अपनी जाई
गोद में खिलाई
लाडली सी बिटिया
जो कभी फूल
तो कभी चाँद नजर आती है/
जिसके लिए पिता का पितृत्व
और माँ की ममता
पलकें बिछाते हैं;
किन्तु उसी लाडली के
यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही,
उसके सुखी जीवन की कामना में जब
उसके हमसफ़र की तलाश की जाती है/
तब उसके चाल चलन
उसकी बोली , उसकी शिक्षा
रंग रूप , कद काठी
सब कुछ जांची परखी जाती है .....
किसी की नजर तलाशती है
उसमे काम की क्षमता
कोई ढूंढता है उसमें
अर्थोपार्जन में उसकी सहभागिता
कोई देखता है उसके रूप में सम्मोहन
हर नजर कुछ न कुछ तलाशती है
और खरी नहीं उतर पाती है
माँ की चाँद सी गुड़िया
हर जेहन में .....
कुछ बैसे ही ...जैसे
सधे हाँथों से पत्थर पर प्रहार करते हर मूर्तिकार को
नजर आती है उसकी मूर्ती
उसकी श्रेष्ठतम शिल्प
लेकिन उतरते ही हाट में
जब ढूँढने लगता है कोई साधक
मूरत में साधना के भाव
जब कोइ कला प्रेमी
निरखने लगता है मूरत का सौंदर्य
और जब कोइ ख्यातिलब्ध मूर्तिकार
जो मानता है कि और सधे होने थे हाँथ
तब किसी के दिल में बसती
किसी को न रुचती
और किसी के ठीक-ठाक है जैसे ख्यालों के साथ
आ जाती है सर्जक मूर्तिकार की मूर्ती
अपूर्णता के घेरे में ...
कुछ बैसे ही
मेरे सीने में छटपटाती
किसी ज्वालामुखी के लावा सम
मेरे लवो को चीर कर जन्म लेते मेरी रचना
या कभी शांत चित्त मन मस्तिष्क में उपज
उतरती है कागज पर;
ग्रीष्म कालिक नदी की तरह शनैः शनैः
और देती है
अपने जन्म पर
कुछ बैसा ही सुखद अहसास;
जैसा मिलता है किसी माँ को
प्रसव पीड़ा के बाद
अपने कलेजे के टुकड़े को सीने से लगाने में/
जिसमे महसूस होती है कभी
उगते सूरज की रश्मियों की गुनगुनाहट
कभी तपते सूरज की तपिश
कभी फूलों की खुश्बू
तो कभी खारों की चुभन
कभी जागरूक बनाती
कभी सचेत करती/
भावों की नदी से बहती प्रतीत होती
मेरी रचना,
शब्दों का सौन्दर्य बोध
धुन, लय ,
-पाठक की अपनी सोच से समरसता
समरूपता
जैसी तमाम
कसौटियो पर कसी जाती है
और लाडले बिटिया की तरह;
मूर्तिकार की मूरत की तरह
कहीं न कहीं से अपूर्ण रह जाती है
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय आशुतोष जी आदाब, बेटी की लालन-पालन से लेकर वर तलाशने तक माता-पित को किन परिस्थितियों से गुज़रना होता है ये वही जानते हैं । एक बेटी के पिता को बहुत साहसी होना पड़ता है ।वैसे आपकी रचना में कुछ लंबान ज़्यादा ही हो गया है । बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय आशुतोष मिश्र जी सादर अभिवादन। मिश्र जी अतुकांत रचना में चुकि गेयता और लय का आभाव होता है,लिहाजा उसे कम शब्दों, शब्दो के दुहराव से बचते हुए एक बिम्ब साधने की कोशिश होनी चाहिए, पाठक उसी बिम्ब को खोजते खोजते पूरी रचना पढ़ जाता है और अंत में उसे वह बिम्ब भी मिल जाता है। इस दृष्टि को आत्मसात करके ही अतुकांत विधा लिखी जाये तो मेरी समझ से उत्तम हो। आपने कुछ बड़ा कर दिया और शब्दों को कम कर सकते है आप। इस बेहतरीन प्रयास के लिए मेरी दिली मुबारकबाद। सादर
आदरणीय सुरेन्द्र जी आदरणीय आरिफ जी और आपने बढ़िया मशविरा दिया है मैं निश्चित रूप से उसपर अमल करूंगा . दरअसल कालेज के कार्यक्रम में सुनाने के लिए लिखी थी कुछ रचनाएँ उनमे से एक यह है ,और शायद थोडा समय लगे इसलिए लम्बी थी पर पाठकों की बात से इसमें निश्चित फर्क करना पड़ेगा ..मैं ध्यान दूंगा ..आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
Mohammed Arif
Mar 4, 2017
Dr Ashutosh Mishra
आदरणीय आरिफ जी , रचना पर आपके मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद , आपके मशविरे पर अमल करूंगा सादर
Mar 4, 2017
नाथ सोनांचली
Mar 4, 2017
Dr Ashutosh Mishra
आदरणीय सुरेन्द्र जी आदरणीय आरिफ जी और आपने बढ़िया मशविरा दिया है मैं निश्चित रूप से उसपर अमल करूंगा . दरअसल कालेज के कार्यक्रम में सुनाने के लिए लिखी थी कुछ रचनाएँ उनमे से एक यह है ,और शायद थोडा समय लगे इसलिए लम्बी थी पर पाठकों की बात से इसमें निश्चित फर्क करना पड़ेगा ..मैं ध्यान दूंगा ..आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
Mar 4, 2017
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
पर यह रचना अपूर्ण नहीं है सम्पूर्ण है बहुत ही शानदार रचना लिखी है सच में बेटी जैसी ही होती है कोई रचना आपने दिल से ढेरों बधाई आपको आद० डॉ ० आशुतोष जी
Mar 4, 2017
Dr Ashutosh Mishra
Mar 4, 2017