Open Books Online2024-03-29T07:04:58ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarnahttps://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991285674?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1https://openbooks.ning.com/group/chhand/forum/topic/listForContributor?user=3ddvn64pkd5dp&feed=yes&xn_auth=noआयास चाहती है दोहे की सिद्धि :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2020-05-30:5170231:Topic:10086762020-05-30T06:06:46.685ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><strong>महद्धनं यदि ते भवेत्</strong><strong>, </strong><strong>दीनेभ्यस्तद्देहि।</strong></p>
<p><strong>विधेहि कर्म सदा शुभं</strong><strong>,</strong> <strong>शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥</strong></p>
<p>(यदि आप बहुत धन वाले हैं तो उसे दीनों को दान करें I सदा शुभ कर्म करें I उसका फल आपके लिए भी शुभ होगा )</p>
<p> यह संस्कृत का 'दोहड़िका' छंद है जो पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा की सरणियों से होकर हिंदी में आकर दोहरा या दोहा हो गया । सच्चाई तो यह है कि अपभ्रंश के अधिकरण पर ही हिंदी का…</p>
<p><strong>महद्धनं यदि ते भवेत्</strong><strong>, </strong><strong>दीनेभ्यस्तद्देहि।</strong></p>
<p><strong>विधेहि कर्म सदा शुभं</strong><strong>,</strong> <strong>शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥</strong></p>
<p>(यदि आप बहुत धन वाले हैं तो उसे दीनों को दान करें I सदा शुभ कर्म करें I उसका फल आपके लिए भी शुभ होगा )</p>
<p> यह संस्कृत का 'दोहड़िका' छंद है जो पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा की सरणियों से होकर हिंदी में आकर दोहरा या दोहा हो गया । सच्चाई तो यह है कि अपभ्रंश के अधिकरण पर ही हिंदी का विकास हुआ I आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि हिंदी ग्राम्य अपभ्रंशों का रूप है I अपभ्रंश का हिंदी में प्रवर्तन रूप निश्चित रूप से अमीर खुसरो ने किया I अपभ्रंश भाषा में दोहे का एक उदाहरण निम्नवत है -</p>
<p><strong>पिय संगमि कउ निद्दड़ी</strong><strong>?</strong> <strong>पियहो परक्खहो केंव।</strong></p>
<p><strong>मइँ बिन्निवि विन्नासिया</strong><strong>,</strong> <strong>निंद्द न एँव न तेंव II</strong></p>
<p>(प्रिय के संगम में नींद कहाँ और प्रिय के न रहने पर भी नींद कहाँ ? बहन मैं तो दोनों तरह से विनष्ट हुयी नींद, न तब आयी और न अब) </p>
<p>दोहरा या दोहा का चलन बौद्ध-प्रवर्तकों में भी था, तो नाथपंथियों में भी था. अर्थात पद्य का यह छांदस स्वरूप बहुत ही प्राक्तन, प्रचलित, और प्रसिद्ध है I अपभ्रंश-मुक्त हिंदी के आदि प्रवर्तक अमीर खुसरो के इस कालजयी दोहे को कौन भूल सकता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह उनका अंतिम दोहा है, जिसे उन्होंने मृत्यु से ठीक पहले रचा था -</p>
<p><strong>गोरी सोवे सेज पर</strong><strong>,</strong> <strong> मुख पर डारे केस I</strong></p>
<p><strong>चल ख़ुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देसII</strong></p>
<p>आगे चलकर प्रेमाख्यानक कवियों में कुतुबन, मंझन और मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य में चौपाई के साथ दोहों का भरपूर प्रयोग किया i गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस भी चौपाई छंद के साथ दोहे को लेने की परिपाटी का पोषक ग्रंथ है I तुलसी ने तो दोहावली और रामाज्ञाप्रश्न आदि भी दोहों में ही रचे I दोहा की शास्त्रीयता आर्ष-ग्रंथो से प्रमाणित है I</p>
<p>कुछ लोगों का मत है दोहा मात्र शास्त्रीय छंद विधि के अलावा अभिव्यक्त न हो कर उर्दू बहर के अनुसार भी साधा जा सकता है I मगर यह बहुत ही आपत्तिजनक बात है I हिदी संस्कृत के छंदों में फारसी की बह्र की जबरन जद्दोजहद करने की बात ही हिमाकत है और इसके पीछे जो सोच है वह हमारी छांदस प्रणाली को अपवित्र करने की साजिश जान पडती है I इस संबंध में देवमणि पाण्डेय का कहना विचारणीय है –“<em>पाकिस्तान में शायरों ने दोहा लिखने के लिए अलग बह्र इस्तेमाल किया i उसमे तेरह और ग्यारह मात्राओं तक का अनुशासन नहीं है I हिंदुस्तान में भी कई शायरों ने उनका अनुकरण किया I मगर वैसी रचनाओं को ‘दोहा’ घोषित कर देने से उन्हें ‘दोहा’ नहीं माना जा सकता I ---दोहा बहुत खूबसूरत विधा है हमें इसकी शुद्धता बरकरार रखनी चाहिए I’’</em></p>
<p>मशहूर शायर और सिने गीतकार नक्श-लायलपुरी का कहना है कि –‘दोहा नई बह्र में हो सकता है ---उसमें ग़ज़ल की जबान और ग़ज़ल का कंटेंट नहीं चलता ---- दोहे को इस दौर में तेरह-ग्यारह की बंदिश में बाँधना शायरी के परवाज को रोकने की कोशिश है I</p>
<p>हम जानते हैं कि फ़ारसी की बह्रों में यति नहीं होती I मतले को छोड़ दे तो दो पदों की तुकांतता भी नहीं होती I फिर भी बह्र में दोहा लिखने की जिद नये प्रयोग के नाम पर सिर्फ एक मजाक मात्र है I</p>
<p>दोहा दिखने मे बड़ा सरल है परन्तु इसका शिल्प आसान नहीं है । दोहे का नाम दोहा इसीलिये है कि इसका प्रारम्भ चाहे समकल से हो या विषमकल से हो वह दुहराया अवश्य जाता है । चॅूकि चार चरण के इस छंद मे दो ही दल अर्थात पक्तियॉं होती है, इसलिये भी इसे दोहा कहा जाता है । यद्यपि सोरठा मे भी यही बात है परन्तु सोरठा दोहे का ही उल्टा रूप है । सामान्यतः दोहा छंद मे चार चरण होते हैं, किन्तु यह दो पंक्तियों में लिखा जाता है और प्रत्येक पंक्ति को एक दल कहते हैं । इसके विषम चरण अर्थात प्रथम और तृतीय चरण में 13 व सम चरण अर्थात द्वितीय व चतुर्थ चरण मे 11 मात्राये होती है । दोहे के संगठन मे निम्नांकित नियमो का पालन किया जाना अपरिहार्य है ।</p>
<p> [1] विषम चरण अर्थात प्रथम और तृतीय चरणो का प्रारम्भ जगण (ISI) से करने का निषेध है, यदि दोहे के विषम चरणो मे दो बार जगण का प्रयोग किया जाये तो यह और भी अधिक दोषपूर्ण है । लेकिन यदि देव काव्य हे, मंगलाचरण हे अथवा देव-स्तुति है तो वहाँ एक जगण स्वीकार्य तो हो सकता है परन्तु इसे उचित नहीं कहा जायेगा ।‘‘छंद प्रभाकर’’ के रचयिता जगन्नाथ प्रसाद ‘‘भानु’’ ने ऐसी कुछ अन्य स्थितियॉं भी बतायी है जिनमे विषम चरण मे प्रयुक्त जगण स्वीकार्य हो सकते है परन्तु चूँकि इससे दोहे का लय अवश्य प्रभावित हो जाता है अतः उन्होने किसी भी परिस्थिति मे विषम चरण के आदि मे जगण के प्रयोग से बचने की सलाह दी है । ऐसे दोषपूर्ण दोहो को ‘‘दोहा चंडालिनी’’ कहा जाता है । दोहे के विषम चरणांत में सगण (IIS), रगण (SIS) अथवा नगण (III) मे कोई भी हो सकता है ।</p>
<p> [2] जिस दोहे का प्रारम्भ त्रिकल अर्थात (III), (IS) अथवा (SI) से किया जाता है, उसे विषम-कलात्मक दोहा कहते है । इसमे आदि त्रिकल के बाद त्रिकल फिर द्विकल तत्पश्चात त्रिकल औेर फिर द्विकल अर्थात रचना संगठन (3 3 2 (2+1) 2) होना अभीष्ट है । किन्तु यहॉं एक पेंच है । इस संगठन क्रम मे जो अंतिम त्रिकल है, वह (IS) नहीं अपितु (SI) होना चाहिये ।</p>
<p> [3] जिस दोहे का प्रारम्भ सम-कल खासकर चौकल अर्थात (IIII), (IIS), (SII) अथवा (SS) से किया जाता है, उसे सम-कलात्मक दोहा कहते है । इसमे आदि चौकल के बाद एक औेर चौकल फिर त्रिकल तथा अंत में द्विकल अर्थात रचना संगठन (4 4 (2+1) 2) होना अभीष्ट है किन्तु यहॉं भी त्रिकल मे (IS ) नहीं होना चाहिये ।</p>
<p>[4] दोहे के सम चरणो का गठन भी दो प्रकार से होता है । यदि समकल से प्रारम्भ है तो संगठन (4 4 3) होगा और यदि विषम-कल से प्रारम्भ हो तो संगठन (3 3 2 3) होगा । इस प्रकार सम-चरणांत मे जगण (ISI) या तगण (SSI) हो सकता है । यहॉं भी अंतिम त्रिकल (IS) नहीं होगा । विशेष परिस्थिति मे सम चरणांत भी नगण हो सकता है जैसा कि दोहे के भेद ‘उदर’ और ‘सर्प’ में होता है ।</p>
<p>अब मान लीजिये कोई दोहा इस प्रकार है -</p>
<p><strong>बिना पंख के मिल गयी</strong> <strong>,</strong> <strong>आखिरकार उड़ान</strong> <strong>l</strong></p>
<p><strong>जब मैना के उड़ गए</strong><strong>,</strong> <strong> </strong><strong>पिंजरे में ही प्रान</strong> <strong>ll</strong></p>
<p> इसमें प्रथम चरण 33232 की पद्धति पर है i मगर इसमें तीसरा त्रिकल 21 के स्थान पर 111 (मिलग) है I अगर इसे ऐसा कर दें कि ‘बिना पंख के ही मिली ’ तो तीसरा त्रिकल (21) हो जाएगा और यह सही स्थिति होगी I</p>
<p>इसके तीसरे चरण में 4432 की बंदिश है I यहाँ भी तीसरा त्रिकल 21 के स्थान पर 111 (उड़ग) है I अगर इसे ऐसा कर दें कि ‘जब मैना के हा ! उड़े’ तो तीसरा त्रिकल (21) हो जाएगा और यह सही स्थिति होगी I</p>
<p> दोहे के अन्य मात्रिक संयोजन भी ‘‘भूषण चन्द्रिका’’ आदि ग्रथो मे मिलते हैं पर उनके प्रयोग से लय तो बाधित होता ही है, साथ ही वे प्राचीन आचार्यो की प़द्धति से समर्थित भी नहीं है । उन्हें ऊहात्मक समझना कर छोड़ देना ही ही समीचीन है ।</p>
<p> </p>
<p> (मौलिक व अप्रकाशित )</p> फ़ारसी की बह्र बनाम हिन्दी के छंद डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2020-05-21:5170231:Topic:10078152020-05-21T08:20:11.795ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p>मेरे अग्रज कवि मित्र श्री मृगांक श्रीवास्तव ने मेरा आलेख ‘फर्क है ग़ज़ल और छंद के मात्रिक विधान में” पढकर जिज्ञासा प्रकट की कि क्या उर्दू की ग़ज़लें हिंदी या संस्कृत के मूल छंदों पर आधारित हैं I इसका सीधा उत्तर है – नहीं I हमें समझना चाहिए कि उर्दू की ग़ज़ल फ़ारसी की बह्रों पर लिखी जाती हैं I उर्दू में ग़ज़ल का कोई पृथक व्याकरण नहीं है I संस्कृत भारत की प्राचीनतम आर्य भाषा है और फ़ारसी फारस की अन्यतम भाषा है I दोनों भाषाएँ अलग-अलग सभ्यता और संस्कति के बीच पनपीं, विकसित और पल्लवित हुईं I दोनों का एक…</p>
