राम भगवान थे या सामान्य मानव, अवतार थे या इतिहासपुरुष, काल्पनिक चरित्र थे या सचमुच कोई विश्रुत लोकनायक. इन सब बातों पर मतभेद हो सकता है, पर वे भारतीय लोक मानस की जीवंत आस्था है इस बात में कोई संदेह नहीं है. जन सामान्य के बीच राम-कथा तुलसी कृत रामचरितमानस का अवदान है . परन्तु आर्षग्रंथों में यह विभिन्न रूपों में विद्यमान है. तुलसी ने अपने समय में राम-कथा के सर्वाधिक मर्यादित स्वरुप को लोक भाषा में अभिव्यक्त कर एक साहित्यिक और धार्मिक क्रान्ति उत्पन्न कर दी थी. जिसके कारण उनका बड़ा विरोध भी हुआ. पर आज धर्म और साहित्य में वे सर्वोच्च शिखर पर हैं. मानस में तुलसी ने राम-कथा को एक कथावाचक की शैली में प्रस्तुत किया और लोक-रंजन को ध्यान में रखकर परशुराम-लक्ष्मण संवाद, राम-केवट संवाद, निषादराज गुह का प्रेम, भरत की निस्पृहता आदि प्रसंगों की बड़ी चटक प्रस्तुति की. इसके साथ ही उनके राम पर विष्णु के अवतार का भार भी निरंतर बना रहा. इसलिए मानस में वे मानवीय धरातल पर चरित्रों के मानसिक द्वंद का अधिक परिपाक नहीं कर सके और राम और सीता के सारे कलाप ब्रह्म की मानव लीला या अभिनय मात्र बन कर रह गए . यही तुलसी का प्रतिपाद्य भी था जिसके समक्ष तत्कालीन धर्मभीरु जन-मानस नत–मस्तक हुआ, जिसका प्रभाव आज तक बरकरार है .
कालान्तर में हिदी के कुछ प्रख्यात कवियों को ऐसा अनुभव हुआ कि तुलसी के राम में ब्रह्म की परिकल्पना से इतिहास पुरुष और लोकनायक राम का मनुष्य रूप उभर कर सामने नहीं आ पाया है और मानस में राम–कथा के कुछ ख़ास चरित्रों के साथ समुचित न्याय भी नहीं हुआ है. इस सोच के प्रभाव से खड़ी बोली हिन्दी में ‘साकेत’ ‘पंचवटी’ , ‘मेघनाथ वध’ और अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ कृत ‘वैदेही वनवास‘ जैसे काव्यों का प्राकट्य हुआ. ‘साकेत’ में जहाँ मानस के उपेक्षित किरदार उर्मिला की व्यथा गाथा का विदग्ध वर्णन विशुद्ध मानवीय धरातल पर हुआ वहीं राम-सीता भी सामान्य मानव की भाँति ही दर्शाए गए. मैथिलीशरण गुप्त को इस महाकाव्य हेतु सन् 1932 में मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ. ‘हरिऔध’ ने अपने प्रबंध-काव्य में सीता-वनवास के मिथकीय स्वरुप का आधार मानकर करूण रस की बड़ी सुंदर निष्पत्ति की.
कालांतर में हिन्दी के एक अन्य कवि डॉ० बलदेव प्रसाद मिश्र, जिन्होंने अंग्रेजी शासनकाल में पहली बार हिन्दी भाषा में शोध-प्रबंध प्रस्तुत कर डी.लिट. की उपाधि प्राप्त की और शताधिक रचनायें करने के बाद भी यावज्जीवन प्रचार-प्रसार से दूर रहे, उन्होंने ‘कौशलकिशोर’ ‘राम-राज्य’ और ‘साकेत-संत’ नाम से तीन रामाख्यानक काव्य रचे. इन्होंने मानवीय दृष्टिकोण से भरत और मांडवी के चरित्रों को उत्कर्ष प्रदान किया. फिर तो रामाख्यानक काव्यों की झड़ी लग गयी . कैकेयी पर तो इतने काव्य रचे गए कि उनकी एक अच्छी सूची बन सकती है. राम की मानव सुलभ दुर्बलताओं और उनके मन के हाहाकार को पूरी शिद्दत से उभारने वाला हिन्दी का लघु-महाकाव्य ‘राम की शक्ति-पूजा‘ तो निराला का काव्य-निकष ही बन गया. नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’ में भी राम को भयावह आशंकाओं से घिरे हुए दिखाया गया. बाबा नागार्जुन ने ‘भूमिजा’ में सीता की वेदनाओं को रूपायित करने का प्रयास किया. डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘उत्तरायण’ काव्य में `सीता निर्वासन’ की घटना को असत्य ठहराने का प्रयास किया .
