ग्रजल की कक्षा में आपके लेख पढ़ रहा हूॅं बहुत सी जानकारी मिली आभार
10 आलेख के बाद मुझे और पोस्ट दिखाई नही दी
क्या वे कक्षा में उपलब्ध है या नही
और भी जानकारी चाहता हॅूं क्योंकि बह्र के बारे में अभी भी मैं मुतमईन नहीं हूँ इसकी मुझे और जानने की जरूरत है । साथ ही कुछ आलेख में आपने जुज आदि का भी जिक्र किया था उसके बारे में भी जानना है । आशा है मार्ग दर्शन मिलेगा तो शौक को सहारा मिलेगा ।
आदरणीय तिलक राज जी आप वे जानकारी मुझे भी भेजने का कष्ट करें तो बडी मेहरबानी होगी जो जानकारी आपने आदरणीय मिथिलेश जी को भेजने की बात की है! सादर!
मेरी ई मेल आई डी है
" panchal92rahul@gmail.com"
आपने कहा था!
"मिथिलेश जी
आप अपना ई-मेल आई डी मुझे भेज दें। मैं आपको एकजाई सभी बह्र और उनकी मुज़ाहिफ़ शक्लें भेज देता हूँ। "
आदरणीय तिलक राज जी , नमस्कार -ये आपसे मेरे प्रथम परिचय है - सर ग़ज़ल विधा में मात्राओं का वर्गीकरण मेरी समझ में नहीं आ रहा - ग़ज़ल लिखता हूँ लेकिन मात्रा भार में पिछड़ जाता हूँ - हिन्दी में लघु और गुरु समझ में आती है लेकिन ग़ज़ल में ?? आपसे अनुरोध है की मेरी प्रेषित ग़ज़ल जो निम्न प्रकार से है उसकी मात्रा/अरकान से समझा देंगे तो आपकी कृपा होगी -
आबाद हैं तन्हाईयाँ ..तेरी यादों की महक से वो गयी न ज़बीं से .मैंने देखा बहुत बहक के कब तलक रोकें भला बेशर्मी बहते अश्कों की छुप सके न तीरगी में अक्स उनकी महक के सुर्ख आँखें कह रही हैं ....बेकरारी इंतज़ार की लो आरिज़ों पे रुक गए ..छुपे दर्द यूँ पलक के ज़िंदा हैं हम अब तलक..... आप ही के वास्ते रूह वरना जानती है ......सब रास्ते फलक के बस गया है नफ़स में ....अहसास वो आपका देखा न एक बार भी ......आपने हमें पलट के सुशील सरना मौलिक एवं अप्रकाशित
परम आदरणीय निकोर एवं कपूर साहेब ........दरअसल आपने मुझे अपने अनुगृहीत किया अपनी जमात में जगह देकर / आपका आशीर्वाद बना रहे , यही एक छोटी सी चाहत है/ श्रधा के साथ
परम आदरणीय निकोर एवं कपूर साहेब ........दरअसल आपने मुझे अपने अनुगृहीत किया अपनी जमात में जगह देकर / आपका आशीर्वाद बना रहे , यही एक छोटी सी चाहत है/ श्रधा के साथ
मैं वीनसभाई जी की बातों से इत्तफ़ाक रखता हूँ. इस थ्रेड पर इस विषय से सम्बन्धित यह मेरी यह आखिरी पोस्ट होगी.
बहुत अच्छा किया आशीष भाईजी जो आपने दो श्लोक प्रस्तुत किये. और अधिक दे सकते थे. निर्वाणषटकम् मेरा पसंदीदा नियमित श्लोक है तथ पंचचामर छंद का कमाल रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्र में मुखर रूप से हुआ है. जो स्वयं में अति प्रसिद्ध रचना है. मैं जिस कारण भाई आशीष जी से संस्कृत श्लोक मांगा था उसका हेतु स्पष्ट हुआ. वह यह कि संस्कृत के पद्य नियम जस के तस हिन्दी में उद्धृत नहीं होते.
