ग़ज़ल (सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी)

भाषा बड़ी है प्यारी जग में अनोखी हिन्दी,
चन्दा के जैसे सोहे नभ में निराली हिन्दी।

पहचान हमको देती सबसे अलग ये जग में,
मीठी जगत में सबसे रस की पिटारी हिन्दी।

हर श्वास में ये बसती हर आह से ये निकले,
बन के लहू ये बहती रग में ये प्यारी हिन्दी।

इस देश में है भाषा मजहब अनेकों प्रचलित,
धुन एकता की डाले सब में सुहानी हिन्दी।

शोभा हमारी इससे करते 'नमन' हम इसको,
सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी।


आज हिन्दी दिवस पर
22 122 22 // 22 122 22 बहर में

मौलिक व अप्रकाशित

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  • Samar kabeer

    मैं अभी ओबीओ पर चल रहे 'चित्र से काव्य तक'आयोजन में व्यस्त हूँ,आयोजन के बाद चर्चा करते हैं ।

  • सदस्य कार्यकारिणी

    गिरिराज भंडारी

    आदरनीय वासुदेव भाई , हिन्दी की महिमा गान गज़ल के रूप मे अच्छी लगा , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

  • बृजेश कुमार 'ब्रज'

    हिंदी की महिमा को प्रसारित करती सुन्दर रचना के लिए बधाइयाँ..सादर
  • Samar kabeer

    जनाब नीरज कुमार जी आदाब, // अरकान देखने से यह मुतकारिब मुसद्दस मुजायफ़ की कोई महजूफ बह्र लगती है लेकिन मुतकारिब मुसद्दस की कोई महजूफ बह्र मेरी जानकारी में ऐसी नहीं है जिसके अरकानों का क्रम ऐसा हो// मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ ।
  • बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

    आ0 गिरिराज भंडारी जी आपका हृदय तल से आभार।
  • बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

    आ0 ब्रजेश कुमार ब्रज जी आपका हृदय तल से आभार।
  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

    जैसे तख्निक से मुत़कारिब मुसम्मन अस्लम मक्बूज़ मुखन्नक (22 122  22  122) हासिल की जाती है वैसे ही तख्निक से मुत़कारिब मुसद्दस अस्लम मक्बूज़ मुखन्नक (22 122  22)  का हासिल करना भी अरूज़ के रू से मुमकिन है लेकिन अरूज़ की किसी किताब में इस बह्र का कोई जिक्र नहीं है. ऐसे में क्या इस पर लिखी ये ग़ज़ल बेबह्र मानी जायेगी या इसे स्वीकृति मिलना मुमकिन है?

    क्या इस ग़ज़ल की बह्र का मुन्सरेह मुरब्बा मक्तूअ या मौकूफ मुजायफ़ होना मुमकिन है ?

    सादर 

  • Samar kabeer

    ये फैसला आप ही कर दीजिए तो बहतर होगा ।
  • रामबली गुप्ता

    भाई वासुदेव जी हार्दिक बधाई स्वीकारें। अच्छी रचना हुई हैं। मुझे तो पढ़ने में लय में लगी। बाकी वह्र के अनुसार है या नही ये गुनी जन ही बताएँगे।
  • रामबली गुप्ता

