"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-7 में स्वीकृत रचनाएँ - Open Books Online2024-03-29T11:36:25Zhttps://openbooks.ning.com/forum/topics/8?commentId=5170231%3AComment%3A713209&feed=yes&xn_auth=noआदरणीय योगराज प्रभाकर सर मैंन…tag:openbooks.ning.com,2015-11-08:5170231:Comment:7137462015-11-08T10:41:42.984ZVIRENDER VEER MEHTAhttps://openbooks.ning.com/profile/VIRENDERMEHTAVEERMEHTA
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर मैंने अपनी रचना का अंत कुछ परिवर्तित करके दुबारा रचा था। यदि ये संभव हो तो मैं इसे दूसरे रूप को संकलन में स्थान देना चाहता हूँ<br />
सादर आभार।<br />
रचना इस प्रकार है।<br />
<br />
"सियासत"<br />
"माना कि बीती रात सरहद पार से हुयी सैनिक कार्रवाई से काफी तनाव पैदा हो गया पर एक बार फिर सोच लीजिये जनाब कि क्या इस शान्ति वार्ता को रद्द करना मुनासिब रहेगा?" हाजी साहब ने वज़ीर-ए-आजम के सचिव असलम खान पर नज़रे टिकाते हुए कहा।<br />
"हाजी साहब! ये मसला आप हम पर छोड़िये, ये सियासत की बिसात है आप नहीं समझेंगे इसे।"…
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर मैंने अपनी रचना का अंत कुछ परिवर्तित करके दुबारा रचा था। यदि ये संभव हो तो मैं इसे दूसरे रूप को संकलन में स्थान देना चाहता हूँ<br />
सादर आभार।<br />
रचना इस प्रकार है।<br />
<br />
"सियासत"<br />
"माना कि बीती रात सरहद पार से हुयी सैनिक कार्रवाई से काफी तनाव पैदा हो गया पर एक बार फिर सोच लीजिये जनाब कि क्या इस शान्ति वार्ता को रद्द करना मुनासिब रहेगा?" हाजी साहब ने वज़ीर-ए-आजम के सचिव असलम खान पर नज़रे टिकाते हुए कहा।<br />
"हाजी साहब! ये मसला आप हम पर छोड़िये, ये सियासत की बिसात है आप नहीं समझेंगे इसे।" असलम साहब एक जहरीली नज़र उन पर डालते हुए फ़ोन पर कोई नम्बर मिलाते लगे। हाजी साहब वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए चुप ही रहे लेकिन उन्होंने अपना पूरा ध्यान उनपर पर लगा दिया।.....<br />
फ़ोन मिल चुका था। "जनरल साहब आप का सेना के साथ मुल्क के हुक्मरान बनने का ख़्वाब अब पूरा होने वाला है। बस यूँ समझिये रात शहीद हुए 'पयादो' की शाहदत और 'बातचीत' के फेल होने का सारा नज़ला वजीरे-ए-आजम पर ही गिरेगा।"<br />
"हा..हा..हा.. अरे भई हमारे पडोसी कमांडर साहब का भी तो शुक्रिया अदा कर देना जिन्होंने हमारी बात मान बीती रात जबरदस्त हमला किया और वज़ीरे-ए-आजम की सल्तनत के कई सिपाही मार गिराये।" जनरल साहब की ख़ुशी फ़ोन पर बखूबी नज़र आ रही थी।<br />
"अरे उनका 'शुक्रिया' तो हम उनके खाते में जमा कर ही देंगे। बस अब तो आप यहां आ जाइये, प्रेस कॉन्फ्रेंस का वक़्त हो गया है।" कहते हुए असलम साहब ने बात ख़त्म की। हाजी साहब को अपनी और देखते पाकर वो मुस्कराये। "अरे भई हाजी साहब, प्रेस वालो का क्या वक़्त दिया है आपने, आये नहीं अभी!"<br />
"गुस्ताखी माफ़ असलम साहब।" इस बार हाजी साहब के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान थी। "प्रेस कांफ्रेंस तो हो चुकी है और अभी अभी उसे मुल्क समेत पूरी दुनिया ने 'लाइव' देख-सुन भी लिया है।"<br />
