बन्धनहीन जीवन :......
क्यों हम अपने दु :ख को विभक्त नहीं कर सकते ?
क्यों हम कामनाओं की झील में स्वयं को लीन करजीवित रहना चाहते हैं ?
क्यों यथार्थ के शूल हमारे पाँव को नहीं सुहाते ?
शायद हम स्वप्न लोक के यथार्थ से अनभिज्ञ रहना चाहते हैं ।
एक आदत सी हो गई है मुदित नयन में जीने की ।
अन्धकार की चकाचौंध को अपनी सोच की हाला में मिला कर पीने की ।
व्याकुलताओं को खोखली हंसी के लिबास में छुपाकर उन्…