(1). बबीता गुप्ता जी
करत-करत अभ्यास के........
राजू का विद्यालय के वार्षिक कार्यक्रम में सम्मान,उसके गणित विषय के साथ इंटर परीक्षा में पूरे राज्य में अव्वल स्थान प्राप्त किया था,विशेष अतिथि राज्यपाल द्वारा किया गया.तालियों की गड़गड़ाहट के साथ.प्रिंसीपल महोदय इस उपलब्धि के लिए उसकी मेहनत और लग्न को दे रहे थे,जबकि राजू अपनी कामयाबी के लिए अपनी दादी को मान रहा था.
उसे उस दिन की बात स्मरण हो आई,जब वो गणित के जोमेट्री के सवाल स्कूल में,ट्यूशन पर बार समझने पर भी अपने आप से ठीक से नहीं कर पा रहा था.उसकी परेशानी का कारण राजू से, दादा जी ने पूछा तो उसके बताने पर दादा जी ने उससे कहा, ‘तुम्हारी दादी काला अक्षर,भैंस बराबर,पर देखो घड़ी देखना सीख गई.’
‘कुछ समझा नहीं ,दादाजी.’
‘याद करो जब दादी तुम सबसे टाईम पूछती,तो तू लोग कभी बता देते,कभी झुँझला जाते,लेकिन फिर भी वो सीख गई.’
राजू याद करने लगा.दादी को टाईम बताते तो,वो ख़ुद आकर घड़ी की सुईयों को याद कर लेती,एक तरह से दिमाग़ में बैठा लेती,कि कितने बजे,कौन सा काँटा कहाँ पर हैं,जब कभी हम लोग टाईम ग़लत बताते ,तो तुरंत पकड़ लेती.दादा जी ने सही समझाया कि अपनी दादी से सीखों,प्रेरणा लो.सीखने के पीछे का कारण-उनकी तीव्र इच्छा,वो भी दिल से,ना कि बोझ समझकर.सही कहा-
‘करत-करत अभ्यास के,जड़मति होत सुजान.’
-----
(2). आसिफ जैदी जी
.
शीतल के घर में घुसते ही चार वर्षीय भतीजी मुनिया उससे आकर लिपट गई. शीतल ने स्कूल बैग उतारकर सोफ़े पर रखा और मुनिया से बातें करने लगी। माँ अपने कमरे से निकल आईं,
"छोड़ इसे मुँह हाथ धो और खाना खा लेI" फिर, "अरे तुलसी कहाँ मर गई?"
"जी मांजी!" सामने डरी सहमी सी बहू खड़ी थी।
"कहाँ मर गई थी? पता नहीं जूते खा कर भी तेरे हाथ क्यों नहीं चलतेI चल जा शीतल को खाना लगा, जल्दी।"
शीतल अपनी भाभी को हमेशा की तरह डरा सहमा बदहवास सा देख रही थी, माँ के जाते ही मुनिया ने धीरे-से बताया,
"दादी ने माँ के ऊपर गरम चाय डाल दी थी।"
"क्यों"?
"दादी बोल रही थी चाय फीकी है।"
शीतल को बुरा लगता था कि माँ भाभी पर बहुत अत्याचार करती हैं,बाबूजी और भैया भी माँ से डरते हैं,देखते रहते हैं कुछ नहीं कहते, भाभी की सहन-शक्ति पर शीतल को ताज्जुब होता है कि वो क्यों सहती रहती हैं।
रात के खाने के समय माँ ने ख़ुशी-ख़ुशी भैया और बाबूजी को बताया,
'सरपंच भैरों सिंह जी के यहाँ से शीतल के लिए रिश्ता आया हैI"
लेकिन शीतल को मानो करंट लगा हो, उसने हिम्मत जुटाकर कहा,
"मैं शादी नहीं करूँगी।"
सब अवाक् रह गए.
"क्या बक रही है?" माँ ने कहा.
"नहीं करूँगी शादी, कभी-भी किसी से भी।"
"क्यों?" माँ ने आँखें दिखाते हुए पूछा.
"मुझे अपना जीवन नरक नहीं बनाना।"
"क्या मतलब?"