काव्य की अपनी एक गरिमा होती है और साथ ही उसकी अपनी सीमाएं भी. मनुष्य के जीवन के व्यापक संघर्ष, मानसिक घात –प्रतिघात, मानव मनोविज्ञान और कथा का व्यापक प्रसार जितना गद्य में अभिव्यंजित हो सकता है, उतना शायद काव्य में नहीं . यही सोचकर बाद में रामकथा को यहाँ तक कि महाभारत को भी उपन्यास में ढालने के प्रयास हुए. आचार्य चतुरसेन ने रावण को नायक बनाकर शोधपरक विश्रुत उपन्यास ‘वयं रक्षामः‘ की रचना की जो आज भी पूर्ववत लोकप्रिय है. कहना न होगा इस उपन्यास ने अपना एक अलग पाठक वर्ग तैयार किया . रावण को केंद्र में रखकर अन्य भाषाओँ में भी कुछ उपन्यास लिखे गए.
रामाख्यानक उपन्यासों में शुद्ध मानवीय धरातल पर राम के लोकनायकत्व की असली छवि नरेंद्र कोहली के उपन्यासों से प्रारम्भ हुयी. इस विषय पर आधारित उनके पहले उपन्यास ‘अभ्युदय‘ ने ही एक क्रान्ति सी उत्पन्न कर दी. ‘अभ्युद’य में पहली बार राम-कथा ने मिथक का आवरण उतारा और घटनाओं को सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक बनाकर प्रस्तुत किया गया. इसमें न कुछ अलौकिक है न अतिप्राकृतिक. इसकी कथा पूरी तरह भारतीय समाज और संस्कृति की प्रतिकृति है. नरेंद्र कोहली ने ‘अभ्युदय’ की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ और ‘युद्ध-1’ व ‘युद्ध-2’ में सम्पूर्ण राम कथा को औपन्यासिक स्वरुप प्रदान किया. राम कुमार ‘भ्रमर’ ने जो कार्य महाभारत पर किया वैसा ही कार्य नरेंद्र कोहली ने ‘महाभारत ‘ को औपन्यासिक स्वरूप देने से पूर्व राम-कथा पर किया और आगे की रचनाकारों के समक्ष ऐसी चुनौती रख दी कि फिर इस दिशा में लोगों ने प्रयास नहीं किया और कोई चर्चित उपन्यास प्रकाश में नहीं आया .
ऐसे घटाटोप में रेडग्रैब बुक्स (REDGRAB BOOKS ) द्वारा प्रकाशित डॉ. अशोक शर्मा का उपन्यास ‘सीता सोचती थी’ (प्र. 2017) एक चौंकाने वाली रचना है. सीता के वनवास पर घडियाली आंसू बहाने वाले तो बहुत हैं, पर उसको तर्कपूर्ण दृष्टि से देखने की समझ बहुत कम लोगों में है. ‘सीता सोचती थी’ नायिका प्रधान उपन्यास है और राम इसमें एक विशेष चरित्र की भूमिका में हैं. रामायण और रामाख्यानक काव्यों एवं उपन्यासों में सीता के प्रति सहानुभूति के चित्र ही अधिक उपलब्ध है पर क्या सीता सचमुच एक साधारण और निरीह चरित्र है, जिस पर बस केवल सहानुभूति ही की जाए . डॉ, शर्मा ने अपने उपन्यास में इस मिथ्या माया-जाल को तोडा है और सीता को विदुषी, चिन्तनशील एवं परिपक्व भारतीय नारी के रूप में प्रतिपादित किया है, जिसकी अपनी एक सुविचारित सोच है और जो पूरी दृढ़ता से आत्मनिर्णय लेने में सक्षम है .
उपन्यास का ताना-बाना जिसे कथानक कहते है, बड़ी सावधानी से बुना गया है और राम कथा के अनेक रोचक प्रसंग की व्यासक्ति से निस्पृह रहकर इसे अधिकाधिक सीता पर केन्द्रित रखने का प्रयास हुआ है .
