भाव की हर बांसुरी में
भर गया है कौन पारा ?
देखता हूं
दर-बदर जब
सांझ की
उस धूप को
कुछ मचलती
कामना हित
हेय घोषित
रूप को
सोचता हूं क्या नहीं था
वह इन्हीं का चांद-तारा ?
बौखती इन
पीढि़यों के
इस घुटे
संसार पर
मोद करता
नामवर वह
कौन अपनी
हार पर
शील शारद के अरों को
ऐंठती यह कौन धारा ?
इक जरा सी
आह सुन जो
छूटता
ले प्राण था
तू ही जिनकी
जिंदगी था
तू ही जिनकी
जान था
चाहते थे वे रथी कब
सारी धरती व्यो…