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औपचारिकता न खा जाये सरलता
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ये अँधेरा, फैलता जो जा रहा है
रोशनी का अर्थ भी समझा रहा है
चढ़ चुका है इक शिकारी घोसले तक
क्या परिंदों को समझ कुछ आ रहा है
जो दिया की बोर्ड से आदेश तुमने
मानिटर से फल तुम्हें मिलता रहा है
पूंछ खींची आपने बकरा समझ कर
वो था बन्दर, जो अभी चौंका रहा है
औपचारिकता न खा जाये सरलता
आज रिश्ता ज्यों निभाया जा रहा है
दोनों पहलू साथ सिक्के के मिले थे
तुमने जो चाहा वो ऊपर आ रहा है
है वही रस्ता, वही मंज़र हैं सारे
क्या कहानी फिर कोई दुहरा रहा है
कोई लौटा ले उसे समझा-बुझा कर
तर्क से जो सच समझने जा रहा है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। उत्तम गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
कोई लौटा ले उसे समझा-बुझा कर
तर्क से जो सच समझने जा रहा है
Sep 10
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार
Sep 10