असलम खान कुछ कहने ही वाले थे कि हाजी साहब की जैकेट में छुपा कैमरा देख वो सारा माज़रा समझ गए। हाजी साहब उन पर नज़रे गड़ाये मुस्करा रहे थे मानो कह रहे हो। "जनाब असलम साहब! मैंने शतरंज तो नहीं खेली पर इतना जरूर जानता हूँ कि एक 'पियादे' से भी शह को मात में बदला जा सकता है।<br />
(मौलिक व् अप्रकाशित) सम्मान्य मंच व सम्मान्य लघु-क…tag:openbooks.ning.com,2015-11-07:5170231:Comment:7137372015-11-07T19:07:32.269ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
सम्मान्य मंच व सम्मान्य लघु-कथा गोष्ठी-7- संचालक महोदय, हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद मेरी संशोधित लघु कथा - "मोर्चों पर बिटिया" को स्वीकार कर उत्कृष्ट संकलन में प्रतिस्थापित करने के लिए व मुझे प्रोत्साहित करने के लिए।
सम्मान्य मंच व सम्मान्य लघु-कथा गोष्ठी-7- संचालक महोदय, हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद मेरी संशोधित लघु कथा - "मोर्चों पर बिटिया" को स्वीकार कर उत्कृष्ट संकलन में प्रतिस्थापित करने के लिए व मुझे प्रोत्साहित करने के लिए। बहुत सुन्दर ....बधाई ४० जनों…tag:openbooks.ning.com,2015-11-07:5170231:Comment:7137052015-11-07T18:41:22.074Zsavitamishrahttps://openbooks.ning.com/profile/savitamisra
<p>बहुत सुन्दर ....बधाई ४० जनों को ..इकठ्ठा एक जगह पर लिखने के लिय <br/>हम तो खोजते रह गये थे मिला ही न ..आज अपने ब्लाग में खोजने के लिय देखे तो ये संग्रह दिखा ..सब को हार्दिक बधाई ...प्रभाकर भैया सादर नमस्ते</p>
<p>बहुत सुन्दर ....बधाई ४० जनों को ..इकठ्ठा एक जगह पर लिखने के लिय <br/>हम तो खोजते रह गये थे मिला ही न ..आज अपने ब्लाग में खोजने के लिय देखे तो ये संग्रह दिखा ..सब को हार्दिक बधाई ...प्रभाकर भैया सादर नमस्ते</p> आदरणीय योगराज जी ,गोष्ठी के…tag:openbooks.ning.com,2015-11-07:5170231:Comment:7135842015-11-07T10:04:52.667ZOmprakash Kshatriyahttps://openbooks.ning.com/profile/OmprakashKshatriya
<p><span>आदरणीय योगराज जी ,गोष्ठी के सफलता पूर्वक आयोजन एवम् संकलन प्रकाशन पर हार्दिक बधाई.</span></p>
<p><span>आदरणीय योगराज जी ,गोष्ठी के सफलता पूर्वक आयोजन एवम् संकलन प्रकाशन पर हार्दिक बधाई.</span></p> सम्मान्य मंच, आदरणीय लघु-कथा…tag:openbooks.ning.com,2015-11-07:5170231:Comment:7137122015-11-07T06:53:17.932ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
सम्मान्य मंच, आदरणीय लघु-कथा गोष्ठी-7 संचालक महोदय, मैं एतद द्वारा अपनी संशोधित लघु कथा को दो भिन्न-भिन्न रूपों में पुनः अवलोकनार्थ प्रेषित कर रहा हूँ। इनमें से जो अधिक उपयुक्त हो , उसे कृपया उक्त संकलन में प्रतिस्थापित कर अनुग्रहीत करें।<br />
यदि ये दोनों ही रूप अमान्य हों, तो मैं एक और प्रयास करना चाहूँगा, आशा है मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा। संशोधन प्रेषित करने में हुए विलम्ब के लिए सखेद,<br />
<br />
आपका अनुज,<br />
__शेख़ शहज़ाद उस्मानी<br />
शिवपुरी म.प्र.<br />
***************<br />
संलग्न- लघु कथा के दो संशोधित रूप…
सम्मान्य मंच, आदरणीय लघु-कथा गोष्ठी-7 संचालक महोदय, मैं एतद द्वारा अपनी संशोधित लघु कथा को दो भिन्न-भिन्न रूपों में पुनः अवलोकनार्थ प्रेषित कर रहा हूँ। इनमें से जो अधिक उपयुक्त हो , उसे कृपया उक्त संकलन में प्रतिस्थापित कर अनुग्रहीत करें।<br />