"मतलब आपकी समझ में नहीं आया? जो हालत भाभी की यहाँ है, अगर यही सब मुझे वहाँ भुगतना है तो मैं यहीं ठीक हूँ"। शीतल की आँखों से खौफ़ और क्रोध से लबरेज़ आँसुओं की धारा बहने लगी, अपनी भाभी की तरफ़ देखकर बोली,
"क्योंकि जो आप दूसरे की बेटी को दे रहे हैं वही तो आपकी बेटी को भी मिलेगा न?"
------------
(3). शेख़ शहजाद उस्मानी जी
प्रतिध्वनि
.
"आपके पास हमारा मोबाइल नंबर नहीं है क्या? बालकनी से हमारा नाम पुकार के मत बुलाया करो साहब! मेमसाब को अच्छा नहीं लगता!"
"तुम इतने दिनों से नहीं आ रहीं थीं। देखो, पूरा घर कैसा गंदा पड़ा है!"
"मेमसाब ने मना किया था। कह गईं थीं कि दस दिन बाद मायके से लौटूँगी, तभी आना!" फ़ुर्ती से कमरों में झाड़ू-पोंछा करती हुई मीरा ने अपना पल्लू समेट कर कमर ढांकते हुए कहा।
"सुना है तुम चाय बढ़िया बना लेती हो!" साहब के मुँह से यह सुनकर जवाब दिये बग़ैर मीरा ने चाय बनाई और साहब को बिस्किट्स के साथ परोस कर जाने लगी।
तभी खट्ट की आवाज़ के साथ ट्रे ज़मीन पर गिर जाने पर पूरी चाय फ़र्श पर फैल गई। मीरा समझ गई कि ऐसा जानबूझकर किया गया है।
"सफ़ाई बाद में करना! पहले यह बताओ, जब तुम इतनी पढ़ी-लिखी हो कि किसी स्कूल या दफ़्तर में काम कर सकती हो, तो यूँ घरों में काम क्यों करती हो? मेरे दफ़्तर में करना चाहोगी?"
"किसने कहा कि मैं पढ़ी-लिखा है! पांचवीं पास हूँ, बस! ...और हमारे हसबैंड घरों में ही काम कराना पसंद करते हैं! दफ़्तर वालों पे उन्हें भरोसा नहीं!"
"तो तुम इतनी अच्छी भाषा कैसे बोल लेती हो? पढ़े-लिखों की तरह सलीके से रह लेती हो और काम भी वैसा ही कर लेती हो!"
"साहब, अच्छी बातें सीखने के लिए स्कूल जाना ज़रूरी नहीं! अच्छे घरों में काम करके सब कुछ सीख लिया हमनें! पड़ोस वाले हमें बहन जैसा मानते हैं। उनके यहाँ बच्चे नहीं पैदा हुए, तो क्या! बहुत सुखी हैं दोनों! हम अपने बच्चे भी उन्हीं के यहाँ अक्सर छोड़ आते हैं!" लगातार बोलते हुए मीरा बोली, "सारे सलीके उन दोनों मियाँ-बीवी से सीखे हैं हमनें, साहब!"
" ... और हमारे यहाँ से?"
"कुछ-न-कुछ अच्छाई तो हर घर में मिलती है न! साहब, बुरा मत मानना! आपके पास सब कुछ है, लेकिन वैसा सुख नहीं! ...आप भी पड़ोस वाले साहब जैसे बन जाओ! वाइफ़ के साथ घर के काम भी करवाया करो, उन्हें समय दिया करो!" फ़र्श फ़ुर्ती से साफ़ करते हुए मीरा ने कहा, "हम ग़रीब भले हैं, लेकिन सुखी हैं! हमारा आदमी हमारा बहुत ख़्याल रखता है, साहब!"
फिर वह चली गई। साहब बालकनी से उसे देखते रहे। उसके शब्द उनके कानों में गूँज रहे थे।
------------
(4). मनन कुमार सिंह
पसंद
.
' दोनों से', नवयुवक ने कहा और लड़कियाँ चौंक गईं।पश्चिमी लिबास में सजी मॉल जाती हुई प्रगल्भा ने सोचा था कि आधुनिक युग का नौजवान भला मेरे बारे में कैसे सहमति नहीं देगा? देशी वेशभूषा में पूजा की थाल लिए मंदिर जाती बाला ने सोचा था कि फ़ैशन की चकाचौंध में भला विदेश से पढ़कर आया युवक उसे क्यों पसंद करेगा?