    आदरणीय समर भाई साहब इस विषय पर आप कुछ बताएं ताकि हम सब की जानकारी में भी इज़ाफ़ा हो सके।
  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. बासुदेव जी,
    अच्छी ग़ज़ल  है ...आपको बधाई..
    अरकान और बहर पर चल रही चर्चा से आप विचलित न हों....
    जो ग़ज़ल कहते हैं उन्हें ग़ज़ल पढ़ने  तरीका भी पता होता है... जो नहीं कह पाते वो अरकान में उलझते रहते हैं...
    आपकी ग़ज़ल स्थापित   अरकान 
    २२१२/ १२२// २२१२/१२२ (सारे जहाँ से अच्छा // हिंदोस्ता हमारा... बहर का नाम ज्ञानी लोग रटते रहें.. शाइर सिर्फ ग़ज़ल पर फोकस करें) पर बहुत आसानी से पढ़ी जा रही है और चूंकि अरूज में मात्रा गिराना जायज है  इसलिए इसे बेबहर कहने वालों को अभी OBO पर और ट्रेनिंग लेना चाहिये.
    .
    भाषा बड़ी/ है प्यारी // जग में अनो/खी हिन्दी,
    चन्दा के जै/से सोहे// नभ में निरा/ली हिन्दी।......
    इस बहर में पढने पर कई लोग यह भी कहेंगे कि काफ़िया को गिरा कर पढना दोषपूर्ण है लेकिन यह कई बड़े उस्तादों और शुरूआती शाइरी   में देखा गया है (अभी उदाहरण देने की स्थिति में नहीं हूँ लेकिन वक़्त पर दूंगा ज़रूर) ..इससे बचना चाहिये लेकिन फिर..ग़ज़ल लिखने की नहीं पढ़ने की विधा है ...और पढ़ते समय  कैसे पढना है ये शाइर तय करेगा ..
    आप को बधाई 

    भविष्य में प्रयास   करें कि अरकान के साथ सभी नियम जितना हो सकें पाले    जाय ताकि लेखन और  समृद्ध हो.
    शुभभाव 

  • Samar kabeer

    जनाब रामबली गुप्ता जी आदाब,अरूज़ की नज़र से देखें तो इन अरकान पर कोई बह्र नहीं मिलेगी,लेकिन अरूज़ के जनक ख़लील बिन अहमद ने भी कुछ ख़ुद साख़ता बहूर का ज़िक्र किया है,होता ये है कि जब कोई शाइर अदब में अपना मक़ाम बना लेता है उसके बाद वो अपने बनाये हुए अरकान पर ग़ज़लें कहने लगता है,लेकिन नए सीखने वालों को इससे परहेज़ करना चाहिए,मीट ने ऐसे प्रयोग किये हैं,जब अरकान अरूज़ से साबित न हों तो ज़रूरी नहीं कि उन्हें सिरे से नकार दिया जायेगा बस इतना है कि जिन अरकान पर ग़ज़ल कही गई है वो लय में हो ।
    जनाब बासुदेव साहिब की ये ग़ज़ल भी ख़ुद साख़ता(अपने बनाये हुए)अरकान पर कही गई है,जो अरूज़ के हिसाब से नहीं होते हुए भी ख़ारिज नहीं की जा सकती,क्योंकि ये अरकान के हिसाब से पूरी तरह लय में है,इस लिहाज़ से इसे बेबह्र नहीं कहा जा सकता,ये ग़ज़ल बह्र में ही कही जाएगी ।
  • Nilesh Shevgaonkar

    ख़ुदा-ए-सुखन मीर की ग़ज़ल है ..
    .
    होती
    है गरचे कहने से यारो परा बात

    पर हम से तो थंबे कभू मुँह पर बात.
    .

    जाने तुझ को जो ये तसन्नो तू उस से कर

    तिस पर भी तो छुपी नहीं रहती बना बात.
    .

    लग कर तदरौ रह गए दीवार-ए-बाग़ से

    रफ़्तार की जो तेरी सबा ने चलाई बात
    .

    कहते थे उस से मिलिए तो क्या क्या कहिए लेक

    वो गया तो सामने उस के आई बात
    .

    अब तो हुए हैं हम भी तिरे ढब से आश्ना

    वाँ तू ने कुछ कहा कि इधर हम ने पाई बात
    .

    बुलबुल के बोलने में सब अंदाज़ हैं मिरे

    पोशीदा कब रहे है किसू की उड़ाई बात
    .

    भड़का था रात देख के वो शो'ला-ख़ू मुझे

    कुछ रू-सियह रक़ीब ने शायद लगाई बात
    .

    आलम सियाह-ख़ाना है किस का कि रोज़-ओ-शब

    ये शोर है कि देती नहीं कुछ सुनाई बात
    .

