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ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्यिक परिचर्चा माह जून 2020:: एक प्रतिवेदन   ::    संकलनकर्ता - डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

 दिनांक21.06.2020, रविवार को ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्यिक परिचर्चा माह जून   2020 का ऑन लाइन आयोजन हुआ I इसके प्रथम चरण में गज़लकार श्री भूपेन्द्र सिंह की निम्नांकित ग़ज़ल पर परिचर्चा हुयी I

यूँ तो कमी न थी कोई इल्मो वक़ार में,

फिर भी खड़े रहे उसी लम्बी क़तार में. II1II

जब जानते हैं चार दिनों की है ज़िन्दगी,

नफ़रत में क्यों बिताएँ बिताएँगे प्यार में. II2II

टूटा जो सिलसिला-ए-शबे-हिज़्र पूछ मत,

क्या-क्या उठे ख़याल दिलेबेक़रार में. II3II

अब अपनी ख़्वाहिशों पे तू क़ाबू तो रख बशर,             

खुशियाँ रहेंगी ख़ुद ही तेरे इख़्तियार में. II4II

मानें जो उनकी, वो हैं सियासत में मुब्तला,

मसरूफ़ियत है उन की मगर लूटमार में. II5II 

शमशीरे-इल्म तुझ में बला का कमाल है, 

कटती हैं मुश्क़िलों की जड़ें एक वार में. II6II    

ये तेरी बेरुख़ी की इनायत है संगदिल,

मुरझा गये हैं देख ले फ़स्लेबहार में II7II            

होती है तेज़ धार जो लफ़्ज़ोज़ुबान की,

देखी नहीं हैहमने कभी भी कटार में. II8II

तीमारदार होन सके  "होश" जो कभी,

देखे गए वही हैं सफ़ेग़मग़ुसार  में. II9II

परिचर्चा का आरंभ करने हेतु संचालक आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने सर्वप्रथम कवयित्री आभा खरे का आह्वान किया I आभा जी के अनुसार भूपेंद्र जी से उनकी ग़ज़लों को सुनना हमेशा ही सुखद रहा है। फिर वो चाहे तरन्नुम में हों या तहद में हो। मुझे लगता है सभी विधाओं में ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जो महफिलों का दिल लूट लेने का हुनर रखती है। और फिर उस ग़ज़ल का कहना ही क्या, जिसके अशआर अपनी कहन से श्रोता या पाठक पर सीधे तौर पर जुड़ जाते हैं I भूपेंद्र  जी की गजलें भी इसी मेयार पर स्थापित होती आयी हैं I

मृगांक श्रीवास्तव जी ने निम्नांकित  शेर की भूरि-भूरि प्रशंसा की और प्रत्येक शेर को सवा सेर माना I

अब अपनी ख़्वाहिशों पे तू क़ाबू तो रख बशर,             

खुशियाँ रहेंगी ख़ुद ही तेरे इख़्तियार में.

 

अजय श्रीवास्तव का कहना था कि ग़ज़ल तो अलग विधा है I फिर भी जितना मैंने समझा भूपेंद्र जी की ग़ज़ल बहुत ही सुंदर और विद्वता से पूर्ण है I

कवयित्री कुंती मुकर्जी के अनुसार भूपेंद्र जी बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और अरुज का बहुत ध्यान रखते हैं और हम लोग उनके शेरों से हमेशा ही लाभान्वित होते रहते हैं I

डॉ. अंजना मुखोपाध्याय का कहना था कि कुछ कठिन उर्दू के लफ्ज़ होने पर भी भूपेंद्र सिंह जी की शेरों की प्रस्तुति ही गजल को सार्थक बना देता है I ख्वाहिश और खुशियों का जो रिश्ता गज़लकार ने जोड़ा है, वह मेरी नजर में बहुत महत्वपूर्ण है I खुद को खुशी देने के लिए ख्वाहिशों को काबू में रखना जरूरी है I शायर ने अपने शेर में  जबान की लफ्ज़ों की धार को कटार की धार से भी तीक्ष्ण माना है I

