हिंदी दिवस दिनांक 14 सितम्बर 2019 को सायं 3 बजे ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या का आयोजन 37, रोहतास एन्क्लेव, फैजाबाद रोड (डॉ. शरदिंदु जी के आवास) पर आदरणीय डॉ . अशोक शर्मा के सौजन्य से हुआ I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता गजलकार भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ ने की I कार्यक्रम के प्रथम चरण का संचालन डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने किया I द्वितीय चरण में काव्य पाठ का संचालन मनोज शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा किया गया I
कार्यक्रम के प्रथम चरण में ओबीओ लखनऊ चैप्टर के वार्षिकोत्सव पर विचार विनिमय हुआ I डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने इस संबंध में जो रूप रेखा रखी , उस पर सर्वसम्मति सेनिर्णय लिया गया कि यह कार्यक्रम माह नवंबर 2019 में किया जाय I कार्यक्रम की अनुमोदित रूप रेखा निम्नवत है -
1- दीप प्रज्वलन , सहयोग सुश्री संध्या सिंह एवं आभा खरे डॉ . अंजना मुखोपाध्याय 5 मिनट
2- सरस्वती वंदना द्वारा आलोक रावत 5 मिनट
अतिथियों को पुष्प भेंट – डॉ. अशोक शर्मा , श्री मृगांक श्रीवास्तव , श्री भूपेन्द्र सिंह
संचालन डॉ. शरदिंदु मुकर्जी
3- ‘रस, छंद और अलंकार - पुनर्स्थापना की आहट’
विषय पर परिचर्चा -संचालन 45 मिनट
परिचर्चाकार – डॉ. कैलाश निगम मुख्य अतिथि
डॉ. अशोक कुमार पाण्डेय ‘अशोक ‘ विशिष्ट अतिथि
श्री निर्मल शुक्ल विशिष्ट अतिथि .
4- शास्त्रीय बांसुरी वादन द्वारा श्री नवीन मणि त्रिपाठी 20 मिनट
5- ‘पंडितन केर पछलगा’ उपन्यास पर डॉ. रामेन्द्र पाण्डेय का वक्तव्य 15 मिनट
संचालन मनुज शुक्ल’मनुज’
6- ओ बी ओ ,लखनऊ चैप्टर के सदस्यों / अतिथियों का काव्य पाठ 1 घंटा 30 मिनट
7 - धन्यवाद ज्ञापन द्वारा नमिता सुन्दर
इसके साथ ही प्रति वर्ष की भाँति ओबीओ लखनऊ चैप्टर की वार्षिक स्मारिका ‘सिसृक्षा’ के प्रकाशन का निर्णय भी सर्वसम्मति से लिया गया , जिसका संपादन मनोज शुक्ल ‘मनुज’ करेंगे I
कार्यक्रम के द्वितीय चरण में कविता पाठ हुआ जिसका आगाज श्री मृगांक श्रीवास्तव ने किया I उनकी प्रारम्भिक रचनाएं जितनी चुटीली और हास्य रस के स्थाई भाव ‘हास’ से पगी हुयी थी उससे कहीं अधिक गंभीर उनकी परवर्ती रचनाएँ थी I किन्तु उनकी जिस कविता ने सबको लहालोट कर दिया, वह कुछ इस प्रकार थी –
विक्रम लैंडर चाँद में खो गया
बहुत पहले मैं भी एक चाँद के करीब गया
फिर पत्नी को पता चल गया
और मेरा संपर्क टूट गया I
कवयित्री कुंती मुकर्जी ने पुस्तक पढ़ने के अपने तरीके को स्पष्ट किया I सच पूछा जाय तो पुस्तक पढ़ना भी एक कला है I कितने लोग वास्तव में पुस्तक में डूबकर उसे पढ़ते हैं I काव्यानन्द और रसानन्द की वास्तविक अनुभूति तो पुस्तक की गहराइयों में उतरने पर ही संभव है I कुंती जी कहती हैं –
हाँ फुर्सत के क्षण में ,
जब कोई किताब खोलकर पढ़ती हूँ ,
शब्दों और वाक्यांशों के दरमियाँ से
मैं बहुत दूर निकल जाती हूँ I
कवयित्री आभा खरे अपने जीवन की आपा-धापी से जुडी स्मृतियों को सहेजते हुए कहती हैं –
बात है उन दिनों की ,
जब आये थे हमारे हिस्से
दुःख के दिन ढेर सारे
और सुख की रातें नाम की
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने विरोधाभासों का जिक्र किया I कहीं जलता हुआ उत्ताप है तो कहीं धूप का निवाला है और बादल कीओढ़नी है I पंक्तिया इस प्रकार हैं –
माटी की सनी हुयी, लोहे के छाप
आग की भट्टी में ज्वलंत उत्ताप
‘एक निवाला धूप का बिना आयास जगा गया
बादल की ओढ़नी तह बिस्तर लगा गया II ‘
कवयित्री नमिता सुन्दर की कल्पना के पंख बड़ी दूर तक उड़ान भरते है i वे बड़ी बात भी बड़ी सहजता से कह देती हैं I उन्होंने जो कविता पढ़ी, उसमे उनका समर्पण इन्द्रधनुषी रंग लिए था I कविता का आरंभ उन्होंने इस प्रकार किया -
मैं समर्पित हूँ ,
उन अनदेखे, अनचीन्हें , अनाम स्त्रोतों को
डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने द्रुतबिलंबित और सार छंद में अपनी रचना सुनाई I मिथक कथाओं के ब्याज से हम जानते हैं कि हमारे पूर्वज कितने वचन धनी होते थे I संवेदना और आवेश में बिना सोचे-समझे प्रतिज्ञा कर लेना और फिर जीवन भर उसका दंश झेलना उनके इतिवृत्तों में मिलता है I राजा दशरथ और पितामह भीष्म ऐसे ही महापुरुष थे I कवि उन्हीं का आधार लेकर कहता है –
हाँ, अधीर निर्लक्ष्य शलभ ही, ज्वाला में जलते हैं I
ताप- तेज में तो जीवन के उपक्रम ही पलते हैं II
आवेशित होकर पल भर में दृढ प्रतिज्ञ हो जाना I
किसी विवेकी धीर पुरुष ने इसे उचित कब माना ?