यदि ये दोनों ही रूप अमान्य हों, तो मैं एक और प्रयास करना चाहूँगा, आशा है मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा। संशोधन प्रेषित करने में हुए विलम्ब के लिए सखेद,<br />
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आपका अनुज,<br />
__शेख़ शहज़ाद उस्मानी<br />
शिवपुरी म.प्र.<br />
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संलग्न- लघु कथा के दो संशोधित रूप क्रमशः<br />
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[1]<br />
<br />
"मोर्चों पर बिटिया " - [लघुकथा]<br />
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"सब मुझसे कहते हैं कि जैसी माँ, वैसी बिटिया !" - ससुराल से लौटी विभा ने रोते हुए अपनी माँ को बताया।<br />
<br />
"ईश्वर ने तेरा रंग रूप मेरे जैसा कुरूप बनाया है, तो इसमें हमारा क्या कसूर।" - विनीता ने बिटिया को सीने से लगाते हुए समझाया - "देखो बेटा, सीरत और कर्म अच्छे होने चाहिए। लड़की जात को कई मोर्चों पर अकेले लड़ना पड़ता है मेरी तरह !"<br />
<br />
"वो कैसे, मम्मी ?"<br />
<br />
"मेरे साथ जो हुआ, बताती हूँ। पहला मोर्चा मेरा मायका था। ईश्वर ने मुझे प्रतिभायें दी थीं, पर ख़ूबसूरती और अच्छे पति मेरी दोनों बहनों को। उन्हें मुझसे ज़्यादा स्नेह मिला ! हीन भावना से ख़ुद को बचा कर पढाई- लिखाई का मोर्चा संभालकर मैंने मेहनत से डिग्रियां और सरकारी नौकरी हासिल की । विवाह के मोर्चे पर जो रिश्ते मुझे पसंद आते थे, उन पर मेरी बहनों और बुआ की बेटी ने बाज़ी मारी। लेकिन मैंने हार नहीं मानी।" -इतना कहकर विनीता चुप हो गई।<br />
<br />
"तो क्या मम्मी, आपका विवाह तुम्हारी मर्ज़ी के ख़िलाफ कराया गया था ?"<br />
<br />
"क्या करती, पिताजी बहुत तनाव ग्रस्त थे, उनकी बिगड़ती हालत और छोटे बहन के विवाह का रास्ता साफ करने के लिए भाइयों के दवाब में मैंने समझौता किया।" - आँखों के आँसुओं को साफ करते हुए विनीता ने कहा - " देखो विभा, ससुराल के मोर्चे पर तुम मेरी तरह ग़लतियाँ मत करना। मैं कई चालें चलकर ससुर जी की संपत्ति का बँटवारा करा कर सास-ससुर को छोड़ अपना यह मकान बनाकर अलग हो गई थी। नतीज़तन मैं प्यार, स्नेह और रिश्तों की मिठास से फिर वंचित रह गई ! "<br />
<br />
"तो मम्मी, मुझे करना क्या चाहिए ?"<br />
<br />
विनीता ने विभा के सिर पर हाथ फेर कर कहा-<br />
" बेटा, सास-ससुर ही अब तुम्हारे माँ-बाप हैं और पति ही परमेश्वर ! धन-दौलत, ऐश्वर्य की ख़ातिर उनसे दूरी कभी मत बढ़ाना। आपसी समझ, स्नेह और प्रेम है, तो सब कुछ है !"<br />
<br />
[मौलिक व अप्रकाशित]<br />
<br />
<br />
***********<br />
अथवा<br />
***********<br />
[2]<br />
<br />
"मोर्चों पर बिटिया" - {लघुकथा}<br />
<br />
संयुक्त परिवार वाले मायके के मोर्चे पर और पढ़ाई-लिखाई के मोर्चे पर अपनी लड़ाई अकेले लड़ने और जीतने के बाद बदसूरत और बेढब काया वाली प्रतिभावान विनीता का बेमन का विवाह आख़िर सफलता पूर्वक करा ही दिया गया । नाइंसाफी और सुंदर बहनों के कारण भेदभाव की पीड़ा भोगने के बाद ससुराल भी उसके लिए शतरंज की एक बिसात की तरह था। ज़ल्दी ही वह समझ गयी कि उसे नहीं, बल्कि उसकी सरकारी नौकरी को और उसकी कमाई को पसंद किया गया था। खूबसूरत मोडर्न जिठानियों के बीच उसकी आये दिन फजीहत होने लगी । कभी ईर्ष्या, कभी रसोई, कभी पसंद-नापसंद, तो कभी उसकी नौकरी और रहन-सहन को लेकर यहाँ भी प्रतिस्पर्धा थी। जिठानियों ने संयुक्त परिवार से अलग होने के लिए वातावरण बनाना शुरू कर दिया। 