ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – माह जून 2017 – एक प्रतिवेदन - डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव
24 जून 2010 अमेरिका के जॉन इसनर और फ्रांस के निकोला मायू के बीच ग्यारह घंटे पाँच मिनट तक चले विश्व के सबसे लम्बे टेनिस मैच के लिए याद किया जाता है. वर्ष 2017 में यह दिन ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर के साहित्य अनुरागियों के नाम रहा जिन्होंने उमस भरी गर्मी में डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी के आवास पर सायं 4 बजे आयोजित काव्य संध्या में प्रतिबद्धता दर्शाते हुए अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज की.
कार्यक्रम का आरम्भ परम्परागत ढंग से माँ सरस्वती की भक्तिपूर्ण स्तुति से हुआ. संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने माँ का स्तवन किया और केवल प्रसाद ‘सत्यम’ को भी इसी भावधारा में खींचकर उन्हें भी माँ की वंदना हेतु आमंत्रित किया. कवि सत्यम ने इस अनुरोध को पूर्ण कर अपना ध्यान दोहों पर केन्द्रित किया. आजकल वे नेट पर ‘आज का दोहा’ शीर्षक से नित्य नए दोहे रच रहे हैं और निस्संदेह उनके पास एक उर्वर निधि तैयार हो गई होगी. उन्होंने दोहों की झड़ी सी लगा दी. कुछ दोहे भाव की दृष्टि से बहुत ही प्रभावपूर्ण थे. यथा-
पुलक -पुलक कर जब उठे जादू करते नैन
दिखा स्याम प्रिय रंग को लुटे मन का चैन
कवयित्री भावना मौर्य रवायती ग़ज़लों के लिए ख्याति प्राप्त हैं. उन्होंने अपनी ग़ज़लों से सभी को आप्यायित किया. उनकी ग़ज़ल के इस शेर में दोस्ती की महक आरजू बनकर मुखर हुयी है –
न बातें अब लबों पर दोस्तों बेकाम की आयें .
फिजाओं में महक बस दोस्तों के नाम की आयें
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य‘ अपनी गायकी और अंदाज़ के लिए मशहूर हैं. उन्होंने आज के हालात पर कुछ बेहतरीन ग़ज़लें सुनाई. उनकी एक ग़ज़ल का मतला इस प्रकार है –
चर्ख-ए-वक्त हमेशा चला धीरे-धीरे
ज़िन्दगी तुझसे मैं मिलता गया धीरे-धीरे
एस सी ब्रह्मचारी आजकल बनारस में रहने लगे हैं लेकिन सौभाग्य से गोष्ठी के दिन शहर मे थे. ओ बी ओ की गोष्ठी के नाम पर उनका समागम हुआ. उन्होंने स्मृतियों को कुरेद कर एक पुरानी कविता बरामद की और उसे अपने अंदाज़ में सुनाया.
टप-टप गिरती रहीं सावन की बूँद
चमेली के उर पर जब आ पड़ी धीरे से
मैंने आँखे ली मूँद
सुश्री कुंती मुकर्जी की कवितायेँ ऐसी हैं मानो वह उस अज्ञात सत्ता से अपने मन की कुछ बातें साझा करना चाहती है जिसे अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि का नियंता माना जाता है -
अभी पौ फटा नहीं था
न अभी दिन उगा था -
वह ज़िंदगी की गगरी सर पर उठाए
ज़िंदगी की खोज में निकल पड़ा था
उस अपरिमेय जादूगर का व्याकुल संगीत ही मानो इस सृष्टि का अप्रतिहत कोलाहल है -
शीशे की ओट में खड़ी
मेरी खानाबदोश आंखें
ताक रही हैं उस जादूगर की राह
जाने किस चट्टान का सहारा लिये
वह गा रहा है,
उसका बेचैन सुर
मेरी व्याकुल आत्मा को
और भी व्याकुल कर रहा....
डॉ० शरदिंदु मुकर्जी ने गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता ‘बैर्थो‘ (अर्थात व्यर्थ या निरर्थक), का हिन्दी में भावानुवाद कर गुरुवाणी को सार्थक शब्द दिए और उनकी गहन भावनाओं से अभिज्ञ कराया.
क्यों भोर की वेला ऐसे
भर देती संगीत गगन में ?
क्यों सितारों से माला गूँथा
फूलों की सेज बिछाई
क्यों दक्षिण पवन कानों में
कुछ कह जाता गोपन में ?
यदि प्रेम नहीं दिया मन में
शरदिंदु की अपनी कविता भी भावों के उच्च अधिकरण पर अवस्थित होकर अपना स्वरुप दर्शन कराती है. यथा -
जब जब जीवन नैया डोले
लेती यूँ ही हिचकोले
तब तब मुझको छू लेना तुम
मिल जायेगी नयी राह
मिल जायेगा नया गगन, कोई
मिल जायेगी नयी छाँह.
रे पगले विश्राम कर ले
अब क्या दिन, क्या काली रात
शुरू होगा चलना फिर से
फिर फिर बिछेगी नयी बिसात.
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ओज के कवि हैं. यह ओज उनकी शृंगारिक रचनाओं में भी पैठ बनाता है. यह अंदाज़ एक नवीनता का आभास देता है. उनकी सांत्वना के स्वर कुछ इस प्रकार हैं –
कहाँ खो गए हो, यूँ क्यों अनमने हो
ग़ज़ल के उस्ताद कहे जाने वाले कुंवर कुसुमेश ने दो सर्वथा नवीन और बहुत ही शानदार ग़ज़लें सुनायी. उनका स्वर और अंदाजे बयां ग़ज़ल को सदैव एक नया आयाम देता है. गरीब, उसका हक़, उसकी भूख और रोटी का निवाला इसे ग़ज़ल के मतले में मुलाहिजा फरमायें -
गरीबों को यहाँ पर हक़ बड़ी मुश्किल से मिलता है .
कि रोटी का निवाला तक बड़ी मुश्किल से मिलता है .
कार्यक्रम के अंत में डॉ० गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने पहले ‘सहारा’ और ‘उद्धार’ शीर्षक से दो मार्मिक लघु कथाएँ सुनाई. इसके बाद उन्होंने अपने गीत से वातावरण की गजलियत का भार हल्का किया –
सूने आँगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर
कार्यक्रम की अंतिम प्रस्तुति उनके ग़ज़ल से हुयी जिसका मक्ता बानगी के रूप में प्रस्तुत है –
मैं क्षितिज को पार करके आ गया हूँ इस तरफ
तुम अगर भागीरथी का स्रोत भी लाये तो क्या ?
ए सी की हवा बड़ी लुभावनी थी. समोसे और पकौड़े के साथ चाय और कोल्ड ड्रिंक भी थी पर उमस में वापस जाना सभी की मजबूरी थी.
उत्सव यह आसाढ़ का मेघायित आकाश
सावन-पावस में मदिर रस वर्षा की आश
(सद्यरचित)
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