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कुछ अनमोल रिश्ते   ( कहानी )

बचपन में  हमने  अपने दादा दादी और नाना नानी को तो नहीं देखा था ,पर हमारे पड़ोस में एक बुजुर्ग महिला जो अपने परिवार के साथ रहा करती थी । उन्ही से हमें बहुत प्यार मिला करता  उनका अकसर  हमारे घर में बिना नागा  जाना जाना  हुआ करता था ।हम उन्हें आमा यानी नानी कहा करते थे ।

वे जब भी हमारे घर आती थी,माँ उन्हें बड़े प्यार से बिठा कर चाय नाश्ता दिया करती थी । वे चाय नाश्ते के चुस्कियो के साथ-साथ अपनी हर छोटी-छोटी बातें ,हर दर्द हर दुख सुख माँ के साथ बाँटा करती थी। माँ भी उनकी हर बात बहुत ध्यान से सुनती और साथ ही उन्हें हिम्मत और तसल्ली भी देती रहती सब ठीक हो जायेगा चिंता मत करो ।धीरे धीरे उनका हमारे घर पर आना जाना इतना  अधिक होने लगा कि जिस दिन वो नहीं आती माँ को चिन्ता सी होजाती वे आज क्यों नहीं आई कहीं वे बीमार तो नहीं पड़ गई ? माँ की उनके लिए इतनी अधिक चिन्ता हम भाई बहनों कोकभी कभी  अच्छी नहीं लगती थी। हम सोचा करते थे उनका अपना भरा पूरा परिवार तो है बेटे बहू नाती पोते सभी तो हैउनके पास  ,फिर माँ उनकी इतनी फिक्र क्यों किया करती है?

समय बीतता रहा.उनका आना जाना उनकी गप शप और चाय नाश्ता यूँ ही चलता रहा ।जाड़ो के दिन शुरू होगए थे इधर कुछ दिनों से आमा भी हमारे घर नहीं आ पाई थी । एक दिन माँ अचानक परेशान होकर कहने लगी “तुम्हें पता है आमा बहुत बीमार है ..मैं उनसे मिलकर आरही हूँ कुछ दिनो से उन्होने कुछ भी नही खाया है ।मुझे देख कर कहने लगी मुझे तेरे हाथों की ही  चाय पीनी है ,कह कर  उनके लिए चाय बनाने लगी । माँ ने उनके लिए जल्दी जल्दी अदरक वाली चाय बनाई और सूजी का हल्वा बनाया ,जो उन्हें बहुत पसंद था  । बड़े प्यार से सब कुछ पैक कर वहाँ ले गई और हम देखते ही रहे । दूसरे दिन की सुबह उनके यहाँ कुछ शोर सा सुनाई दिया,माँ और मैं दौड़ कर वहाँ पहुँचे ,देखा आमा बेहोशी की हालत में पड़ी थी ,और घर वाले इर्द गिर्द हाथ बाँधे खड़े थे माँ ने उनके ठंड़े सूखे हुए हाथ को छूआ  माँ का स्पर्श पा कर मानो उनमें नई चेतना सी जाग गई हो उन्होंने अपनी पथराई हुई आँखे धीरे से खोली मानो कुछ कहना चाहती हो..मगर कह न पाई बस आँखो से दो बूँद आँसू छलक पड़े और शायद ये आँसू बहुत कुछ कह भी गए  बस फिर हमेशा के लिए उन्होंने अपनी आँखे बंद कर ली और शान्त हो गई हमेशा के लिए न कोई गिला न कोई शिकायत ..  सारे दुख दर्द यही छोड़कर कहीं दूर चली गई हमारी आमा |

उस वक्त हम उनकी बातें समझ नहीं पाते थे पर आज लगता है वो अपने भरे पूरे परिवार के बीच होते हुए भी खुद को कितनी अकेली महसूस करती होगी । चाय नाश्ता तो सिर्फ एक बहाना था, वो तो प्यार  और अपने पन की भूखी थी । शायद इसी लिए वो हमारे घर आया करती थी । आज हमारे बीच न तो माँ है न हीं आमा मगर बचपन की वो सारी बातें  याद कर आज भी आँखे  भर आती है

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मौलिक /अप्रकाशित 

महेश्वरी कनेरी 

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Comment by Maheshwari Kaneri on March 11, 2019 at 5:45pm

आदरणीय कवीर जी .आप का बहुत बहुत आभार 

Comment by Maheshwari Kaneri on March 11, 2019 at 5:43pm

आदरणीय रक्षिता जी .हौसला अफजाई के लिए आप का बहुत बहुत आभार 

Comment by रक्षिता सिंह on February 8, 2019 at 10:58am

 आदरणीया कनेरी जी, नमस्कार 

भावविभोर कर देने वाली सुंदर लघुकथा। 

Comment by Samar kabeer on February 7, 2019 at 2:56pm

मुहतरमा महेश्वरी कनेरी जी आदाब,अच्छी कहानी लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।

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