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ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या माह अगस्त  2020–एक प्रतिवेदन       :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

 

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक काव्य गोष्ठी 23 अगस्त 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई i इस कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने की I संचालन श्री  मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने किया I इस कार्यक्रम का प्रथम सत्र श्री अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ की कविता पर एक विमर्श से प्रारंभ हुआ, जिसमें ओबीओ लखनऊ-चैप्टर के लगभग सभी सदस्य प्रतिभागी बने I इस विमर्श का प्रतिवेदन अलग से तैयार कर ओबीओ एडमिन को भेजा जा रहा है I

कार्यक्रम के दूसरे चरण में अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काव्य-पाठ प्रारंभ हुआ I सुधी संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज’ ने प्रथम पाठ के लिए सुश्री अर्चना प्रकाश को आहूत किया और वातावरण ‘शुभ घड़ी आयी अयोध्या के द्वार I पुलक जन गावें मंगलचार II’ से मंगलमय हो उठा I इस कविता में लोक-गीत की आभा थी, जैसे गाँव के मंदिरों में वट वृक्ष के नीचे औरतों का हुजूम हो और मंगल बरस रहा हो I यही भारत की अस्मिता है I यह गीत राम मंदिर के निर्माण हेतु अयोध्या में हुए भूमिपूजन के सदर्भ में था I अर्चना जी ने अपनी अन्य कविताओं के साथ ‘नारी’ शीर्षक से एक पारंपरिक उपालंभ भी सुनाया I

नारी बस नारी ही है,

वह एक महा अध्याय ।

तुमने दिए लांछन अनेक ,

लपटों में डाला अकारण ।

वह सीता बन हुई महान ,

तन-मन बना धर्म पुराण ।

तुम व्यर्थ श्राप देते रहे ,

विश्वासों के थोड़े उपमान ।

इस क्रम में संचालक महोदय ने नारी महत्ता पर राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ उद्धृत कीं –‘–एक नहीं दो–दो मात्रायें नर से भारी नारी II’

 

अगली पाठिका थीं, कवयित्री सुश्री आभा खरे I आभा जी आजकल अपनी हर रचना से सोपान दर सोपान उन्नत होती जा रही हैं I किसी की कविता के प्रेम में पड़कर उनके मूड का अक्स जिन छवियों को उकेरता है, वह आभा जी की प्रस्तुत कविता की पहचान है I कविता इस प्रकार है –

मैं / तुम्हारी कविता के प्रेम में हूँ ..!/  मेरे और तुम्हारे शहर के दरम्यां/ साझेदार हुए आसमान के /  शोख़ नीलाई पुते / एक चौरस टुकड़े के ठीक बीचों बीच /ये जो नर्म धूप और बारिशों के आलिंगन रत / मूड का अक्स उभरा है न / जिसे मेरी और तुम्हारी दुनिया / सप्तरंगी इंद्रधनुष कहती है ...

दरअसल ये महज़ इंद्रधनुष नहीं है / इसके हर एक रंग के परत में / बाँध दिये हैं मैंने /

अपनी खुशियों /  आकांक्षाओं , सुख ,समर्पण और प्रेम / के अनगिन लमहे । / मैं सौंप देना चाहती हूँ / इन सभी लमहों को/ तुम्हारी अर्चना में / और माँग लेना चाहती हूँ / तुमसे चंद वो अनुरागी शब्द/ जिसको पिरोकर मैं अपने मनोभावों में ./. कह सकूँ तुमसे / अपनी मनकही... !!

सतरंगी इंद्रधनुष के माध्यम से आभा जी ने नारी संवेदना की उन ऊँचाइयों को छुआ है, जहाँ  नारी विमर्श स्तब्ध हो जाता है और मनुष्य कीलित ! नतमस्तक ! विद्रोह के क्षोभ और समर्पण के सुख में यही तो अंतर है I

 

कवयित्री संध्या सिंह ने अपनी कविता ‘अनुपात’ प्रस्तुत की I इस कविता में आनुपातिक विसंगति का चयन बड़ा अद्भुत है i कवयित्री ने टटके रूपकों का चयन इतनी ख़ूबसूरती से किया है, कि वे तल्ख़ सच्चाई के उपादान बन जाते हैं I कविता का एक भी अंश ऐसा नहीं    है, जो बाँधने में समर्थ न हो I कविता अंत तक कौतूहल बनाये रखती है और एक सर्वग्राह्य निष्कर्ष तक पहुँचती है, कुछ इस प्रकार –

