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है बहुत कहने को लेकिन अब तो चुप बहतर है।।

बह्र- 2122-2122-2122-22

है बहुत कहने को लेकिन अब तो चुप बहतर है।।
जो समझ पाए न तुम क्या फायदा कहकर है।।

शोर कितना ही मचाये, या करे अब बकझक।
मैं समझ लेता हूँ मेरा दिल भी इक दफ्तर है।।

खुश नशीबी है मेरी नफ़रत मुहब्बत जंग की।
हार कर भी जीतने जैसा ही इक अवसर है।।

अब मैं ढक लेता हूँ  खुद-का ये बदन अच्छे से।
अब नहीं मैं पहले जैसा गन्दगी अंदर है।।

गीत गाता खुश है लगता घाट का यह पीपल।
आस की चादर ढके पर दर्द का सागर है।।

प्रेम शब्दों में लिखूँ या फिर उकेरू संग में।
प्रेम का हर एक आखर स्वर्ण हस्ताक्षर है।।

क्या अचम्भा कर अगर है ठूठ सा ये पीपल।
इक अकेला ही नहीं ये दास्तां घर-घर है।।

चीर कर अहसास अपने दफ्न कर देता हूँ ।
गूँगे बहरों की कृपा जो आज भी हमपर है ।।

आमोद बिन्दौरी / मौलिक अप्रकाशित

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 27, 2018 at 7:27pm

अच्छी ग़ज़ल है अमोद जी...बाकी आदरणीय समर साहब से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ..

Comment by Samar kabeer on December 24, 2018 at 11:50am

जनाब आमोद बिंदौरी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन अभी शिल्प पर बहुत अभ्यास की ज़रूरत है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

खुश नशीबी है मेरी नफ़रत मुहब्बत जंग की'

इस मिसरे में 'खुश नशीबी' को "ख़ुश नसीबी" कर लें ।

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