Comments - बशीर बद्र साहब की जमीन पर एक तरही ग़ज़ल - Open Books Online2024-03-29T10:52:07Zhttp://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A891918&xn_auth=noआद0 अजय तिवारी जी सादर अभिवाद…tag:openbooks.ning.com,2017-10-30:5170231:Comment:8934442017-10-30T22:42:55.997Zनाथ सोनांचलीhttp://openbooks.ning.com/profile/SurendraNathSingh
आद0 अजय तिवारी जी सादर अभिवादन, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और हौसला आफजाई का हृदय तल से आभार। हम आपकी बात से सौ फीसदी सहमत हैं। सादर
आद0 अजय तिवारी जी सादर अभिवादन, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और हौसला आफजाई का हृदय तल से आभार। हम आपकी बात से सौ फीसदी सहमत हैं। सादर आदरणीय सुरेन्द्र जी,
अच्छी ग़ज़…tag:openbooks.ning.com,2017-10-30:5170231:Comment:8935252017-10-30T19:42:29.121ZAjay Tiwarihttp://openbooks.ning.com/profile/AjayTiwari
<p>आदरणीय सुरेन्द्र जी,</p>
<p>अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.</p>
<p>जहाँ तक मौलिकता की बात है,शेर में एक शब्द का परिवर्तन भी पूरे शेर को बदल कर रख देता है. तरही में तो सिर्फ एक मिसरा किसी और शायर का होता है. सौदा और मीर के कई ऐसे शेर हैं जिन में सिर्फ कुछ शब्दों का फर्क है लेकिन ये देखने कि चीज है कि उन कुछ शब्दों से ही कितना फर्क पड़ जाता है.</p>
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<p>सादर</p>
<p>आदरणीय सुरेन्द्र जी,</p>
<p>अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.</p>
<p>जहाँ तक मौलिकता की बात है,शेर में एक शब्द का परिवर्तन भी पूरे शेर को बदल कर रख देता है. तरही में तो सिर्फ एक मिसरा किसी और शायर का होता है. सौदा और मीर के कई ऐसे शेर हैं जिन में सिर्फ कुछ शब्दों का फर्क है लेकिन ये देखने कि चीज है कि उन कुछ शब्दों से ही कितना फर्क पड़ जाता है.</p>
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<p>सादर</p> आद0 बृजेश कुमार ब्रज जी सादर…tag:openbooks.ning.com,2017-10-30:5170231:Comment:8929672017-10-30T08:18:20.504Zनाथ सोनांचलीhttp://openbooks.ning.com/profile/SurendraNathSingh
आद0 बृजेश कुमार ब्रज जी सादर अभिवादन, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया।सादर
आद0 बृजेश कुमार ब्रज जी सादर अभिवादन, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया।सादर कुछ भी कहिये आदरणीय ग़ज़ल बड़ी ह…tag:openbooks.ning.com,2017-10-29:5170231:Comment:8928452017-10-29T06:06:24.902Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://openbooks.ning.com/profile/brijeshkumar
कुछ भी कहिये आदरणीय ग़ज़ल बड़ी ही उम्दा हुई है..सादर
कुछ भी कहिये आदरणीय ग़ज़ल बड़ी ही उम्दा हुई है..सादर आद0 सौरभ पांडेय जी सादर अभिवा…tag:openbooks.ning.com,2017-10-26:5170231:Comment:8921472017-10-26T21:03:48.675Zनाथ सोनांचलीhttp://openbooks.ning.com/profile/SurendraNathSingh
आद0 सौरभ पांडेय जी सादर अभिवादन। मैंने अगर भावातिरेक में कुछ अनुचित संसोधन लिखा तो मंच से वादा है मेरा, आगे से ऐसा नहीं होगा। सादर।<br/>
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आपके कथन // लेकिन यह सीखने वालों का भावातिरेक ही हुआ करता है कि ’कुछ समझ जाने’ का उत्साह उन्हें बताने वालोंके प्रति आदर-भाव से भर देता है.<br/>
इसी उत्साह में सदस्य श्रद्धा-वंदन करने लगते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है.// से सौ फीसदी सहमत हूँ। सादर। शेष शुभ शुभ<br/>
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ओ बी ओ जिन्दाबाद
आद0 सौरभ पांडेय जी सादर अभिवादन। मैंने अगर भावातिरेक में कुछ अनुचित संसोधन लिखा तो मंच से वादा है मेरा, आगे से ऐसा नहीं होगा। सादर।<br/>
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आपके कथन // लेकिन यह सीखने वालों का भावातिरेक ही हुआ करता है कि ’कुछ समझ जाने’ का उत्साह उन्हें बताने वालोंके प्रति आदर-भाव से भर देता है.<br/>