    इक दिन कहा था ये कि ख़मोशी में है वक़ार

    सो मुझ से ही सुख़न नहीं मैं जो बताई बात
    .

    अब मुझ ज़ईफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो

    जाती नहीं है मुझ से किसू की उठाई बात
    .

    ख़त लिखते लिखते 'मीर' ने दफ़्तर किए रवाँ

    इफ़रात-ए-इश्तियाक़ ने आख़िर बढ़ाई बात.

    .
    इस ग़ज़ल की तक्तीअ करेंगे तो  अरकान होंगे 

    २२१/ २१२१/ १२२१/ २१२  यहाँ +1 की छूट ली गयी है बा...त में 
    आप पायेंगे कि काफ़िया में ई की मात्रा गिराकर इ पढ़ी गयी है अत: आप की ग़ज़ल न बेबहर है न क़ाफिया दोष है ....
    जो दोष बताये उससे कहियेगा कि "जाओ पहले मीर के साइन ले कर आओ, फिर जहाँ कहोगे मैं साइन कर दूँगा"
    .
    आप ने अरकान क्या ग़लत लिख दिए..लोग आपको  बेबहर साबित करने पर तुल गये.
    आप अरकान
    २२१२/१२२// २२१२/१२२    कर लें 
    सादर 

  • Samar kabeer

    बहरों के खेल निराले मेरे भय्या'
  • रामबली गुप्ता

    धन्यवाद भाई नीलेश जी एवं समर भाई साहब। आप लोगों के सपष्टीकरण से जानकारी में काफी इज़ाफ़ा हुआ है।
  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

    आपके द्वारा दी गयी जानकारी मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. और अरूज़ पर सोचने के लिए एक नयी दिशा देने वाली है. मीर द्वारा किये गए इस तरह के प्रयोगों पर कुछ और रोशनी डालें और कुछ उदाहरण दे तो मेरे लिए बहुत बड़ी मदद होगी.

    सादर  

  • Samar kabeer

    आप मीर को पढ़ लें और ख़ुद तलाश करें,आपके पास बहुत वक़्त है, कहते हैं न 'अक़्लमंद को इशारा काफ़ी होता है' ।
  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

    कोशिश करूगा. शुक्रिया.  

  • अलका 'कृष्णांशी'


    .आद0 बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी, बहुत अच्छी रचना के लिए हार्दिक बधाई। सादर

  • Niraj Kumar

    आदरणीय निलेश जी.

    \\आप ने अरकान क्या ग़लत लिख दिए..लोग आपको  बेबहर साबित करने पर तुल गये.

    आप अरकान 
    २२१२/१२२// २२१२/१२२    कर लें\\

    ये अरकान भी गलत है. मेरी जानकारी में ऐसी कोई बह्र मौजूद नहीं है जिसके अरकानों का क्रम ऐसा हो.

    'सारे से जहाँ से अच्छा' के अरकान दूसरे हैं. 

    सादर 

  • रामबली गुप्ता

    भाई नीरज जी जब रचना पूरी तरह लय में है तो अरकान के पीछे क्यों पड़े हैं। क्या यह काफी नही कि रचना लयबद्ध और भावपूर्ण तथा कथ्य सुसंगत हैं?
  • Niraj Kumar

    आदरणीय रामबली गुप्ता जी,

    आपकी बात सही है कि रचना पूरी तरह लय में है. लेकिन किसी ग़ज़ल की अरूजी साख्त  पर चर्चा  में  कोई बुराई नहीं है. इससे फायदा ही होता है. वैसे मै इस ग़ज़ल पर जनाब समर कबीर साहब की राय से सहमत हूँ.