<p>मेरे अग्रज कवि मित्र श्री मृगांक श्रीवास्तव ने मेरा आलेख ‘फर्क है ग़ज़ल और छंद के मात्रिक विधान में” पढकर जिज्ञासा प्रकट की कि क्या उर्दू की ग़ज़लें हिंदी या संस्कृत के मूल छंदों पर आधारित हैं I इसका सीधा उत्तर है – नहीं I हमें समझना चाहिए कि उर्दू की ग़ज़ल फ़ारसी की बह्रों पर लिखी जाती हैं I उर्दू में ग़ज़ल का कोई पृथक व्याकरण नहीं है I संस्कृत भारत की प्राचीनतम आर्य भाषा है और फ़ारसी फारस की अन्यतम भाषा है I दोनों भाषाएँ अलग-अलग सभ्यता और संस्कति के बीच पनपीं, विकसित और पल्लवित हुईं I दोनों का एक दूसरे से कोई सरोकार नहीं है I दोनों का व्याकरण कठिन और उत्कृष्ट है I अतः न तो संस्कृत का छंदानुशासन कभी फ़ारसी की बह्रों का आधार बना है और न कभी बह्रों से संस्कृत के छंद अनुशासित हुए हैं I भारत में संस्कृत भाषा के दो स्वरुप हैं –एक वैदिक संस्कृत और दूसरी लौकिक संस्कृत I वैदिक संस्कृत के छंद अपने आप में मंत्र हैं और हिंदी /संस्कृत में उनका अनुगमन सभव नहीं हुआ I लौकिक संस्कृत के छंद हिंदी में आये और उन्हें ‘लौकिक’ ही कहा गया I लौकिक छंद का तात्पर्य उन छंदों से है जिनकी रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है और जिनका प्रयोग सुयोग्य कवि अपनी काव्य रचना में करते हैं ।</p>
<p>हिंदी के छंद संस्कृत छंदों से आये अवश्य पर पहले सहज साध्य छंद ही स्वीकार किये गए I धीरे-धीरे संस्कृत के अनेक छंदों पर आधारित हिंदी की छंद रचना हुयी I कुछ संस्कृत के छंद और वृत्त ऐसे भी थे, जिनके बारे में यह धारणा थी कि इन छंदों में हिंदी कविता संभव ही नहीं I इस मिथ को अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी ने तोड़ा I उन्होंने ‘प्रिय प्रवास’ काव्य में संस्कृत के कई दुस्साध्य छंदों और वृत्तो पर आधारित हिंदी कविता प्रस्तुत कर हिंदी छंद विधान की परिभाषा ही बदल दी I आज जितने भी छंद उपलब्ध है, वे अपौरुषेय नहीं रहे I परन्तु विडंबना यह है कि अति प्रचलित छंदों को छोड़कर लोग कसौटीपरक अनेक छंदों पर लिखना तो दूर उन्हें जानते तक नहीं I प्लवंगम. तिलोकी और चान्द्रायण जैसे छंद लोगों की कल्पना से दूर हैं I यहाँ तक कि जिन छंदों की एक पुख्ता नीव ‘हरिऔध’ जी खडी कर गए थे, उस पर आगे के छंदकार ढंग से एक ईट तक नहीं रख सके I संस्कृत के कुछ छंद जो हिंदी में भी बहुत लोकप्रिय हैं, उनकी एक लंबी सूची है i यहाँ कुछ छंद उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत हैं -</p>
<p>1-दोहा- संस्कृत का 'दोहडिका' छन्द हिंदी में दोहा हो गया ।</p>
<p>।ऽ।ऽ।। ऽ। ऽ ऽऽ ऽ ऽऽ।</p>
<p>महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि।</p>
<p>विधेहि कर्म सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥</p>
<p>2- हरिगीतिका</p>
<p>।। ऽ। ऽ ऽ ऽ।ऽ।।ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ</p>
<p>मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा।</p>
<p>नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः।</p>
<p>स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,</p>
<p>अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥</p>
<p> 3-गीतिका</p>
<p>ऽ। ऽ ॥ ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ</p>
<p>हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां</p>
<p>यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्।</p>
<p>चंचलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां</p>
<p>शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम् ॥ </p>
<p> संस्कृत/ हिंदी में दो तरह के छंद है एक वर्णिक और दूसरा मात्रिक I वर्णिक छंदों में भी मात्रा गणना होती है कितु साथ ही उसमे वर्ण भी गिने जाते है I संयोग से मुस्लिम शासनकाल में फ़ारसी के प्रभाव से गजलों के अंतर्गत जो बह्रें आईं वे भी मात्रिक थीं I लेकिन उनका हिंदी के मात्रिक छंदों से कोई लेना-देना नहीं था I अंग्रेजों के शासन-काल में भी यही स्थिति रही I स्वतंत्र भारत में जब हिंदी में ग़ज़लें लिखी जाने लगीं तब हिंदी के ग़ज़लकारों ने फारसी की बह्रों का प्रयोग करना भी शुरू किया और उसके मात्रिक नियमो को अपनाया जो हिंदी के मात्रिक नियमों से कई मायनों में भिन्न भी थे और लचीले भी I लचीले इसलिए कि फ़ारसी में मात्रा गिराने का स्पष्ट नियम है और दो लघु मात्रा को एक दीर्घ मान लेने का नियम है, जबकि हिंदी में ऐसा नहीं है I यह लचीलापन हिंदी के छंदकारों को बहुत भाया और वे इस बीमारी को हिंदी के छंदों में भी ले आये i इससे हिंदी छंदों की वैज्ञानिकता खंडित हुयी I इस बीमारी को उजागर करने के लिए ही मैंने ‘फर्क है ग़ज़ल और छंद के मात्रिक विधान में’ शीर्षक से एक लेख भी लिखा और उसी की प्रतिक्रिया में मेरे मित्र ने प्रश्नगत जिज्ञासा की I</p>
<p> उल्लेखनीय है कि हिंदी /संस्कृत के छंद एक मात्रिक से शुरू होकर लगभा 148 मात्रा तक के है I इनमे एक मात्रिक से छः मात्रिक तक निष्प्रयोज्य माने जाते हैं I छंद की असली शु’रुआत सात मात्रिक छंद ‘सुगति’ या ‘शुभगति’ से मानी जाती है I जैसे –</p>
<p>मूरति लसे I उर में बसे I</p>
<p>मन में रचे I खरभर मचे I</p>
<p>यही स्थिति फ़ारसी में भी है I इसकी सबसे छोटी ग़ज़ल सलीम रुक्न फ़ायलातुन 2122 या इतनी ही मात्राओं वाले अन्य रुक्नो जैसे- मुफाईलुन 1222, मुस्त्फईलुन 2212, मुतफ़ाइलुन 11212 आदि सालिम या मुजाहिब रुक्नो के आधार पर बनती है I जैसे-</p>
<p>रात गर हूँ I -----------------2122</p>
<p>फिर सहर हूँ II</p>
<p>संग वालों I</p>
<p>कल शजर हूँ II</p>
<p> अब इस सात मात्रिक ग़ज़ल की तुलना हिंदी के सात मात्रिक छंद से करें तो हम पाते है कि हिन्दी के छंद में चरणांत में एक गुरु होने के अतिरिक्त गुरु लघु का कोई बंधन नही है i यह 2122 भी हो सकता है और 2212, 21112 या 111112 हो सकता है, जबकि फ़ारसी में 2122 की अनिवार्यता है I इसी प्रकार फ़ारसी की अनेक बह्रें ऐसी हैं जिनकी कुल मात्रा संख्या हिंदी के छंदों की मात्रा संख्या के बराबर है I इस लिहाज से ये बहरें हिंदी के छंदों से मिलती जुलती है I ध्यान देने की बात यह है कि सिर्फ मिलती-जुलती ही है एक समान कदापि नहीं हैं I इसका कारण यह है कि फ़ारसी की बह्रें निश्चित अर्कानो पर चलती है, जबकि हिंदी के मात्रिक छंदों में कुछ नियमों के साथ लघु गुरु को अपने हिसाब से रखने की थोड़ी सी स्वतंत्रता है I जिसे उक्त उदाहरणों में दर्शाया जा चुका है I इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हिंदी के छंदों की कसौटी हल्की है I हिंदी के वर्णिक छंद मात्रा में यगण, मगण आदि से तो संचालित होते ही हैं, उनमे वर्ण की संख्या भी निश्चित होती है अर्थात मात्रा और वर्ण दोनों की बाध्यता रहती है I फ़ारसी की बह्रों में ऐसी कठिन चुनौती नही है I खेद का विषय यह है कि बहुत से नये छंदकारों ने फारसी की बह्रों से मिलते जुलते हिंदी छंदों को एक समान मान लिया है और हिदी के छंद नियम छोड़कर वे केवल अरकान पर छंद रचने लगे हैं I यही नही उन्होंने फ़ारसी की बह्रों के लचीलेपन को भी ज्यों का त्यों हिंदी छंदों में अपना लिया है I यह हिंदी छंदों के वैज्ञानिकता के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ हुआ है I बहरहाल नीचे हिंदी के कुछ छंदों के उदाहरण है जो बह्रों से मिलते-जुलते है I </p>
<p> <u>हिंदी छंद</u> <u>फ़ारसी बह्र</u></p>
<p>1-नित छंद बह्र- हज्ज मुरब्बा मक्बूज</p>
<p>एक नगण अर्थात III या फिर एक लघु अरकान- मुफाइलुन मुफाइलुन </p>
<p>और एक गुरू अर्थात IS होना अनिवार्य मात्रा- 1212 1212</p>
<p>मात्रा – 12 उदाहरण- कमाले फन दिखा गया i । उदाहरण– लोल यमुना की लहर बेदर्द था रुला गया II</p>
<p> बूँद उठती है छहर ।</p>
<p></p>
<p>2-विजात छंद</p>
<p> प्रथम मात्रा लघु होना अनिवार्य और मगणांत बह्र- हजज मुरब्बा सालिम</p>
<p> (SSS )या सगणांत (IIS) पर प्रत्येक चरण की अरकान- मुफाईलुन मुफाईलुन </p>
<p> प्रथम व आठवी मात्रायें लघु मात्रा- 1222 1222 </p>
<p> मात्रा – 14 उदाहरण- खुदा से जो भी डरता है </p>
<p> उदाहरण– यहॉं जब धरणि में आया । खुदा को याद करता है </p>
<p> नया सबने कवित गाया । </p>
<p> इसी प्रकार हिदी का मनोरम छंद फ़ारसी की बह्र रमल मुरब्बा सालिम मुकम्मल से, मधुमालती छंद बह्र रजज़ मुरब्बा सालिम से, पीयूषवर्षी और आनंदवर्धक छंद बह्र रमल मुसद्दस महजूफ से, सुमेरु छंद बह्र हजज मुसद्दस अस्तर से, सगुन छंद बह्र मुतकारिब मुसम्मन मक्बूज और शास्त्र छंद बह्र हजज मुसम्मन मक्फूफ से मिलता जुलता है I पर यह सूची इत्यलम नहीं है और भी बहुतेरे हिन्दी के छंद फरसा की बहरों से मिलते जुलते है पर वे बिलकुल समरूप कदापि नहीं है i</p>
<p></p>
<p>(मौलिक /अप्रकाशित )</p>
<p> </p> फर्क है ग़ज़ल और छंद के मात्रिक विधान में :: डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2019-10-12:5170231:Topic:9943312019-10-12T01:58:38.724ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><strong> \</strong>जब से हिन्दी में ‘ग़ज़ल ’ लिखना शरू हुआ तब से हिन्दी के वर्णिक गण ‘नगण’ को हिन्दी के कवियों ने भी लगभग नकार दिया है I इससे हिन्दी की छंद रचना कुछ आसान तो हुई है, पर यह छंदों की वैज्ञानिकता पर एक बड़ा संकट है I हिन्दी छंदों में तमाम संस्कृत से ग्रहीत छंद है और संस्कृत का छान्दसिक व्याकरण कितना वैज्ञानिक और पुराना है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है I आज हिन्दी छंद के वैयाकरण, जिनकी साहित्य जगत में प्रतिष्ठा भी है, वे भी कमल को ‘नगण’ नहीं मानते , क्योंकि उर्दू में कमल को…</p>
<p><strong> \</strong>जब से हिन्दी में ‘ग़ज़ल ’ लिखना शरू हुआ तब से हिन्दी के वर्णिक गण ‘नगण’ को हिन्दी के कवियों ने भी लगभग नकार दिया है I इससे हिन्दी की छंद रचना कुछ आसान तो हुई है, पर यह छंदों की वैज्ञानिकता पर एक बड़ा संकट है I हिन्दी छंदों में तमाम संस्कृत से ग्रहीत छंद है और संस्कृत का छान्दसिक व्याकरण कितना वैज्ञानिक और पुराना है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है I आज हिन्दी छंद के वैयाकरण, जिनकी साहित्य जगत में प्रतिष्ठा भी है, वे भी कमल को ‘नगण’ नहीं मानते , क्योंकि उर्दू में कमल को क+म+ल (111 ) न मानकर क+मल (1+2 )माना जाता है I उर्दू में कमल शब्द के उच्चारण में ‘क’ के बाद मल पढ़ा जाता है I अगर बात पढने की ही है तो फिर उर्दू में असमय को 2+2 क्यों नहीं माना जाता ? क्यों उर्दू व्याकरण (उरूज) में असमय को 1+1+2 माना जाता है ? </p>
<p> इसका मुख्य कारण यह है कि ग़ज़ल के व्याकरण में गणों के स्थान पर रुक्न हैं , जिनमे एक भी रुक्न ऐसा नहीं है जिसमे 1+1+1 की व्यवस्था हो I ऐसा केवल हिन्दी में ही है I उर्दू में दो किस्म के रुक्न है - एक सालिम रुक्न अर्थात मूल रुक्न और दूसरा मुजाहिफ रुक्न अर्थात उप रुक्न I</p>
