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ग़ज़ल " जिंदगी से जी भर गया कब का "

2122 1212 22

ज़िन्दगी,जी तो भर गया कब का।
टूट कर मैं बिखर गया कब का ।।

***
इक मुहब्बत का था नशा मुझको।
वो नशा भी उतर गया कब का।।
***
चाहता था तुझे दिल-ओ-जां से।
वक़्त वो तो गुज़र गया कब का।।

***
देख हालत नशे के मारों की।
ख़ुद-ब-ख़ुद वो सुधर गया कब का।।

***
देख कर छल फ़रेब दुनिया के।
एक "इंसान" मर गया कब का।।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 10, 2017 at 8:07pm
वाह वाह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीय..सादर

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 10, 2017 at 7:22pm

आदरनीय सुरेन्द्र इंसान भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , बधाइयाँ स्वीकार करें । आ. समर भाई जी की सलाह उचित है , खयाल कीजियेगा

Comment by Samar kabeer on August 10, 2017 at 6:31pm
जनाब सुरेन्द्र इंसान जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के ऊला मिसरे को यूँ कर सकते हैं :-
'ज़िन्दगी,जी तो भर गया कब का'
Comment by नाथ सोनांचली on August 10, 2017 at 1:16pm
आदरणीय सुरेंद्र इंसान जी सादर अभिवादन, बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र लाजवाब । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन सुझाव देंगे ।
Comment by Ravi Shukla on August 10, 2017 at 12:30pm

आदरणीय सुरेंद्र इंसान जी बहुज बढि़या गजल कही आपने मुबारक बाद  गजल का मक्‍ता बहुत ही अच्‍छा हुआ है दाद हाजिर है मतले के उला मिसरे में जी शब्‍द कीमात्रा गिराने से लय कुछ बाधित लगी । देखियेगा कोई विकल्‍प हो तो । सादर

Comment by Mohammed Arif on August 10, 2017 at 11:26am
आदरणीय सुरेंद्र इंसान जी आदाब, बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र लाजवाब । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन सुझाव देंगे ।

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