अस्थिपिंजर (लघुकविता)

लूटकर लोथड़े माँस के 

पीकर बूॅंद - बूॅंद रक्त 

डकारकर कतरा - कतरा मज्जा

जब जानवर मना रहे होंगे उत्सव 

अपने आएंगे अपनेपन का जामा पहन

मगरमच्छ के आँसू बहाते हुए 

नहीं बची होगी कोई बूॅंद तब तक 

निचोड़ने को अपने - पराए की

बचा होगा केवल सूखे ठूॅंठ सा

निर्जिव अस्थिपिंजर ।

मौलिक एवं अप्रकाशित 


  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    जिन स्वार्थी, निरंकुश, हिंस्र पलों की यह कविता विवेचना करती है, वे पल नैराश्य के निम्नतम स्तर पर थहराये हुए मन के हैं। जहाँ अदम्य जीजिविषा भी थक-हार कर निष्प्राण हो चुकी होती है। समाज की इकाई (परिवार), परिवार की इकाई (व्यक्ति), हर तरह से टूट कर मृत हो चुकी होती है। फिर, यही कॄतघ्न समाज मक्कारी के आँसू लिये उथली भावनाएँ व्यक्त करता हुआ अपनी दिखावटी उपस्थिति दर्ज कराता है। परस्पर अविश्वास की ऐसी घोर दशा किसी समाज, किसी परिवार के लगातार विखण्डित होते चले जाने का जुगुप्साकारी परिचायक है। 

    आदरणीय सुरेश ’कल्याण’ की यह कविता नैराश्य को जिस तरह से विवेचित करती है, वह कवि-मन द्वारा समाज के प्रति, परिवार के प्रति, उपालम्भ की दारुण दशा का उन्मुक्त बखान है। 

    अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई 

  • सुरेश कुमार 'कल्याण'

    हृदयतल से आभार आदरणीय 🙏