अयोध्या में ‘अश्वमेध’ यज्ञ होने जा रहा है. राम के बुलाने पर सीता महर्षि वाल्मीकि के साथ अयोध्या आ चुकी हैं. अयोध्या में राम से मिलने के बाद वे एक-एक कर अपनी बहनों और सासु माताओं से मिलती हैं, सबसे अंत में कैकेयी मिलने आती है, सभी की अपनी सम्वेदनाएँ है, आत्मग्लानि है और सीता सबका प्रतिकार करती है. जो कुछ हुआ प्रारब्ध के अनुसार हुआ. कैकेयी के जाने के बाद सीता लेट जाती है और कुछ ही देर बाद उन्हें निद्रा आ जाती है .
उपन्यास में आगे की कहानी पुष्पवाटिका में राम-सीता की भेट और सीता के स्वयंवर से प्रारंभ होती है . राजा जनक के आमंत्रण पर दशरथ मिथिला आते है. चारों भाइयों का विवाह होता है, बारात के वापस होने पर तुलसी से इतर वाल्मीकि रामायण की तर्ज पर रास्ते में परशुराम का व्यवधान आता है. उपन्यासकार ने इसे बहुत ही संक्षेप में सांकेतिक उपादानों से व्यंजित किया है. अयोध्या में राम के राज्याभिषेक का उपक्रम होता है. कैकेयी माता के हस्तक्षेप से घटनाक्रम तेजी से बदलता है और राम सीता के साथ लक्ष्मण वन की और प्रस्थान करते हैं, यहाँ उपन्यासकार ने मंथरा आदि के प्रसंग से परहेज कर कथानक को अधिकाधिक सीता केन्द्रित करने का प्रयास किया है. आगे कथा में सीता का राम के मुख से अहल्या की कथा सुनना, शरभंग मुनि का योगाग्नि में भस्म होना और सुतीक्षण मुनि के अनुराग का संक्षेप में जिक्र करते हुए कथानक में सूर्पणखा का प्राकट्य होता है. खर, दूषण और त्रिशिरा से राम का युद्ध और सूर्पणखा का रावण के पास जाकर अपने अपमान का समाचार देना इस उपन्यास में मात्र उल्लेख के रूप में आया है. सूर्पणखा उपन्यास में हर जगह सुपर्णखा मुद्रित है, जो खटकने वाली बात है . आगे उपन्यास में बिना किसी प्रस्तावना के स्वर्णमृग प्रकट होता है, राम उसके पीछे जाते हैं और रावण सीता का हरण कर लेता है. जटायु का स्मरण बाद में सीता की चितन धारा में होता है. अशोक बाटिका का प्रसंग स्वाभाविक रूप से कुछ लम्बा है और यहाँ सीता के गौरवशाली चरित्र के सुन्दर संकेत मिलते है. इस उपन्यास में युद्ध का कोई वर्णन नहीं हुआ . सीता को युद्ध के परिणाम त्रिजटा के माध्यम से मिलते रहते है. रावण की मृत्यु के बाद हनुमान सीता से मिलते है और लंका पर राम की विजय का समाचार सुनाते है. सीता को अशोक वाटिका से राम के शिविर तक लाने का कार्य विभीषण के द्वारा कराया गया है. अयोध्या वापस आकर राम राजा बनते हैं और सीता को राज्यमहिषी का सम्मान मिलता है. गुप्तचर भद्र से राम को ज्ञात होता है उनकी प्रजा के एक वर्ग में सीता के चरित्र को लेकर शंका है. इधर सीता माँ बनने वाली हैं . राम के सामने अजीब सा धर्म-संकट है. वे गहरी चिंता में पड़ जाते हैं . इस सत्य का संज्ञान होते ही सीता अपना मंतव्य स्पष्ट कर देती हैं , वे गंगा के तट पर स्थित वाल्मीकि के आश्रम जायेंगी. उपन्यासकार के अनुसार राम ने सीता को वनवास नहीं दिया . राम के राज-धर्म के बीच सीता की पवित्रता को लेकर आये संकट को लक्ष्य कर अपने वनवास का निर्णय सीता ने स्वयं लिया और इतना ही नही इस हेतु राम को सफलतापूर्वक राजी भी किया. ‘सीता सोचती थी’ उपन्यास में इस प्रसंग को अच्छा विस्तार मिला है . इस प्रकरण में डॉ. शर्मा ने उपन्यास के अंतर्गत ‘दर्द भरे गीतों के स्वर’ उप-शीर्षक में राम और सीता के मानसिक द्वन्द का निरूपण बड़े विस्तार से कर उसे एक तार्किक अधिकरण प्रदान किया है सीता के इस आत्म-निर्णय का पता सिवाय राम के और किसी को नहीं है . कालांतर में जब लक्ष्मण अश्वमेध यज्ञ में प्रतिभाग लेने आयी सीता से भेंट कर अपनी ग्लानि प्रकट करते है, तब सीता इस सत्य उदघाटन करती हैं -
‘जो कुछ हुआ, वह उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए तुम्हारी भाई की सहमति से लिया हुआ मेरा अपना निर्णय था , जिसके लिए मैं आज तक दुखी नहीं हूँ.’