युवक-युवतियों के मंडल द्वारा पूछे जाने पर लड़के ने अपनी शादी के बारे में बात स्पष्ट की कि पत्नी ऐसी चाहिए जो बाहर-बाहर-बाहर के माहौल के अनुरूप हो, पर अंदर से वह हमारी परम्पराओं के अनुसार आचरण को प्रोत्साहित करे।
प्रगल्भा और पूजा की थालीवाली बाला एक-दूसरे को देख रही थीं।मित्र-मंडली चकित थी।
' हम भी इसमें हामी भरते हैं', लड़कों के दल से आवाज़ आई।
'हम भी', लड़कियाँ कह रही थीं।
-----------
(5). कनक हरलालका जी
अनुकरण
.
आज पन्द्रह अगस्त की छुट्टी के कारण सिलाई कारख़ाने की भी छुट्टी थी । उसके घर टीवी नहीं थी ,इसीलिए वह सुबह ही काम सलटा कर कमला के घर टीवी देखने चली गई थी । अजीब सा जोश महसूस करती थी वह देश के नाम पर । सैनिक पिता की पुत्री जो थी । देशभक्ति के उत्प्रेरक प्रोग्राम दिखलाए जा रहे थे । एक चैनल पर शहीद जवानों के घर वालों , बहनों ,मांओं का साक्षात्कार चल रहा था:- " मुझे गर्व है मेरे पति देश की सीमा पर देश के लिए शहीद हुए । " " मैंने अपने बेटे को हमेशा यही शिक्षा दी है बेटा तुम भी अपने बहादुर पिता जैसे बनना । " " अरे , तुम तो रोने लगी सरिता। सच में दिल के आँसू निकाल देते हैं ऐसे वाक़ये ।" "हाँ बिल्कुल ठीक कह रही हो ।" अपने आँसू पोंछकर शरीर के घावों और चोटों के निशानों को सहलाती सरिता बोल उठी " पर मुझे दुगना दर्द दे जाते हैं जब मैं अपने बेटे को यह सिखाती हूँ कि " बेटा , तुम अपने पिता की तरह विल्कुल मत बनना
---------
(6). नीलम उपाध्याय जी
निर्णय
.
घर में नई बहू के आगमन की गहमा-गहमी के बीच शान्ति जी मेंहमानों कि ख़ातिर करने में व्यस्त थीं । तभी पड़ोस में रहने वाली उसकी सहेलियों ने उसे अपने पास बैठा लिया ।
"अरे शान्ति, बहू तो बड़ी सुंदर लाई है । सुना है बहुत पढ़ी लिखी है ।"
एक और पड़ोसन बोल पड़ी "और ख़ूब बड़ी नौकरी भी करे है ।"
एक और आवाज़ गूँजी "तब तो बहू का कोई सुख नहीं हुआ । शान्ति को तो घर के पचड़े में ही पड़ी रह गई ।" और इसके साथ ही सभी खिलखिला के हंस पड़ीं । जाहिरा तौर पर शांति जी ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन मन-ही-मन कुछ कुढ़ से गईं ।
उच्च शिक्षा युक्त और ऑफ़िस में उच्च पद पर कार्यरत प्रीति ससुराल में आने के पहले दिन ही इस तरह के वार्तालाप से पहले ही परेशान थी ऊपर से दूसरे दिन ही सास ने उसे जॉब छोड़ने और घर का काम काज सम्हालने का फ़रमान सुना दिया । और सबसे अचंभे वाली बात तो ये हुई कि पति राजन ने भी माँ की ही हाँ में हाँ मिलाया । पति से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी प्रीति को । उसके तो सारे अरमान मिट्टी में मिलने जैसे हो गए और ससुराल जेल कि चारदीवारी हो गई ।
सभी मेहमानों के जाने के दो दिन बाद ही अगले दिन सोमवार को सुबह-सुबह प्रीति को घर से बाहर जाने को तैयार हुआ देख उसकी सास का माथा ठनका । बोली, "अब ये तैयार होके कहाँ चल दी बिना कुछ बताए?" तभी राजन कि बहन नीना सामने आगे आ गई - "माँ, भाभी दफ्तर जा रही हैं और मैंने ही उनसे अनुरोध किया है कि वो नौकरी न छोड़ें ।"
"तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या? इसे नौकरी करने की क्या ज़रूरत है? घर का काम कौन करेगा? मैं क्या हमेशा इस घर नौकरानी बनी रहूँगी?
