ग़ज़ल - झोंका कोई हिज़ाब उठाता ज़रूर है

221 2121 1221 212* जुर्मो सितम में उसके इज़ाफ़ा ज़रूर है । चेहरा जो आईनो से छुपाता ज़रूर है ।। गोया वो मेरा साथ निभाया ज़रूर है । पर हुस्न का गुरूर जताता ज़रूर है ।। महफ़ूज़ मुद्दतों से यहां दिल पड़ा रहा । तुमने मेरा गुनाह संभाला ज़रूर है ।। बेख़ौफ़ जा रहा है वो बारिश में देखिये । शायद किसी से वक्त पे वादा ज़रूर है।। आबाद हो गया है गुलिस्तां कोई मगर । निकला किसी के घर का दिवाला ज़रूर है।। गुम हो सके न आज तलक भी ख़याल से । मैंने तेरा वज़ूद तलाशा ज़रूर है ।। सच है जमीं पे चाँद उतारा खुदा ने है । झोंका कोई हिजाब उठाता ज़रूर है ।। उसके हुनर को दाद है कारीगरी गज़ब । फुरसत के साथ जिस्म तरासा ज़रूर है ।। नज़रें हया के साथ झुकाने लगी हैं वो । पढ़िए जरा वो शक्ल खुलासा ज़रूर है ।। काबिल नहीं था इश्क के यह बात है गलत । मुझको मेरा ज़मीर बताता ज़रूर है ।। --नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
  • Mohammed Arif

    आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठीजी, आदाब ! एकदम उम्दा ग़ज़ल , मुबारकबाद ।
  • Samar kabeer

    जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
    कुछ एक शैर में दोनों मिसरों में रब्त की कमी है,कुछ में व्याकरण की ग़लतियाँ हैं,देखियेगा ।
    आठवें शैर में 'तरासा' को "तराशा" कर लें ।
    9वें शैर के ऊला में 'हैं' को "है" कर लें ।
  • नाथ सोनांचली

    आद0 नवीन मणि त्रिपाठी जी सादर अभिवादन, उम्दा गजल के लिए दाद के साथ बधाई स्वीकार करें।
  • Naveen Mani Tripathi

    आ0 कबीर सर सादर नमन । अवश्य सुधार करता हूँ ।
  • Naveen Mani Tripathi

    आ0 मोहम्मद आरिफ साहब सादर आभार
  • Naveen Mani Tripathi

    आ0 सुरेन्द्र नाथ सिंह साहब सादर आभार
  • Ravi Shukla

    आदरणीय नवीन मणि जी गजल के लिये बधाई कुबल करें हमें लगता है बहर के निर्वहन पर अधिक ध्‍याान रहा है इसी से रदीफ का शेर से निर्वाह कमजोर हो गया है । सातवे शेर में तकाबुले रदीफ हो गया है । नवे शेर में शक्‍ल स्‍त्रीलिंग होने से काफिया और रदीफ पर फर्क पडेगा । सादर

  • Naveen Mani Tripathi

    आ0 ravi shukla sahab हाँ तकबुले रदीफ़ हो गया है । उसे सुधार कर उतारा खुदा यहाँ कर लिया हूँ । पढ़िये जरा वो शक्ल खुलासा जरूर है । शक्ल को पढ़िए सेजोड़ कर पढ़िए और खुलासा स्त्री लिंग के साथ भी प्रयोग होता है । जैसे बात स्त्री लिंग है और बात का खुलासा होता होता है । जहाँ तक मेरी समझ में आया यही सोचकर प्रयोग किया हूँ । बाकी कबीर सर पर छोड़ दिया ।
  • Samar kabeer

    'पढिये ज़रा वो शक्ल,ख़ुलासा ज़रूर है'
    इस मिसरे में कोई दोष नहीं,हाँ ऐसा लगता ज़रूर है, और इसका कारण है,रदीफ़ क़ाफिये के साथ बात का कहना,मैं अपनी मेरी पहली टिप्पणी को एक बार और पढ़ें,अस्ल में 'ख़ुलासा'शब्द के साथ रदीफ़ 'ज़रूर है' में वो ताल मेल नहीं जिसकी तलब 'ख़ुलासा'शब्द को है ,मिसाल के तौर पर मैं इस क़ाफिये को बरत कर दिखाता हूँ,तब रवि जी के ज़ह्न में कोनसी चीज़ खटक रही है,वो भी पता चल जायेगा,और नवीन जी आप भी समझ जाएंगे :-
    "पूरी वो दास्ताँ तो नहीं मेरे ज़ह्न में
    हाँ,याद मुझको उसका ख़ुलासा ज़रूर है"