सीता को महर्षि वाल्मीकि के आश्रम तक छोइने स्वयं लक्ष्मण गए थे. सीता उस आश्रम में बारह वर्ष तक रहीं , इस अवधि में उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया, उन्हें पढाया लिखाया और महर्षि के सहयोग से राम कथा के शास्त्रीय गायन में पारंगत किया . फिर अचानक एक दिन महर्षि को राम की और से अयोध्या में होने वाले ‘अश्वमेध‘ में सीता को साथ लेकर आने का आमंत्रण मिला .
मानस के बाद हिदी में राम-कथा पर जो भी साहित्य रचा गया उसमे अधिकांशतः राम को ब्रह्म के अवतार से मुक्त कर सामान्य मानव के रूप में ही प्रस्तुत किया गया . नरेंद्र कोहली ने तो रामायण की सारी घटनाओं को संभाव्य बनाकर इस तरह पेश किया कि लोग उसे मानने को बाध्य हो गए. आगे भी रचनाकारों द्वारा ऐसे ही प्रयास जारी रहे . ‘सीता सोंचती थीं ‘ में भी अति प्राकृतिक घटनाओं को संभाव्य रूप में प्रस्तुत किया गया है. सीता के जन्म से सम्बंधित जो मिथ है उसे प्रश्नोत्तर के जाल में अनुत्तरित सा छोड़ दिया गया है –
‘माँ क्या मैं आपकी कोख से नहीं धरती से पैदा हुयी थी?’
इस प्रश्न पर माँ कुछ देर तक उसका मुख देखती रही., फिर हाथ पकड़कर उन्हें अपने पास खींचकर गोद में बिठाया और बोलीं.
‘किसी भ्रम में मत रहो बेटी, मैं ही तुम्हारी माँ हूँ. हर स्त्री धरती ही तो होती है .
‘फिर पिताश्री के हल चलाने वाली बात भी क्या मिथ्या है ?’
‘वह भी मिथ्या नहीं है ----इस समाज को चलाने में पुरुषों की अपनी भूमिका होती है, वह वही कर रहे थे.’ )
इस वर्णन में प्रश्न को टालने का भाव है और मिथ से आक्रांत परम्परवादी को ऐसे तर्क अधिक संतुष्ट नहीं कर पाते. इसी प्रकार उपन्यास में अहल्या के पत्थर हो जाने का प्रसंग है , इस सम्बन्ध में स्वयं राम का कथन इस प्रकार है-
‘एक बार तो उनका नन्हा बच्चा भूख के कारण रोता रहा और वे उसी अवसाद की स्थिति में शून्य को देखती रहीं. बच्चे ने रो-रोकर अपने प्राण त्याग दिए, किन्तु वे प्रतिज्ञा विहीन ही रहीं . लोग कहने लगे की अहल्या पत्थर हो गयी है.
अहल्या के पुत्र की यह कथा मिथ में नहीं है . शायद यह लेखक की अपनी कल्पना हो. यद्यपि यह परिकल्पना अहल्या को जडवत सिद्ध करने के लिए हुयी है पर बहुत ही ऊहात्मक है. विशेषकर उपन्यास की उस परिस्थिति में जब राम के ही पुत्रवत स्नेहिल संबोधन से ही वे सामान्य हुईं.
‘कुछ नहीं , केवल उन्हें ‘माँ’ कहकर पुकारा. थोड़े स्नेह के बोल बोले . उन्हें परिस्थितियों से हारने की नहीं , लड़ने की सलाह दी.’
