बह्र : 2122 2122 2122 212
देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले
झूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी मिले
संत सारे बक रहे वाही-तबाही लंठ बन
धर्म सम्मेलन में अब दंगों की तैयारी मिले
रोशनी बाँटी जिन्होंने जिस्म उनका जल गया
और अँधेरा बेचने वालों को सरदारी मिले
कौन सी चौखट पे जाएँ सच बताने जब हमें
निर्वसन राजा मिला नंगे ही दरबारी मिले
क़त्ल होने को यहाँ बस सत्य कहना है बहुत
हर गली-कूचे में दुबकी आज अय्यारी मिले
ख़ूब मँहगाई बढ़ी तो आदमी सस्ता हुआ
चंद सिक्कों की खनक पर अब वफ़ादारी मिले
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई धर्मेंद्र जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
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