इसी उत्साह में सदस्य श्रद्धा-वंदन करने लगते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है.// से सौ फीसदी सहमत हूँ। सादर। शेष शुभ शुभ<br/>
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ओ बी ओ जिन्दाबाद आदरणीय समर साहब, आपकी नम्रता…tag:openbooks.ning.com,2017-10-26:5170231:Comment:8922282017-10-26T17:03:13.863ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>आदरणीय समर साहब, आपकी नम्रता का तो मैं कायल हूँ ही, आपके उन सुझावों का भी साक्षी हूँ, जहाँ सीधे, बेलाग शब्दों में आप चेताते रहते हैं, कि अनावश्यक संबोधनों से बचा जाय. लेकिन यह सीखने वालों का भावातिरेक ही हुआ करता है कि ’कुछ समझ जाने’ का उत्साह उन्हें बताने वालोंके प्रति आदर-भाव से भर देता है.</p>
<p>इसी उत्साह में सदस्य श्रद्धा-वंदन करने लगते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है. लेकिन इसी भाव-भावना के कारण, इतिहास ग़वाह है, कई विधाएँ विलुप्त हो गयीं. उस्ताद या गुरु लोग सुपात्र ढूँढते ही रह जाते…</p>
<p>आदरणीय समर साहब, आपकी नम्रता का तो मैं कायल हूँ ही, आपके उन सुझावों का भी साक्षी हूँ, जहाँ सीधे, बेलाग शब्दों में आप चेताते रहते हैं, कि अनावश्यक संबोधनों से बचा जाय. लेकिन यह सीखने वालों का भावातिरेक ही हुआ करता है कि ’कुछ समझ जाने’ का उत्साह उन्हें बताने वालोंके प्रति आदर-भाव से भर देता है.</p>
<p>इसी उत्साह में सदस्य श्रद्धा-वंदन करने लगते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है. लेकिन इसी भाव-भावना के कारण, इतिहास ग़वाह है, कई विधाएँ विलुप्त हो गयीं. उस्ताद या गुरु लोग सुपात्र ढूँढते ही रह जाते हैं.. </p>
<p>होता ये है कि सभी कुछ न कुछ जानते हैं. और सभी से सभी कुछ न कुछ सीख सकते हैं. </p>
<p>मेरी बातों को समर्थन देने केलिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय </p>
<p></p> आदरणीय विद्वजजन और निष्णात ग़ज़…tag:openbooks.ning.com,2017-10-26:5170231:Comment:8920662017-10-26T17:01:25.109ZMohammed Arifhttp://openbooks.ning.com/profile/MohammedArif
<p>आदरणीय विद्वजजन और निष्णात ग़ज़लगो आदाब,<br></br> सुबह से अब तक हुई बहस के संदर्भ में अंतिम वक्तव्य के रूप में कुछ कहना चाहता हूँ :-<br></br> (1) मैं ओबीओ का अतीव सक्रिय सदस्य हूँ और विभिन्न क़लमकर्मियों को निष्पक्ष भाव से अपनी टिप्पणियों से पोषित करने का प्रयास करता हूँ ।<br></br> (2) आदरणीय सुरेंद्रनाथ जी की ग़ज़ल पर सुबह-सुबह जो मैंने टिप्पणी की वह सिर्फ मौलिकता की हिमायत करते हुए की थी । प्रचलित रिवायत को तोड़ने के लिए नहीं । चाहता हूँ रिवायत बरक़रार रहे मगर मौलिकता का भी पुट हो ।<br></br> (3) मैंने हमेशा ओबीओ…</p>
<p>आदरणीय विद्वजजन और निष्णात ग़ज़लगो आदाब,<br/> सुबह से अब तक हुई बहस के संदर्भ में अंतिम वक्तव्य के रूप में कुछ कहना चाहता हूँ :-<br/> (1) मैं ओबीओ का अतीव सक्रिय सदस्य हूँ और विभिन्न क़लमकर्मियों को निष्पक्ष भाव से अपनी टिप्पणियों से पोषित करने का प्रयास करता हूँ ।<br/> (2) आदरणीय सुरेंद्रनाथ जी की ग़ज़ल पर सुबह-सुबह जो मैंने टिप्पणी की वह सिर्फ मौलिकता की हिमायत करते हुए की थी । प्रचलित रिवायत को तोड़ने के लिए नहीं । चाहता हूँ रिवायत बरक़रार रहे मगर मौलिकता का भी पुट हो ।<br/> (3) मैंने हमेशा ओबीओ के मंच अति सक्रियता के साथ संयत भाषा का प्रयोग किया है । उजड्ड या उच्छृंखलता मेरा कतई स्वभाव नहीं रहा है और न रहेगा ।<br/> फिर भी अगर आप गुणीजनों को मेरी टिप्पणी से लगता है कि आपकी भावना आहत हुई है तो मैं खुले दिल और निर्मल भाव से मुआफी चाहता हूँ ।<br/> ओबीओ ज़िन्दाबाद !</p> जी,जनाब सौरभ भाई,मैं अपने तईं…tag:openbooks.ning.com,2017-10-26:5170231:Comment:8921292017-10-26T16:27:40.351ZSamar kabeerhttp://openbooks.ning.com/profile/Samarkabeer
