आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।
लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।
करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।
चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।
लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद !
" तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों ?"
" मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ । वो लोग मुझे आज रात के लिए कही भेजने वाले थे । " दबी जुबान से वो बडी़ मुश्किल से कह पाई ।
"क्या..... ! अब कहाँ जाओगी ? "
" नहीं मालूम ! "
" मेरे घर चलोगी ? "
".........!"
" अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "
" जी " ....मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी ।
उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला । नशा हिरण हो चुका था ।
कुंडी खडकाने की भी जरूरत नहीं पडीं थी । उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था । वो भौंचक्की सी खड़ी रही ।
" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । "
मौलिक और अप्रकाशित
ओह !! वाह क्या अंत ....दिशाहीन करती हुई सोच को दायरा आखिरी लाईन ने ए क्षण में बदल गया... " ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । " आज कल का माहौल ही कुछ ऐसा है !!....बहुत ही सुंदर प्रस्तुति kanta roy जी | बहुत बहुत बधाई !!
आंखिरी क्षणों तक मन में उथल पुथल थी कि क्या होगा ,पर जो हुआ वो सच में एक ढंडी सी रहत देने वाला है , समाज में इतनी विषमताएं बढ़ रही हैं कि हम अक्सर आशंकित रहते हैं , बधाई आपको कांता जी
" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । " इस सारगर्भित पंक्ति ने लघुकथा के तेवर को और भी तीक्ष्ण भावों से युक्त कर दिया है। आरम्भ ,मध्य और अंत गज़ब का बन पड़ा है। इस शानदार लघु कथा के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई आदरणीया कांता रॉय जी।
आपकी जिम्मेदारी बढ़ गई है आदरणीया कांता राॅय जी और आप इससे छुटकारा भी नहीं पा सकतीं...
मैं फिर कहता हूँ आप अपनी विशेषताओं के साथ इस लघु-कथा में उपस्थित हैं. हट कर विषय का चयन प्रभावित करता रहा है. और इसी का निर्वहन आपको आगे भी करना हीं है. तभी तो मैं मानता हूँ, आपकी जिम्मेदारी बढ़ गई है.
यहाँ भी अंत मे पाठक के अंदेशे धरे के धरे रह जाते हैं. हार्दिक बधाई आपको इस सफल लघु-कथा के लिए. सादर.
आदरणीय कांता जी अच्छी कथा बनी है । डॉटस को चुप्पी के लिए प्रयोग करना अच्छा लगा । /अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे ।/ इसमें मुझे 'हम बाँझ' शब्द कुछ अटपटे से लगे । साधारणत 'बाँझ' जैसा शब्द औरतों के लिए इस्तेमाल किया जाता है (जिसकी पीड़ा मैं भली भांति महसूस कर सकता हूं) 'हम' के लिए यह शब्द शायद उपयुक्त नहीं है। सादर
वाह वाह लघु कथा के अंत ने एक मानो संजीवनी का काम किया दुनिया में इतना कुछ खराब हो रहा है की अच्छे की हम कल्पना भी नहीं करना चाहते इस लघु कथा के अंत ने ये कह दिया की इस तरह के लेखन की आवश्यकता है प्रेरणा देने के लिए और ये अवधारणा खत्म करने के लिए की सब एक जैसे होते हैं \आपको दिल से बहुत बहुत बधाई आ० कांता जी |
कथा पर आपके पसंदगी के साथ मेरी जिम्मेदारियों का एहसास करा कर तो आपने मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ा दिये है । हा हा हा हा ।
