p>आन्तरिक द्वंद्व और आंदोलन</p>
<p>मानसिक सरहदें लाँघते अशक्ति, विरोध</p>
<p>स्वयं से टकराहट</p>
<p>व्यक्तित्व .. यंत्रबद्ध खंड-खंड</p>
<p></p>
<p>जब देखो जहाँ देखो हर किसी में</p>
<p>पलायन की ही प्रवृत्ति</p>
<p>एक रिश्ते से दूसरे ...</p>
<p>एक कदम इस नाव</p>
<p>एक ... उस…</p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तृप्ति</span></p>
<p></p>
<p>चहुँ ओर उलझा कटा-पिटा सत्य</p>
<p>कितना आसान है हर किसी का</p>
<p>स्वयं को क्षमा कर देना</p>
<p></p>
<p>हो चाहे जीवन की डूबती संध्या</p>
<p>आन्तरिक द्वंद्व और आंदोलन</p>
<p>मानसिक सरहदें लाँघते अशक्ति, विरोध</p>
<p>स्वयं से टकराहट</p>
<p>व्यक्तित्व .. यंत्रबद्ध खंड-खंड</p>
<p></p>
<p>जब देखो जहाँ देखो हर किसी में</p>
<p>पलायन की ही प्रवृत्ति</p>
<p>एक रिश्ते से दूसरे ...</p>
<p>एक कदम इस नाव</p>
<p>एक ... उस नाव</p>
<p></p>
<p>कल्पना-जाल ही तो है</p>
<p>यह आज की ईमानदारी</p>
<p>कोई कहे इसको प्रगतिशीलता</p>
<p>कोई कहे समाई है इसी में</p>
<p>मानव-मुक्ति</p>
<p></p>
<p>नहीं ज़रूरत है मुझको</p>
<p>ऐसी मानव-मुक्ति की</p>
<p>ऐसे पलायन की</p>
<p>ज़रूरत है मुझको</p>
<p>तृप्ति की, केवल तृप्ति की</p>
<p></p>
<p>इस सबसे कहीं दूर ...</p>
<p></p>
<p>आओ प्रिय, सुनो गुनगुनाहट</p>
<p>दे दो हाथ, बाहों में बाहें डाल</p>
<p>एक ही नाव में चलें हम दोनो</p>
<p>इसी क्षण, आँखें बंद</p>
<p>एक संग "उस" पार</p>
<p></p>
<p>आओ, पा लें हम अपनापन</p>
<p></p>
<p>उफ़ ! छा गया घना अँधेरा </p>
<p>नदी के पानी पर भी है</p>
<p>अब बेमाप चादर काली</p>
<p>जल टूट रहा है ... और</p>
<p>प्रिय, कहाँ हो तुम ?</p>
<p></p>
<p>तृप्ति ...</p>
<p>मेरी तृप्ति</p>
<p>अपनी-सी धड़कन</p>
<p>कहाँ हो तुम ?</p>
<p> ------</p>
<p></p>
<p>-- विजय निकोर</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>