"नहीं माँ ! आप ऐसा मत कहें । आप इस घर की मालकिन हैं और आज के बाद से आपको घर का कोई काम नहीं करना पड़ेगा । और मुझे भी नौकरी छोड़ने को कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी । घर के सभी काम करने के लिए मैंने नौकरनी रख दिया है । आप बस उससे काम करवाएँगी।"
इतना कह के प्रीति ने कृतज्ञ नज़रों से नीना को देखा और दोनों अपने प्लान के कामयाब होने पर मुस्कुरा पड़ीं ।
--------
(7). तसदीक़ अहमद खान जी
बुढ़ापे की ज़िंदगी.
.
इस बार रिटायर लोगों की मासिक मीटिंग अमर सिंह के घर पर रखी गई, उनवान है बुढ़ापे की ज़िंदगी l बातचीत के दौरान सुरेश ने कहा,
"हमारे पड़ोसी गुप्ता जी का बेटा और बेटी शादी के बाद विदेश चले गए, भारत कम आते हैं, रुपये ज़रूर भेजते रहते हैं मगर उनकी और पत्नी की बुढ़ापे में सेवा करने वाला कोई नहीं है l औलाद को इतना नहीं पढ़ाना चाहिए कि वो दूर चली जाए l"
इसी बीच हामिद ने कहा,
"हमारे पड़ोसी अहमद भाई के चार बेटे दो बेटी हैं, बेटियों की जैसे-तैसे शादी हो गई, दो बेटे अभी भी कुंवारे हैं, ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं इसलिए किसी के कोई नौकरी या रोज़गार नहीं, पेंशन से गुज़ारा नहीं चल पाता है, घर में लड़ाई का माहौल रहता है, ज़्यादा बच्चे और कम पढ़े होना भी माता-पिता का बुढ़ापा ख़राब कर देते हैं "
पीछे से जॉन बोल पड़े,
"बुढ़ापा तो होता ही है परेशानी उठाने के लिए, बच्चों को पढ़ाओ तो मुश्किल न पढ़ाओ तो मुश्किल "
सबकी बाते सुनकर अमरसिंह कहने लगे,
"भाइयों बुढ़ापे के दौर से सबको गुज़रना पड़ता है, हम भी अपने माता-पिता को छोड़ कर शहर नौकरी करने आए, हमारे बच्चे हमें छोड़ कर विदेश चले गए ये तो दुनिया की रीति है "
फ़िर वो बाग़ीचे में खड़े पेड़ की तरफ़ इशारा करते हुए बोले,
"उसमें जो पिछले साल पत्ते आए वो पेड़ को छोड़ कर जारहे हैं, नए पत्ते आ रहे हैं, वो ये ग़म हर साल उठाता है मगर हिम्मत नहीं हारता है, हम सबको भी बुढ़ापे की हक़ीक़त का हँसकर सामना करना चाहिए "
-----------
(8). विनय कुमार जी
समाधान
-
घबराई हुई सी वह जल्दी-जल्दी घर के अंदर घुसी और सोफ़े पर पसर गई. बाहर तापमान जैसे सारे कीर्तिमान तोड़ डालना चाह रहा था, लू की लपटें सबको जला रही थीं. लेकिन उसकी समस्या लू नहीं थी बल्कि रोज़ कॉलेज जाना और आना थी. नुक्कड़ के कोने वाली दुकान पर बैठे रहने वाले मनचले उसकी हिम्मत पस्त कर देते थे लेकिन पढ़ाई करने के लिए रोज़ जाना भी ज़रूरी था.
कुछ देर बाद उसने उठकर पानी का गिलास लिया और गट गट करके पूरा पानी पी गई. मम्मी या पापा से कहते उसे डर लगता था, वह लोग पहले भी उसे कॉलेज जाने के लिए मना कर चुके थे. अगर इस बात की भनक भी उनको लग गई तो कल से ही उसका बाहर निकलना बंद हो जाएगा.