कथा पर इतने सुंदर अल्फाजों से मेरा हौसला बढाने के लिए तहे दिल से आपको आभार आदरणीय श्री सुनील जी ।
आदरणीय रवि जी , यहाँ इस पंक्ति पर मै भी ठहर गई थी कुछ पल को , लेकिन तुरंत ही मेरे मन में एक बात याद आ गई कि हमारे गाँव में एक बाँझ दम्पत्ति है जिनके पुरूष को सब "बँझिबा " और महिला को " बँझिनीयां " सहसा याद आ गया । फिर हिन्दी के भी कुछ शब्दों में "बाँझ "और "बाँझिन" शब्द याद आ गये , और मैने फिर बेझिझक ये शब्द यहाँ रोपित कर दिये । बाँझ और बाँझिन पुंलिंग स्त्रीलिंग में क्या और कितना भेद रखते है ये मै आपसे अधिक तो कतई नहीं समझ सकती हूँ । आप सब मुझे यहाँ सही मार्गदर्शन करें , क्योंकि मेरा सीखने का क्रम जारी है और ये मेरे आगे के लेखन के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा । आपका मार्गदर्शन सदा मेरे लिये एक कभी भी ना भूलने वाली सीख होती है । सादर नमन आपको
कुछ प्रस्तुतियों के आयाम तनिक विशिष्ट हुआ करते हैं. यह शीर्षक के मात्र कथात्मक बहाव के कारण नहीं होता, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनके साथ रचनाकार बर्ताव कैसा कर रहा है. यही बताता है कि रचनाकार वस्तुतः चाहता क्या है ! यह लघुकथा अपने सामान्य बहाव में ही बढ़ती है. लेकिन प्रहारक-पंक्ति के रूप में उद्धृत वाक्य इसका टर्निंग-प्वाइण्ट है. पाठक को आवश्यक पंच मिल जाता है. लघुकथा निस्संतान दंपति की मनोदशा को जिस गहराई से प्रस्तुत करती है वह इसके रचनाकार के तौर पर आदरणीया कान्ताजी की सोच और उसके आयाम के प्रति आश्वस्त करता हुआ है.
इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ और अशेष शुभकामनाएँ, आदरणीया कान्ताजी.
अब लघुकथा के व्यावहारिक पक्ष को लिया जाये. तो अंत, जो कि इस लघुकथा की उद्येश्य और बल है, आशा से अधिक आशावादी है, कई तरह के प्रश्नों को आकर्षित करता हुआ-सा ! लाजिमी भी है. क्योंकि कोई स्त्री सड़क पर से लायी गयी युवती को सहज ही पुत्रीसम स्वीकार नहीं कर लेगी. चाहे वो आदती ’बेवड़े’ की ही पत्नी क्यों न हो. पति कितना ही इम्पोजिंग क्यों न हो.
लेकिन लघुकथा विधा में ऐसी नाटकीयता सदा से स्वीकार्य रही है. निर्भर करता है कि नाटकीयता का निर्वहन कैसे हुआ है. ध्यातव्य है, कथ्य में नाटकीयता का सार्थक निर्वहन ही एक रचनाकार को इस लघुकथा विधा में स्थापित करता है.
अब बातें व्याकरण की दृष्टि से --
//करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी //
जब वाक्य में दो संज्ञाओं के सर्वनाम प्रयुक्त होते हों तो लेखक के तौर पर हमें अधिक सचेत रहने की आवश्यकता होती है. अन्यथा उलझाव हो जाता है. ’करीब जाकर पूछने वाला’ अलग है, ’दाहिनी तरफ इशारा’ करने वाला अल्ग है. जिसकी ’नज़र वहाँ घूमी’ भी इनमें से कोई एक है. क्या हो रहा है इस वाक्य में ? व्याकरण के अनुसाराइसे वाक्य दोषपूर्ण माने जाते हैं. कारण कि, पाठक प्रस्तुति के कथ्य और तथ्य पर दिमाग़ लगाये या वाक्य-विन्यास पर ?
दूसरे, सही वाक्यांश होगा - उसने अँगुली से अपने दाहिनी तरफ इशारा किया. ’तरफ’ स्त्रीलिंग की तरह इस्तमाल होता है.
//लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद ! //
प्रस्तुत वाक्य जब यह बता देता है कि उस पुरुष (बेवड़े) की अधेड़ावस्था से वह लड़की आश्वस्त-सी हो जाती है तो फिर ’या अविश्वास’ या मन में कोई भ्रम बनना उचित नहीं लगा. ऊहापोह को और बेहतर वाक्य मिल सकता था.
//"अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "//
पुछता हूँ या पूछता हूँ ? अवश्य ही, ’पूछता हूँ’.
//मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी //
इसी कथा में पहले लाइट-पोस्ट का ज़िक़्र हुआ है जिससे सहारा लिये हुए वह लड़की बतायी गयी है. फिर ये ’कुप्प’ वो भी ’गहन’ ’अँधेरा’ अचानक कहाँ से हो गया ? शायद बिजली चली गयी होगी. है न ? दूसरे, ’कुप्प’ शब्द वस्तुतः ’घुप्प’ है. ’कुप्प’ ’कुआँ’ का तत्सम स्वरूप होता है.
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आनंद आ गया आपकी टिप्पणी पढक़र । इतनी बारीकी से गहनता के साथ आपने आद0 कांता जी की रचना की जो विवेचना की है उससे मस्तिष्क के बहुत से तंतु खुल गए । धन्यवाद इतनी ज्ञानवर्धक जानकारी साझा करने हेतु । सादर ।
Harash Mahajan
ओह !! वाह क्या अंत ....दिशाहीन करती हुई सोच को दायरा आखिरी लाईन ने ए क्षण में बदल गया...
" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । "
आज कल का माहौल ही कुछ ऐसा है !!....बहुत ही सुंदर प्रस्तुति kanta roy जी | बहुत बहुत बधाई !!
Aug 30, 2015
सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर
बहुत बढ़िया
मर्म स्पर्शी भी और सुखांत भी
दुनिया में बहुत कुछ अच्छा अच्छा भी हो रहा है ये जो भूल जाते है उन्हें याद दिलाने के लिए आभार हार्दिक आभार
आदरणीया कांता जी इस शानदार लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई
Aug 31, 2015
Dr. Vijai Shanker
Aug 31, 2015
pratibha pande
आंखिरी क्षणों तक मन में उथल पुथल थी कि क्या होगा ,पर जो हुआ वो सच में एक ढंडी सी रहत देने वाला है , समाज में इतनी विषमताएं बढ़ रही हैं कि हम अक्सर आशंकित रहते हैं , बधाई आपको कांता जी
Aug 31, 2015
shashi bansal goyal
Aug 31, 2015
Sushil Sarna
" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । " इस सारगर्भित पंक्ति ने लघुकथा के तेवर को और भी तीक्ष्ण भावों से युक्त कर दिया है। आरम्भ ,मध्य और अंत गज़ब का बन पड़ा है। इस शानदार लघु कथा के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई आदरणीया कांता रॉय जी।
Aug 31, 2015
shree suneel
मैं फिर कहता हूँ आप अपनी विशेषताओं के साथ इस लघु-कथा में उपस्थित हैं. हट कर विषय का चयन प्रभावित करता रहा है. और इसी का निर्वहन आपको आगे भी करना हीं है. तभी तो मैं मानता हूँ, आपकी जिम्मेदारी बढ़ गई है.
यहाँ भी अंत मे पाठक के अंदेशे धरे के धरे रह जाते हैं. हार्दिक बधाई आपको इस सफल लघु-कथा के लिए. सादर.
Sep 1, 2015
Ravi Prabhakar
आदरणीय कांता जी अच्छी कथा बनी है । डॉटस को चुप्पी के लिए प्रयोग करना अच्छा लगा । /अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे ।/ इसमें मुझे 'हम बाँझ' शब्द कुछ अटपटे से लगे । साधारणत 'बाँझ' जैसा शब्द औरतों के लिए इस्तेमाल किया जाता है (जिसकी पीड़ा मैं भली भांति महसूस कर सकता हूं) 'हम' के लिए यह शब्द शायद उपयुक्त नहीं है। सादर
Sep 2, 2015
JAWAHAR LAL SINGH
अनूठी लघुकथा का अंत! रोमांच भर रहा था आदरणीया प्रतिभा पाण्डे की प्रतिक्रिया से पूर्ण सहमती!
Sep 2, 2015
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
वाह वाह लघु कथा के अंत ने एक मानो संजीवनी का काम किया दुनिया में इतना कुछ खराब हो रहा है की अच्छे की हम कल्पना भी नहीं करना चाहते इस लघु कथा के अंत ने ये कह दिया की इस तरह के लेखन की आवश्यकता है प्रेरणा देने के लिए और ये अवधारणा खत्म करने के लिए की सब एक जैसे होते हैं \आपको दिल से बहुत बहुत बधाई आ० कांता जी |
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
kanta roy
कथा पर इतने सुंदर अल्फाजों से मेरा हौसला बढाने के लिए तहे दिल से आपको आभार आदरणीय श्री सुनील जी ।
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
kanta roy
Sep 2, 2015
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
कुछ प्रस्तुतियों के आयाम तनिक विशिष्ट हुआ करते हैं. यह शीर्षक के मात्र कथात्मक बहाव के कारण नहीं होता, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनके साथ रचनाकार बर्ताव कैसा कर रहा है. यही बताता है कि रचनाकार वस्तुतः चाहता क्या है !