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘बादल का डेरा ‘ और ‘ उलझन’ शीर्षक से दो कवितायें पढीं I ‘बादल का डेरा दिखने में वर्णनात्मक कविता है , पर जब वे कहते हैं कि – “मैं सोच सोच भरमाऊँ/ चित शंकित है कित जाऊँ / कलियों ने खोली पाँखें / दूर क्षितिज से कोई झाँके,” तब इस कविता का आयाम बड़ा हो जाता है I ‘उलझन ‘ कविता का कैनवस बड़ा है i इसका चिंतन विराट है I शून्य और बिंदु के बीच चिंतन ठिठका है I कवि सोचता है कि-
आखि़र यह बिन्दु भी तो
उसी विराट शून्य के बीच ही है
या
शायद,
इसी बिन्दु के बीच ही जन्म लेता है
शून्य का विराटत्व,
कौन जाने!!!
संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज ‘ का डंडा चुगलखोर- मक्कारों की हमेशा खबर लेता है I वे ऐसी दम्भी प्रजातियों को कभी भी नहीं बख्शते I यह उनके व्यक्तित्व का एक अनिवार्य हिस्सा है i वे कहते हैं –
चुगलखोर मक्कारों को है बाँट रहा जुगनू उजियारा I
मौन हुआ सूरज जैसे ही मुखर हुआ काला अंधियारा II
डॉ. अशोक शर्मा सुकुमार भावनाओं के कवि हैं i इनके गद्य रचना में भी उनकी कविता मुखरित रहती है I प्रियतम की याद उन्हें अवसाद में नहीं डालती I बल्कि वे वे अँधियारे में उजास की किरण और उसकी जीत का संधान करते हैं –
तेरी सुधि आने पर मन गीत लिखे I
अँधियारों पर होती किरणों की जीत लिखे
कवयित्री संध्या सिंह जो समकालीन मुक्त छंद की कविता में अपना एक स्थान रखती हैं उन्होंने गजल में भी अपनी पैमाईश की I यह 212 212 212 212 2 की तर्ज पर है I इस गजल की बानगी इस प्रकार है -
सिसकियाँ, यातनाएं , सितम, आह, तड़पन
कत्लगाहों में देखो जिबह के नतीजे I
हार तुम भी गए हार हम भी गए है
मिल गए हमको अपनी फतह के नतीजे II
अध्यक्ष भूपेन्द्र सिह ने छोटी-छोटी कुछ रचनाये सुनाईं और एक गजल बातरन्नुम पढ़ी i उनकी नजर में उम्र कभी ढलती नहीं I यह तो जिन्दगी है जो मोम सी पिघलती है , मगर तज्रबा भी भी इसी से आता है –
जिन्दगी मोम सी पिघलती है
तब तज्रबे की शम्अ जलती है
फ़िक्र में ये उरूज लाती है
कौन कहता है, उम्र ढलती है ?
साहित्य संध्या गहरी हो गयी थी I सांझ ने रात की और पैर फैलाने शुरू किये I पर घर जाने से पहले डॉ अशोक शर्मा का आतिथ्य स्वीकारना हमारा फर्ज था I मेरा मन संध्या जी की गजल पर अटका हुआ था और हमने भी कुछ नतीजे चुपके से चुरा लिए I
है हमको मुबारक नमन के नतीजे
तुम्हे भी मिले विष वमन के नतीजे
दरिंदे हैं रग -रग में शैतानियत है
उन्हें कब रुचेंगे अमन के नतीजे
नहीं नेह का स्वप्न देखा कभी भी
भुगत खुद रहे है दमन के नतीजे
हमे है मयस्सर जो बोया था हमने
हसीं है हमारे चमन के नतीजे
बिछे है बहुत फूल अपनी धरा पर
बहारों के ये आगमन के नतीजे
12 2 12 2 12 2 12 2 (सद्म रचित )
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