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ग़ज़ल - कैसे कोई ख़ुश रहे जब दिल ही में आज़ार हो तो

2122 2122 2122 2122

इक भी आंसू क्यों गिरे जब आंख शोला-बार हो तो
कैसे कोई ख़ुश रहे जब दिल ही में आज़ार हो तो

आपसे है जंग तो मंज़ूर है ये सरफ़रोशी
क्या करें जब आपके ही हाथ में तलवार हो तो

लग रही है ज़िंदगी भी कुछ दिनों से अजनबी सी
लौट आना तुमको मुझसे थोड़ा सा भी प्यार हो तो

क्या किसी के सामने अब राज़े-ज़ख़्मे-पिन्हां खोलें
आपका ग़म-ख़्वार ही जब दुश्मनों का यार हो तो

तूने गरचे तोड़ डाले सारे नाते एक पल में
एक वहशी को तिरा गर आज भी इंतिज़ार हो तो?

© मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 10, 2021 at 9:28am

बढ़िया ग़ज़ल कही भाई यमित जी...आदरणीय कबीर साहब की इस्लाह हमेशा कुछ सिखाती है।मुझे '"तो" शब्द भर्ती का लग रहा है।इसके बगैर ग़ज़ल में रवानगी अच्छी आएगी।

Comment by Samar kabeer on September 30, 2021 at 3:50pm

जनाब यमित पुनेठा जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें I 

'इक भी आंसू क्यों गिरे जब आंख शोला-बार हो तो
कैसे कोई ख़ुश रहे जब दिल ही में आज़ार हो तो'

मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ग़ौौर करें I 

'क्या किसी के सामने अब राज़े-ज़ख़्मे-पिन्हां खोलें
आपका ग़म-ख़्वार ही जब दुश्मनों का यार हो तो'

इस शैर के सानी मिसरे में 'आपका  की जगह 'अपना' शब्द चाहिए, इस हिसाब से मिसरा बदलने का प्रयास करें I 

'एक वहशी को तिरा गर आज भी इंतिज़ार हो तो'

ये मिसरा बह्र में नहीं है, देखिएगा I 

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