दरवाज़े की घंटी बजी, उसने उठकर खोला तो सामने मुन्नी खड़ी थी. लगभग उसी की हमउम्र मुन्नी उसके यहाँ घर के काम करने आती थी और उससे पढ़ाई लिखाई के बारे में भी अक्सर बात करती रहती थी. मुन्नी ने उसे बताया था कि अगर उसे भी मौक़ा मिला होता तो वह भी ज़रूर पढ़ने जाती.
"क्या दीदी, आज बहुत उदास दिख रही हो", मुन्नी ने उसको देखते ही पूछा.
उसने कोई जवाब नहीं दिया और सोफ़े पर अधलेटी पड़ गई, दिमाग़ में उन्हीं मनचलों की सूरत घूम रही थी. मुन्नी ने पहले झाड़ू लगाया और फिर पोछा लगाने लगी, वह उसको देख रही थी. अचानक उसके दिमाग़ में आया कि मुन्नी भी तो उसी रास्ते से आती है, वह मनचले तो उसे भी छेड़ते होंगे. लेकिन कभी उसने उसे परेशान नहीं देखा.
"अच्छा मुन्नी एक बात बता, तुझे वह नुक्कड़ पर के मनचले छेड़ते नहीं हैं क्या?, उसने मुन्नी से पूछा.
मुन्नी के हाथ पोछा लगाते लगाते रुक गए, उसने उसको गौर से देखा हुए बोली "अब समझी, इसीलिए इतना उदास हो दीदी. देखो वह तो कमीने लोग हैं, मुझे भी छेड़ने का प्रयास किया था उन्होंने. लेकिन मैंने अपना चप्पल निकाला और उनको दिखाकर समझा दिया, अब कभी दिक्कत नहीं होती है. आप भी यही करो दीदी, आप डरोगे तो लोग जीने नहीं देंगे".
मुन्नी वापस अपने काम में लग गई, उसे एक रास्ता स्पष्ट नज़र आ रहा था.
----------
(9). सलीम रज़ा रीवा जी
“आइए आइए, जनाब आइए, मेरे ज़ेहन में आपका ही ख़्याल गर्दिश कर रहा था।“ रमेश बाबू ने कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
‘कैसे हैं रमेश जी?“
“ठीक हूँ खान साहब। आज आप अपसेट लग रहे हैं।‘’ रमेश बाबू ने हाथ मिलाते हुए कहा।
“हाँ भाई भागते-भागते अब थक चुका हूँ।“ लंबी साँस भरते हुए ख़ान साहब कुर्सी में धँसते हुए बोले, “अब नहीं भागा जाता रमेश बाबू।“
“ठीक कह रहें है आपका सेल्स का काम बहुत मुश्किल है।“ ख़ान साहब के साथ सहमति जताते हुए, अरे हाँ वीरेंद्र जी आप ख़ान साहब हैं, इंश्योरेंस में आला अधिकारी हैं।“ रमेश बाबू अपने बगल में बैठे मित्र को परिचय कराते हुए बोले।
“अरे भाई! कहने को तो बड़ा पोस्ट है पर कोल्हू के बैल की तरह दिनभर चक्कर काटते रहना पड़ता है, सुब्ह से मीटिंग, कानकॉल, कलेक्शन, लॉगिन, बॉस का ग़ुर्राना, कितना हुआ, कितना होगा दिनभर बड़बड़, और टार्गेट हो भी गया तो बॉस तो बॉस होता है! ये क्यूँ नहीं हुआ वो क्यूँ नहीं हुआ, बे वक़्त फ़ोन गाली गलौजतो जैसे उनकी ख़ानदानीलिबास हो, क्या-क्या बताए रमेश बाबू? घर से हज़ारों मील दूर नौकरी कर रहा हूँ बच्चों के सुकून के लिए पर अपना सुकून को जैसे परेशानी की डायन निगल गई, काम के सिवा कोई इज़्ज़त नहीं क्या ज़िंदगी है हम सेल्स वालों का।“
“क्या कह रहे हैं ख़ान साहब!“ रमेश ने उचक कर पूछा।
“हाँ भाई! दिनभर का टेंशन लेकर जाओ तो घर वालों पे भड़ास निकलता है, घर वाले हैरान ओ परेशान और कभी-कभी तो वीबी कहती है आप अभी से सठिया गए हो, यार। ...ये भी कोई ज़िंदगी है..अब हमनें निर्णय ले लिया है।“
“क्या? “रमेशबाबू कौतूहल भरे अंदाज़ में पूछा।“
‘अपना बिजनिश करेंगे ‘’ खान साहब ज़ोर देते हुए कहा।
“सही निर्णय है खान साहब, कम-से-कम परिवार के साथ तो रहेंगे। “
जी रमेश बाबू और मैंने डिसीजन ले लिया है कल ही रिजाइन कर दूँगा अब अपने शहर अपने घर की बहुत याद आती है। “
“सही है ख़ान साहब। “रमेश बाबू अपनी सहमत जताते हुए शेर पटक दिए,
टूटा-फूटा गिरा पड़ा कुछ तंग सही
अपना घर तो अपना ही घर होता है,
बेशक़...
