2122. 1221. 2212
जा चुकी यामिनी मुश्तहर कीजिए
हो सके अब तो थोड़ा सहर कीजिए
भेज दें गंध जो भी हो आकाश में
गुलशनों को कहीं तो खबर कीजिए
हर तरफ आग ही आग जलती तो है
तान सीना उसे बेअसर कीजिए
झूठ की आज चारों तरफ जीत है
सत्यता की कहानी अमर कीजिए
जुल्म की रात हरदम डराती हमें
जालिमों का खुलासा मगर कीजिए
तीरगी घेर ले गर कभी राह में.
अश्क से फिर न दामन यूँ तर कीजिए.
रेत सी जिन्दगी हाथ आती नहीं
पत्थरों पर लिखा कुछ मगर कीजिए
रोशनी आने से फिर भी शरमाती हो
जानकर इनको बारे- दिगर कीजिए
एक आवाज़ आएगी आकाश से
बात इतनी हमारी अगर कीजिए
इम्तेहाँ हर कदम में तो आते ही हैं
जीत गाएगी थोड़ा सबर कीजिए
जिन्दगी का दुखों से सरोकार है
हो सके गर बसर तो बसर कीजिए
पूनम शुक्ला
मौलिक एवं अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आदरणीया, पूनम जी एक भावपूर्ण ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
Mar 1, 2014
annapurna bajpai
बहुत खूब , आ0 पूनम जी sundआर भाव पूर्ण गजल के लिए बधाई ।
Mar 1, 2014
Sarita Bhatia
वाह पूनम जी खुबसूरत
Mar 1, 2014
जितेन्द्र पस्टारिया
इम्तेहाँ हर कदम में तो आते ही हैं
जीत गाएगी थोड़ा सबर कीजिए
जिन्दगी का दुखों से सरोकार है
हो सके गर बसर तो बसर कीजिए
बहुत सुंदर भावपूर्ण गजल आदरणीया पूनम जी, आपको हार्दिक बधाई
Mar 2, 2014
बृजेश नीरज
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!
Mar 2, 2014
अनिल कुमार 'अलीन'
जुल्म की रात हरदम डराती हमें
जालिमों का खुलासा मगर कीजिए................बहुत खूब आदरणीया!
Mar 2, 2014