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सावन गीत (उल्लाला छंद)/सतविन्द्र कुमार

क्यों अब तक सोये पड़े, सुनों पवन संगीत जी
झम झम झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।

उमस बढ़ी जब जोर से,जिस्म पसीना सालता
दम घुट-घुट कर आ रहा,मुश्किल में ये डालता
राहत औ ठंडक मिले,सो बरखा से प्रीत जी
झम झम झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।

धान-कटोरा सूखता,बिन पानी के मेल से
कृषक सभी उकता गए,लुक-छिप के इस खेल से
बादल अब जाओ बरस,करो नहीं भयभीत जी
झम झम झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।

सावन भी यह टीसता, बिन बरखा के साथ के
अब तक झूल पड़ी नहीं,बिन प्रीतम के हाथ के
बरसे सावन झूम के,गाएं मंगल गीत जी
झम-झम-झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।

आया सावन झूम के,बरसे बादल जोर से
शीतलता अब छा रही,मनवा नाचें मोर-से
खुशियों में उत्सव मनें,यही जगत की रीत जी
झम-झम-झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।।

मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 17, 2016 at 3:38pm
आभार आदरणीया कल्पना दीदी।सादर न्Mन्
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 17, 2016 at 9:59am
बहुत सुन्दर रचना । हार्दिक बधाई आदरणीय।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 12, 2016 at 9:15pm
आदरणीय केवल प्रसाद् जी, उल्लाला छ्न्द पर शायद यह प्रथम या द्वितीय प्रयास ही था।इसे समीक्षार्थ ही पोस्ट किया था।पर टिप्पणी या समीक्षा से यह अबतक महरूम ही रहा।आपकी इस पर दृष्टि पड़ी,तो यह प्रयास सार्थक हुआ।अनुमोदन,प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन के लिए आभार।आपके सुझाव के अनुसार समय देने का भरपूर प्रयत्न करूँगा।सादर नमन
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 11, 2016 at 5:24pm

बड़ा आश्चर्य है. . ? 230 में एक भी टिप्पणी नही. . ?

आ0 सतविंद्र भाई जी,   इस गीत में भाव समृद्ध हैं।  हाँ !  अभी इस गीत को और समय देने की जरूरत है।   लगता है आपने इसे बहुत जल्दी में पोस्ट कर दिया है।  सादर

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