'फूट डालो, राज करो' नीति पर चलकर अपने भाइयों की मदद से साम-दाम-दण्ड-भेद सब तरह की नीतियाँ अपनाकर न सिर्फ ससुरजी से सम्पत्ति का बँटवारा करा लिया, बल्कि दो-तीन सालों में ही सास-ससुर और उस संयुक्त परिवार से पिंड छुड़ाकर वे दोनों परिवार संग अलग-अलग रहने लगीं । आज उनके अपने-अपने शानदार मकान हैं, सब सुविधायें हैं, सन्तान हैं, और मुट्ठी में हैं उनके पति देव ।" लेकिन असली जीत तो विनीता की थी। वह इस मोर्चे पर भी अपने चरित्र और व्यक्तित्व से ससुराल वालों का सच्चा प्यार और रिश्तों की वो मिठास हासिल कर पायी थी । पिता को क्यों न अपनी इस बिटिया पर अभिमान हो !<br />
<br />
(मौलिक व अप्रकाशित) पुनः अवसर देने के लिए हृदयतल…tag:openbooks.ning.com,2015-11-05:5170231:Comment:7129722015-11-05T06:27:15.844ZSheikh Shahzad Usmanihttps://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
पुनः अवसर देने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गुरुजी।यथा शीघ्र प्रेषित करूँगा।
पुनः अवसर देने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गुरुजी।यथा शीघ्र प्रेषित करूँगा। हार्दिक आभार भाई आबिद अली मंस…tag:openbooks.ning.com,2015-11-05:5170231:Comment:7129702015-11-05T05:52:58.426Zयोगराज प्रभाकरhttps://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p>हार्दिक आभार भाई आबिद अली मंसूरी जी I</p>
<p>हार्दिक आभार भाई आबिद अली मंसूरी जी I</p> दिल से शुक्रिया भाई शेख़ शहज़ाद…tag:openbooks.ning.com,2015-11-05:5170231:Comment:7132362015-11-05T05:52:27.969Zयोगराज प्रभाकरhttps://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p>दिल से शुक्रिया भाई शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी I आप अपनी संशोधित लघुकथा को संकलन में शामिल करने हेतु दोबारा निवेदन कर सकते हैं I </p>
<p>दिल से शुक्रिया भाई शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी I आप अपनी संशोधित लघुकथा को संकलन में शामिल करने हेतु दोबारा निवेदन कर सकते हैं I </p> दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ…tag:openbooks.ning.com,2015-11-05:5170231:Comment:7129692015-11-05T05:50:33.416Zयोगराज प्रभाकरhttps://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p>दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० राजेश कुमारी जी I</p>
<p>दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० राजेश कुमारी जी I</p> रवि भाई तो अचानक और बिना बताय…tag:openbooks.ning.com,2015-11-05:5170231:Comment:7132342015-11-05T05:49:51.306Zयोगराज प्रभाकरhttps://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p>रवि भाई तो अचानक और बिना बताये ही फीता काट गए, अलबत्ता इस दफा मुझे अपनी रचना अंत में ही पोस्ट करनी थी I बहरहाल रचना और संकलन की पसंदीदगी हेतु हार्दिक आभार I</p>
<p>रवि भाई तो अचानक और बिना बताये ही फीता काट गए, अलबत्ता इस दफा मुझे अपनी रचना अंत में ही पोस्ट करनी थी I बहरहाल रचना और संकलन की पसंदीदगी हेतु हार्दिक आभार I</p>