-------------------
(10). ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश जी
प्रेरणा
.
ख़ुद कमा कर पढ़ाई करने वाले एक छात्र की सिफ़ारिश करते हुए कमलेश ने कहा, '' यार कमलेश ! तू उस छात्र की मदद कर दें. वह पढ़ने में बहुत होशियार है. डॉक्टर बनकर लोगों की सेवा करना चाहता है.''
'' ठीक है मैं उसकी मदद कर दूँगा. उससे कहना कि मेरी नई नियुक्त संस्था से शिक्षाऋण का फ़ार्म भर कर ऋण प्राप्त कर लें .'' योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, '' मगर, मैं चाहता हूँ कि तू उसकी नि:स्वार्थ सेवा करें. उसे सीधे अपने नाम से पैसा दान दें. ''
'' नहीं यार ! मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूँ ?'' यौगेश ने कहा तो कमलेश बोला, '' इससे तेरा नाम होगा ! लोग तुझे जिंदगीभर याद रखेंगे.''
''हाँ यार. तू बात तो ठीक कहता है. मगर, मैं नहीं चाहता हूँ कि उस छात्र की मेहनत कर के पढ़ने की जो प्रेरणा है वह ख़त्म हो जाए.''
'' मैं उसे जानता हूँ, वह बहुत मेहनती है. वह ऐसा नहीं करेगा, '' कमलेश ने कुछ ओर कहना चाहा मगर, यौगेश ने हाथ ऊँचा कर के उसे रोक दिया.
'' भाई कमलेश ! यह उसके हित में है कि वह मेहनत कर के पढ़ाई करें ,'' कहकर यौगेश ने अपनी आँख में आए आँसू को पौंछ लिए ,'' तुम्हें तो पता है कि दूध का जला छाछ भी फूँक—फूँक कर पीता है.''
यह सच्चाई सुनकर कमलेश चुप हो गया.
----------
(11). तेजवीर सिंह जी
भोर होने को है
.
किरण अपने माँ बापू की एक मात्र संतान थी। माँ बापू दोनों ही उच्च शिक्षा प्राप्त थे। दोनों ही सेवारत थे।
उनकी यही अभिलाषा थी कि किरण भी पढ़ लिखकर, कुछ ऐसा करे कि उनका नाम रौशन हो। अतः दोनों ही उसकी शिक्षा के प्रति बहुत सजग थे। शहर के सबसे अच्छे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रही थी। साथ ही एक कोचिंग सेंटर से कोचिंग भी ले रही थी।
उसके अध्यापकों और कोचिंग के शिक्षकों की आम राय थी कि यदि किरण इसी तरह मेहनत और लगन से पढ़ती रही तो निश्चित रूप से आई आई टी के लिए चुन ली जाएगी। ऐसा सुनकर माँ का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता था।
लेकिन किरण को बापू का उसके प्रति रूखापन अधीर कर देता था। वे कभी भी उसकी किसी उपलब्धि पर ख़ुशी ज़ाहिर नहीं करते थे।
"माँ, क्या बापू हमेशा से ऐसे ही हैं। हर वक़्त गुमसुम। कभी उनको हँसते हुए नहीं देखा?"
"नहीं रे, वे तो बहुत ख़ुश मिज़ाज़ थे। उनके जीवन के कुछ खट्टे मीठे उतार-चढ़ाव ने उन्हें एकदम से ख़ामोश कर दिया।"
"ऐसा क्या हुआ उनके साथ? माँ बताओ ना?"