थाली में / बहुत कम थीं रोटियाँ / और पेट में चूहे बहुत सारे

आँखों के काउंटर पर / बहुत थोड़े थे आँसू / और दर्द की कतार लम्बी

बहुत ज़रा सा था / नन्ही हथेली का चुल्लू भर पानी / और बहुत बड़े थे / बड़े लोगों के गुनाह

सैकडों मीटर लम्बा था/ स्त्री के सपनों का थान / मगर हकीकत / बालिश्त भर रुमाल

हज़ार कोस दूर थे / उनके गाँव/ मगर / पाँव केवल दो

ज़हन में थे /उँगली पर गिने हुए शब्द /मगर संवेदनाएं /रोमकूपों की तरह /पूरी देह पर/

असंख्य

बहुत गलत अनुपात में / किया गया था / राज्य में वितरण / कितना कमज़ोर था / राजा का गणित.

 

सुश्री कुंती मुकर्जी ने अपनी कविता में नारी की दैनंदिनी के पन्ने खोलकर रख दिए I मनुष्य द्वारा घरेलू औरत को दिये जाने वाला तानो का एक स्थाई भाव है –‘आखिर दिन भर करती ही क्या हो ?’ इस ताने का एक सुघर जवाब है यह कविता और इस साफगोई के साथ कि समय हालाँकि दम लेने की फुर्सत नहीं होती पर नारी –

‘----दहलीज से कुछ पल

कुछ चुहल

ले लेती है उधार

जिसमें पडोसिनों की ताक-झाक भी होती है शामिल

खडे-खडे ही मुहल्ले भर की खबर आ जाती है पल्लू में.’----- और तब पकाती है वह        हाँड़ी में सारे रिश्तों का प्यार, जिससे पेट के साथ ही साथ तृप्त होता है सबका मन I कौशांबरी जी ने इस कविता के संबंध में ठीक ही कहा कि औरत दिन भर क्या करती है इस बात को सिर्फ एक औरत ही ढंग से समझ सकती है I

 

हँसी कहीं है खो गयी लायें जाकर हाँकI

कविता पढ़ने आ रहे कविवर श्रेष्ठ मृगांक।---यह किसी कवि का दोहा नहीं था I यह संचालक मनुज का अपना अंदाज था हास्य के सर्जक श्री मृगांक श्रीवास्तव को आहूत करने का I मृगांक जी ने माँ वाणी का नमन करते हुए पत्नी की ख्वाहिश का राज कुछ इस प्रकार खोला - ख्वाहिशें अपूर्ण रहें, तो जिंदगी  क्रियाशील रहे।

पूरा करने में हर-एक, दिन-रात जुटा रहे।

पर पत्नी की बस,  इतनी ख्वाहिश होती है।

वह पतली भी रहे और पति पर भारी भी रहे।

कविता की अंतिम पंक्ति लाजवाब थी और उस पर नमिता जी का पंच यह रहा कि पत्नी की ख्वाहिशें असंभव सी न हो तो भला पत्नी कैसी?

मृगांक जी ने अपनी कविता ऑनलाइन टी / e-टी के स्वाद से भी सबको आह्लादित किया i इस चाय में वरायटी भी थी और तल्खी भी, जो व्यंग्यकार की पहचान होती है I

 

आलोक रावत ‘आहत लखनवी‘ का सम्मान संचालक मनुज ने इस प्रकार किया -

गीत ग़ज़ल स्वर भी मधुर हटा रहा हूँ रोक I

सुमधुर सा कुछ बज उठे पढ़ें श्री आलोक  II

अपनी भावपूर्ण ग़ज़ल के लिए ख्यात आहत लखनवी ने एक समकालीन कविता पढ़ी I इस कविता में उन्होंने यह दिखाने की अच्छी कोशिश की कि इंसान टूटने से पहले कितनी बार और कैसे-कैसे टूट सकता है, उसका क्या हश्र होता हैI एक बानगी देखिये -

