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चन्दन सा महका कर मन को बरसे काले मेह

चन्दन सा महका कर मन को बरसे काले मेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

हर आहट के धोखे ने

मुझको तहस-नहस कर डाला

सूनी वेदी पर खड़ी रही मैं

लिए हाथ में वर की माला

आएगा कि नहीं? हृदय में

उठते सौ संदेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

प्यास प्रेम की वो पहचाने

जो रोम-रोम से प्यासा हो

नट-नागर से कहीं अधिक

जो, राधा सा दीवाना हो

रक्त-शिरा में जिसके

बहता निर्मल स्नेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

प्रियतम नेह झलकती आँखें

सम्मोहित कर जाती हैं

तृप्ति मिले जो उनको मुझसे

सौ बार मिटूँ समझाती हैं

इस कारण ही हुई सखी मैं

तज कर देह, विदेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

रिम-झिम-रिम-झिम बूँद-बूँद

रोम-रोम हर्षाती है

बरखवाली मृदुल बयार भी  

तन-मन को दहकाती है  

अंक सिमट घुल जाऊँगी-मैं,

पाकर उनकी गेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

मौलिक एवं अप्रकाशित

sudhendu ojha

 

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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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