ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या - माह मार्च, 2018, एक प्रतिवेदन
डा. गोपाल नारायन श्रीवास्तव
चैत्र रामनवमी, 25 मार्च 2018, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जन्म दिन. उस दिन सम्पूर्ण भारत हुआ राममय और उसी दिन राम के प्रखर भक्त एवं राम-कथा के अन्वेषी कथाकार, ‘सीता के जाने के बाद राम’ व ‘सीता सोचती थीं’ जैसे उपन्यास के चर्चित रचनाकार डॉ. अशोक शर्मा के सौजन्य से ओबीओ लखनऊ चैप्टर की एक और गोष्ठी का आयोजन किया गया. उनके आवास के एक स्वतंत्र कक्ष में ओ बी ओ, लखनऊ चैप्टर के अनेक उत्साही कवि एवं कवयित्री एक नयी काव्य-संध्या के नीरांजन हेतु समवेत हुए. इनमें सुश्री नमिता सुंदर, सुश्री सीमा मधुरिमा तथा सुश्री रंजना गुप्ता पहली बार हमारी सहयोगी हुईं. किसी अन्य कार्यक्रम में भाग लेने आयीं कोलकाता से पधारी सुपरिचित कवयित्री व ग़ज़लकार सुश्री निशा कोठारी भी विशेष आमंत्रण पर उपस्थित रहीं. कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पूर्व ओ बी ओ, लखनऊ चैप्टर के संयोजक डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘चैप्टर’ के आयोजन में पहली बार उपस्थित होने वाली इन विदुषियों का स्वागत किया और ओ बी ओ के उन तीन सदस्यों के बारे में सबको अवगत कराया, जिन्हे कुछ दिवस पूर्व ही राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उ.प्र. द्वारा सम्मानित किया गया था. उनका विवरण निम्न प्रकार है -
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव – बालकृष्ण भट्ट पुरस्कार
सुश्री संध्या सिंह – साहित्य गौरव सम्मान
सुश्री भावना मौर्य – साहित्य गौरव सम्मान
आलोच्य साहित्य-संध्या की काव्य गोष्ठी में अध्यक्ष पद का दायित्व डा. गोपाल नारायन श्रीवास्तव को सौंपा गया और संचालन का भार ओज के युवा कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने उठाया. काव्य-पाठ का आरम्भ संचालक की वाणी-वंदना से हुआ. पहले कवि के रूप में ‘मनुज’ ने मृगांक श्रीवास्तव का आह्वान किया, जो अपनी व्यंग्य रचना के लिए ख्यात हैं. उनके द्वारा पठित रचना की बानगी इस प्रकार है –
दो बूँद पोलियो ड्राप के बबुआ ने बुआ को पिला दिया
राज्य सभा होलिका में सबने मिलकर बुआ को जला दिया
वरिष्ठ कवयित्री नमिता सुन्दर ने अपनी भावपूर्ण रचनाओं और सुन्दर प्रस्तुति से गोष्ठी को सुंदरवन सा रमणीक बनाने में अपना योगदान इस प्रकार किया –
लाल,नीली,पीली,गुलाबी चिरैया
खिलखिलाती हैं मेरे आँगन में
एक भयानक हादसे के बाद
गूंगी हो गयी है मेरी गली
कवयित्री आभा खरे ने ‘दयार’ (दयालु, देवदार, आस-पास की भूमि, प्रान्त या क्षेत्र) शब्द के सभी अर्थों को