डॉ कौशाम्बरी के अनुसार  भूपेंद्र सिह की ग़ज़ल को आत्मसात करने के पश्चात जो भाव प्रधान रूप से उभर रहे हैं, उन्हें अभिव्यक्त कर पाना कठिन हो रहा है  i हर शब्द हर पंक्ति मुखर है और बहुत खूबसूरत तरीके से पेश किया गया है I

कवियत्री नमिता सुंदर  के अनुसार भूपेंद्र  सिह की ग़ज़ल  के भाव भीतर तक उतर जाते हैं I ओन लाइन परिचर्चा के कारण हम भूपेंद्र जी से ग़ज़ल  सुन नहीं पाए पर उसको  पढकर धीरे धीरे मन में गुनना भी एक अलग मजा देता है I आलोच्य ग़ज़ल की मेरी पसंदीदा पंक्तियाँ हैं -

शमशीरे-इल्म तुझ में बला का कमाल है

कटती हैं मुश्क़िलों की जड़ें एक वार में.

इसमें ज्ञान की महिमा का बखान इतनी संपूर्णता और इतने कम शब्दों में हुआ है, जो चमत्कृत करता है I

डॉ. संध्या सिंह ने कहा कि भूपेंद्र जी की प्रस्तुत ग़ज़ल में एक-एक शेर का मेयार आसमान तक है l हर बार काफ़िया एक नए रूप में चमत्कार कर रहा है l मुझे कायदा, हाशिया,  क़ाफ़िला का प्रयोग प्रभावी लगा l इल्म से खुरदुरा होना एक नया प्रयोग है और हाँ फ़लसफ़ा भी बहुत शानदार l

डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने कहा कि भूपेंद्र जी की ग़ज़ल, जिस पर आज चर्चा हो रही है, उसके मतले से ही एक सार्वभौम सत्य उद्घाटित होता है और वह यह कि  इल्मो वकार की कमी न होने पर भी आज लोग भटक रहे हैं I इसके अतिरक्त ग़ज़ल में जीवन को प्यार से जीने का संदेश भी है i मोहब्बत, वियोग और उसके प्रभावों की  भी बढ़िया चर्चा हुयी है I राजनीति के विद्रूप पर भी बात की गयी है I कुछ अशआर मन को छू लेते हैं i जैसे-

शमशीरे - इल्म तुझ में बला का कमाल है

कटती हैं मुश्क़िलों की जड़ें एक वार मे II      

ये  तेरी बेरुख़ी की इनायत है संगदिल,

मुरझा गये हैं देख ले फ़स्ले-बहार में II             

ग़ज़ल का मक्ता भी लाजवाब है I बहर और शिल्प पर अभी तक कोइ चर्चा नही हुयी I हम सब जानते है कि भूपेंद्र  जी शिल्प निपुण हैं I ग़ज़ल का अरूज़ इस प्रकार है -बह्रे-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ महज़ूफ़/ मफ़ऊलु फ़ाइलातु मफ़ाईलु फ़ाइलुन / 221   2121 1221 212 ग़ज़लगोई का यह पक्ष निश्चय ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और भूपेंद्र  जी ने उसे शिद्दत से निभाया  है I

संचालक  आलोक रावत ‘आहत लखनवी‘ ने कहा, इसमें कोई दो राय नहीं है कि भूपेंद्र जी एक बहुत ही अच्छे ग़ज़लकार हैं | आलोच्य ग़ज़ल के बारे में मेरी राय कुछ इस तरह है ...

वज़्न → 221   2121   1221   212

अरकान → मफ़ऊलु  फ़ाइलातु  मफ़ाईलु  फ़ाइलुन

बह्र → बह्रे-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ महज़ूफ़

ग़ज़ल बहर के लिहाज़ से हर तरह से दुरुस्त है | हर जगह कसावट है | कुछ शेर दिल को छूते हैं | निम्नांकित शेर आपस की नफरत को मिटाकर ज़िंदगी को प्यार से जीने से जीने का संदेश दे रहा है |

जब जानते हैं चार दिनों की है ज़िन्दगी,          

नफ़रत में क्यों बिताएँ बिताएँगे प्यार में.