    सादर  

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ नीरज जी,
    अरकान दूसरे हों या तीसरे
    सारे जहाँ से अच्छा की तकतीअ कर के देख लें।
    सा 2 रे 2 ज 1 हाँ 2/ से 1 अच 2 छा 2// हिन 2 दो 2 स 1 ता 2/ ह 1 मा 2 रा 2 यानी 2212, 122,,, 2212, 122 अब इन्हें किसी भी कॉम्बिनेशन में लिखें, धुन यही रहेगी।
    वैसे ग़ज़ल की कक्षा में तकतीअ पर चैप्टर है।
    सादर
  • Nilesh Shevgaonkar

    शायद इससे कोई राहत मिले आ. नीरज जी को 

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. नीरज जी,
    आलोचकों और शाइरों में यही फर्क  है ..
    आप नाम खोजते रहिये  बहर का ..हम उस बहर पर ग़ज़ल  कहते रहेंगे ..
    मोमिन और इक़बाल ..
    इन्साफ की डगर पे ...बच्चो दिखाओ चल के ....
    आश्चर्य है कि आप  ने इस बह्र को नहीं पढ़ा ...
    //ये अरकान भी गलत है. मेरी जानकारी में ऐसी कोई बह्र मौजूद नहीं है जिसके अरकानों का क्रम ऐसा हो//
    //
    बहरे रजज़ मुसम्मन मख्बून मक्तूअ का जिक्र अरूज की किसी मान्य किताब में नहीं है.//
    इक़बाल और मोमिन के बाद तो ग़ालिब  और मीर ही बचे हैं....
    कहें तो उन्हें भी बुलाऊं चर्चा  में>>>
    नीरज जी, 
    हमारे मंच पर कोई  भी चर्चा  अना का मुददआ नहीं होती... 
    आपने अबतक नहीं पढ़ी ये बहर तो अब पढ़ लें और OBO की जय कहें ...
    सादर 

  • Niraj Kumar

    आदरणीय निलेश जी,

     कोई भी तक्तीअ तभी सही मानी जाती है जब वह किसी मान्य बह्र के अनुरूप हो, अरकानों का क्रम किसी मान्य बह्र के अनुरूप न हो तो तक्तीअ सही नहीं मानी जाती.

    बहरे रजज़ मुसम्मन मख्बून मक्तूअ का जिक्र अरूज की किसी मान्य किताब में नहीं है.

    वस्तुतः जिन ग़ज़लों का आपने जिक्र किया है उनकी वास्तविक बह्र है 'मजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ मक्फूफ़ मुखन्नक सालिम' है. 

    जिसे सामान्यतया 'मजारे मुसम्मन अखरब' के नाम से जाना जाता है अरकान हैं  'मफ़ऊलु फ़ाइलातुन मफ़ऊलु  फ़ाइलातुन'

    (221 2122  221  2122) 

    अना आपकी अपनी समस्या है. मै सिर्फ तथ्यों का ज़िक्र करता हूँ.

    अरूज़ की सतही जानकारी से बचे और मूल किताबों को पढ़ें.

    और हाँ चीजों को सही नाम से जानने में कोई बुराई नहीं है. नाम सही न हो तो चिठ्ठी गलत जगह पहुँच जाती है.

    सादर 

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. नीरज जी,
    कमेंट्स क्यूँ  डिलीट    कर दिए आपने अपने..जिस में आपने घोषणा की थी कि ऐसी कोई बहर मौजूद नहीं है किसी अच्छी किताब में और आपकी वो गर्वोक्ति जिसमें आपने कहा  कि आप ऐसी कई ग़ज़ल की कक्षाएं पीछे छोड़ आये हैं. ?
    खैर....अपनी त्रुटी मान  लेने से समझ समृद्ध होती है ..
    सादर 

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. नीरज जी,
    हम तो कबीर जैसे अनपढ़ जुलाहे हैं.... धुन पकडकर कह लेते हैं... किताबें आपको मुबारक़ जिनसे पढ़कर कमेंट डिलीट करने पड़ते हैं...
    हमारा काम चिट्ठियां लिखना है ... पते याद  रखना कबूतरों की ज़िम्मेदारी है ...
    वैसे आपके लिखे अरकान (221 2122  221  2122) और मेरे लिखे अरकान २२१२/१२२// २२१२/१२२  में फर्क आपको तक्तीअ से समझ आएगा... गीत में नेचरल पॉज जहाँ है वहां  अरकान में  भी पॉज आएगा 
    जैसे ..
    सारे जहाँ (२२१२) से अच्छा (१२२) हिंदोस्ता (२२१२) हमारा (१२२)
    आपके हिसाब से 
    सारेज (२२१) हाँ से अच्छा (२१२२) हिन्दोस ( २२१) ताहमारा (२१२२)
    देख लें कि क्या सही है 
    सादर 