टूट जाता है उसका मन

टूट जाता है उसका हृदय

टूट जाता है उसका धैर्य

टूट जाता है उसका संयम

टूट जाता है उसका साहस

टूट जाता है उसका गुरूर

टूट जाते हैं उसके रिश्ते

टूट जाती है आस की डोर

टूट जाती है उसकी हिम्मत

उपमा अलंकार का एक भेद है-‘ मालोपमा ‘I  इसमें उपमा की माला पिरोई जाती है i इसका सबसे लोकप्रिय उदाहरण है, बालीवुड का वह गीत – ‘एक लडकी को देखा तो ऐसा लगा I‘ इस गीत में जावेद अख्तर साहब ने अनेक बार जैसे, जैसे --- कहकर उपमाओं की झड़ी लगा दी है I यही मालोपमा है I आलोक जी ने इस कविता में टूटने की झड़ी लगा दी I  संध्या जी ने इस पर बढ़िया टिप्पणी की कि यह टूटने की अटूट शृंखला है I

 

कवयित्री डॉ अंजना मुखोपाध्याय के किसी प्रिय को सागर तरंग क्षितिज के पार ले गया है I इस कथन के अपने निहितार्थ हो सकते हैं I जो गया है तो कुछ चिह्न अभी बाकी हैं, यादें हैं , साथ गुजारे गये पलों की स्मृतिया हैं I कसक, पीड़ा और विछोह की अनुभूति है I किन्तु सबसे बेरहम है अनिर्दिष्ट पंथ पर गए किसी अतिशय अभिन्न का इंतजार I  अंजना जी ने जिस तरह इस कविता का ताना-बाना बुना है उसमें वे कहीं से भी प्रोषितपतिका या प्रवस्यतपतिका नहीं लगतीं,  तो फिर यह कैसा प्रिय है और प्रतीक्षा में उम्मीद की कितनी जगह है ? समग्र रूप से यह प्रतीक्षा एक मौन-मधि पुकार है, विशेषकर तब, जब अंजना जी कहती हैं -

हे पथिक प्रवर, मैंने न किया स्नान

गिनती रही खारे पानी का

फूटता उफान

करती रही दरकिनार, उसकी पुकार

ढूंढ़ती रही लौटती तरंग के

नीचे

कब जग उठे वो कदम कतार।

जलधि जहाँ दृष्टि चूमे नीला आसमान

अतिक्रम कर अथाह सागर

हृदय हुआ गतिमान

मन ने चाहा सागर निहारूं

प्रतिवचन करे पारापार

खुद को देखूँ, भान करूं

 कर लिया सागर पार।।

न बने योग अगर,

प्रतीक्षा

अजय श्रीवास्तव ‘विकल’ जी के गीतों पर मैथिलीशरण गुप्त जी का प्रच्छन्न प्रभाव दिखता है I वैसी ही इतिवृत्तात्मक शैली i अभिधा और प्रसाद से युक्त, पर रहस्यवाद की छाया लिए हुए i सुमित्रानंदन पंत कहते हैं –‘न जाने तपक तडित में कौन ? निमन्त्रण देता मुझको मौन II’ यह कौन ही तो रहस्य है ? अजय जी इसे सीधे-सादे शब्दों में कहते हैं- क्या रहस्य समझाते ?

यह आज का नहीं, बड़ा ही चिरंतन प्रश्न  I मानव प्रकृति को कब समझ पाया है ? द्वैतवादी इसीलिये प्रकृति को ईश्वर का व्यक्त रूप कहते हैं I इस गीत में भी अजय जी 14 और 16 मात्रा के फेर में हैं I मानवीकरण की आभा आद्यन्त विद्यमान है I कविता का निदर्शन निम्नवत है -   

रजनी का आंचल है भीगा,

संध्या की आँखें हैं नम l

धरा विकल है, गगन वियोग     

किंचित मन में हतप्रभ हम ll

नयनों की भाषा में खोकर,

            छिपकर हमको बहलाते l

            क्या रहस्य है समझाते?

संचालक मनुज जी ओज के कवि हैं I उनकी इस ओजस्विता में एक दर्द भी छिपा होता है i कवि उस दर्द को बांटना चाहता है I मनुष्य के चैन से सोने की कितनी मनोदशाएँ हो सकती हैं  और उनके पीछे कितने षड्यंत्र हो सकते हैं, उनका दिग्दर्शन इस मार्मिक कविता में बड़ी शिद्दत से हुआ है

अज्ञानी   भरकर   थैले  में  कुतर्क  चलते,

ज्ञानी  सब  मौन  डरे  सहमे  सकुचाते हैं।

विद्वान  मूक  बनकर जब घूम रहे हैं सब,

तब  वाचालों   के  धूर्त   चरण  इतराते हैं।

 

