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राजन तुम्हें पता - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२


छलकी बहुत शराब क्यों राजन तुम्हें पता
उसका नहीं हिसाब क्यों राजन तुम्हें पता।१।
**
हालत वतन के पेट की कब से खराब है
देते नहीं जुलाब क्यों राजन तुम्हें पता।२।
**
हम ही हुए हैं गलमोहर इस गम की आँच से
बाँकी हुए गुलाब क्यों राजन तुम्हें पता।३।
**
हर झूठ सागरों सा है इस काल में मगर
सच ही हुआ हुबाब क्यों राजन तुम्हें पता।४।
**
सुनते थे इन का ठौर तो बस रेगज़ार में
सहरा में भी सराब क्यों राजन तुम्हें पता।५।
**
बदला नहीं हैं क्यों भला शासन ये पूछते
देते नहीं जवाब क्यों राजन तुम्हें पता।६।


मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 5, 2020 at 1:05pm

आ. भाई समर कबीर जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति के लिए आभार । मैंने इसमें क़वाफी "अ" लिया है । यदि त्रुटि हो तो मार्गदर्शन करें । सादर...

Comment by Samar kabeer on June 5, 2020 at 12:37pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, भाई, इस ग़ज़ल में क़वाफ़ी क्या लिए हैं आपने? ज़रा देखिये तो ।

Comment by TEJ VEER SINGH on June 5, 2020 at 12:34pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। बेहतरीन गज़ल।

फूलों की साँस फूलती थोड़ी सी धूप में
काँटे नहीं हताश क्यों राजन तुम्हें पता।५।

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