"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122
विषय : रचनाकार अपने मनपसंद विषय पर लिख सकते हैं।
अवधि : 30-05-2025 से 31-05-2025
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अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, 10-15 शब्द की टिप्पणी को 3-4 पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है।
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाए इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है। देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
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"मेरे अहं और वजूद का कुछ तो ख्याल रखा करो। हर जगह तुरंत ही टपक कर तुम मुझ पर हावी हो जाते हो!" संज्ञा ने सर्वनाम से कहा।
"तुम, तुम ही रहती हो। कोई फ़र्क नहीं पड़ता तुम पर मेरे कारण।" तसल्ली देते हुए सर्वनाम ने कहा।
"हॉं, सही कहा सर्वनाम ने। कहते हैं न कि 'नाम में क्या रखा है, काम देखो यारो', है न?" दोनों के बीच क्रिया उछल कर आयी और मुस्कुराते हुए बोली, "कर्म ही पूजा है, प्रिय!"
"....और फ़िर मैं तो आ जाता हूॅं तुम्हारे नज़दीक़ तुम्हारे महत्व को बढ़ाने तुम्हारे धर्म, कर्म और गुणवत्ता अनुसार!" विशेषण चुप न रह सका और संज्ञा के पास आकर बोला, "हम दोनों एक दूजे के लिए, हैं न?"
"....और क्रिया के साथ मैं तुम तीनों के लिए!" क्रिया-विशेषण ने क्रिया के समीप आते हुए कहा।
"सच कहते हो, तुम सबसे मैं हूॅं। तो फिर 'नाम' के लिए लोग क्यों उलझते, लड़ते-झगड़ते और मरते हैं?" संज्ञान लेते हुए संज्ञा उन सबसे बोली।
"ये व्याकरण है। भाषा की ही नहीं, जीवन की, जीवन शैली की, जीने के उद्देश्य की! काश, लोग समझ पाते और तुम्हें भटका न पाते!" क्रिया ने सबको अपनी बाहों से घेरते हुए संज्ञा पर नज़रें टिका कर कहा।
आप की प्रयोगधर्मिता प्रशंसनीय है आदरणीय उस्मानी जी। लघुकथा के क्षेत्र में निरन्तर आप नवीन प्रयोग कर इसे नया रूप देने में प्रयासरत है। हम आपकी इस साधना के सतत साक्षी हैं।
बूढ़ा कौवा अपने पोते को समझा रहा था। "देखो बेटा, ये हमारे साथ पहले हो चुका है। हमारे एक पूर्वज भी ऐसे ही एक बार गफ़लत में आ गए थे। उनको भी मोर का एक पंख मिल गया था जिसे उन्होंने अपनी पूँछ में लगा लिया था और..........।"
"और उन्होंने स्वयं को मोर समझना शुरू कर दिया। पर मोरों ने उनका मज़ाक बना कर अपनी बस्ती से भगा दिया। फिर वो लौट कर वापस आए तो कौवों ने भी उनका अपमान किया और उनको माफ़ी मांगने के बाद ही कौवों की टोली में वापिस लिया गया।......यही ना।"
पोते ने दादा कौवे की बात बीच में ही काट कर किस्सा जल्दी में पूरा कर दिया। और फिर बोला, "दादा जी, ये कहानी आप कितनी ही बार सुना चुके हैं। और हम अच्छे से जान और समझ भी चुके हैं।"
"फिर भी तुम वही काम एक बार फिर करना चाहते हो। गए समय से सीख न लेने वाला सबसे बड़ा मूर्ख होता है बेटा।" दादा कौवे ने समझाया।
“दादा जी, आप की सीख मुझे अच्छे से याद है। और विश्वास कीजिए मैं अगर मोरपंख लगा रहा हूँ और लगाने के लिए कह रहा हूँ इसके कारण हैं। और इस बार इसकी वजह से हमारा मज़ाक़ नहीं बनेगा अपितु सम्मान होगा।“ युवा पोते ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।
“वो कैसे?” दादा कौवे के स्वर में उत्सुकता थी।
“दादा जी, पक्षियों में इस बार लोकतंत्र आ रहा है। जंगलसभा के पदाधिकारियों के लिए चुनाव हो रहें हैं। एक मोर भी उम्मीदवार है और उसे हमारे वोट चाहिए। इस बार वो घर आएगा, कुछ न कुछ भेंट भी लाएगा और ख़ुद हमें पंख लगाकर मोरों में शामिल करेगा।“
दादा सोचते रहे फिर बोले, “पर बेटा, उसके बाद हम आपस में अपने को मोर कहेंगे या कौवा।”
Sheikh Shahzad Usmani
May 31
अजय गुप्ता 'अजेय
आप की प्रयोगधर्मिता प्रशंसनीय है आदरणीय उस्मानी जी। लघुकथा के क्षेत्र में निरन्तर आप नवीन प्रयोग कर इसे नया रूप देने में प्रयासरत है। हम आपकी इस साधना के सतत साक्षी हैं।
सादर
May 31
अजय गुप्ता 'अजेय
मोर या कौवा
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बूढ़ा कौवा अपने पोते को समझा रहा था। "देखो बेटा, ये हमारे साथ पहले हो चुका है। हमारे एक पूर्वज भी ऐसे ही एक बार गफ़लत में आ गए थे। उनको भी मोर का एक पंख मिल गया था जिसे उन्होंने अपनी पूँछ में लगा लिया था और..........।"
"और उन्होंने स्वयं को मोर समझना शुरू कर दिया। पर मोरों ने उनका मज़ाक बना कर अपनी बस्ती से भगा दिया। फिर वो लौट कर वापस आए तो कौवों ने भी उनका अपमान किया और उनको माफ़ी मांगने के बाद ही कौवों की टोली में वापिस लिया गया।......यही ना।"
पोते ने दादा कौवे की बात बीच में ही काट कर किस्सा जल्दी में पूरा कर दिया। और फिर बोला, "दादा जी, ये कहानी आप कितनी ही बार सुना चुके हैं। और हम अच्छे से जान और समझ भी चुके हैं।"
"फिर भी तुम वही काम एक बार फिर करना चाहते हो। गए समय से सीख न लेने वाला सबसे बड़ा मूर्ख होता है बेटा।" दादा कौवे ने समझाया।
“दादा जी, आप की सीख मुझे अच्छे से याद है। और विश्वास कीजिए मैं अगर मोरपंख लगा रहा हूँ और लगाने के लिए कह रहा हूँ इसके कारण हैं। और इस बार इसकी वजह से हमारा मज़ाक़ नहीं बनेगा अपितु सम्मान होगा।“ युवा पोते ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।
“वो कैसे?” दादा कौवे के स्वर में उत्सुकता थी।
“दादा जी, पक्षियों में इस बार लोकतंत्र आ रहा है। जंगलसभा के पदाधिकारियों के लिए चुनाव हो रहें हैं। एक मोर भी उम्मीदवार है और उसे हमारे वोट चाहिए। इस बार वो घर आएगा, कुछ न कुछ भेंट भी लाएगा और ख़ुद हमें पंख लगाकर मोरों में शामिल करेगा।“
दादा सोचते रहे फिर बोले, “पर बेटा, उसके बाद हम आपस में अपने को मोर कहेंगे या कौवा।”
#मौलिक एवं अप्रकाशित
May 31