<p>सालिम रुक्न इस प्रकार है -</p>
<table>
<tbody><tr><td width="200"><p><strong> रुक्न</strong></p>
</td>
<td width="200"><p><strong> रुक्न का नाम</strong></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>मात्रा</strong></p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>फ़ईलुन</span><span> </span></p>
</td>
<td width="200"><p><span>मुतक़ारिब</span><span> </span></p>
</td>
<td width="165"><p>122</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>फ़ाइलुन</span><span> </span></p>
</td>
<td width="200"><p><span>मुतदारिक</span></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>212</strong></p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>मुफ़ाईलुन</span><span> </span></p>
</td>
<td width="200"><p><span>हजज़</span><span> </span></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>1222</strong></p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>फ़ाइलातुन</span> <span> </span></p>
</td>
<td width="200"><p><span>रमल</span> <span> </span></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>2122</strong></p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>मुस्तफ़्यलुन</span><span> </span></p>
</td>
<td width="200"><p><span>रजज़</span> <span> </span></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>2212</strong></p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>मुतफ़ाइलुन</span> <span> </span></p>
</td>
<td width="200"><p><span>कामिल</span> <span> </span></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>11212</strong></p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>मफ़इलतुन</span> <span> </span></p>
</td>
<td width="200"><p><span>वाफ़िर</span> <span> </span></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>12112</strong></p>
</td>
</tr>
<tr><td width="200"><p><span>फाईलातु</span></p>
</td>
<td width="200"><p><strong>-----</strong></p>
</td>
<td width="165"><p><strong>2221</strong></p>
</td>
</tr>
</tbody>
</table>
<p><span>मुजाहिफ रुक्न वे रुक्न है जो मूल रुक्न को तोड़कर या उसमे कुछ जोड़कर बनाये गए हैं </span><span>I इनके कोई नाम नहीं हैं , और न इनकी संख्या निश्चित है I मुख्य मुजाहिफ रुक्न इस प्रकार हैं -</span></p>
<table>
<tbody><tr><td width="300"><p>फा</p>
</td>
<td width="300"><p>2</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>फेल</p>
</td>
<td width="300"><p>21</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>फ़अल</p>
</td>
<td width="300"><p>12</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>फैलुन</p>
</td>
<td width="300"><p>22</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>फ़ऊल</p>
</td>
<td width="300"><p>121</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>फ़इलुन</p>
</td>
<td width="300"><p>112</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>मफऊल</p>
</td>
<td width="300"><p>221</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>फाइलुन</p>
</td>
<td width="300"><p>222</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>फ़इलातुन</p>
</td>
<td width="300"><p>1122</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="300"><p>मुफ़ाइलुन</p>
</td>
<td width="300"><p>1212<span> वगैरह , वगैरह</span></p>
</td>
</tr>
</tbody>
</table>
<p> इन रुक्नों में कहीं भी मात्रा 111 की व्यवस्था नहीं है अर्थात हिन्दी का ‘नगण ‘ उर्दू के उरूज में नहीं है I अब इसे विडंबना ही कहेंगे कि ग़ज़ल का व्याकरण, हिन्दी में गजलों के अभ्युदय के कारण आ जाने से हिन्दी के अध्येता और अनन्य अनुरागी भी भ्रमित होकर अपना मूल व्याकरण भूल रहे हैं I</p>
<p>ग़ज़लकार वीनस केसरी ने अपनी पुस्तक ‘ग़ज़ल की बाबत’ के पृष्ठ सं० 86 में बड़ा ही प्रांजल मंतव्य दिया है कि – <strong>‘याद रखें , यह मात्रा गणना के नियम ग़ज़ल विधा के लिए लिखे गए हैं और हिदी छंद की मात्रा गणना से इसमें पर्याप्त भिन्नता होती है , यदि हिन्दी छंद की मात्रा गणना करनी है तो उसके लिए अलग नियम मान्य होंगे I’</strong></p>
<p> इसी पृष्ठ पर कुछ पहले वीनस बिलकुल स्पष्ट कर देते है कि <strong>–‘छंद शास्त्र की मात्रा गणना के अनुसार कमल – क/म/ल </strong> <strong>111</strong> <strong>होता है मगर ग़ज़ल विधा में इस तरह मात्रा गणना नहीं करते , बल्कि उच्चारण के अनुसार गणना करते हैं I उच्चारण करते समय हम ‘क ‘ उच्चारण के बाद ‘मल’ बोलते हैं , इसलिए उर्दू में ‘कमल ‘ – 12 होता है I यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि ग़ज़ल में कमल का ‘मल’ शाश्वत दीर्घ है अर्थात जरूरत के अनुसार ‘ग़ज़ल’ में कमल शब्द की मात्रा को </strong> <strong>111</strong> <strong>नहीं माना जा सकता I</strong> ‘</p>
<p> यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उर्दू में सम, दम ,चल, घर , पल , कल, भव, जय जैसे शब्द भी शाश्वत द्विमात्रिक हैं जबकि हिन्दी में ऐसा नहीं है I हिन्दी व्याकरण के अनुसार इनकी मात्राएँ 11 हैं I उदाहरणस्वरुप हिन्दी /संस्कृत का प्रसिद्द छंद ‘तोटक ’ यहाँ प्रस्तुत है I यह चार सगण के योग से बना वर्णवृत्त है , जिसमे बारह वर्ण की अनिवार्यता है I यथा-</p>
<p> धर रूप मनोहर आज उगा।<br/> रवि पूरब से नव प्रीत जगा।।<br/> सब ताप हरे नव जीवन दे।<br/> तम घोर हरे हरि की धुन दे।।</p>
<p> उक्त उदाहरणों में कर, मणि, गज, मम, धर, रवि नव, सब, तम , हरि आदि की मात्रा (11) है I ग़ज़ल के व्याकरण में ये शाश्वत द्विमात्रिक अर्थात दीर्घमात्रिक है I हिन्दी छंदों में जहाँ सगण , भगण और नगण का उपयोग होता है वहां ऐसे शब्दों का प्रचुर उपयोग होता है I </p>
<p> अब हम फिर ‘नगण’ की ओर लौटते हैं I हिदी में मुख्य रूप से अमृतगति , इंदिरावृत्त , द्रुतविलम्बित, और मालिनी आदि वर्णवृत्त ऐसे है जिनका आरम्भ ही ‘नगण’ से होता है I इनके उदाहरण प्रस्तुत हैं -</p>
<p><strong>अमृतगति – </strong>इसे त्वरितगति छंद भी कहते हैं I इसमें नगण , जगण . नगण के बाद एक गुरु होता है I</p>
<p> अर्थात मात्रिक विन्यास 111-121-111-2 होगा I इस वर्णवृत्त में दस वर्णों की अनिवार्यता है I</p>
<p> इससे संबंधित कवि केशव का एक छंद इस प्रकार है -</p>
<p> निपट पतिव्रत धरिणी I</p>
<p> जन-जन के दुःख हरिणी II</p>
<p> निगम सदा गति सुनिये I</p>
<p> अगति महापति गुनिये II</p>
<p><strong>I </strong> <strong>दिरावृत्त -</strong> इसमें नगण , रगण . रगण के बाद एक लघु और एक गुरु होता है I अर्थात मात्रिक विन्यास </p>
<p> 111-212-212-12 होगा I इस वर्ण वृत्त में ग्यारह वर्णों की अनिवार्यता है I इससे संबंधित राष्ट्र </p>
<p> कवि मैथिलीशरण गुप्त का एक छंद इस प्रकार है -</p>
<p> सुखद है नहीं यों कहीं छटा I</p>
<p> सरस छा रही व्योम में घटा II</p>
<p> मुदित हो रहे, मोर थे भले I</p>
<p> अहह जानकी के बिना खले II</p>
<p><strong>द्रुतविलंबित -</strong> इसमें नगण , भगण . भगण के बाद रगण होता है I अर्थात मात्रिक विन्यास 111-211 -211 </p>
<p> -212 होगा I इस वर्ण वृत्त में बारह वर्णों की अनिवार्यता है I इससे संबंधित पं० अयोध्या प्रसाद ‘ </p>
<p> हरिऔध ‘ का एक छंद इस प्रकार है -</p>
<p><strong> </strong> दिवस का अवसान समीप था</p>
<p> गगन था कुछ लोहित हो चला</p>
<p> तरुशिखा पर अवराजती थी</p>
<p> कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा II</p>
<p> उक्त तीनों छन्दों का आरंभ ‘नगण’ से हुआ है और उसमे निपट, निगम, अगति , सुखद , सरस, मुदित, अहह , दिवस और गगन जैसे शब्दों का उपयोग 111 मात्रा के रूप में हुआ है I गजलों में इनकी मात्रा निर्विवाद रूप से 12 होगी I इस बात में किंचित मात्र भी संदेह नहीं है और इस अंतर को रेखांकित करना ही इस लेख का मुख्य प्रतिपाद्य भी रहा है I इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी में जब भी ग़ज़ल लिखी जाए तो उरूज के नियमों का ईमानदारी से पालन हो किन्तु यही ईमानदारी हिन्दी के छंदों के साथ भी लाजिमी है, ताकि हिन्दी के छंदों की अस्मिता सुरक्षित रहे I दोनों के नियमों का घालमेल होना दोनों ही विधाओं के लिए समान रूप से अहितकर है I अतः इसके लिए जितनी भी सावधानी और जागरूकता अपेक्षित है उससे कहीं अधिक प्रयास की आवश्यकता है I</p>
<p>(मौलिक /अप्रकाशित )</p> शक्ति छन्द के मूलभूत सिद्धांत // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2015-03-31:5170231:Topic:6367362015-03-31T18:52:51.361ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><span style="color: #000080;">चार पदों तथा दो-दो पदान्तता वाले <strong>शक्ति छन्द</strong> में प्रति पद कुल अट्ठारह मात्राएँ होती हैं. छन्द परम्परा के अनुसार -</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>१.</strong> इस छन्द में पद का प्रारम्भ लघु से होना अनिवार्य है.</span> <br></br> <span style="color: #000080;"><strong>२.</strong> प्रत्येक पद में पहली, छठी, ग्यारहवीं तथा सोलहवीं मात्राएँ अवश्य लघु होती हैं.</span><br></br> <span style="color: #000080;"><strong>३.</strong> पदान्त…</span></p>