अपनी ग़ज़ल में उतारने की कोशिश की –
मुन्तजिर हम रहे मुहब्बत के
ढूँढ़ते हर दयार चलते हैं
उनकी एक और ग़ज़ल का मतला इस प्रकार है –
आप सागर हुए मैं नदी रह गयी
बंदगी में कमी थी कमी रह गयी
भावनाओं की चितेरी कवयित्री संध्या सिंह की बिम्ब योजना सदैव कौतूहल का विषय होती है. उनकी कविता में विरोधाभास की यह छटा भी उतनी ही चित्ताकर्षक है –
सन्नाटे के बीच घिरे हैं झंकारों के गीत
घूम रहे तपती सड़कों पर बौछारों के गीत
युवा कवि नीरज द्विवेदी के गीत में उद्दाम यौवन की स्वच्छंदता तो है पर उसमें अवसाद का प्रतिरोध भी है. खासकर जब वे श्वास के संसार की जलने की बात करते हैं. निदर्शन प्रस्तुत है –
हाँ लबालब ही भरा है स्नेह का आगार
वर्तिका सा जल रहा है श्वास का संसार
मान्यता है कि मानवता देवत्व और दनुजत्व के बीच की एक कड़ी है. पर शायद यह परिभाषा मानव के क़द को अधिकाधिक बौना कर देती है. मेरी समझ में मानवता के समक्ष दनुजत्व तो ठहरता ही नहीं, देवत्व नतमस्तक अवश्य होता है. डा. अशोक शर्मा की निम्नांकित काव्य पंक्ति कुछ ऐसा ही सोचने को बाध्य करती है –
सत्य से अनुबंध इतना भी नहीं है
मैं किसी का मन कभी सहला न पाऊँ
आदमी हूँ और कुछ होने से पहले
तुम मुझे आवाज़ देकर देख लेना .
कवयित्री रंजना गुप्त ने कुछ बहुत ही सुन्दर और मानीखेज ग़ज़लें सुनायी. एक उदाहरण इस प्रकार है -
दौड़ कर जीती जमाने की सभी बाजी मगर
अब उन्हीं पांवों को लगता डर बहुत चलते हुए
कवयित्री /कथाकार कुंती मुकर्जी ने छोटी-छोटी किंतु गहन भावनाओं से युक्त कई कवितायेँ सुनायीं. चाँद से उलाहना पाकर उसे चुनौती देती उनकी कविता से सभी का मन विशेष रूप से आलोड़ित हुआ. काव्य की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
चाँद ने मुझसे कहा
‘तुम्हारा खानाबदोश सा
जीवन कब तक’
......
मैंने भी उसे सुना दिया –
तब से वह लगातार
चाँदनी का पासा
फेंके जा रहा है
कवयित्री भावना मौर्य संवेदनशील रवायती ग़ज़लों को गढ़ने में सिद्धहस्त हैं. उनकी आवाज भी उनके भावों की अनुगामिनी है. उन्होंने जो ग़ज़ल पढ़ी, उसका मतला इस प्रकार है –
दिल से यादों को तेरी भुलाते नहीं
हम चरागों को ऐसे बुझाते नहीं
कोलकाता से पधारी गीतकार/ग़ज़लकार निशा कोठारी ने अपनी ग़ज़लों की भाव सम्पदा से उन ग़ज़लकारों को भी मुत्तासिर किया जो इस विधा में अपनी विशेष दखल रखते हैं. उनकी आवाज का जादू भी सिर चढ़कर बोलता है. उनके चंद शेर उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत किये जा रहे हैं –
करनी थी खुद की तलाश औरों में अटक गए
झूठे स्वर्ण हिरण के पीछे रास्ता भटक गए
......