हमें हिन्दी या हिन्दवी के जन्म को पहले समझना होगा. इसके विकास में आंचलिक भाषाओं का सहयोग सर्वोपरि हुआ. आंचलिक भाषाओं की शब्दावलियों के प्रकार और उनकी विशेषताएँ हिन्दी का ढांचा बनीं. संस्कृत के शब्द और उनकी मात्राएँ आंचलिकता के हिसाब से सरल हुईं. अब हिन्दी छंदों और पदों के लिये संस्कृत के तत्संबन्धी नियम लगे और आंचलिक भाषाओं का ढाँचा बना. इस कारण संयुक्ताक्षर में महती बदलाव आया. हिन्दी में दो शब्दों की या एक सीमा तक संधियाँ स्वीकार्य हुईं लेकिन चर्णों की संधियाँ नहीं चलीं जोकि संस्कृत के पद के चरणों की विशेषता हुआ करती है. जिसे आशीष भाई जी ने उदाहरण सदृश रखा है,
आदरणीय आशीष जी आपने जो श्लोक प्रेषित किये हैं उनसे ये स्पष्ट हो रहा है के ऐसा तभी किया जाता है जब दोनों शब्द एक दूसरे से जुड़े हुए हों अन्यथा ऐसा करना संभव और यथोचित भी नहीं जान पड़ता है जैसे आपने उदाहरण लिया है वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबन्धकन्धरम् आप रूचि के चि को दीर्घ इसीलिए कर पा रहे हैं क्यूंकि ये शब्द न केवल प्रबन्ध से जुड़ा हुआ है अपितु उसके साथ ही उच्चारित भी हो रहा है यदि रूचि को प्रथक पढ़ें तो इस प्रवाहमयी छंद का प्रवाह समाप्त हो जायेगा उसमे अटकाव आने लगेगा ये छंद मेरा भी प्रिय छंद है इसको जब पहले पढना प्रारंभ किया तो बहुत दिक्कत आई किन्तु जब छंद का विधान के अनुसार पढ़ा तो ये बहुत लयबद्ध और प्रवाह भरा स्तोत्र लगा
निश्चित तौर पर --- आदि शंकराचार्य कृत निर्वाण षट्कम देखें----
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश: न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव: न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा: अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेद: पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् न चासंगतं नैव मुक्तिर् न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
इसके सभी पंक्ति की मात्रा क्रम १२२ है जो कि बहरे मुतकारिब है। और देख सकते है की किस तरह से एक पदस्थ नही होते हुए भी कइ अलग अक्षर दीर्घ हुए है । साथ ही साथ रावण कृत शिव ताण्डव स्त्रोतम् के इस श्लोक को देखें
प्रफुल्लनीळपंकजप्रपञ्चकालिमप्रभा –
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचि – प्रबन्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमकच्छिदं भजे ।।
यहाँ दूसरी पंक्ति मे " रुचि" का "चि" दीर्घ है क्योकि उसके बाद " प्र" संयुक्ताक्षर है। पूरे शिव ताण्डव स्त्रोतम् मे अन्य उदाहरण देख सकते है। यहाँ यह बात बताना जरूरी है कि संस्कृत के अधिकाशं श्लोक वार्णिक छंद हैं इसलिये उदाहरण उसी मे से खोजे जायें जो श्लोक मात्रिक छंद के हो।
यह बात भी बताना जरुरी है कि अरविन्द आश्रम के जिस पुस्तक ( छान्दस ) के आधार पर मैने यह बात लिखी है उसमे मात्र इतनी बात लिखी है कि " संयुक्ताक्षर से पहले का अक्षर दीर्घ हो जाता है "। उस पुस्तकमे भी आगे पीछे का बात नहीं है। मतलब उच्चारण के हिसाब से भी देखा जाए और उपर के उदाहरण को भी देखा जाए तो यह पता चलता है कि " यह प्रेम" का मात्रा क्रम --- लघु-दीर्घ-दीर्घ-लघु होगा।
अब इसके आगे अन्य गुणीजनों से हमे अपेक्षा है कि वे इस बात को एक निश्चित लक्ष्य तक पहुचाँयेगे।
भाई आशीष जी द्वारा दिया गया कथ्य छंद की मात्राओं की गिनती में उलट-पलट कर देगा, ऐसा मैं समझता हूँ. जबतक संयुक्ताक्षर शब्द न हों ऐसी गिनतियाँ नहीं हुआ करती.
इसके बावज़ूद् ऐसे श्लोक हों जिनके माध्यम से भाई आशीष जी अपनी बात स्पष्ट कर सकते हों तो भाई गणेशजी ने उचित ही कहा है कि ऐसे श्लोक उपलब्ध उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये जायँ. हमसभी समवेत लाभान्वित होंगे.
संस्कृत में यदि दो शब्द हो और पहले शब्द का अंतिम अक्षर लघु हो तथा दूसरे शब्द का पहला अक्षर संयुक्ताक्षर हो तो पहले शब्द का अंतिम लघु भी दीर्घ हो जाता हैं। जैसे -----
यह प्रेम
इस दो शब्द का मात्रा क्रम संस्कृत के हिसाब से लघु-दीर्घ-दीर्घ-लघु है। बहुतेरे श्लोकों से यह प्रमाणित की जा सकती है।
एकपदस्थ शब्द में तो यह है ही-- जैसे
सत्य इसमे स दीर्घ हुआ ( त् के कारण) और य लघु हुआ मतलब इसका मात्रा है ्- दीर्घ-लघु
एक रुक्न देखें मफ्ऊलात 2221 जिसके अंत में लघु ही आ सकता है।
आदरणीय तिलक जी, मेरी जानकारी अनुसार फाईलातु (२२२१) रुक्न की मुफरद सालिम सूरत नहीं होती है अर्थात २२२१ २२२१ २२२१ २२२१ पर ग़ज़ल कह्मे पर यह अरूज़नुआर अमान्य अरकान है मुफरद मुजाहिफ, मुरक्कब सालिम और मुरक्कब मुजाहिफ होती है और इन सभी अरकान में से किसी का अंत लघु से नहीं होता है ऐसा कोई अरकान (बहर) नहीं होता है जो लघु से समाप्त होता हो (मैं रुक्न की बात नहीं कर रहा हूँ)
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
Tilak Raj Kapoor's Comments
Comment Wall (36 comments)
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आदरणीय, सादर अभिवादन ! जन्म-दिन पर सहृदय शुभ कामनाएँ !
सदस्य कार्यकारिणीमिथिलेश वामनकर said…
ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार की ओर से आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें....
आदरणीय तिलक जी
सादर प्रणाम
ग्रजल की कक्षा में आपके लेख पढ़ रहा हूॅं बहुत सी जानकारी मिली आभार
10 आलेख के बाद मुझे और पोस्ट दिखाई नही दी
क्या वे कक्षा में उपलब्ध है या नही
और भी जानकारी चाहता हॅूं क्योंकि बह्र के बारे में अभी भी मैं मुतमईन नहीं हूँ इसकी मुझे और जानने की जरूरत है । साथ ही कुछ आलेख में आपने जुज आदि का भी जिक्र किया था उसके बारे में भी जानना है । आशा है मार्ग दर्शन मिलेगा तो शौक को सहारा मिलेगा ।
सादर ।
मेरी ई मेल आई डी है
" panchal92rahul@gmail.com"
आपने कहा था!
"मिथिलेश जी
आप अपना ई-मेल आई डी मुझे भेज दें। मैं आपको एकजाई सभी बह्र और उनकी मुज़ाहिफ़ शक्लें भेज देता हूँ। "
सदस्य टीम प्रबंधनRana Pratap Singh said…
आदरणीय तिलक राज जी , नमस्कार -ये आपसे मेरे प्रथम परिचय है - सर ग़ज़ल विधा में मात्राओं का वर्गीकरण मेरी समझ में नहीं आ रहा - ग़ज़ल लिखता हूँ लेकिन मात्रा भार में पिछड़ जाता हूँ - हिन्दी में लघु और गुरु समझ में आती है लेकिन ग़ज़ल में ?? आपसे अनुरोध है की मेरी प्रेषित ग़ज़ल जो निम्न प्रकार से है उसकी मात्रा/अरकान से समझा देंगे तो आपकी कृपा होगी -
आबाद हैं तन्हाईयाँ ..तेरी यादों की महक से
वो गयी न ज़बीं से .मैंने देखा बहुत बहक के
कब तलक रोकें भला बेशर्मी बहते अश्कों की
छुप सके न तीरगी में अक्स उनकी महक के
सुर्ख आँखें कह रही हैं ....बेकरारी इंतज़ार की
लो आरिज़ों पे रुक गए ..छुपे दर्द यूँ पलक के
ज़िंदा हैं हम अब तलक..... आप ही के वास्ते
रूह वरना जानती है ......सब रास्ते फलक के
बस गया है नफ़स में ....अहसास वो आपका
देखा न एक बार भी ......आपने हमें पलट के
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
हार्दिक स्वागत और सादर प्रणाम आदरणीय ! स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हो यही कामना है !!
जन्म दिन की हार्दिक शुभ कामनाए | प्रभु आपको नए आयाम स्थापित करने दिनोदिन प्रगति का
मार्ग प्रशस्त करने में सक्षमता प्रदान करे |
परम आदरणीय निकोर एवं कपूर साहेब ........दरअसल आपने मुझे अपने अनुगृहीत किया अपनी जमात में जगह देकर / आपका आशीर्वाद बना रहे , यही एक छोटी सी चाहत है/ श्रधा के साथ
परम आदरणीय निकोर एवं कपूर साहेब ........दरअसल आपने मुझे अपने अनुगृहीत किया अपनी जमात में जगह देकर / आपका आशीर्वाद बना रहे , यही एक छोटी सी चाहत है/ श्रधा के साथ
सदस्य टीम प्रबंधनSaurabh Pandey said…
मैं वीनसभाई जी की बातों से इत्तफ़ाक रखता हूँ. इस थ्रेड पर इस विषय से सम्बन्धित यह मेरी यह आखिरी पोस्ट होगी.
बहुत अच्छा किया आशीष भाईजी जो आपने दो श्लोक प्रस्तुत किये. और अधिक दे सकते थे. निर्वाणषटकम् मेरा पसंदीदा नियमित श्लोक है तथ पंचचामर छंद का कमाल रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्र में मुखर रूप से हुआ है. जो स्वयं में अति प्रसिद्ध रचना है. मैं जिस कारण भाई आशीष जी से संस्कृत श्लोक मांगा था उसका हेतु स्पष्ट हुआ. वह यह कि संस्कृत के पद्य नियम जस के तस हिन्दी में उद्धृत नहीं होते.
हमें हिन्दी या हिन्दवी के जन्म को पहले समझना होगा. इसके विकास में आंचलिक भाषाओं का सहयोग सर्वोपरि हुआ. आंचलिक भाषाओं की शब्दावलियों के प्रकार और उनकी विशेषताएँ हिन्दी का ढांचा बनीं. संस्कृत के शब्द और उनकी मात्राएँ आंचलिकता के हिसाब से सरल हुईं. अब हिन्दी छंदों और पदों के लिये संस्कृत के तत्संबन्धी नियम लगे और आंचलिक भाषाओं का ढाँचा बना.
इस कारण संयुक्ताक्षर में महती बदलाव आया. हिन्दी में दो शब्दों की या एक सीमा तक संधियाँ स्वीकार्य हुईं लेकिन चर्णों की संधियाँ नहीं चलीं जोकि संस्कृत के पद के चरणों की विशेषता हुआ करती है. जिसे आशीष भाई जी ने उदाहरण सदृश रखा है,
हार्दिक धन्यवाद
ashish ji se nivedan hai ki is charcha ko tilak ji ki wall par n karen nahi to any log bhvishy men iska fatda nahi utha sakenge
nivedan hai ki hindi chhnad samooh men is chrcha ko naye sire se shuru karen
आदरणीय आशीष जी आपने जो श्लोक प्रेषित किये हैं उनसे ये स्पष्ट हो रहा है के ऐसा तभी किया जाता है जब दोनों शब्द एक दूसरे से जुड़े हुए हों अन्यथा ऐसा करना संभव और यथोचित भी नहीं जान पड़ता है
जैसे आपने उदाहरण लिया है
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबन्धकन्धरम्
आप रूचि के चि को दीर्घ इसीलिए कर पा रहे हैं क्यूंकि ये शब्द न केवल प्रबन्ध से जुड़ा हुआ है
अपितु उसके साथ ही उच्चारित भी हो रहा है
यदि रूचि को प्रथक पढ़ें तो इस प्रवाहमयी छंद का प्रवाह समाप्त हो जायेगा
उसमे अटकाव आने लगेगा
ये छंद मेरा भी प्रिय छंद है
इसको जब पहले पढना प्रारंभ किया तो बहुत दिक्कत आई
किन्तु जब छंद का विधान के अनुसार पढ़ा तो ये बहुत लयबद्ध और प्रवाह भरा स्तोत्र लगा
निश्चित तौर पर --- आदि शंकराचार्य कृत निर्वाण षट्कम देखें----
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेद: पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव मुक्तिर् न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
इसके सभी पंक्ति की मात्रा क्रम १२२ है जो कि बहरे मुतकारिब है। और देख सकते है की किस तरह से एक पदस्थ नही होते हुए भी कइ अलग अक्षर दीर्घ हुए है । साथ ही साथ रावण कृत शिव ताण्डव स्त्रोतम् के इस श्लोक को देखें
प्रफुल्लनीळपंकजप्रपञ्चकालिमप्रभा –
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचि – प्रबन्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमकच्छिदं भजे ।।
यहाँ दूसरी पंक्ति मे " रुचि" का "चि" दीर्घ है क्योकि उसके बाद " प्र" संयुक्ताक्षर है। पूरे शिव ताण्डव स्त्रोतम् मे अन्य उदाहरण देख सकते है। यहाँ यह बात बताना जरूरी है कि संस्कृत के अधिकाशं श्लोक वार्णिक छंद हैं इसलिये उदाहरण उसी मे से खोजे जायें जो श्लोक मात्रिक छंद के हो।
यह बात भी बताना जरुरी है कि अरविन्द आश्रम के जिस पुस्तक ( छान्दस ) के आधार पर मैने यह बात लिखी है उसमे मात्र इतनी बात लिखी है कि " संयुक्ताक्षर से पहले का अक्षर दीर्घ हो जाता है "। उस पुस्तकमे भी आगे पीछे का बात नहीं है। मतलब उच्चारण के हिसाब से भी देखा जाए और उपर के उदाहरण को भी देखा जाए तो यह पता चलता है कि " यह प्रेम" का मात्रा क्रम --- लघु-दीर्घ-दीर्घ-लघु होगा।
अब इसके आगे अन्य गुणीजनों से हमे अपेक्षा है कि वे इस बात को एक निश्चित लक्ष्य तक पहुचाँयेगे।
सदस्य टीम प्रबंधनSaurabh Pandey said…
भाई आशीष जी द्वारा दिया गया कथ्य छंद की मात्राओं की गिनती में उलट-पलट कर देगा, ऐसा मैं समझता हूँ. जबतक संयुक्ताक्षर शब्द न हों ऐसी गिनतियाँ नहीं हुआ करती.
इसके बावज़ूद् ऐसे श्लोक हों जिनके माध्यम से भाई आशीष जी अपनी बात स्पष्ट कर सकते हों तो भाई गणेशजी ने उचित ही कहा है कि ऐसे श्लोक उपलब्ध उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये जायँ. हमसभी समवेत लाभान्वित होंगे.
संस्कृत में यदि दो शब्द हो और पहले शब्द का अंतिम अक्षर लघु हो तथा दूसरे शब्द का पहला अक्षर संयुक्ताक्षर हो तो पहले शब्द का अंतिम लघु भी दीर्घ हो जाता हैं। जैसे -----
यह प्रेम
इस दो शब्द का मात्रा क्रम संस्कृत के हिसाब से लघु-दीर्घ-दीर्घ-लघु है। बहुतेरे श्लोकों से यह प्रमाणित की जा सकती है।
एकपदस्थ शब्द में तो यह है ही-- जैसे
सत्य इसमे स दीर्घ हुआ ( त् के कारण) और य लघु हुआ मतलब इसका मात्रा है ्- दीर्घ-लघु
तिलक से स्वागत हो राज गर मिल गया
मधु से झूमता दोस्त जैसे गल हार मिल गया
एक रुक्न देखें मफ्ऊलात 2221 जिसके अंत में लघु ही आ सकता है।
आदरणीय तिलक जी,
मेरी जानकारी अनुसार फाईलातु (२२२१) रुक्न की मुफरद सालिम सूरत नहीं होती है
अर्थात २२२१ २२२१ २२२१ २२२१ पर ग़ज़ल कह्मे पर यह अरूज़नुआर अमान्य अरकान है
मुफरद मुजाहिफ, मुरक्कब सालिम और मुरक्कब मुजाहिफ होती है और इन सभी अरकान में से किसी का अंत लघु से नहीं होता है
ऐसा कोई अरकान (बहर) नहीं होता है जो लघु से समाप्त होता हो (मैं रुक्न की बात नहीं कर रहा हूँ)
सादर
आदरणीय तिलक राज जी ...जन्म दिन की हार्दिक बधाई ..प्रभु सब मंगल करें आप उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर बढ़ें सूर्य से दमकें और इस समाज को रोशन करें
saadar pranaam sir ji wandan hai aapka
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आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
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