<p><span style="color: #000080;">चार पदों तथा दो-दो पदान्तता वाले <strong>शक्ति छन्द</strong> में प्रति पद कुल अट्ठारह मात्राएँ होती हैं. छन्द परम्परा के अनुसार -</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>१.</strong> इस छन्द में पद का प्रारम्भ लघु से होना अनिवार्य है.</span> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>२.</strong> प्रत्येक पद में पहली, छठी, ग्यारहवीं तथा सोलहवीं मात्राएँ अवश्य लघु होती हैं.</span><br/> <span style="color: #000080;"><strong>३.</strong> पदान्त सगण (सलगा या ।।ऽ या ११२ या लघु-लघु-गुरु) या रगण (राजभा या ऽ।ऽ या २१२ या गुरु-लघु-गुरु) या नगण (नसल या ।।। या १११ या लघु-लघु-लघु) से होता है.</span> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>४.</strong> पदों में गेयता को सहज और सुप्रवाहित रखने के लिए लघु के अलावा गुरु अथवा दीर्घ अक्षरों का होना अथवा द्विकलों का होना महत्त्वपूर्ण होता है. अन्यथा पदों में आवश्यक लघुओं के अलावा आये लघु अक्षर यदि नियत ढंग से समायोजित न किये गये तो लयभंग की स्थिति बन जाती है. छंदभंगता छांदसिक रचनाओं के लिए नेष्ट है.</span><br/> <br/><span style="color: #000080;">तात्पर्य है, शक्ति छन्द के लिए उर्दू बहर के अनुसार प्रत्येक पद/ पंक्ति को <strong>१२२ १२२ १२२ १२</strong> के भार में निबद्ध किया जाय तो रचना-प्रयास सार्थक होता है.</span> <br/> <br/> <br/> <strong><span style="color: #000080;">शक्ति छन्द का उदाहरण -</span></strong> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">सहज भाव से तुम अचानक मिले</span> <br/> <span style="color: #000080;">लगा, पुष्प तन में हजारों खिले</span> <br/> <span style="color: #000080;">लगी तन-बदन से सिहरती हुई</span> <br/> <span style="color: #000080;">सुगंधित हवा फूल-कलियाँ छुई</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">नहीं अंत-प्रारम्भ था बात का</span> <br/> <span style="color: #000080;">पुलकता रहा हर सिरा रात का</span> <br/> <span style="color: #000080;">सितारे सँजोये मुई रात भी</span> <br/> <span style="color: #000080;">लगी सज-सँवरने.. मिले हम कभी.. </span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">ज्ञातव्य: आवश्यक जानकारियाँ उपलब्ध साहित्य से प्राप्त हुई है</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">*************************</span></p>
<p><span style="color: #000080;">--सौरभ</span></p>
<p></p> ताटंक छन्द के मूलभूत सिद्धांत // - सौरभtag:openbooks.ning.com,2015-03-01:5170231:Topic:6240962015-03-01T17:55:34.086ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><span style="color: #000080;"><strong>ताटंक छन्द</strong> अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है. दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.</span> <br></br> <span style="color: #000080;">प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है.…</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>ताटंक छन्द</strong> अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है. दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">किन्तु, पदान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है. इसका अर्थ यह हुआ कि सम चरण का अन्त तीन गुरु से ही होना चाहिये.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">महाराष्ट्र की प्रसिद्ध <strong>लावणी नृत्य के साथ गाये जाने वाले लोकगीत इसी छन्द में निबद्ध होते हैं. इन गीतों के पदान्त दो लघुओं के बाद दो गुरुओं से भी होता है. या, कई बार तो ऐसी कोई शर्त निभायी ही नहीं जाती. अर्थात लावणी के लोक-गीत कुकुभ या ताटंक छन्द की ही अन्य प्रारूप की तरह हैं. लावणी छंद में पदान्त दो गुरुओं या चार लघुओं या इनके ही मिश्रित संयोजनों से बनता है. </strong></span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">इसका कुल अर्थ यह हुआ कि कुकुभ छन्द तथा ताटंक छन्द में बड़ा ही महीन अन्तर है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">चार पदों एवं 16-14 की यति का वह छन्द जिसका <strong>पदान्त दो गुरुओं से हो कुकुभ छन्द</strong> कहलाता है. जबकि</span> <br/> <span style="color: #000080;">चार पदों एवं 16-14 की यति का वह छन्द जिसका <strong>पदान्त तीन गुरुओं से हो ताटंक छन्द</strong> कहलाता है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">ताटंक छन्द का एक उदाहरण - </span></p>
<p></p>
<p><em><span style="color: #000080;">आये हैं लड़ने चुनाव जो, सब्ज़ बाग़ दिखलायें क्यों?</span></em><br/> <em><span style="color: #000080;">झूठे वादे करते नेता, किंचित नहीं निभायें क्यों?</span></em><br/> <em><span style="color: #000080;">सत्ता पा घपले-घोटाले, करें नहीं शर्मायें क्यों?</span></em><br/> <span style="color: #000080;"><em>न्यायालय से दंडित हों, खुद को निर्दोष बतायें क्यों?</em> .. (आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’)</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">****</span><br/> <span style="color: #000080;">(मौलिक और अप्रकाशित)</span><br/> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>ज्ञातव्य :</strong> आलेख अबतक उपलब्ध जानकारी के आधार पर प्रस्तुत हुआ है.</span></p>
<div style="display: none;" id="__if72ru4sdfsdfrkjahiuyi_once"></div>
<div style="display: none;" id="__if72ru4sdfsdfruh7fewui_once"></div>
<div style="display: none;" id="__hggasdgjhsagd_once"></div> कुकुभ छन्द के मूलभूत सिद्धांत // - सौरभtag:openbooks.ning.com,2015-02-02:5170231:Topic:6136282015-02-02T07:59:49.746ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><span style="color: #000080;"><strong>कुकुभ छन्द</strong> अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं तथा प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.</span> <br></br> <span style="color: #000080;">प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष…</span></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>कुकुभ छन्द</strong> अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं तथा प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है. किन्तु, पदान्त दो गुरुओं से होना अनिवार्य है. इसका अर्थ यह हुआ कि सम चरण का अन्त दो गुरु से ही होना चाहिये.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">महाराष्ट्र के प्रसिद्ध लावणी नृत्य के साथ गाये जाने वाले लोकगीत इसी छन्द में निबद्ध होते हैं. इन गीतों के पदान्त दो लघुओं के बाद दो गुरुओं से होता है. अर्थात ये कुकुभ छन्द के ही प्रारूप हैं.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">कुकुभ छन्द का उदाहरण -</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">मानव मूल्य गिरे नित नीचे, भ्रष्टाचार उठा ऊँचा !</span><br/> <span style="color: #000080;">अपनी-अपनी डफली सबकी, अपना-अपना है कूंचा !!</span><br/> <span style="color: #000080;">किससे कहें वेदना मन की, अब कैसे भाग्य जगायें!</span><br/> <span style="color: #000080;">अन्धकार के जंगल में हम,अब कैसे आग लगायें !! (राज बुन्देली)</span><br/> <br/> <span style="color: #000080;">****</span><br/> <span style="color: #000080;">(मौलिक और अप्रकाशित)</span><br/> <br/> <span style="color: #000080;">ज्ञातव्य : आलेख अबतक उपलब्ध जानकारी के आधार पर प्रस्तुत हुआ है.</span> <br/> <br/></p>
<div style="display: none;" id="__if72ru4sdfsdfrkjahiuyi_once"></div>
<div style="display: none;" id="__if72ru4sdfsdfruh7fewui_once"></div>
<div style="display: none;" id="__hggasdgjhsagd_once"></div> हरिगीतिका छन्द के मूलभूत सिद्धांत // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2014-10-30:5170231:Topic:5846332014-10-30T11:21:32.116ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><span style="color: #000080;">इस पाठ में हम <strong>हरिगीतिका छन्द</strong> पर चर्चा करने जा रहे हैं.</span> <br></br> <span style="color: #000080;">यह अवश्य है कि हरिगीतिका छन्द के विधान पर पहले भी चर्चा हुई है. लेकिन प्रस्तुत आलेख का आशय विधान के मर्म को खोलना</span> <span style="color: #000080;">अधिक है. ताकि नव-अभ्यासकर्मी छन्द के विधान को शब्द-कल के अनुसार न केवल समझ सकें, बल्कि गुरु-लघु के प्रकरण को</span> <span style="color: #000080;">आत्मसात कर निर्द्वंद्व रचनाकर्म कर…</span></p>
<p><span style="color: #000080;">इस पाठ में हम <strong>हरिगीतिका छन्द</strong> पर चर्चा करने जा रहे हैं.</span> <br/> <span style="color: #000080;">यह अवश्य है कि हरिगीतिका छन्द के विधान पर पहले भी चर्चा हुई है. लेकिन प्रस्तुत आलेख का आशय विधान के मर्म को खोलना</span> <span style="color: #000080;">अधिक है. ताकि नव-अभ्यासकर्मी छन्द के विधान को शब्द-कल के अनुसार न केवल समझ सकें, बल्कि गुरु-लघु के प्रकरण को</span> <span style="color: #000080;">आत्मसात कर निर्द्वंद्व रचनाकर्म कर सकें.</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">चार पदों के इस छन्द में प्रचलित रूप से दो-दो पदों की तुकान्तता हुआ करती है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">हर पद २८ मात्राओं का होता है. जिसकी यति अमूमन १६-१२ पर हुआ करती है. किन्हीं-किन्हीं पदों में यह यति १४-१४ मात्राओं पर</span> <span style="color: #000080;">भी देखी गयी है, जोकि पद के निहितार्थ के अनुसार हुआ करती है. परन्तु, प्रचलित यति १६-१२ मात्रा के अनुसार ही होती है.</span><br/> <span style="color: #000080;">हम इस छन्द के इसी प्रचलित रूप पर अभ्यास-कार्य करेंगे.</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">हरिगीतिका छन्द को सरलता से समझने के लिए <strong>सूत्रवत</strong> यों लिखा जा सकता है -</span> <br/> <strong><span style="color: #000080;">हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका</span></strong> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">यानि, ’हरिगीतिका’ की चार आवृति के शब्द-संयोजन में पद बनते हैं.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">यहाँ प्रत्येक ’हरिगीतिका’ का अर्थ हुआ कि</span> <span style="color: #000080;">लघु-लघु-गुरु-लघु-गुरु की एक आवृति. ऐसी-ऐसी चार आवृतियों से एक पद बनेगा. स्पष्ट है कि ’हरि’ दो लघुओं का समुच्चय है.