एक और शेर जो निम्नवत है, बहुत अच्छा है .... जो शख्स विरह में डूबा है, उसको अगर उससे उबरने का संकेत मिल जाए तो उसके दिल में उम्मीद कि एक किरण जाग उठती है, और फिर एक आशिक के दिल में कैसे कैसे ख्याल उठेंगे, ये तो इश्क़ करने वाला ही जान सकता है |

टूटा जो सिलसिला-ए-शबे-हिज़्र पूछ मत,

क्या-क्या उठे ख़याल दिलेबेक़रार में

इंसान को अपनी इच्छाओं को काबू में रखने की बात करें तो हमें अपनी इच्छाएँ सीमित कर लेंनी चाहिए i इससे मनुष्य का जीना शायद बहुत सहल हो जाएगा | भूपेंद्र  जी कहते है –

अब अपनी ख़्वाहिशों पे तू क़ाबू तो रख बशर,             

खुशियाँ  रहेंगी  ख़ुद  ही  तेरे इख़्तियार में.

इस शेर की रंगत देखकर मुझे मुझे अपना एक शेर याद आ गया –

रफ्ता रफ्ता हमने अपनी ख्वाहिशों को कम किया,

रफ्ता रफ्ता दर्दो-ग़म की सलवटें मिटने लगीं

भूपेंद्र  जी का शेर ‘शमशीरे-इल्म तुझ में बला का कमाल है / कटती हैं मुश्क़िलों की जड़ें एक वार में’ इल्म के महत्व को ज़ाहिर करता है | अगर आदमी में इल्मो हुनर है तो वो अपनी सारी परेशानियों के हल ढूंढ लेता है | इस क्रम में निम्नलिखित शेर तो आदमी को कटघरे में खड़ा कर देता है |

तीमारदार हो न सके "होश" जो कभी,

देखे गए वही  हैं सफ़े -ग़मग़ुसार में.

इस पूरी गजल में मतला मुझे वाजेह (स्पष्ट) नहीं हो सका कि भूपेंद्र जी किस कतार में खड़े होने की बात कर रहे हैं ...कभी भेंट होगी तो उन्ही से दरयाफ्त करूंगा I

यूँ तो कमी न थी कोई इल्मोवक़ार में,

फिर भी खड़े रहे उसी लम्बी क़तार में.

अंत में अपनी गजल पर रचनाकार के रूप में अपना मन्तव्य देते हुए भूपेंद्र सिंह ने कहा कि हम सभी जानते हैं, ग़ज़ल अशआरों का एक समुच्चय है जिसका हर शेर अपने आप में एक स्वतन्त्र विचार को प्रस्तुत करता है I उनका अंतर्संबंध अनिवार्य नहीं है I प्रस्तुत ग़ज़ल के अशआर भी इसी के अनुसार हैं और विभिन्न भावनाओं को निरूपित करते हैं I अशआर में इंगित भावों का ज़िक़्र करें तो मतला अशआर न. 1, 5 और मक़्ता में आज की स्थिति बयां हुई है तथा मतला, अशआर न. 2 और 4 में नसीहत दी गई है I इसी प्रकार न.3 तथा न.7शृंगार श्रृंगार रस में हैं और न.6 तथा न.8 में अनुभव बताए गये हैं I  इस प्रकार इस 9 अशआर की ग़ज़ल में भी अनेक भावों को प्रदर्शित किया गया है I  अशआर किस सीमा तक अपने अन्तर्हित भाव के साथ न्याय कर पाए हैं I इस का आकलन आप सभी प्रबुद्धजनों ने कर ही दिया है.I 

 ( मौलिक / अप्रकाशित )

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