यह लघुकथा अपने सामान्य बहाव में ही बढ़ती है. लेकिन प्रहारक-पंक्ति के रूप में उद्धृत वाक्य इसका टर्निंग-प्वाइण्ट है. पाठक को आवश्यक पंच मिल जाता है. लघुकथा निस्संतान दंपति की मनोदशा को जिस गहराई से प्रस्तुत करती है वह इसके रचनाकार के तौर पर आदरणीया कान्ताजी की सोच और उसके आयाम के प्रति आश्वस्त करता हुआ है.
इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ और अशेष शुभकामनाएँ, आदरणीया कान्ताजी.
अब लघुकथा के व्यावहारिक पक्ष को लिया जाये. तो अंत, जो कि इस लघुकथा की उद्येश्य और बल है, आशा से अधिक आशावादी है, कई तरह के प्रश्नों को आकर्षित करता हुआ-सा ! लाजिमी भी है. क्योंकि कोई स्त्री सड़क पर से लायी गयी युवती को सहज ही पुत्रीसम स्वीकार नहीं कर लेगी. चाहे वो आदती ’बेवड़े’ की ही पत्नी क्यों न हो. पति कितना ही इम्पोजिंग क्यों न हो.
लेकिन लघुकथा विधा में ऐसी नाटकीयता सदा से स्वीकार्य रही है. निर्भर करता है कि नाटकीयता का निर्वहन कैसे हुआ है. ध्यातव्य है, कथ्य में नाटकीयता का सार्थक निर्वहन ही एक रचनाकार को इस लघुकथा विधा में स्थापित करता है.
अब बातें व्याकरण की दृष्टि से --
//करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी //
जब वाक्य में दो संज्ञाओं के सर्वनाम प्रयुक्त होते हों तो लेखक के तौर पर हमें अधिक सचेत रहने की आवश्यकता होती है. अन्यथा उलझाव हो जाता है. ’करीब जाकर पूछने वाला’ अलग है, ’दाहिनी तरफ इशारा’ करने वाला अल्ग है. जिसकी ’नज़र वहाँ घूमी’ भी इनमें से कोई एक है. क्या हो रहा है इस वाक्य में ? व्याकरण के अनुसाराइसे वाक्य दोषपूर्ण माने जाते हैं. कारण कि, पाठक प्रस्तुति के कथ्य और तथ्य पर दिमाग़ लगाये या वाक्य-विन्यास पर ?
दूसरे, सही वाक्यांश होगा - उसने अँगुली से अपने दाहिनी तरफ इशारा किया. ’तरफ’ स्त्रीलिंग की तरह इस्तमाल होता है.
//लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद ! //
प्रस्तुत वाक्य जब यह बता देता है कि उस पुरुष (बेवड़े) की अधेड़ावस्था से वह लड़की आश्वस्त-सी हो जाती है तो फिर ’या अविश्वास’ या मन में कोई भ्रम बनना उचित नहीं लगा. ऊहापोह को और बेहतर वाक्य मिल सकता था.
//"अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "//
पुछता हूँ या पूछता हूँ ? अवश्य ही, ’पूछता हूँ’.
//मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी //
इसी कथा में पहले लाइट-पोस्ट का ज़िक़्र हुआ है जिससे सहारा लिये हुए वह लड़की बतायी गयी है. फिर ये ’कुप्प’ वो भी ’गहन’ ’अँधेरा’ अचानक कहाँ से हो गया ? शायद बिजली चली गयी होगी. है न ?
दूसरे, ’कुप्प’ शब्द वस्तुतः ’घुप्प’ है. ’कुप्प’ ’कुआँ’ का तत्सम स्वरूप होता है.
शुभेच्छाएँ
Sep 2, 2015
shashi bansal goyal
Sep 2, 2015