"मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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    पसरने न दो इस खड़ी बेबसी को
    सहज मार देगी हँसी जिन्दगी को।।
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    नया दौर जिसमें नया ही चलन है
    अँधेरा रिझाता है अब रोशनी को।।
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    दुखों ने लगायी  है  ये आग कैसी
    सुहाती नहीं है खुशी ही खुशी को।।
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    चकाचौंध ऊँची जो बोली लगाता
    कि अनमोल कैसे रखें सादगी को।।
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    बचे ज़िन्दगी क्या भला हौसलों की
    अगर तोड़  दे  आदमी  आदमी को।।
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    गलत को मिला है सहजता से परमिट
    कसौटी  पे  रक्खा   गया   है सही को।।
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    रतौंधी सी अब जो समय को हुई है
    छलावा न छल दे कही पारखी को।।
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    "मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे
    भले  नींद   आयी  तेरी  रहबरी  को।।
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    मौलिक/अप्रकाशित
    लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'