    यहाँ अब बात निकली है तो इस बिंदू पर कुछ साझा करता हूँ ।
    ग़ज़ल कहते वक़्त इस बात का ख़ास ख़याल रखना चाहिये कि हमने जिस रदीफ़ को चुना है,और उसके साथ जो क़ाफ़िया लिया है,क्या वो रदीफ़ से मैच करता है या नहीं,अगर कुछ अटपटा सा लगे तो उसकी जगह कोई दूसरा क़ाफ़िया तय करें,जो कथ्य और व्याकरण की कसौटी पर खरा उतरे, नये ग़ज़ल अभ्यासी क्या ग़लती करते हैं कि वो अपनी ग़ज़ल की ज़मीन ख़ुद बनाना चाहते हैं,और इसका उन्हें कोई अनुभव नहीं होता,होता ये है कि जब वो ग़ज़ल कहने बैठते हैं तो उनका ज़ह्न उनके विचार को एक पैकर दे देता है,और एक शैर वजूद में आ जाता है,वो शैर उन्हें ख़ुद पसन्द आ जाता है,और जो कुछ ठीक ठाक भी हो जाता है,अब दूसरा अमल ये होगा कि इस शैर पर ग़ज़ल कहने का मन में विचार पैदा होगा,उसके लिए ज़रूरी है कि उसी कहे हुए शैर में रदीफ़ और क़ाफ़िया तय किया जाता है,अब यहाँ ये बात याद रखने की है कि ग़लती यहीं से शुरू हो जाती है,होता ये है कि कहा हुआ एक शैर तो ठीक है लेकिन आगे के लिये क्या ?कुछ उट पटांग सी रदीफ़ और क़ाफ़िया लेकर काम शुरू,और फिर कथ्य,तथ्य,व्याकरण और बह्र से ख़ारिज जैसे मुआमलात होना ही हैं ।
    अपनी कही हुई बात की मिसाल में इसी ग़ज़ल को लेलेते हैं,इस ग़ज़ल का ये मिसरा देखिये कितना ख़ूबसूरत है, और कथ्य,व्याकरण,अल्फ़ाज़ की चुस्त बंदिश,हर एतिबार से बहतरीन मिसरा है:-
    'जुर्म-ओ-सितम में उसके इज़ाफ़ा ज़रूर है'
    अब इस मिसरे को निभाने की ख़ातिर ग़ज़ल कहना थी तो इसका क़ाफ़िया लिया'इज़ाफ़ा'और रदीफ़ ली 'ज़रूर है'अब ये सब इस मिसरे में तो अच्छा लग रहा है लेकिन आगे इसमें मुश्किलें तो आना तय था तो जैसे तैसे ग़ज़ल हुई,जो उनके नज़दीक अच्छी भी हुई ।लेकिन आलोचक की नज़र में ये मात्र एक तुकबन्दी कहलाएगी,और इसे हर कोई तस्लीम करेगा ।
    नये अभ्यासियों को में ग़ज़ल कहने और सीखने की तरकीब बताता हूँ,सबसे पहले अपनी ज़मीन ह् बनाएं और उस्ताद शायरों की बनाई हुई आसान ज़मीनों में अभ्यास करें और फिर वो ख़ुद महसूस करेंगे कि उनकी ग़ज़लें बहतर होती जाएँगी,अगर ये नहीं तो भाई तुक बन्दी को ग़ज़ल का नाम देकर ख़ुशफ़हमी में मुब्तिला रहें कि ग़ज़ल कह रहे हैं ।
  • Naveen Mani Tripathi

    वाजिब बात है सर जी । मैं तो अभी एक ग़ज़ल का अदना सा विद्यार्थी ही हूँ और सीखता रहता हूँ । अभी तो तुकबन्दी पर ही ज्यादा नज़र रहती है जैसा की शुक्ला जी ने भी कहा है पर आप सब सहयोग और संगत से धीरे धीरे सीख जाऊँगा ।। सादर नमन ।
  • Samar kabeer

    मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं ।