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Vindu Babu's Comments
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haradik aabhar adrneeya
प्रेम ही तो जगत का सृजनहार है. कविता का सारा निचोड़ इस पंक्ति समाहित है. वंदना जी .अति सुंदर
JI dhanayabad
आपने मुझको मित्र मान कर मान दिया है।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
//मैं श्रमित
जिन्दगी की जद्दोजहद से व्यथित
चली जा रही थी//
//सुनकर हृदय मेरा मचला और बोला-//
भाई केवल प्रसाद की बात पर ध्यान दें और रचना में यथोचित संशोधन कर दे तो कविता में और निखार आ जाएगा।
वन्दना जी, नमस्कार! आपकी ‘सुखद छाॅव‘ कविता बहुत अच्छी है! किन्तु लिंग भेद होने से ऐसा लगरहा रै कि दो कविताएं जोड़ दी गई हैं! फिर से पढ़ लें!
अतिसुन्दर वंदना जी ! वैसे तो माँ की महत्ता को शब्दों में बांध पाना असंभव है किन्तु आपका प्रयास सराहनीय है।
आपने मुझे मित्रता योग्य समझा इसके लिए आपका आभार!
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