आप तक कोई रास्ता ही नहीं
आपसे कोई फासला ही नहीं
डा. शरदिंदु मुकर्जी प्रायशः गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बांग्ला कविताओं का समकालीन कविता के रूप में हिन्दी अनुवाद सुनाते हैं पर इस बार उन्होंने न केवल स्वयं बांग्ला में गुरुदेव की अभ्यर्थना की अपितु हिन्दी भाषियों के लिए उस निजकृत रचना का हिन्दी में अनुवाद भी किया. यह कविता उनकी अन्य कविताओं से आकार में भी बड़ी है और इसका भाव सौष्ठव भी अधिकाधिक भास्वर है. गुरुदेव के प्रति उनकी निष्ठा इस कविता में अपने पूर्ण आवेग में है और मानव के प्रत्येक संचारी भावों को झंकृत करने में समर्थ है. इस कथन की पुष्टि में कविता का एकांश यहाँ उद्धृत किया जा रहा है –
रोज सुबह होती है –
अजान और मंदिर की घंटी
हमारे कान खींचकर
ईश्वर की याद दिलाते हैं,
उस अनिच्छाकृत जागरण के मुहूर्त में
पक्षी की पहली किलक
सूर्य की पहली रश्मि
और वृक्षों के पत्तों में
हल्की हलचल लिए
हमें छू जाते हैं
रवींद्रनाथ –
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ की रचनाएँ फौलादी होती जा रही हैं, वे दुष्यंत कुमार की तरह इस बात पर यकीन रखते हैं कि – ‘है कहीं भी आग तो फिर आग जलनी चाहिए’. उनकी निम्नांकित कविता इस सत्य का चूड़ांत निदर्शन है –
वक्त के शैतान रहबर हो गये
खौफ खाने जैसे मंजर हो गये
फावड़े, हंसिये, हथौड़े टूटकर
भूख से तड़पे तो खंजर हो गये
कवयित्री सीमा मधुरिमा ने नवरात्रि के बाद कन्याओं को भोजन खिलाने की परम्परा पर तंज कसते हए कहा -
बंद करो मुझे पूजना
देवी सा ---
खिलाना नवरातों में
हाँ, ये सब आडम्बर ही तो है
सुकुमार भावनाओं के बातरन्नुम ग़ज़लकार जिनकी आवाज पर शेर ठनकते हैं, ऐसे फनकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने दो बेहतरीन ग़ज़लें पेश कर महफ़िल को रोमांचित कर दिया -
ज़िन्दगी कब हमें रास आती रही
जितना सिसके थे उतना रुलाती रही
अब इसी को ही कहते हैं जीना अगर
तो मेरी सांस भी आती-जाती रही
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य’ बदलते परिवेश से क्षुब्ध दिखते हैं. अजब आपाधापी है. आज के समय में कोई किसी की नहीं सुनता. शायर कहता है -
अगरचे दरमियाँ हम फासला नहीं रखते
पर अपने दर्द किसी से कहा नहीं करते
अजब नस्ल नई हो गयी है इंसा की
ये कान तो रखते हैं पर सुना नहीं करते
अध्यक्ष डा. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने गीता में अर्जुन के दौर्बल्य पर कटाक्ष करती एक समकालीन कविता पढ़ी फिर अपनी प्रारम्भिक रचनाओं में से एक अवसाद भरी कविता का सस्वर पाठ किया. इस कविता में शांत रस में लिपटे शृंगार का अद्भुत मार्दव समाहित है -
‘प्रियदर्शन’ हो तो इससे क्या
मैंने तुमको प्यार बनाया
तुममें जो था ‘शांत’ उसी को
आलम्बन शृंगार बनाया
मन उद्गम की रस-गंगा हो जाकर सागर में मिल जाना
मैं जी लूंगा साथी मेरे पर तुम मुझको याद न आना
इस काव्य संध्या में कविता का अखाड़ा काफी प्रतिद्वंद्वात्मक रहा क्योंकि स्त्री-पुरुषों की संख्या समान थी और भाव सम्प्रेषण में कोई किसी से कम नहीं था. डॉ. अशोक शर्मा की निश्छलता, सारल्य और आतिथ्य ने सभी को भरपूर आप्यायित किया.
जन मन की अभिव्यक्ति सुने सब मिलकर सादर
करते हैं इस भाँति सभी कवि माँ का आदर
हंसवाहिनी का भी है निश्चय लगता मन
होते रहते जहाँ नियम से शुचि आयोजन
(रूपमाला छंद 14,10) – सद्यरचित
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