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">दूसरा <strong>सूत्र</strong> यों हो सकता है-</span> <br/> <strong><span style="color: #000080;">श्रीगीतिका श्रीगीतिका श्रीगीतिका श्रीगीतिका</span></strong> <br/> <span style="color: #000080;">उपरोक्त सूत्र का अर्थ यह हुआ कि ’श्री’ एक गुरु है.</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">इस छन्द के प्रत्येक <strong>पद का अन्त रगण (राजभा, २१२, ऽ।ऽ, गुरु-लघु-गुरु) से हो या वाचिक रूप से रगणात्मक हो</strong> तो वाचन का प्रवाह अत्युत्तम होता है.</span> <span style="color: #000080;">हम भी इस परिपाटी के अनुसार चलेंगे.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">एक बात और, इस <strong>छन्द के पद में चौकल बनेंगे, लेकिन, कोई चौकल जगण (जभान, १२१, ।ऽ।, लघु-गुरु-लघु) नहीं होना चाहिये.</strong></span><br/> <span style="color: #000080;">दूसरी बात जो स्पष्ट रूप से दीखती है, वह ये कि, <strong>प्रत्येक पद में ५वीं, १२वीं, १९वीं, २६वीं मात्रा अनिवार्य रूप से लघु है. यही इस</strong></span> <strong><span style="color: #000080;">छन्द की विशेषता है.</span></strong> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">दोनों सूत्रों में मुख्य अन्तर यह है, कि ’<strong><span style="color: #000080;">हरिगीतिका’</span></strong> के ’<strong>हरि</strong>’ को ’<strong><span style="color: #000080;">श्रीगीतिका</span></strong> ’ के ’<strong>श्री</strong>’ से परिवर्तित किया जा सकता है. यानि ’<strong>हरि</strong>’ <strong>का दो लघु ’श्री’</strong></span> <span style="color: #000080;"><strong>के एक गुरु से</strong> आश्यकतानुसार <strong>परिवर्तित</strong> हो सकता है.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">ऐसी अवधारणा को समझना बहुत कठिन नहीं है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">’<strong>शब्द-कल</strong>’ को समझने वाले अभ्यासकर्मी <strong>समकल</strong> (द्विकल, चौकल आदि) को खूब समझते हैं. कि, <strong>दो लघुओं से बने शब्द का</strong></span> <span style="color: #000080;"><strong>मात्रा-भार एकसार हुआ करता है, तो वह गुरु की तरह व्यवहृत होता है.</strong> </span> <span style="color: #000080;">उदाहरण केलिए एक शब्द लें - ’<strong>समझ</strong>’.</span><br/> <span style="color: #000080;">’<strong>समझ</strong>’ <strong>एक त्रिकल शब्द है.</strong> यानि लघु-लघु-लघु का समुच्चय है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>इसका उच्चारण होता है - स+मझ</strong>. यानि, ’<strong>स</strong>’ के बाद आया</span> <span style="color: #000080;">’<strong>मझ</strong>’ यद्यपि दो लघुओं का समुच्चय है, इसके बावजूद उसका मात्रा-भार किसी गुरु की तरह ही होता है. यानि ’समझ’ के ’मझ’ का</span> <span style="color: #000080;">उच्चारण ’म’ और ’झ’ की तरह न होकर ’मझ’ जैसा होता है. इसीसे ’समझ’ शब्द को उच्चरणवत ’स+मझ’ लिखा गया है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">विश्वास</span> <span style="color: #000080;">है कि, उपरोक्त कहे का आशय स्पष्ट हो गया होगा.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">इसी तर्ज़ पर ’<strong>श्रीगीतिका</strong>’ तथा ’<strong>हरिगीतिका</strong>’ के क्रमशः ’<strong>श्री</strong>’ तथा ’<strong>हरि</strong>’ को समझने की आवश्यकता है. ’<strong>हरि</strong>’ <strong>वस्तुतः ’लघु-लघु’ ही है</strong></span> <span style="color: #000080;"><strong>तथा ’श्री’ एक दीर्घ यानि गुरु ही है.</strong> परन्तु, ’<strong>हरि</strong>’ पर स्ट्रेस (मात्रा-भार) होने के कारण ’हरि’ के ’<strong>ह</strong>’ तथा ’<strong>रि</strong>’ अलग-अलग उच्चारित</span> <span style="color: #000080;">न हो कर एक ही मात्रा-भार से उच्चारित होते हैं. जैसेकि ’<strong>श्री</strong>’ अपने दीर्घ (या, गुरु) के अनुसार उच्चारित होता है.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">इसके अलावा, उपरोक्त सूत्रों के ’<strong>हरिगीतिका</strong>’ या ’<strong>श्रीगीतिका</strong>’ का ’<strong>गी</strong>’ तथा ’<strong>का</strong>’ भी इसी अनुसार दो लघुओं में परिवर्तित हो सकते है.</span> <span style="color: #000080;">बशर्ते, उन लघुओं के मात्रा-भार एकसार हों. या तदनुरूप व्यवहृत हों. यानि, ’<strong>गी</strong>’ तथा ’<strong>का</strong>’ <strong>के स्थान पर दीर्घ अक्षर आपरूप ही आते हैं और</strong></span> <span style="color: #000080;"><strong>मान्य हैं. लेकिन, एकसार मात्रा-भार के दो लघु भी मान्य होंगे.</strong> जैसा कि उदाहरण में ’समझ’ शब्द का ’मझ’ है. </span><br/> <br/> <span style="color: #000080;">उपरोक्त तथ्य को समझने के लिए उदाहरणार्थ एक छन्दांश लेते हैं जो कि मैथिलीशरण गुप्त रचित है -</span> <br/> <strong><span style="color: #000080;">जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है</span></strong><br/> <strong><span style="color: #000080;">वह नर नहीं नर-पशु निरा है और मृतक समान है</span></strong> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">इन दोनों पदों को सूत्र की आवृति के अनुसार समझा जाय तो -</span><br/> <span style="color: #000080;"><strong>जिसको न निज - हरिगीतिका -</strong> यहाँ ’निज’ समान मात्रा-भार का है और हरिगीतिका सूत्र के ’का’ के स्थान पर है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">गौरव तथा - श्रीगीतिका - यहाँ ’गौ’ ’श्री’ के स्थान पर है. ’रव’ ’गी’ के स्थान पर है जो एकसार मात्रा-भार के दो लघुओं ’र’ और ’व’</span> <span style="color: #000080;">से बना है. </span><br/> <span style="color: #000080;"><strong>निज देश का - हरिगीतिका -</strong> विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं है.</span><br/> <span style="color: #000080;"><strong>अभिमान है - हरिगीतिका -</strong> यहाँ भी विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">इस <strong>पद का अन्त ’मान है’ से हो रहा है, जो रगण वर्ण में है.</strong> यह भी नियमानुसार है. यहाँ रगण का शब्द या शब्द-समुच्चय वाचिक रगणात्मक भी हो सकता है. </span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">अब छन्दांश का दूसरा पद -</span> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>वह नर नहीं - हरिगीतिका -</strong> यहाँ ’नर’ सूत्र के ’गी’ के स्थान पर आये एकसार मात्रा-भार वाले दो लघुओं से निर्मित है.</span> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>नर-पशु निरा - हरिगीतिका -</strong> यहाँ भी ’पशु’ सूत्र के ’गी’ के स्थान पर आया है. अन्य स्पष्ट है.</span> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>है और मृत - श्रीगीतिका -</strong> ’है’ तथा ’औ’ सूत्र के ’श्री’ और ’गी’ की जगह पर हैं. ’मृत’ सूत्र के ’का’ की जगह आया है जो एकसार</span> <span style="color: #000080;">मात्रा-भार के दो लघुओं से निर्मित है.</span> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>क समान है - हरिगीतिका -</strong> विशेष व्याख्या की आव्श्यकता नहीं है.</span><br/> <span style="color: #000080;">तुकान्तता के अनुसार इस <strong>पद का अन्त भी ’मान है’ से हो रहा है जो कि रगण वर्ण में है</strong>.</span><br/> <br/> <span style="color: #000080;">एक और उदाहरण से उपरोक्त तथ्य को समझने का प्रयास किया जाय. उदाहरणार्थ ’रामचरित मानस’ में प्रयुक्त इस छन्द के एक</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">पद को लेते हैं - </span><br/> <strong><span style="color: #000080;">करुना निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो ..</span></strong><br/> <span style="color: #000080;">उपरोक्त पद को सूत्र के अनुसार चार आवृतियों में बाँट दिया जाय - करुना निधा / न सुजान सी / ल सनेह जा / नत रावरो</span> <br/> <strong><span style="color: #000080;">करुना निधा - हरिगीतिका</span></strong> <br/> <strong><span style="color: #000080;">न सुजान सी - हरुगीतिका</span></strong><br/> <strong><span style="color: #000080;">ल सनेह जा - हरिगीतिका</span></strong> <br/> <strong><span style="color: #000080;">नत रावरो - हरिगीतिका</span></strong> <br/> <span style="color: #000080;">साथ ही <strong>पदान्त ’रावरो’ से होने के कारण पदान्त का रगण से होना भी निश्चित हो रहा है.</strong></span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;"><strong>हरिगीतिका छन्द</strong> का एक उदाहरण -</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">दुर्धर्ष तम की उग्र लपटों में घिरा क्यों आर्य है</span> <br/> <span style="color: #000080;">भौतिक सुखों के मोह में करता दिखे हर कार्य है</span> <br/> <span style="color: #000080;">व्यवहार से शोषक, विचारों से प्रपीड़क, क्रूर है </span><br/> <span style="color: #000080;">फिर-फिर धरा की शक्ति जीवन-संतुलन से दूर है</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">धरती अहंकारी मनुज की उग्रता से पस्त है</span> <br/> <span style="color: #000080;">फिर से हिरण्याक्षों प्रताड़ित यह धरा संत्रस्त है</span> <br/> <span style="color: #000080;">राजस-तमस के बीज से जब पाप तन-आकार ले</span> <br/> <span style="color: #000080;">वाराह की या कूर्म की सद्भावना अवतार ले</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">फिर से धरा यह रुग्ण-पीड़ित दुर्दशा से व्यग्र है </span><br/> <span style="color: #000080;">अब हों मुखर संतान जिनका मन-प्रखर है, शुभ्र है</span> <br/> <span style="color: #000080;">इस कामना के मूल में उद्दात्त शुभ-उद्गार है</span> <br/> <span style="color: #000080;">वर्ना रसातल नाम जिसका वो यही संसार है (छन्द के अंश ’इकड़ियाँ जेबी से’ उद्धृत)</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">*********************************</span><br/> <span style="color: #000080;"><strong>ज्ञातव्य : </strong> आलेख हेतु जानकारियाँ उपलब्ध साहित्य से उपलब्ध हुईं हैं</span><br/> <span style="color: #000080;">*********************************</span><br/> <span style="color: #000080;">-सौरभ</span><br/> <span style="color: #000080;">(मौलिक और अप्रकाशित)</span><br/> <span style="color: #000080;">*********************************</span></p> मनहरण घनाक्षरी के मूलभूत सिद्धांत // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2014-10-03:5170231:Topic:5793302014-10-03T22:10:44.698ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><span style="color: #000080;"><strong>घनाक्षरी</strong> या कवित्त को मुक्तक भी कहते हैं. इसके सार्थक कारण हैं.</span></p>
