ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)

लोग हुए उन्मत्ते हैं
बिना आग ही तत्ते हैं

गड्डी में सब सत्ते हैं
बड़े अनोखे पत्ते हैं

उतना तो सामान नहीं है
जितने महँगे गत्ते हैं

जितनी तनख़्वाह मिलती है
उस से ज्यादा भत्ते हैं

कानूनों के रचनाकार
उन्हें बताते धत्ते हैं

बेशर्मी पर हैं वो ही
तन पर जिनके लत्ते
हैं

शहद बनेगा कितना ही
अलग-अलग अब छत्ते हैं

#मौलिक व अप्रकाशित

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