१२२/१२२/१२२/१२२
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कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के
सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१।
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महल को तिजोरी रहा खोल सिक्के
कहे झोपड़ी का नहीं मोल सिक्के।२।
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लगाता है सबके सुखों को पलीता
बना रोज रिश्तों में क्यों होल सिक्के।३।
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रहें दूर या फिर निकट जिन्दगी में
बजाता है सबको बना ढोल सिक्के।४।
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सिधर भी गये तो न बक्शेंगे हमको
रहे जिन्दगी में जो ये झोल सिक्के।५।
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नहीं पेट ताली भरेगी मदारी
चलाते हैं जीवन यहाँ गोल सिक्के।६।
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समझती तुझे ही नयी पीढ़ी सब कुछ
न जीवन में ऐसे तो विष घोल सिक्के।७।
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नहीं इनकी मंजिल नहीं है ठिकाना
'मुसाफिर' से जाते सदा डोल सिक्के।८।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय लक्ष्मण भाई अच्छी ग़ज़ल हुई है , बधाई स्वीकार करें
Jul 18
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति औल स्ने के लिए आभार।
Jul 26