  • Niraj Kumar

    आदरणीय निलेश जी,

    जो भी पोस्ट डिलीट हुईं है उनका सार मैंने पिछली पोस्ट में सामिल कर दिया है. और आपने ध्यान नहीं दिया उसमे साफ़ लिखा है : \\बहरे रजज़ मुसम्मन मख्बून मक्तूअ का जिक्र अरूज की किसी मान्य किताब में नहीं है.\\ मैं अपनी इस बात पर अब भी कायम हूँ. रजज़ में ऐसी कोई बह्र अरूज के रू से मुमकिन नहीं है. और जब कोई बह्र अरूज के रू से मुमकिन ही नहीं है तो आगे कहने को कोई बात ही नहीं रह जाती. अरूज हमारी मर्जी से नहीं चलता उसके अपने नियम होते हैं.

    सादर

  • बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

    मेरी इस ग़ज़ल पर
    आ0 समर कबीर साहिब
    आ0 नीलेश जी
    आ0 नीरज कुमार जी
    आ0 रामबली जी
    द्वारा बहर अरकान आदि के विषय में इतनी चर्चा हुई और मुझे हर्ष है कि मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। मुझे खेद है कि मै इसे अभी देख पाया।
    यह ग़ज़ल मैंने एक साल पहले 14-09-16 को हिन्दी दिवस पर लिखी थी जब मैंने ग़ज़ल बस लिखना शुरू ही किया था जबकि हिन्दी कविता के क्षेत्र में मैं सत्तर के दशक से हूँ।
    अपने स्वनिर्मित अरकान बनाना तो दूर जब ग़ज़ल लिखी थी तब अरकान अरूज़ जैसे शब्दों का अर्थ क्या होता है यही नहीं पता था।
    मैंने किसी व्हाट्स एप के साहित्यिक ग्रुप में 22 122 22 // 22 122 22 की रचना देखी तो मस्तिष्क में फौरन लाला ललाला लाला//लाला ललाला लाला पर एक धुन तैयार हो गई और यह ग़ज़ल बस बन गई। अभी तो मैं जटिल बहरों पर भी शब्द बैठा लेता हूँ लेकिन यह धुन मुझे अपने अनुभव के आधार पर बहुत सहज लगी थी और जहाँ भी सुनाई बहुत प्रशंसा मिली।
  • Tasdiq Ahmed Khan

    मुहतरम जनाब बासुदेव साहिब ,हिंदी पर अच्छी ग़ज़ल हुई है,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
    आपकी ग़ज़ल पर बह्र के बाबत लंबी बहस चल गई ,आपके कमेंट पढ़ कर सोचा मैं भी कुछ जानकारी शेयर कर लूं।
    मेरी तकती के हिसाब से यह बह्र रमल,मुसम्मन,मशकूल,मसकन(बह्र मुज़ारे, मुसम्मन,अखरब )है जिसके अरकान 221-2122-221-2122(मफऊल-फाईलातुन -मफऊल- फाईलातुन)हैं--
    शायद आप की जानकारी में बढ़ोतरी हो सके।
    सादर
  • Tasdiq Ahmed Khan

    मेरे पिछले कमेंट में फाईलातुन की जगह फ़ाइलातुन पढ़ें
  • Samar kabeer

    आपने जो अरकान लिखे हैं उनसे जनाब बासुदेव जी के अशआर की तक़्ति भी करके दिखा दें जनाब तस्दीक़ साहिब,शुक्रगुज़ार रहेंगे ।
  • Tasdiq Ahmed Khan

    मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, मत्ले की तक़ती इस तरह की है |
    मफऊल -फाइलातुन -मफऊल - फाइलातुन
    भाषा ब ---डी है प्यारी ---जग में अ ---नोखी हिन्दी
    2 2 1 --2 1 2 2 ----2 2 1 ---2 1 2 2

    चन्दा के ---जैसे सोहे ---नभ में नि ---राली हिन्दी
    2 2 1 ---2 1 2 2 ---2 2 1 ----2 1 2 2

    सादर

  • Niraj Kumar

    जनाब तस्दीक अहमद साहब,

    (221 2122 221 2122) का 'रमल,मुसम्मन,मशकूल,मुसक्किन' होना मुमकिन नहीं है. 

    इल्मे अरूज़ का एक बुनियादी उसूल है की किसी जिहाफ़ के अमल से हासिल अरकान उसी सूरत में जायज़ होते हैं जब वो किसी दूसरी बह्र का वजन न हों. जाहिर सी बात है कि जब यह आहंग (221 2122 221 2122) मजारे में मौजूद है तो इसे 'रमल

    मुसम्मन मशकूल सालिम' (1121   2122  1121  2122) पर तस्कीने औसत के अमल से हासिल नहीं किया जा सकता. (1121  2122  1121  2122) में से किसी एक 1121 (फइलात) को ही तस्कीने औसत से 221(मफऊल) के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाज़त है,

    सादर

  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब; आदाब,

    आपने मीर की खुद साख्ता बह्रों का जिक्र किया था, चुकि मीर मेरे शोध कार्य का हिस्सा हैं मुझे इसमें दिलचस्पी इसलिए भी ज्यादा थी, मैं मीर पर अपना काम लगभग पूरा कर चूका हूँ लेकिन मीर की ग़ज़लों में मुझे ऐसी कोई ग़ज़ल नहीं मिली जो अरूज के दायरे के बाहर हो और जिसके आहंग को खुद साख्ता कहा जा सके.

    जिसे बहे मीर कहा जाता है वो भी मीर की ईजाद नहीं है उसका प्रचलन आदिलशाह के वक्त से ही रहा है और यह बह्र भी अरूज के दायरे के बाहर नहीं है.

    सादर

  • Samar kabeer

    जनाब नीरज जी आदाब,आपका शोध कार्य पूरा हुआ इसके लिये बधाई आपको,मुझे जो इंगित करना था मैं कर चुका हूँ,और आपको मीर की ऐसी ग़ज़लें नहीं मिलीं तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ,आप बाल की खाल निकालते हैं,और मैं इशारों में अपनी बात कहता हूँ,मंच के सदस्य मेरी बात से संतुष्ट हैं,मेरे लिये इतना काफ़ी है,आपको संतुष्ट करने की जवाबदारी मेरी नहीं है,क्योंकि मेरा शोध कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है,और वो आख़री साँस तक चलता रहेगा ।

  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    आदरणीय बासुदेव अग्रवाल नमन जी, आपकी इस रचना पर हुई बहस से मन प्रसन्न है. लेकिन यह भी उतना ही सही है कि ऐसी चर्चाएँ सकारात्मक सोच के साथ हुआ करें, जिसमें सीखने-सिखाने का उद्येश्य सन्निहित हो. अन्यथा चर्चाओं की गति अनावश्यक बकवाद में फँस जाती है. अपनी बातें छोड़ मुद्दों पर चर्चा हो तो अन्य पाठकों को जिनके लिए कई बातें नयी-नयी हुआ करती हैं, इन सबों का महती लाभ मिलता है.

    मैं अपनी कही बात को क्रमबद्ध ढंग से कहता जाऊँगा जो सभी के लिए आवश्यक होगी. अभी पढ़ रहा हूँ . 