कुछ   षड्यंत्रों  से जूझ-जूझ कर सोते हैं,

कुछ के  पैरों  में निष्ठा के  अब भी छाले।

कुछ लोगों को सिक्कों की खनक सुलाती है,

कुछ के सपने  रंगीन  किसी के  हैं काले।

डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने पावस पर आधारित अपने गीत में त्रैलोक जाति के 21 मात्रिक छंद का प्रयोग किया है और यह फ़ारसी की बह्र रमल मुसद्दस सालिम/ फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन/  2122  2122  2122 की तर्ज पर भी है I इस गीत में बरसात होने के लिए जो देहाती टोटके हैं या भदेश परंपरायें है , उनका उल्लेख करते हुए वर्षा का चित्रण  किया गया है I एक बानगी इस प्रकार है -    

हो रही बरसात भीगी रात जमकर I

मेघ का उत्पात सारी रात जमकर II

माह सावन और भादों भी न बरसा

कंठ चातक का नहीं  इस बार सरसा  I

खोजते थे  लोग  जलधर को गगन में

खेत ऐसा था न जो जल को न तरसा II

इंद्र की हर ओर  होती बात जमकर

हो रही बरसात--------------------

 

ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ की ग़ज़ल उलझनों से बावस्ता दिखी I यह मुसलसल ग़ज़ल भी बहरे रमल मुसद्दस सालिम/ फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन/ 2122 2122 2122 पर आधारित थी i इससे पहले इसी बहर में डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव अपना गीत ‘हो रही बरसात जमकर‘ पेश कर चुके थे I इस ग़ज़ल में उलझन के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाया गया है i इसके कुछ अशआर अवश्य ध्यान खींचते हैं I जैसे –

शाइरी पढ़िए न पढ़िए, "वाह" कीजे I

शाइरी को चाहने वालों में उलझन II

पत्ता हिलने में भी जब है रब की मर्ज़ी I

फिर सज़ा क्यों, ये गुनहगारों में उलझनII

 

कवयित्री कौशांबरी जी ने जो कविता प्रस्तुत की, उसमें भी मूल भाव प्रतीक्षा ही है, पर वह  अंजना जी जैसा स्तब्धकारी नहीं है i इसमें मानो एक ‘सामान्या’ (नायिका) अपने बिछुड़े प्रिय से मिलने की सहज कामना में है I इस प्रतीक्षा में ललक है, उत्साह है, व्यग्रता और आतुरता भी है और एक स्वाभाविक आशा भी  - 

कब स्वप्न सितारे चमकेंगे ?

कब फूल लदेंगे बेला में ?

कब महकेगी रजनीगंधा ?

कब चहकेगा घर का आँगन ?

कब खटकेगी मन की सांकल ?

आ द्वार खड़े होगे प्रियतम I

कवयित्री नमिता सुंदर की कविता में शांति का एक विमुग्धकारी पथ है, जिसके स्वप्न हो जाने  की अप्रतिहत संभावना है –

हो सकता है

छतनार दरख्तों के साये तले

पुरसुकून एहसासों में लिपटी

शांति की यह डगर

तमाम उम्र

हमारे लिए

एक सपना बन जाए 

आगे उनके विचारों में विश्व शांति एवं बंधुत्व का कबूतर है, जिसके कैद हो जाने की भी संभावनायें हैं I फिर उनकी कल्पना में एक ऐसी दुनिया का तसव्वुर है, जिसमे हवाएं तो  बेख़ौफ़ हैं,  पर जन्म लेने वाले गीतों के बचने की संभावनायें कम हैं I  इसके बावजूद कवयित्री का अहद है कि-  

फिर भी

न तो  हम

सपने देखना छोड़ेंगे

न कोशिशें करना

डॉ. अशोक शर्मा की कविता में  भुलक्कड़पन का विंदास स्वीकार है I उनके हाथ में जब कोई  निर्गंध फूल आता है तब वे सोचते हैं, क्या आत्मा ईश्वर से अलग होकर उसे भूल गयी है ? कवि एक घोंसला बनाना चाहता है, क्योंकि सृजन में ही विश्व का अस्तित्व है i इसके लिए वह  भरपूर भटकता है और जब कुछ उम्मीद बनती है या उजास जगता है, तो उसे लगता है कि वह सृजन ही भूल गया I  इतना ही नहीं, कवि की आत्म-स्वीकृति यह भी है कि -