<p><strong><span style="color: #000080;">इस छन्द के पदों में वर्णों की संख्या तो नियत हुआ करती हैं, किन्तु, छन्द के सभी पद वर्णक्रम या मात्राओं की गणना से मुक्त हुआ</span></strong> <span style="color: #000080;"><strong>करते हैं.</strong> यानि अन्य किसी वर्णिक छन्द की तरह इसके गण (वर्णों का नियत समुच्चय) सधे हुए नहीं होते कि गणों की कोई व्यवस्था बने. अर्थात सगण या भगण या…</span></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>घनाक्षरी</strong> या कवित्त को मुक्तक भी कहते हैं. इसके सार्थक कारण हैं.</span></p>
<p><strong><span style="color: #000080;">इस छन्द के पदों में वर्णों की संख्या तो नियत हुआ करती हैं, किन्तु, छन्द के सभी पद वर्णक्रम या मात्राओं की गणना से मुक्त हुआ</span></strong> <span style="color: #000080;"><strong>करते हैं.</strong> यानि अन्य किसी वर्णिक छन्द की तरह इसके गण (वर्णों का नियत समुच्चय) सधे हुए नहीं होते कि गणों की कोई व्यवस्था बने. अर्थात सगण या भगण या ऐसे ही <strong>गणों की पदों में आवृतियाँ नहीं बनती.</strong> उदाहरण के लिए <strong>सवैया</strong> को लीजिये.<br/></span></p>
<p><span style="color: #000080;">देखा जाय तो यही वर्णक्रम मुक्तता छन्द को विशेष बनाती है. तदनुरूप, छन्दकारों का दायित्व भी बढ़ जाता है कि वे रचनाकर्म के क्रम में सचेत रहें. अन्यथा वाचन में प्रवाहभंग या लयभंग की</span> <span style="color: #000080;">स्थिति अनायास ही बन जाती है.</span></p>
<p><br/> <span style="color: #000080;">इसी कारण पदों में प्रयुक्त शब्दों के कलों पर विशेष ध्यान रखा जाता है ताकि पदों के वाचन के क्रम में लयभंगता की स्थिति न बनने पाये.</span></p>
<p></p>
<p><strong><span style="color: #000080;">सम कलों वाले शब्दों के बाद सम कल के शब्दों का आना तथा विषम कलों के शब्द के बाद विषम कलों के शब्दों का आना वस्तुतः लयभंगता के दोष को समाप्त करने में सहायक होता है.</span></strong></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">वर्णों की गणना के समय एक व्यंजन या व्यंजन के साथ संयुक्त हुए स्वर को एक वर्ण माना जाता है. संयुक्ताक्षर को एक ही वर्ण मानने की परम्परा रही है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">उदाहरण, </span> <br/> <em><span style="color: #000080;">शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से</span></em><br/> <em><span style="color: #000080;">लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से</span></em><br/> <br/> <span style="color: #000080;">यहाँ ’शस्य’ दो वर्णों का शब्द हुआ. उसी तरह ’श्यामला’ तीन वर्णों का शब्द है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">साथ ही, उपरोक्त पदों में पहले पद के माध्यम से यह भी देखा गया कि ’शस्य’ त्रिकल है तो उसके ठीक बाद ’श्यामला’ ऐसा शब्द है जो पंचकल है और मात्रा भार के अनुसार रगण (ऽ।ऽ, गुरु-लघु-गुरु)</span> <span style="color: #000080;">शब्द है. अतः ’शस्य’ के त्रिकल, जिसका कि मात्रा-भार गुरु-लघु है, के ठीक बाद श्याम+ला शब्द, जो कि त्रिकल+द्विकल बनाता है, का आना त्रिकल के बाद त्रिकल शब्द की सटीक व्यवस्था बना देता है.</span> <span style="color: #000080;">और वाचन में लयभंगता नहीं होती.</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">उपरोक्त व्यवस्था को घनाक्षरी के सभी पदों में चरणवत निभाना है.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">छन्द शास्त्र के नियमानुसार इस छन्द के कुल नौ भेद पाये जाते हैं. किन्तु, मुख्य घनाक्षरियाँ चार हैं.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">यथा, मनहरण घनाक्षरी, जलहरण घनाक्षरी, रूप घनाक्षरी तथा देव घनाक्षरी.</span></p>
<p><br/> <strong><span style="color: #000080;">मनहरण घनाक्षरी</span> -</strong> <span style="color: #000080;">चार पदों के इस छन्द में प्रत्येक पद में कुल वर्णों की संख्या ३१ होती है. सभी पदों में नियमानुकूल तुकान्तता हुआ करती है. पदान्त में गुरु का होना अनिवार्य है. लघु-गुरु का कोई क्रम नियत नहीं है.</span> <span style="color: #000080;">परन्तु, वाचन को सहज रखने के लिए पदान्त को लघु-गुरु से करने की परिपाटी रही है.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">विशेष परिपाटी जिसके प्रचलन से इस छन्द को वस्तुतः नियत किया जाता है, उसके अनुसार प्रत्येक पद चार चरणों में विभक्त होता है तथा प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या क्रमशः ८, ८, ८, ७ की यति के अनुसार हो. तथा, पदान्त</span> <span style="color: #000080;">लघु-गुरु से हो.</span> <br/> <span style="color: #000080;">एक तथ्य पर हम अवश्य दृढ़ रहें कि मगण (मातारा, गुरु-गुरु-गुरु, ऽऽऽ, २ २ २) से पदान्त न हो. अन्यथा वाचन के क्रम में लयभंगता अवश्य बनेगी.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">कहीं-कहीं चरणों के वर्ण की गणना के अनुसार आंतरिक व्यवस्था ८, ७, ९, ७ या ऐसी ही कुछ हो सकती है. ऐसा होना कोई वैधानिक दोष नहीं है. परन्तु ध्यान से परखा जाय तो आंतरिक व्यवस्था चाहे जो हो, शाब्दिक कलों का निर्वहन सहज ढंग</span> <span style="color: #000080;">से हुआ है, तो छन्द वाचन में या पद-गायन में कोई असुविधा नहीं होती. और छन्द निर्दोष माना जाता है.</span></p>
<p><br/> <strong><span style="color: #000080;">छन्दशास्त्र के कई विद्वान इसी कारण मनहरण घनाक्षरी के पदों की यति १६, १५ पर साधते हैं. </span></strong><span style="color: #000080;">परन्तु, ऐसा करना भी पद को कम्पार्टमेण्टलाइज करने की तरह नहीं होता. यानि</span><span style="color: #000080;">, यह भी देखा गया है कि कई बार १६-१५ की यति भी १७-१४ या १५-१६ की व्यवस्था में हुआ करती है. </span><br/> <br/> <span style="color: #000080;">उदाहरण के लिए एक <span style="color: #000080;">घनाक्षरी</span> के दो और पद लिये जाते हैं, जो कि मनहरण घनाक्षरी के विशिष्ट रूप में हैं.</span> <br/> <br/> <em><span style="color: #000080;">हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें<br/> ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें </span></em> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">उपरोक्त पदों में १६-१५ की बनती है. यानि शब्दों की व्यवस्था ऐसी है कि वाचन में प्रवाह तनिक भंग नहीं होता.</span></p>
<p></p>
<p><strong><span style="color: #000080;">शब्द व्यवस्था को साधने के लिए एक और तथ्य पर ध्यान देना उचित होगा -</span></strong> <br/> <strong><span style="color: #000080;">सम-विषम-विषम, या, विषम-सम-विषम जैसी व्यवस्था में नियत हुए शब्दों के प्रयोग पदों में लयभंगता की स्थिति</span> <span style="color: #000080;">उत्पन्न कर देता है.</span></strong> <br/> <span style="color: #000080;">जैसे, </span><br/> <span style="color: #000080;">’<strong>ममत्व की हो गोद या</strong>’ को ’<strong>गोद या ममत्व की हो</strong>’ किया जाय तो चरण में समान वर्ण होने के बावज़ूद लयभंगता बन रही दीख रही है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">कारण कि, ’गोद’ त्रिकल (विषम) के बाद ’या’ जैसा द्विकल (सम)</span> <span style="color: #000080;">और ’ममत्व’ के कारण पुनः त्रिकल से प्रारम्भ हो रहे शब्द का आना है. अतः इसे नकारने के लिए ’ममत्व की हो गोद या’ जैसी व्यवस्था में शब्द को साधना होता है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;">फिर, ’ममत्व की हो’ वाक्यांश होने से ’ममत्व’ के ’मत्व’, <span style="color: #000080;">जोकि त्रिकल शब्द है,</span> के बाद ’की हो’ के आने से चौकल आना हो जाता है. अर्थात, त्रिकल के बाद चौकल आ रहा है. ऐसी शाब्दिक व्यवस्था सर्वथा त्याज्य है.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">कहने का तात्पर्य यह है कि हम पदों में चाहे जो शाब्दिक व्यवस्था बनायें, पर शब्द-कल तथा यति के प्रभाव तथा पद-प्रवाह सहज रहें.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">मनहरण घनाक्षरी के उदाहरण प्रस्तुत हैं.</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">१.</span><br/> <span style="color: #000080;">शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से</span><br/> <span style="color: #000080;">लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से</span><br/> <span style="color: #000080;">जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से</span><br/> <span style="color: #000080;">उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से (इकड़ियाँ जेबी से / लेखक - सौरभ पाण्डेय)</span><br/> <br/> <span style="color: #000080;">२.</span><br/> <span style="color: #000080;">नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा वो श्रेष्ठ भी दिखे भले परन्तु लोक-छात्र हो</span><br/> <span style="color: #000080;">तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो, त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो</span><br/> <span style="color: #000080;">भूमि-जन-संविधान, विन्दु हैं ये देशमान, संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो</span><br/> <span style="color: #000080;">किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो (स्वप्रयास से)</span><br/> <span style="color: #000080;">***********************</span></p>