    आपकी रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ 

  • Tasdiq Ahmed Khan

    जनाब नीरज साहिब ,बहुत खुशी की बात है कि आपका शोध का काम पूरा हुआ ,लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि आपको शायरी के फील्ड में महारत हासिल हो गई । आप एक किताब कलीदे उरूज़ जो कि डॉक्टर ओम प्रकाश अग्रवाल ज़ार अल्लामी साहिब की लिखी हुई है उसके पेज नंबर 273 पर बह्र रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ईफ (फइलात-फ़ाइलातुन -फइलात -फ़ाइलातुन )जिस में फइलात को मफऊल किया जा सकता है ,दी हुईहै ।जिस में ग़ालिब साहिब के शेर (यह मसाइले तसव्वुफ़ यह तेरा बयान ग़ालिब -तुझे हम वली समझते जो न बादा ख्वार होता ) की तकती इसी बह्र में की गई है
    को एक बार पढ़ कर ज़रूर देखें ,फिर आप कहिये कि क्या मुमकिन है और क्या नामुमकिन --- सादर
  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब; आदाब,

    आभार आपका , आपने खुद ढूँढने की बात कही थी. इसलिए मीर पर मुझे जो तथ्य हासिल हुए आपके सामने रख दिए . 

    मेरी  कोशिश सिर्फ सही तथ्य सामने रखने की होती है.

    सादर 

  • Samar kabeer

    मैं अभी बहुत मसरूफ़ हूँ,मुझे कुछ वक़्त दीजिये,आपकी आरज़ू पूरी करने की कोशिश करूंगा,अपना फोन नम्बर दीजिये अगर ज़हमत न हो तो,ताकि एक बार आपसे खुलकर बात हो सके,यूँ क़ब तक लिखते रहेंगे ।
  • Niraj Kumar

    जनाब तस्दीक अहमद साहब,

    'शायरी के फील्ड में महारत' हासिल होने का मेरा कोई दावा नहीं है. लेकिन मैंने जिन उसूलों का जिक्र किया था वो मुल्ला गयासुद्दीन तूसी के तय किये हुए हैं मेरे नहीं. उन्हें ध्यान से पढ़ें आपको अपने उत्तर मिल जायेंगे. मैंने  कहीं नहीं कहा कि बह्र रमल मुसम्मन मशकूल सालिम में फइलात को मफऊल नहीं किया जा सकता मैंने कहा था कि (1121  2122  1121  2122) में से किसी एक 1121 (फइलात) को ही तस्कीने औसत से 221(मफऊल) के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाज़त है.

    आपने ग़ालिब की जिस ग़ज़ल की नज़ीर पेश की है उसमे कही फइलात को तस्कीने औसत से मफऊल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया है और न ही उर्दू के किसी मशहूर शायर ने कभी इस बह्र में फइलात की जगह मफऊल का इस्तेमाल किया है.

    सादर  

  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब; आदाब,

    आप पटल ही पर लिखें तो बेहतर होगा. इससे सबका ज्ञानवर्धन होगा.

    सादर 

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. तस्दीक़ साहब, 
    मैंने  अपनी दलील में एक क़िताब का स्क्रीन शॉट भेजा है... आप या अन्य कोई भी जबतक इससे बेहतर उदाहरण नहीं देते...
    मैं अरकान २१२२, १२२/ २१२२, १२२ ही क्यूँ न मानूँ? 
    सादर 

  • Samar kabeer

    पटल पर जो साझा करना है वो तो हम करेंगे ही,लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं जो पटल पर नहीं की जा सकतीं,फोन पर इत्मीनान से एक दूसरे को समझ लें ये बेहद ज़रूरी है,फोन नम्बर देने में क्या मजबूरी है ?पटल के सभी सदस्यों के पास एक दूसरे के नम्बर हैं,और हम आपस में बातें भी करते हैं,आप जैसे ज्ञानी से बात करना भी सौभाग्य से कम नहीं ।
  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

    नबर साझा करने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अभी मैं नया हूँ और चींजों को समझाने की प्रक्रिया में हूँ. आश्वस्त होने में थोडा वक्त लगेगा.

