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स्मृतियाँ आजकल

आए-गए अचानक

कांच के टुकड़ों-सी

बिखरी

चुभती

छोटी-से-छोटी घटना भी

हिलोर देती है हृदय-तल को

हँसी डूब जाती है

नई सृष्टि ...

नए संबंध आते हैं

पर अब दिन का प्रकाश

सहा नहीं जाता

सूर्योदय से पहले ही जैसे

हम बुला लेते हैं शाम

मंडराते रह जाते हैं पतंगों की तरह

प्यार के कुछ शब्द

धुंधले वातावरण में भीतर

नए प्यार के आकार की रेखाएँ

स्पष्ट नहीं होतीं

उसकी ध्वनियों के अर्थ

इकठ्ठे नहीं हो पाते

हर नए वर्तमान में

आश्वासन खोजते

पलती है एक और वेदना

अदृश्य हो जाता है प्यार

रह जाता है  एक और रिश्ते का  खंडहर 

               ------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on July 16, 2019 at 10:07pm

सराहना के लिए हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी। सुझाव के लिए भी धन्यवाद। सही कर रहा हूँ।

Comment by Samar kabeer on July 11, 2019 at 2:32pm

प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,आपकी कविता हमेशा की तरह बहुत उम्द: और शानदार है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'आजकल इन दिनों 

कांच के टुकड़ों-सी

बिखरी'

पहली पंक्ति में 'आजकल इन दिनों' में से कोई एक ही रखना उचित होगा,'आजकल' कहें या 'इन दिनों' बात एक ही है,ग़ौर करें ।

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"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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