<p><span style="color: #000080;">-- सौरभ</span></p>
<p></p>
<p><br/> <span style="color: #000080;"><strong>ज्ञातव्य :</strong> उपलब्ध जानकारियों के आधार पर आलेख विकसित हुआ है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">(मौलिक और अप्रकाशित)<br/></span></p>
<p></p> विभावन-व्यापार में साधारणीकरण की प्रक्रियाtag:openbooks.ning.com,2014-09-09:5170231:Topic:5736882014-09-09T07:18:11.371ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><b> </b></p>
<p style="text-align: left;"> हिन्दी-विक्षनरी के अनुसार विभावन-व्यापार रसविधान में वह मानसिक व्यापार है जिसके कारण पात्र में प्रदर्शित भाव का श्रोता या पाठक भी साधारणीकरण द्वारा भागी होता है I साधारणीकरण का प्रथमोल्लेख आचार्य भट्टनायक ने ‘काव्य प्रदीप’ में रस-सूत्र की व्याख्यान्तार्गत किया है I रस निष्पत्ति का विश्लेषण करते हुए उन्होंने विभावन-व्यापार की तीन क्रियाये स्वीकार की है I वे तीन प्रक्रियाये निम्न प्रकार है –…</p>
<p><b> </b></p>
<p style="text-align: left;"> हिन्दी-विक्षनरी के अनुसार विभावन-व्यापार रसविधान में वह मानसिक व्यापार है जिसके कारण पात्र में प्रदर्शित भाव का श्रोता या पाठक भी साधारणीकरण द्वारा भागी होता है I साधारणीकरण का प्रथमोल्लेख आचार्य भट्टनायक ने ‘काव्य प्रदीप’ में रस-सूत्र की व्याख्यान्तार्गत किया है I रस निष्पत्ति का विश्लेषण करते हुए उन्होंने विभावन-व्यापार की तीन क्रियाये स्वीकार की है I वे तीन प्रक्रियाये निम्न प्रकार है –</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;">1-अभिधा क्रिया</p>
<p style="text-align: left;">2-भावकत्व क्रिया</p>
<p style="text-align: left;">3-भोजकत्व क्रिया</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> उक्त अभिधा क्रिया द्वारा काव्य के शब्दार्थ का बोध होता है I भावकत्व क्रिया में पाठक या श्रोता का भाव, विभाव आदि से साधारणीकरण हो जाता है I भोजकत्व क्रिया में प्रमाता रस का आस्वादन करने लगता है I ‘काव्य प्रदीप’ में भट्टनायक कहते है –</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p><strong> ‘ भावकत्वं साधारणीकरणम् I तेन ही व्यापारेण विभावादयः स्थाई च साधारणीक्रियन्साधारणम् चेतदेवयत्सीतादि विशेषाणाम् कामानीत्वादि सामान्येनोपस्थितः I स्थार्य्यनुभावादीनांच सम्बंधविशेषानवच्छिन्नत्वेन I ' </strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> </strong></p>
<p style="text-align: left;"> अर्थात, भावकत्व व्यापार ही साधारणीकरण है I क्योंकि इसी से विभावादि से लेकर स्थायी-भाव तक साधारणीकृत हो जाते है I साधारण हो जाने का तात्पर्य सीता जैसा विशिष्ट पात्र भी सामान्या नारी सा भासित होने लगता है I ऐसा इसलिए होता है क्योंकि स्थाई भाव और अनुभाव उन विशिष्ट पात्रो से विछिन्न होकर साधारण एवं अपने बीच के पात्रो से संवाहित होकर प्रमाता तक पहुचते है और उसे रस का आस्वाद करते है I एक उदाहरण है, जब वन मार्ग में सीता को ग्राम -बधूटियां मिलती है तो वे उनसे पूंछती है कि राम-लक्ष्मण उनके कौन है ? लक्ष्मण के बारे में तो सीता बता देती है पर प्रिय के बारे में कैसे कहें ? यही पात्र का साधारणी- करण होता है i सीता सामान्य नारी बन जाती है I वर्णन है –</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> <strong>‘बहुरि वदन विधु अंचल ढाँकी I पिय तन चितय भौंह करि बांकी I</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> खंजन मंजु तिरीछे नयनन्हि I निज पति कहेव तिनहि सिय सयनन्हि II’</strong></p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> यहाँ पात्र का वैशिष्ट्य विछिन्न है I यही साधारणीकरण है I यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि भट्टनायक की दृष्टि से साधारणीकरण रस आस्वादन से पूर्व की प्रक्रिया है I पहले प्रमाता शब्द का अर्थ समझता है , फिर भाव बोध होता है I इसके उपरांत भाव, विभाव और व्यभिचारी भाव का साधारणीकरण होता है तब रस का आस्वाद मिलता है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> आचार्य अभिनव गुप्त उक्त से सहमत तो है पर वे स्थायी-भाव के साधारणीकृत हो जाने की भी बात करते है I स्थाई भाव के साधारणीकरण तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपनी वर्तमान भौतिक अवस्था, देश-काल एवं परिस्थिति को भूलकर विशिष्ट पात्रो की साधारणीकृत भाव दशा में पहुंचकर अपना तादात्म्य उस चरित्र के साथ स्थापित कर ले और कुछ समय के लिया अपना निजी सुख-दुःख यहाँ तक कि अस्तित्व भी विस्मृत कर दे I अभिनव गुप्त का मत भी उपेक्षणीय नहीं है I हमने प्रायः अनुभव किया है कि जब हम कोई कांटे का मैच या भावपूर्ण मूवी देखते है तो अपनी सुध- बुध भूल जाते है I अभिनव गुप्त इसी को स्थाई भाव का साधारणीकरण कहते है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> साधारणीकरण के सम्बन्ध में आचार्य मम्मट का कथन थोडा भिन्न है I अपने ‘काव्य प्रकाश’ नामक ग्रन्थ में वे कहते है कि- <strong>ममैवैते शत्रोरेवैते तटस्थस्यैवैते न ममैवैते न शत्रोरेवैते न तटस्थस्यैवैते इतिहास सम्बन्ध विशेष स्वीकार, परिहार नियमावध्यवसायात साधारण्येन प्रतीतेर- भिव्यक्तिः I</strong> अर्थात, ‘ ये मेरे है, ये शत्रु के है, ये तटस्थ के है ’ के ममत्व परत्व वाले भाव ‘न ये मेरे है, न ये शत्रु के है, न ये तटस्थ के है ’ के रूप में साधारणीकृत हो जाते है और इतिहास से संबंध विशेष की स्वीकार्यता को त्याग देते है तभी साधारणता के कारण रस की निष्पत्ति होती है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> मम्मट यह भी कहते है कि – <strong>‘तत्काल विगलित परिमित्त प्रमातभाववशोनिम्षित देशांतर संपर्क शून्यापरिमित्त भावेन I’</strong> अर्थात, साधारणीकरण होने पर प्रमाता का परिमित भाव-बोध तत्काल विगलित हो जाता है और उसके स्थायी भाव जाग्रत हो जाते है I ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी निजता में होकर भी सर्वतोभावेन नहीं होता I प्रमाता का ह्रदय भाव के चरम उन्मेष की अवस्था में देशांतर संपर्क शून्य हो जाता है I तब वह पूर्ण रूप से साधारणीकृत स्थाई भाव में समाविष्ट होता है और रस का आस्वादन करता है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> आचार्य विश्वनाथ ने विभावो के साधारणीकरण के फलस्वरूप प्रमाता का काव्य में रस के आश्रय के साथ जो तादात्म्य बनता है , उसे साधारणीकरण माना है I ‘साहित्य दर्पण’ में वे कहते है कि - </p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> <strong>व्यापारोSस्ति विभावादीनाम् वा साधारणीकृतः I</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> तत्प्रभावेण यस्यासंयाथोदधि प्लावालादयः I </strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> प्रमाता तदभेदेन स्वत्मानं प्रतिपद्यते I</strong></p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> अर्थात (हनुमान जब समुद्र लंघन कर रहे होते है तो) वीर-रसात्मक स्थायी –भाव यानि कि ‘उत्साह’ हनुमान के ह्रदय में उत्पन्न होता है पर विभाव आदि के साधारणीकरण के व्यापार से प्रेक्षक, पाठक, प्रमाता आदि भी उस उत्साह का किंचित अनुभव करते है और विभाव से अभेद जैसी स्थिति आती है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> आचार्य विश्वनाथ मम्मट के ममत्व और परत्व वाली विचारधारा से भी सहमत नहीं है, उनका कहना है - </p>
<p style="text-align: left;"> <strong>परस्य न परस्येति ममेति न ममेति च I</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> तदाववादे : विभावावे : परिच्छेदो न विद्यते I</strong></p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> अर्थात, वे मेरे है या मेरे नहीं है I दूसरे के है अथवा दूसरे के नहीं है, इस भावना से विभाव आदि का परिच्छेद नहीं होता I यानि कि पात्र से सम्बन्ध विशेष का न स्वीकार होता है और न परिहार होता है I आचार्य केशव प्रसाद मिश्र अभिनव गुप्त से प्रभावित लगते है I उनका कहना है कि साधारणीकरण पाठक या प्रमाता की चित्तवृत्ति से सम्बन्ध रखता है I मम्मट के विचार से इनका विचार विशेष मेल नहीं खाता क्योंकि आचार्य केशव विभाव को सीमित एवं बद्ध तथा भाव को असीमित एवं मुक्त मानते है I अतः भाव का साधारणीकरण ही पूर्ण चित्त को एकरस करने वाला है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> उक्त सभी आचार्यो के विचार को समष्टिगत रूप से देखे तो भट्टनायक विशेष (पात्र) के साधारणीकरण की बात कहते है I अभिनवगुप्त आश्रय के ह्रदय में उठने वाले स्थाई भाव के साधारणीकरण के पक्षधर है I</p>
<p style="text-align: left;">आचार्य मम्मट ममत्व और परत्व के संबंधो के साधारणीकरण के हिमायती है I इस क्रम में आचार्य विश्वनाथ विभाव के साधारणीकरण की वकालत करते है I अंत में आचार्य केशव विभाव को सीमित व् बद्ध मानकर भाव के साधारणीकरण का समर्थन करते है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> आचार्यो के उपरांत हिन्दी के अन्य मूर्धन्य विद्वानो के विचारो पर भी ध्यान देना समीचीन है I डा0 श्यामसुन्दरदास के अनुसार साधारणी-करण न तो आलंबन का होता है और न आश्रय का अपितु यह कवि की अनुभूति का होता है I अर्थात साधारणीकरण में तीन तत्व सम्मिलित है – कवि, प्रमाता और कवि की भावभिव्यक्ति I यह कथन आचार्य लोल्लट द्वारा समर्थित है i डा0 नगेन्द्र भी लगभग यही बात कहते है I उनके अनुसार काव्य के पाठन द्वारा पाठक या श्रोता का भाव सामान्य भूमि पर पहुँच जाना, साधारणीकरण है I हिंदी–शब्द–सागर के अनुसार रस-निष्पत्ति की वह स्थिति जिसमें दर्शक या पाठक कोई अभिनय देखकर या काव्य पढ़कर उससे तादात्मय स्थापित करता हुआ उसका पूरा-पूरा रसास्वादन करता है, साधारणीकरण कहलाता है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> उपर्युक्त सभी मंतव्यो पर विचार कर साधारणीकरण का जो सर्वमान्य रूप उभरता है वह यह है कि साधारणीकरण सदैव कवि की अनुभूति का होता है, वह रचना में अपने भाव इस प्रकार रखता है कि</p>