    मैं ज्ञानी जैसी उपाधि के काबिल नहीं हूँ. ऐसी उपाधियाँ आप जैसे उस्तादों पर ही फबती हैं.

    सादर 

  • Niraj Kumar

    जनाब तस्दीक अहमद साहब,

    पिछली पोस्ट में मैंने जल्दी में 'मुल्ला गयासुद्दीन और ख्वाजा नसीरुद्दीन तूसी' की जगह सिर्फ 'मुल्ला गयासुद्दीन तूसी' लिख दिया है. दोनों अरूज के माहिर थे लेकिन वस्तुतः ख्वाजा नसीरुद्दीन तूसी ने ही 'तस्कीन' को अरूज में शामिल किया था और इसके उसूल तय किये थे.

    बहस दूसरी दिशा में चली गयी है. वास्तविक समस्या ये है कि 221 2122 221 2122 से तकती करने में काफिये को गिराना पड़ता है और इस ग़ज़ल का काफिया ऐसा नहीं है जिसे गिराना मुमकिन हो.

    सादर

  • Samar kabeer

    भाई आपकी ग़लत फ़हमी दूर कर दूँ,कि मैं कोई उस्ताद नहीं हूँ,ओबीओ पर सीख रहा हूँ ।
    नये और पुराने की क्या बात है,आपका नम्बर मिल जायेगा तो कुछ फैज़ उठाने का मौक़ा नाचीज़ को भी मिल जायेगा,नम्बर न देने पर ग़ालिब का ये मिसरा बार बार ज़ह्न में आ रहा है :-
    'कुछ तो है, जिसकी पर्दा दारी है' ?
  • Tasdiq Ahmed Khan

    जनाब नीरज साहिब , किताब कलीद उरूज़ में एसा कहीं नहीं लिखा है कि फइलात की जगह सिर्फ़ एक बार मफऊल
    कर सकते हैं | इसी किताब में पेज नंबर 295 पर बह्र -मुज़ारे मुसम्मन अख्रब मक्फूफ सालिम दी है जिसके अरकान
    तो (मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन) हैं लेकिन रियायति अरकान ( मफऊल फाइलातुन मफऊल फाइलातुन ) हैं
    जिसमे शेर ( हर दाग़े दिल है गोया तारीख मेरे तन में ---जलवे हैं दोस्तों के पैदा इसी चमन में )की तक़्ति इसी बह्र में की गई है |
    एक और किताब फने शायरी ---मौलाना सय्यद ज़हूर शाह जहाँपुरी की इस में पेज -32 पर बह्र मुज़ारे मुसम्मन अख्रब
    जिसके अरकान (मफऊल फाइलातुन मफऊल फाइलातुन) हैं, जिस में शेर ( इक गम कदा मैं यारब मैं किस से दिल लगाऊं --
    जिस शै को देखता हूँ आमादए फ़ना है ) की तक़्ति इसी बह्र में की गई है | आपने जो क़ाफ़िया न गिराने की बात कही है , तो क़ाफ़िए में ये गिराई
    जा रही है जिसके बगैर बह्र मुकम्मल नहीं हो सकती -----जो बह्र के हिसाब से सही है
    सादर

  • Niraj Kumar

    जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

    'कुछ तो है, जिसकी पर्दा दारी है'

    बात ठीक उलटी है फोन पर की गयी बातें निजी होकर रह जाती हैं, परदे पीछे दो लोगों ने क्या खिचड़ी पकाई दूसरों को इसका पता नहीं होता. पटल पर किया गया लिखित संवाद ज्यादा पारदर्शी होता है और सब के लिए फायदेमंद होता है.

    निजी बातों के बजाय आप इस ग़ज़ल के मुद्दों पर बात करें तो आपकी जानकारी का फायदा सबको मिलेगा.

    मसलन ये कि 221 2122 221 2122 से तकती करने पर इस ग़ज़ल का काफिया गिरता है क्या इसे गिराया जा सकता है?

    और नहीं तो क्यों नहीं?

    सादर