नवीनता का आग्रह लिए लेखक प्रायशः राम को मानवीय धरातल पर चित्रित करने का दावा करते है, परन्तु मिथ लेखक के रक्त में बसा होता है. वह भारतीय संस्कारों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाता. सीता-स्वयंवर में रावण की उपस्थित सर्वमान्य है किन्तु इस उपन्यास में प्रस्थान से पूर्व रावण ने जो किया वह मिथक का प्रछन्न प्रभाव है. हो सकता है कि यह प्रसंग ‘वयं रक्षामः‘ की तर्ज पर लिया गया हो पर यह हमारे संस्कारों की बेड़ी है, जिससे पूर्णतः उबरने में कुछ समय लगेगा –
‘रावण, शस्त्रों सहित अपने आसन से उठा, जहाँ पर राम और सीता खड़े थे, वहां पहुंचकर उनके पैरों पर दृष्टि डाली. वहां पर पुष्पों की पंखुड़ियां पडी थी. रावण ने उनमे से कुछ पंखुड़ियां राम के पैरों के पास से और कुछ सीता के पैरों के पास से उठाईं , अपने मस्तक से लगाईं और चुपचाप उन्हें अपने हाथ में समेटे , सभा भवन से बाहर निकल गया.’
ऐसा ही एक विचलन उस स्थल पर हुआ है, जब अशोक वाटिका में हनुमान सीता को राम की विजय का समाचार देने आये . तब सीता ने उन्हें पुरस्कृत करते हुए कहा –
‘ठीक है तो मैं तुम्हे आशीर्वाद देती हूँ कि तुम्हे पूजने वाले व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं होगा’
यह आशीर्वाद नहीं वरदान है. सामान्य मानव वरदान नहीं देते और हनुमान को पूजने का क्या अर्थ है क्या वे वनचर से भिन्न कुछ अलौकिक हैं. उपन्यासकार ने लंका की आग और आँधी के प्रसंग में तो उन्हें सामान्य वनचर ही दर्शाया. फिर यह विचलन क्यों ? इसमें लेखक का भी कोई दोष नहीं है . दरअसल हमारे संस्कारों की नीव इतनी गहरी है कि नवीन चिन्तन की कोशिश में हम ऐसी चूक प्रायशः अनजाने में कर जाते हैं .
उपन्यास में सीता के चरित्र की एक अनिवर्चनीय विशेषता यह है कि वह किसी भी घटना या व्यवहार के लिए किसी चरित्र विशेष को दोष नहीं देती. उनके अनुसार जो कुछ भी हुआ वह प्रारब्ध के अनुसार हुआ . इतना ही नहीं वह आत्म-मंथन भी करती है और निष्कर्ष में पाती है कि जीवन में अनेक गलतियां स्वयं उनसे हुयी हैं. उपन्यास में वह राम से कहती हैं – ‘ यदि मैं सोने के मृग के मोह में नहीं पड़ती और लक्ष्मण की बात को समझ लेती कि इसमें कुछ छल है, सोने का मृग नहीं हो सकता, तो आप उस मृग के पीछे नहीं जाते और यदि मैंने किसी अपरिचित व्यक्ति पर विश्वास न करने की मर्यादा की रक्षा की होती, वह लक्षमण-रेखा न लांघी होती तो शायद मेरा अपहरण भी न होता.’ अपनी इसी सोच के कारण वह कैकेयी को भी दोष नहीं देती. पर वनवास में दंडक वन ही क्यों और अवधि चौदह वर्ष ही क्यों? कम या अधिक क्यों नहीं ? यह प्रश्न उन्हें किसी गहरे रहस्य में डालता है और कैकेयी की योजना उन्हें सुविचारित सी लगती है . पर फिर भी कैकेयी उनकी दृष्टि में निर्दोष है, उन्होंने जो कुछ किया शायद वही उस समय की आवश्यकता थी. कैकेयी की आत्मग्लानि का प्रक्षालन सीता इस उपन्यास में इस प्रकार करती है –
‘माँ, आप केवल वीर रमणी ही नहीं रही, पतिव्रता, कर्तव्यनिष्ठा और दूरद्रष्टा भी रही हैं और इस सबके बदले कितना विष आज तक आपने अकेले ही पिया है. आप आत्मग्लानि का भाव त्याग दीजिये. आपने जो कुछ किया रघुवंश के भले के लिए ही किया है. यदि आप नहीं होतीं तो राम, राम नहीं होते.’
