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हैं मुन्तज़िर मेरे अहबाब देखने के लिए ।
जमीं पे उतरेगा महताब देखने के लिए ।।1

न जाने कैसा नशा है तुम्हारी सूरत में ।
सुना है रिन्द हैं बेताब देखने के लिए ।।2

तू अपनी तिश्नगी पे यार आज काबू रख ।
मिलेंगे और भी ज़हराब देखने के लिए ।।3

बहेंगे आप भी दरिया ए अश्क़ में इक दिन ।
अगर यूँ आएंगे शैलाब देखने के लिए ।।4

कुछ इस तरह से ख़ुदा ने नसीब बख़्शा है ।
हमें मिला ही नहीं ख़्वाब देखने के लिए ।।5

वहीं पे आग लगाई है इस ज़माने ने ।
चमन जहाँ भी था शादाब देखने के लिए ।।6

उसे है फ़िक्र कहाँ मेरी रूह की यारो ।
वो आ रहा मेरा असबाब देखने के लिए ।।7

मौलिक अप्रकाशित
-- नवीन मणि त्रिपाठी


 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 1, 2021 at 7:52am

आ. भाई नवीन जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई। 

Comment by Naveen Mani Tripathi on August 31, 2021 at 12:39pm
आ0 मोहतरम उस्ताद समर कबीर साहब तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया । आपकी इस्लाह अत्यंत महत्वपूर्ण है सर । सादर नमन।
Comment by Naveen Mani Tripathi on August 31, 2021 at 12:38pm
आ0 मोहतरम उस्ताद समर कबीर साहब तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया । आपकी इस्लाह अत्यंत महत्वपूर्ण है सर । सादर नमन।
Comment by Samar kabeer on August 30, 2021 at 6:37pm

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'कुछ इस तरह से ख़ुदा ने नसीब बख़्शा है'

इस मिसरे में 'से' की जगह "का" शब्द उचित होगा ।

कुछ टंकण त्रुटियाँ सुधार लें:-

अश्क़--"अश्क"

शैलाब--"सैलाब"

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