१२२/१२२/१२२/१२२ ***** पसरने न दो इस खड़ी बेबसी को सहज मार देगी हँसी जिन्दगी को।। * नया दौर जिसमें नया ही चलन है अँधेरा रिझाता है अब रोशनी को।। * दुखों ने लगायी है ये आग कैसी सुहाती नहीं है खुशी ही खुशी को।। * चकाचौंध ऊँची जो बोली लगाता कि अनमोल कैसे रखें सादगी को।। * बचे ज़िन्दगी क्या भला हौसलों की अगर तोड़ दे आदमी आदमी को।। * गलत को मिला है सहजता से परमिट कसौटी पे रक्खा गया है सही को।। * रतौंधी सी अब जो समय को हुई है छलावा न छल दे कही पारखी को।। * "मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे भले नींद आयी तेरी रहबरी को।। * मौलिक/अप्रकाशित लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
on Thursday
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पसरने न दो इस खड़ी बेबसी को
सहज मार देगी हँसी जिन्दगी को।।
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नया दौर जिसमें नया ही चलन है
अँधेरा रिझाता है अब रोशनी को।।
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दुखों ने लगायी है ये आग कैसी
सुहाती नहीं है खुशी ही खुशी को।।
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चकाचौंध ऊँची जो बोली लगाता
कि अनमोल कैसे रखें सादगी को।।
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बचे ज़िन्दगी क्या भला हौसलों की
अगर तोड़ दे आदमी आदमी को।।
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गलत को मिला है सहजता से परमिट
कसौटी पे रक्खा गया है सही को।।
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रतौंधी सी अब जो समय को हुई है
छलावा न छल दे कही पारखी को।।
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"मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे
भले नींद आयी तेरी रहबरी को।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'