"वे बचपन से एक ही सपना सँजोए थे कि फ़ौजी अफ़सर बनना है। लेकिन एक दुर्घटना ने उनका यह ख्व़ाब चकनाचूर कर दिया। वे हमेशा के लिए अपाहिज हो गए।"
"पर वे तो सरकारी नौकरी कर रहे हैं?"
"हाँ, यह नौकरी उन्हें विकलांग कोटे से मिली है। फिर शादी के बाद उन्होंने निर्णय लिया था कि हम अपने बेटे को फ़ौजी अफ़सर बनांयेंगे।लेकिन तुम्हारे जन्म के बाद उनकी यह इच्छा भी धराशाई हो गई क्योंकि तुम्हारे जन्म के समय इतनी कंप्लीकेशंस हो गईं थी कि मेरा गर्भाशय ही निकालना पड़ा।"
"माँ, तो क्या हम लोग कभी उनको हँसते मुस्कराते नहीं देख पांयेगे?"
"कौन जाने? इसका उत्तर तो ऊपरवाला ही दे सकेगा।"
"नहीं माँ इसका हल हमको ही खोजना होगा?"
"अरे बिटिया, तुम इन सब बातों में अपना समय बरबाद मत करो। अगले सप्ताह तुम्हारी आई आई टी की लिखित परीक्षा है| उसकी तैयारी करो।"
"नहीं माँ, मैंने निर्णय किया है कि मैं एन डी ए के माध्यम से भारतीय सेना में अधिकारी बनूँगी।"
----------
(12). वीरेंद्र वीर मेहता जी
इलाज
.
मुझे नहीं लगता बजाज साहब, हमें नर्सिंग होम में भर्ती मरीज़ों के लिए खाना 'प्रोवाइड' करवाने की ज़रूरत है।" उनके दिए सुझाव में मुझे कोई ख़ास बात नहीं लगी।
"ज़रूरत है खान साहब। जितनी केयर हम अपने मरीज़ों की करते हैं, उतना ही ध्यान हमें उनके और उनके परिजनों के खाने का भी रखना चाहिए।"
"हमारा नर्सिंग होम कोई फाइव स्टार हॉस्पिटल्स की रेंज में नहीं आता। यहाँ आने वाले लोग मिडिल क्लास के होते हैं, और उन पर मरीज़ के इलाजी खर्चें में अलग से खाने का ख़र्च जोड़ देना, बिज़नेस की नज़र से भी ठीक नहीं होगा।" मैं व्यावहारिक तौर पर सोच रहा था।
"ये मैंने कब कहा खान साहब, कि ख़र्चा हम मरीज़ों से वसूलेंगे। हम चेरिटेबल बेस पर केंटीन शुरू करेंगे।" उसके चेहरे पर विश्वास था।
"बजाज साहब, जकात और सदक़ा मेरी क़ौम का एक हिस्सा ज़रूर है। लेकिन इतना अधिक तो मेरे बजट में भी नहीं आएगा।" मैंने अपना तर्क दिया।
"हम इसे पूरी तरह नो प्रॉफिट-नो लॉस पर शुरू कर सकते हैं। अपने स्टाफ़ के साथ 'कस्ट्मर' का भी इसमें एक उचित हिस्सा रख सकते है।" वह शायद निश्चय कर चुका था। "और यदि आप इस योजना के लिए साथ दें तो शुरुआती तौर पर मैं, अपनी सात दिन की सैलरी हर महीने देने की सहमति देता हूँ।"
"जहाँ तक मुझे याद है," मेरे चेहरे पर एक असमंजस के साथ मुस्कान भी थी। "एक दिन किसी लाचार को कुछ देने के सवाल पर आपने मेरी सोच को भी वाहियात बताया था। ये बदलाव कैसे...?"
"खान साहब!" एकाएक वह गंभीर हो गया। "आपने मुझे जब देखा था, मैं अपने स्वार्थ की अँधेरी गलियों में भटका करता था। लेकिन मैंने ख़ुद को अभी कुछ दिन पहले ही देखने की कोशिश की है, जब एक स्लम बस्ती में मैंने किसी फ़रिश्ते को खैराती हस्पताल में लाचार मरीज़ों को स्वच्छ; पौष्टिक खाना बाँटते देखा था।"
"कौन था वह?"
"एक डॉक्टर... जो बीमारों का ही नहीं बीमारी का भी इलाज कर रहा था।
-----------
(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं)