लोग हुए उन्मत्ते हैं
बिना आग ही तत्ते हैं
गड्डी में सब सत्ते हैं
बड़े अनोखे पत्ते हैं
उतना तो सामान नहीं है
जितने महँगे गत्ते हैं
जितनी तनख़्वाह मिलती है
उस से ज्यादा भत्ते हैं
कानूनों के रचनाकार
उन्हें बताते धत्ते हैं
बेशर्मी पर हैं वो ही
तन पर जिनके लत्ते हैं
शहद बनेगा कितना ही
अलग-अलग अब छत्ते हैं
#मौलिक व अप्रकाशित
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय अजयन भाई , परिवर्तन के बाद ग़ज़ल अच्छी हो गयी है , हार्दिक बधाईयाँ
May 30
अजय गुप्ता 'अजेय
उत्साहदायी शब्दों के लिए आभार आदरणीय गिरिराज जी
May 30
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। परिवर्तन के बाद गजल निखर गयी है हार्दिक बधाई।
Jul 3