कूची और रंग तो मेरे हाथ लगे पर

आँखों में कुछ स्वप्न रुपहले नहीं खिल सके

मेरा मन बस शिल्प और लय लिए रह गया 

पर गीतों के लिए शब्द ही नहीं मिल सके

कभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी तब

मैंने जाना स्वर ही अपना भूल गया हूँ    

अंत में अध्यक्ष डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी कविता ‘व्यू पॉइंट’ प्रस्तुत की I ‘व्यू पॉइंट’ अर्थात वह स्थान जहाँ से कोई भरपूर नजारा किया जा सके I कवि जिंदगी के व्यू पॉइंट’ पर खड़ा जीवन को निहार रहा है I अभिलाषा के उच्च शिखर, कुछ हरियाली, चेतना की निर्मल सरिता, जो आज भी पुकार रही है, यह सब कवि की दृष्टि परिधि में हैं I जीवन में फिर जाने कहाँ से आ जाता है, अहंकार और अंधकार का घटाटोप, कवि उससे भागना चाहता है, पर ‘व्यू पॉइंट’ पर वह ठहर जाता है I यहाँ ठंडी हवा जीवन का उल्लास है i सूर्यास्त की प्रतीक्षा में शिखरों का रंग बदलना जीवन की निगति का संकेत है I इस कविता को सांग-रूपक में बाँधा गया है I रूपक के सभी उपादान प्रकृति से लिए गए है i सांग-रूपक बहुधा अन्योक्ति या समासोक्ति में परिणित होता है I कवि की दृष्टि सीमा में प्रकृति के जितने रूप और अपरूप हैं, वे सब आद्यंत मानव जीवन की कथा कहते हैं I इसलिए यहाँ अन्योक्ति है I इस कविता में दिवसावसान ही सब कुछ नहीं है I नन्हें से चिराग के जलने में उद्भव और आरंभ का संकेत भी वह मनोहारी दृश्य है, जो view point से अधिक प्रांजल दिखता है I यह सृष्टि के शाश्वत होने का रहस्य भी है  –

मन में उत्कंठा और हाथ में कैमरा लिए

सूर्यास्त की प्रतीक्षा में

उन शिखरों का रंग अब बदलने लगा है,

दिन का सूरज अदृश्य हो जाएगा

अंतिम चेतावनी के साथ

और कुछ देर के लिए छा जाएगा घोर अंधकार.

फिर किसी झोंपड़ी में

जल उठेगा एक नन्हा सा चिराग

और उसकी रोशनी में

मैं चल पड़ूँगा

एक नई सुबह की खोज में.

  अध्यक्षीय पाठ के बाद कार्यक्रम का औपचारिक समापन हुआ और लोग एक दूसरे से मिलने भेंटने में लग गये, पर मेरा मन view point पर कैमरा लिए चहलकदमी करते किसी व्यक्ति के तसव्वुर में खो गया -

मैं देख पा रहा हूँ/ दूर क्षितिज पर उभरती/ उषा की अरुणिमा को /  एक ज्यामितीय आकार में / आकाश की ओर  जाते / परिदों के सफेद झुण्ड को.

हाँ,  सुनता  हूँ / मलयानिल की रहस्यमयी खुस-फुस को / वृक्ष के उत्तुंग पर बैठे पक्षी के कलरव को /  धरती पर उठते जीवंत कोलाहल को.

समझ रहा हूँ / ओसियाये गाँव के घरों से / उठते सुरमई धुएं को / धूप से नहाये गलियारों में / कुछ अधनंगे बिलखते बच्चों को .

महसूस करता हूँ / सूरज की बढ़ती तपिश को / क्वाँरे घाम में खेतियाये किसानो को / झुर्रियों में दफ्न हुए दारुण इतिहास को .

परख रहा हूँ / द्वाभा में गाँव की ओर लौटती गायों को / झोपड़ी में सिसकती चिमनी को/  अंधियारे कफन में लिपटी बस्ती को / आसमान से झांकती / हजार-हजार आँखों को.

पलटता हूँ / फिर पूर्व की ओर / एक दुर्वह प्रतीक्षा में / एक दुर्निवार आशा में / हाँ, एक बार फिर  / उसी तलाश में / नये अरुणोदय की  (सद्य रचित)

(मौलिक/ अप्रकाशित )

 

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