पति के विछोह में कोई भी नारी टूट सकती है. सीता ने अशोक बाटिका की अवधि आंसुओं में काटी तो यह उनके पातिव्रत्य था. पर वह सामान्य दुर्बल नारी नहीं थी. रावण की धमकियों का प्रतिकार उन्होंने जिस दृढ़ता से किया वह उनके धीर-वीर स्वरुप की अनुपम झांकी है –
‘तुम्हे किस बात का घमंड है रावण? अपने साम्राज्य का अपनी वीरता का या अपने बंधु-बांधवों का? स्मरण रखना. मुझे लोग धरती की पुत्री कहते हैं और धरती हिलती है, तो बड़े-बड़े साम्राज्य पल भर में नष्ट हो जाते हैं. वृद्ध मंत्री सुपार्श्व के साथ आकर एक बार रावण सचमुच सीता का वध करने हेतु उद्यत होता है, तब सीता सहसा हँसकर खड़ी हो जाती हैं और और भेद देनेवाली दृष्टि से रावन की ओर देखकर कहती है- ‘आओं मृत्यु तुम्हारा स्वागत है.’ निहत्थी और अकेली सीता का ऐसा साहस देखकर रावण हतबुद्धि हो जाता है और अंततः वापस चला जाता है . पर सीता का आक्रोश तब भी शांत नहीं होता. वह मृत्यु से ही प्रश्न कर बैठती हैं –
‘मृत्यु!’ उन्होंने ऐसे कहा जैसे कोई सामने खड़े किसी व्यक्ति को संबोधित कर रहा हो , ‘किस्से डर गयी तू? मुझसे या मेरे दुर्भाग्य से?’
उपन्यास के कथानक में यू टर्न (U-tern) तब आता है जब सीता अपने जीवन के पिछले सारे अध्यायों को अपनी निद्रा में जी चुकी है. आज अयोध्या में ‘अश्वमेध’ का शुभारम्भ है. राम के भेजे वस्त्र पहन कर सीता यज्ञस्थल पर पहुँच चुकी हैं. पर विग्रही तत्व वहाँ पहले से उपस्थित हैं. सीता पर फिर वही लांछन, वही प्रश्न दुहराये जाते हैं . सीता तेरह माह रावण की लंका में बिताकर आयी है, वह किस प्रकार यज्ञ में राम के साथ बैठने की अधिकारिणी हैं? इस बार सीता ने स्वयं मोर्चा सभाला. उन्होंने उच्च स्वर में घोषणा की –
‘यह आरोप किसी की पत्नी पर ही नहीं , अपितु अयोध्या की महारानी और यह रघुकुल की प्रतिष्ठा पर लगा हुआ प्रश्न भी है, इसका समूल नाश होना ही चाहिए.’
सीता यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि पर हाथ लेकर पवित्रता की शपथ लेती हैं. परन्तु यह इत्यलम नहीं है. सीता कितनी बार परीक्षा देगी. इस परीक्षा का कोई अंत होना चाहिए और सीता ने सोच लिया है. वह दृढ संकल्पित है. सीता अचानक यज्ञशाला छोड़कर वन की और प्रस्थान करती है. इससे पहले कि राम और अयोध्यावासी कुछ समझें वह दूर जा चुकी है. अब एक भारी भीड़ उनकी तलाश में है, राम सीता के पदचिह्नों के पीछे विक्षिप्तों की भाँति भाग रहे है. एक कुञ्ज के नीचे धरती पर कुछ दरारे हैं. यहाँ कुछ फूल पड़े हैं पर सीता का कहीं पता नहीं है .
सीता ने जो सोंचा वह किया. उपन्यास ने सीता के व्यक्तित्व और चरित्र को नए प्रतिमान दिए. किसी उपन्यास का अवगाहन करने के बाद यदि प्रमाता स्तब्ध रह जाए तो यह उस उपन्यास की सफलता मानी जायेगी. ‘सीता सोंचती थी ‘उपन्यास के साथ ठीक ऐसा ही अनुभव होता है. इसकी भाषा यद्यपि सरल है पर भाव बहुत ही गहरे और परिपक्व हैं. राम पर आस्था रखने वाला कोई भी उदारमना पाठक यदि इस उपन्यास का पाठ नहीं कर पाया तो यह उसका अपना दुर्भाग्य होगा .
(मौलिक /अप्रकाशित )
ES-1/436, सीतापुर रोड योजना कालोनी निकट राम-राम बैंक चौराहा , लखनऊ
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