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ग़ज़ल -तब अलग थी, अब जवानी और है ( गिरिराज भंडारी )

ग़ालिब साहब की ज़मीन पर एक प्रयास

तब अलग थी, अब जवानी और है

2122   2122    212  --

शक्ल में जिनकी कहानी और है

क्या उन्होनें मन मे ठानी और है

 

लफ़्ज़ तो वो ही पुराना है मगर

आज फिर क्यों निकला मअनी और है

 

हाथ में पत्थर है, लब खंज़र हुये

तब अलग थी, अब जवानी और है

 

है समंदर की सतह पर यूँ सुकूत

पर दबी अब सरगिरानी और है

 

साजिशें सारी पस ए परदा हुईं

पर अयाँ जो है ज़बानी,.. और है  

 

बात सारी दोस्ती की कर रहे  
पर अमल की कुछ बयानी और है

 

अब हक़ीकत है यहाँ बदली हुई

अब उधर की भी कहानी और है
******************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment

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Comment by Samar kabeer on October 2, 2016 at 4:38pm
'मआनी'का एक वचन है 'मा'ना'और एक शब्द है जो प्रचलन में आ गया है,"मानी" अगर प्रचलन वाले से कम चलता हो तो मिसरा यूँ होगा:-
'आज ये लगता है मानी और है'आप फैसला कीजिये ।

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Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 4:17pm

आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।

मआनी का एक वचन क्या होगा ? या फिर कुछ और सोचा जाये बताइयेगा ।
हक़ बयानी  अगर सही है तो मुझे स्वीकार है , आ. रवि भाई से मैने भी प्रश्न किया है , देखिये क्या जवाब आता है ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 4:13pm

अदरनीय रवि भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

//काफिया कही दबता हुआ सा लग रहा है //   आदरणीय , गलत है कहें तो सुधार कर सकता हूँ , आपकी इन  शंका का जवाब क्या होना चाहिये मै समझ नही पा रहा हूँ । आपके पास कोई हल हो तो अवश्य बतायें ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 4:10pm

आदरणीय बृजेश भाई , गज़ल की सराहना और उत्साहवर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।

Comment by Samar kabeer on October 2, 2016 at 4:09pm
जनाब गिरराज भंडारी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे शैर में 'मआनी'बहु वचन है, देखियेग ।
जनाब रवि जी सही फ़रमा रहे हैं,'कुछ बयानी'की जगह "हक़् बयानी"ज़ियादा मुनासिब होगा,क्या कहते हैं रवि भाई ?
Comment by Ravi Shukla on October 2, 2016 at 3:54pm
आदरणीय गिरिराज भाई जी छोटी बह्र में सुन्दर अशारहे है बहुत बहुत बधाई इस ग़ज़ल के लिए ।एक निवेदन अवश्य है सेकेण्ड लास्ट शेर में "पर अमल की कुछ बयानी और है", और है रदीफ़ के साथ यहाँ कुछ शब्द से बयानी काफिया कही दबता हुआ सा लग रहा है।सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 2, 2016 at 2:44pm

हाथ में पत्थर है, लब खंज़र हुये

तब अलग थी, अब जवानी और है.....वाहह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल


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Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 12:34pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 12:33pm

आदरणीय आशीष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 2, 2016 at 11:08am

आ० अनुज , बहुत बढ़िया गजल . आपको बधाई . सादर

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