जी,जनाब सौरभ भाई,मैं अपने तईं ये बात लिख कर और ज़बानी बात चीत में समझाता रहा हूँ,कि भाई ओबीओ के पटल पर सब गुरु हैं और सब चेले,आपने अच्छा किया यद् दहानी करवा दी,सहमत हूँ आपसे ।
जी,जनाब सौरभ भाई,मैं अपने तईं ये बात लिख कर और ज़बानी बात चीत में समझाता रहा हूँ,कि भाई ओबीओ के पटल पर सब गुरु हैं और सब चेले,आपने अच्छा किया यद् दहानी करवा दी,सहमत हूँ आपसे । // ये सूचना सो प्रतिशत सही है…tag:openbooks.ning.com,2017-10-26:5170231:Comment:8922262017-10-26T16:05:55.668ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>// <span>ये सूचना सो प्रतिशत सही है,ये मिसरा'न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम ही जाए'साहिब-ए-दीवान शाइर 'नज़्मी'साहिब का है जो उनके दीवान में मौजूद है //</span></p>
<p></p>
<p><span>वल्लाह ! बहुत खूब ! हृदयतल से आदाब और शुक्रिया .. </span></p>
<p><span>मैं वस्तुतः नज़्मी साहब का नाम ही भूल गया था, क्योंकि उनका मक्ता ही याद नहीं था. लाख याद करने की कोशिश करता हुआ भी असफल रहा. फिर ऑफ़िस का काम करते हुए एकदम से टिप्पणी की थी हमने. इसी कारण जानकारी को सही हो या न हो’ कहते हुए अपनी बात कह गया…</span></p>
<p>// <span>ये सूचना सो प्रतिशत सही है,ये मिसरा'न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम ही जाए'साहिब-ए-दीवान शाइर 'नज़्मी'साहिब का है जो उनके दीवान में मौजूद है //</span></p>
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<p><span>वल्लाह ! बहुत खूब ! हृदयतल से आदाब और शुक्रिया .. </span></p>
<p><span>मैं वस्तुतः नज़्मी साहब का नाम ही भूल गया था, क्योंकि उनका मक्ता ही याद नहीं था. लाख याद करने की कोशिश करता हुआ भी असफल रहा. फिर ऑफ़िस का काम करते हुए एकदम से टिप्पणी की थी हमने. इसी कारण जानकारी को सही हो या न हो’ कहते हुए अपनी बात कह गया था. </span></p>
<p><span>स्मरण कराने के लिए आपका सादर धन्यवाद</span></p>
<p><span> </span></p> आदरणीय समर साहब ग़ज़ल विधा के ज…tag:openbooks.ning.com,2017-10-26:5170231:Comment:8920652017-10-26T15:53:22.895ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>आदरणीय समर साहब ग़ज़ल विधा के जानकार हैं लेकिन, आदरणीय सुरेन्द्र कुशक्षत्रप जी, आपने उनको जिस तरह की उपाधियाँ बख़्शी हैं, वो किसी सूरत में ओबीओ की परंपरा के अनुकूल नहीं है.</p>
<p>इस पटल पर गुरु या उस्ताद स्वयं यह पटल ही है और सभी मिलजुल कर एक-दूसरे से सीखते-समझते हैं. भावावेश में आना और कृतज्ञता ज्ञापित करना एक बात है और अतिशयोक्ति में वाचाल हो जाना एकदम से अलहदी बात. </p>
<p></p>
<p>आदरणीय समर साहब हम सभी के अनन्य हैं, आत्मीय हैं. उनकी उस्तादी, आत्मीयता और उनके याराना के हम भी कायल हैं लेकिन…</p>
<p>आदरणीय समर साहब ग़ज़ल विधा के जानकार हैं लेकिन, आदरणीय सुरेन्द्र कुशक्षत्रप जी, आपने उनको जिस तरह की उपाधियाँ बख़्शी हैं, वो किसी सूरत में ओबीओ की परंपरा के अनुकूल नहीं है.</p>
<p>इस पटल पर गुरु या उस्ताद स्वयं यह पटल ही है और सभी मिलजुल कर एक-दूसरे से सीखते-समझते हैं. भावावेश में आना और कृतज्ञता ज्ञापित करना एक बात है और अतिशयोक्ति में वाचाल हो जाना एकदम से अलहदी बात. </p>
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<p>आदरणीय समर साहब हम सभी के अनन्य हैं, आत्मीय हैं. उनकी उस्तादी, आत्मीयता और उनके याराना के हम भी कायल हैं लेकिन ऐसी शब्दावलियों का हम प्रयोग नहीं करते जिसका हम ढंग से निर्वहन न कर पाएँ. इस मंच पर ही गुरुदेव और गुरुवर कहने के लिए उलझ पड़ने वालों की जमात भी हमने झेली है. जिन्हें ऐसा कहने से मना किया जाता था. आखिर में वे ऊल-जुलूल बकते हुए किनारे हो गये. ये कैसा भाव-प्रदर्शन था ? </p>
<p>कहने का अर्थ है स्पष्ट है. आप समझिएगा. ओबीओ की अपनी एक नियमावलि है, अपनी समझ है और अपनी परंपरा है. खेद है, ऐसी बातें समझाने वाले अक्सर सभी एक-एक कर व्यस्तता के घने कोहरे में घिरे हैं. फिर भी.. </p>
<p>सादर</p>