<p style="text-align: left;">सभी के ह्रदय में समान अनुभूति जगती है I काव्य में वर्णित विशेष पात्र विभिन्न मनोभावों से गुजरते है I पाठक या प्रमाता को काव्यानंद या रसानुभूति तब होती है जब वह विशिष्ट पात्रो के भावो को आत्मसात करता है या उससे तादात्म्य स्थापित करता है I पात्र के रूप में किसी काव्य के अंतर्गत राम के ह्रदय में क्या चल रहा है, लक्ष्मण क्या सोच रहे है , इसका ज्ञान हमें कवि करता है I दर्शक या पाठक का सम्बंध पात्र से नहीं होता क्योंकि पात्र तो विशिष्ट होते है , प्रमाता की आत्मा तो केवल उन भावो, अनुभावों एवं संचारी भावो को ग्रहण करती है जो पात्रो के ह्रदय में कथा प्रसंगवश स्फुरित होते रहते है I इस प्रकार प्रेक्षक या पाठक की भाव भूमि भी वही हो जाती है जो काव्य या नाटक में विशिष्ट पात्रो की होती है I विशिष्ट से सामान्य जन का यह तादात्म्य उतना ही प्रगाढ़ होगा जितनी भावपूर्ण कवि की रचना होगी, यही तादात्म्य कवि की अनुभूति का साधारणीकरण है I साधारणीकरण को और सहजता से समझने के लिए एक काव्य-प्रसंग पर चर्चा की जानी प्रासंगिक जान पड़ती है I मानस का चित्रण इस प्रकार है –</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> <strong>कंकण किंकिणि नूपुर धुनि सुनि I कहत लखन सन राम ह्रदय गुनि I</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> मानहु मदन दुन्दुभी दीन्ही I मनसा विश्व विजय कंह कीन्ही I</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा I सिय मुख शशि भये नयन चकोरा I</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> भये विलोचन चारू अचंचल I मनहु सकुचि निमि तजेउ दृगंचल I</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> देखि सीय शोभा सुख पावा I ह्रदय सराहत वचन न आवा I</strong></p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> उक्त काव्य पंक्ति में अदृश्य रूप से विद्यमान स्वयं कवि तुलसी है I नायक-नायिका राम और सीता है I प्रमाता के रूप में पाठक, श्रोता या दर्शक है I रस-व्यंजना की भाषा में सीता आलंबन है I राम आश्रय है I जनक-वाटिका का वासंतिक वैभव उद्दीपन है ,जिसको बढाने वाला विभाव सीता के कंकण, किंकिणि व नुपुर है जिनसे मदन का वीर-घोष सुनायी देता प्रतीत होता है I इसे सुन कर राम का पुलकायमान होना और लक्ष्मण से चर्चा करना अनुभाव है I यहाँ सीता के बारे में सोचना, फिरकर उस ओर देखना, नैनों का चकोर होना, अचंचल होना, सीता को देखकर सुख पाना और ह्रदय में सराहना करना ये सब संचारी भाव है I कुछ संचारी छिपे रूप में है जैसे - मोह, आसक्ति, श्रम, गति, उत्सुकता, हर्ष ,तर्क ,ब्रीड़ा आदि I इन सब के साथ स्थायी-भाव ‘रति‘ तो है ही I इन सभी से श्रृंगार रस की निष्पत्ति हो रही है और सभी विवरण कवि-कर्म के प्रतिफल है अतः सभी का साधारणीकरण होना अपेक्षित है I यहाँ आश्रय राम है और आश्रय के साधारणीकरण का तात्पर्य है राम का राम न रह जाना I इस प्रसंग में वे एक ऐसे सामान्य मानव के रूप में चित्रित किये गए है जो एक सुन्दरी के रूप-राशि पर हठात मुग्ध हो गया है और उसके ह्रदय में वही सब क्रियाये हो रही है जो एक सामान्य मानव में होती है I यहाँ आलंबन का साधारणीकरण भी है क्योकि सीता भी इस स्थल पर जगज्जननी न होकर एक सामान्य रति-पीड़िता नारी के रूप में चित्रित है I अनुभवों के साधारणीकरण का तात्पर्य है कि राम और सीता की चेष्टाये उनके विराट व्यक्तित्व से सम्बंधित न होकर सामान्य परस्पर लुब्ध मानवीय चेष्टाये हो गयी है I जहाँ तक स्थायी-भाव रति की बात है तो वह राम और सीता की स्वकीय भावना होकर भी केवल उन तक सीमित नहीं रही है इसकी भरपूर व्याप्ति प्रमाता पर है, अतः वह भी साधारणीकृत है I</p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> साधारणीकरण की व्याख्याओ में उलझ कर हम प्रायशः यह भूल जाते है कि कवि की अनुभूति के साधारणीकरण के साथ ही प्रमाता की चेतना का भी साधारणीकरण होता है I भट्टनायक ने जिस भावकत्व क्रिया की परिकल्पना की थी वह वस्तुतः प्रमाता की चेतना के धरातल पर दृश्यमान विभाव, अनुभाव, संचारी भाव व स्थायी-भाव के साधारणीकरण के साथ ही प्रमाता की व्यैक्तिक चेतना का वैशिष्ट्य समाप्त कर उसे भी साधारणीकृत कर देती है I इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति कुछ समय के लिए अपने व्यक्तिगत सुख-दुःख भूलकर काव्य के दृश्य या श्रव्य विभावादि को अपनी आत्मा के धरातल पर स्वीकार कर लेता है I इसे आत्मीकरण कहते है I भट्टनायक ने <strong>‘भावकत्वम् साधारणीकरणम’ </strong> के बाद भोजकत्व तत्व की परिकल्पना इसीलिये की थी कि रसोद्रेग केवल साधारणीकरण से नही होगा बल्कि साधारणीकरण से प्रोद्भूत आत्मीकरण के बाद होगा I इसीलिये आचार्य भट्टनायक कहते है - </p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> <strong>‘भोजकत्वम् आत्मीकरणम् रस ग्रहणं आत्मना’</strong></p>
<p style="text-align: left;"><strong> </strong></p>
<p style="text-align: left;"> </p>
<p style="text-align: left;"> ई एस -1/436, सीतापुर रोड योजना</p>
<p style="text-align: left;"> सेक्टर-ए, अलीगंज, लखनऊ I</p>
<p style="text-align: left;"> मो0 9795518586</p>
<p style="text-align: left;"> (मौलिक व अप्रकाशित )</p>
<p style="text-align: left;"> </p> भुजंगप्रयात छन्द // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2014-09-02:5170231:Topic:5726182014-09-02T18:04:50.524ZSushil Sarnahttps://openbooks.ning.com/profile/SushilSarna
<p><span style="color: #000080;">मात्रिक छन्दों में <strong>भुजंगप्रयात छन्द</strong> का प्रमुख स्थान रहा है. यह एक अत्यंत प्रसिद्ध छन्द है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>यगण (यमाता, ।ऽऽ, १२२, लघु गुरु गुरु) की चार आवृतियों से बना</strong> <strong>वृत</strong> भुजंग यानि के सर्प की गति का सा आभास देता है. यही इस छन्द के</span> <span style="color: #000080;">नामकरण का कारण हुआ <span style="color: #000080;">है. …</span></span> <br></br> <br></br></p>
<p><span style="color: #000080;">मात्रिक छन्दों में <strong>भुजंगप्रयात छन्द</strong> का प्रमुख स्थान रहा है. यह एक अत्यंत प्रसिद्ध छन्द है.</span></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>यगण (यमाता, ।ऽऽ, १२२, लघु गुरु गुरु) की चार आवृतियों से बना</strong> <strong>वृत</strong> भुजंग यानि के सर्प की गति का सा आभास देता है. यही इस छन्द के</span> <span style="color: #000080;">नामकरण का कारण हुआ <span style="color: #000080;">है. </span></span> <br/> <br/> <strong><span style="color: #000080;">सूत्र - </span></strong><span style="color: #000080;">यमाता यमाता यमाता यमाता </span><br/> <span style="color: #000080;">या, ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ </span> <br/> <span style="color: #000080;">या, लघुगुरुगुरु लघुगुरुगुरु लघुगुरुगुरु लघुगुरुगुरु</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">इस छन्द से मिलते-जुलते अन्य स्वरूप भी हैं. जैसे, यगण की आवृति आठ बार हो तो यह वृत <strong>सवैया वृत</strong> है जिसका नाम <strong>महाभुजंगप्रयात सवैया</strong> है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">यगण की आठ आवृतियों में आठवीं आवृति का अंतिम गुरु निकल जाय तो वह वृत <strong>वागीश्वरी सवैया</strong> हुआ करता है.</span> <br/> <span style="color: #000080;">उपरोक्त दोनों सवैये, अर्थात महाभुजंगप्रयात तथा वागीश्वरी, यगणाश्रित सवैये हैं. इनके बारे में सवैया के पाठ में विशद ढंग से कहा गया है.</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>ज्ञातव्य:</strong> सवैया वृत या दण्डक होने के कारण वर्णिक छंद हुआ करते हैं. </span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">हम इस पाठ में <strong>भुजंगप्रयात छन्द</strong> पर ध्यान केन्द्रित रखेंगे.</span> <br/> <span style="color: #000080;">इस छन्द का एक उदाहरण -</span><br/> <br/> <span style="color: #000080;">मिला रक्त मिट्टी.. भिगोयी-सँवारी</span> <br/> <span style="color: #000080;">यही साधना, मैं इसी का पुजारी</span><br/> <span style="color: #000080;">यही छाँव मेरी, यही धूप माना</span><br/> <span style="color: #000080;">यही कर्म मेरे, यही धर्म जाना</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">यहाँ भूख से कौन जीता कभी है</span> <br/> <span style="color: #000080;">बिके जो बनाया, घरौंदा तभी है</span> <br/> <span style="color: #000080;">तभी तो उजाला, तभी है सवेरा</span> <br/> <span style="color: #000080;">तभी बाल-बच्चे, तभी हाट-डेरा</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">कलाकार क्या हूँ.. पिता हूँ, अड़ा हूँ</span><br/> <span style="color: #000080;">घुमाता हुआ चाक देखो भिड़ा हूँ</span> <br/> <span style="color: #000080;">कहाँ की कला ये जिसे खूब बोलूँ</span> <br/> <span style="color: #000080;">तुला में फतांसी नहीं, पेट तौलूँ</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">न आँसूँ, न आहें, न कोई गिला है</span><br/> <span style="color: #000080;">वही जी रहा हूँ, मुझे जो मिला है</span><br/> <span style="color: #000080;">कुआँ खोद मैं रोज पानी निकालूँ </span><br/> <span style="color: #000080;">जला आग चूल्हे, दिलासे उबालूँ</span> <br/> <br/> <span style="color: #000080;">घुमाऊँ, बनाऊँ, सुखाऊँ, सजाऊँ</span> <br/> <span style="color: #000080;">यही चार हैं कर्म मेरे निभाऊँ</span> <br/> <span style="color: #000080;">न होठों हँसी, तो दुखी भी नहीं हूँ</span> <br/> <span style="color: #000080;">जिसे रोज जीना.. कहानी वही हूँ .. . (इकड़ियाँ जेबी से)</span><br/></p>
<p><span style="color: #000080;">************************************************</span></p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;"><strong>ध्यातव्य</strong> : उपलब्ध जानकरियों के आधार पर</span></p>
<p></p>